इसी
बीच उनके मोबाइल पर आ गिरी वर्ल्ड इनइक्विलिटी रिपोर्ट, जिसे मशहूर अर्थविद तोमा पिकेटी व तीन अर्थविदों ने बनाया है. रिपोर्ट
चीखी, आय असमानता में भारत दुनिया में सबसे आगे निकल रहा
है. एक फीसदी लोगों के पास 33 फीसदी संपत्ति है सबसे निचले दर्जे वाले
50 फीसदी वयस्क लोगों की औसत सालाना कमाई केवल 53000 रुपये है.
गुरु
सोच रहे थे कि काश, भारतीय परिवारों,
को कंपनियों जैसी कुछ नेमत मिल जाती !
यदि
आपको कंपनियों और परिवारों की तुलना असंगत लगती है तो
याद कीजिये भारत में आम लोग कोविड के
दौरान क्या कर रहे थे और क्या हो रहा था कंपनियों में? लोग
अपने जेवर गिरवी रख रहे थे, रोजगार खत्म होने से बचत खा रहे
थे या कर्ज उठा रहे थे और दूसरी तरफ कंपनियों को सितंबर 2020 की तिमाही में 60 तिमाहियों
से ज्यादा मुनाफा हुआ था
महामारी
की गर्द छंटने के बाद हमें दिखता है कि भारत की कारपोरेट और परिवार यानी हाउसहोल्ड अर्थव्यवस्थायें एक दूसरे की विपरीत
दिशा में चल रही हैं. यानी असमानता की दरारों में पीपल के नए बीज.
किसने कमाया किसने गंवाया
वित्त
वर्ष 2020-21 में जब जीडीपी, कोवडि वाली मंदी के
अंधे कुएं में गिर गया तब शेयर बाजार में सूचीबद्ध भारतीय कंपनियों के मुनाफे रिकार्ड
57.6 फीसदी बढ़ कर 5.31 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गए. जो जीडीपी के अनुपात में 2.63
फीसदी है यानी (नकारात्मक जीडीपी के बावजूद) दस साल में सर्वाधिक.
यह
बढत जारी है. इस साल की पहली छमाही का मुनाफा बीते बरस के कुल लाभ 80% है. कंपनियों के प्रॉफिट मार्जिन 10.35 फीसदी की
रिकार्ड ऊंचाई पर हैं.
परिवारों
की अर्थव्यवस्थाओं के लिए बीता डेढ़ साल सबसे भयावह रहा. रिकार्ड बेरोजागारी की
मार से लगभग 1.26 करोड़ नौकरीपेशा काम गंवा बैठे. भारत में लेबर पार्टीसिपेशन दर
ही 40 से नीचे चली गई यानी लाखों लोग रोजगार बाजार से बाहर हो गए. जबकि 2020-21 के पहले छह माह में सभी (शेयर बाजार सहित) कंपनियों के मुनाफे करीब 24 फीसद बढ़े अलबत्ता वेतन में बढ़ोतरी नगण्य थी (सीएमआईई)
सीएसओ के मुताबिक 2020-21 में प्रति व्यक्ति आय 8,637 रुपए घटी है.
निजी और असंगठित क्षेत्र में बेरोजगारी और वेतन कटौती के कारण आयमें 16,000 करोड़ रुपए की कमी आई है. (एसबीआइ रिसर्च)
कमाई के आंकड़ों की करीबी पड़ताल बताती
है कि अप्रैल से अगस्त 2021 के बीच भी गांवों में गैर मनरेगा मजदूरी में कोई खास
बढत नहीं हुई. 2020 का साल तो मजदूरी थी ही नहीं, केवल मनरेगा में काम
मिला था.
इस बीच आ धमकी महंगाई. नोटबंदी के बाद से वेतन मजदूरी
में बढ़ोत्तरी महंगाई से पिछड़ चुकी थी. कोविड के दौरान लोगों ने उपचार पर नियमित
खर्च के अलावा 66000 करोड़ रुपये किये. उपभोग खर्च में स्वास्थ्य का हिस्सा पांच फीसदी के औसत से बढ़कर एक साल में 11 फीसद हो गया. पेट्रोल डीजल की महंगाई के कारण सुविधा बढ़ाने
वाले उत्पाद सेवाओं पर खर्च बीते छह माह में करीब 60 फीसद घटा दिया (एसबीआइ रिसर्च)
किस्सा कोताह कि बाजार में कहीं मांग नहीं
थी. लेकिन इसके बाद भी कंपनियों ने रिकार्ड मुनाफे कमाये तो इसलिए क्यों कि उन्हें
2018 में कर रियायतें मिलीं, खर्च में कमी हुई, रोजगारों की छंटनी और मंदी के
कारण कमॉडिटी लागत बचत हुई इसलिए शेयर बाजारों में जश्न जारी है.
गुरु ठीक ही सोच रहे हैं कि काश कम से कुछ आम भारतीय परिवार इन कंपनियों
से जैसे हो जाते.
कौन डूबा कर्ज में
बीते दो साल में जब सरकार के
इशारे पर रिजर्व बैंक जमाकर्ताओं से कुर्बानी मांग रहा था यानी कर्ज सस्ता कर रहा
था और जमा पर ब्याज दर घट रही थी तब मकसद यही था कि सस्ता कर्ज लेकर कंपनियां
निवेश करेंगी, रोजगार मिलेगा और कमाई बढ़ेगी लेकिन हो उलटा हो गया.
कोविड कालीन मुनाफों का फायदा
लेकर शीर्ष 15 उद्योगों की 1000 सूचीबद्ध कंपनियों ने वित्त वर्ष 2021 अपने कर्ज
में 1.7 लाख करोड़ की कमी की. इनमें भी रिफाइनिंग, स्टील, उर्वरक,
कपड़ा, खनन की कंपनियों बड़े पैमानों पर
बैंकों को कर्ज वापस चुकाये.. यहीं से सबसे ज्यादा रोजगारों की उम्मीद थी और
जहां निवेश हुआ ही नहीं.
कैपिटल लाइन के आंकड़ों के
मुताबिक अप्रैल 20 से मार्च 21 के बीच भारत के कारपोरेट क्षेत्र का
सकल कर्ज करीब 30 फीसदी घट गया. शुद्ध कर्ज में 17 फीसदी कमी आई.
तो फिर कर्ज में डूबा कौन ? वही परिवार जिनके पास कमाई नहीं थी.
कोविड से पहले 2010 से 2019 में
परिवारों पर कुल कर्ज उनकी खर्च योग्य आय के 30 फीसद से बढ़कर 44 फीसद हो चुका था (मोतीलाल ओसवाल रिसर्च)
कोविड के दौरान 2020-21 में भारत में जीडीपी के अनुपात में परिवारो
का कर्ज 37.3 फीसदी हो गया जो इससे पहले साल 32.5 फीसदी था. जबकि जीडीपी के अनुपात
में परिवारों की शुद्ध वित्तीय बचत (कर्ज निकाल कर)
8.2 फीसदी पर है जो लॉकडाउन के दौरान तात्कालिक बढ़त के बाद वापस सिकुड़
गई.
कर्ज
के कारण भोपाल में परिवार की खुदकुशी या छोटे उद्मियों की बढ़ती आत्महत्या की
घटनाओं को आंकड़ों में तलाशा जा सकता है. कई वर्ष में पहली बार एसा हुआ जब 2021
में वह कर्ज बढ़ा जिसके बदले कुछ भी गिरवी नहीं था. जाहिर है एसा कर्ज महंगा और
जोखिम भरा होता है. बीते साल की चौथी तिमाही तक गैर आवास कर्ज में बढ़त 11.8 फीसदी
थी जो मकानों के लिए कर्ज से करीब चार फीसदी ज्यादा है. इस साल जून में गोल्ड
लोन कंपनियों ने 1900 करोड रुपये के
जेवरात की नीलामी की जो उनके पास गिरवी थे.
टैक्स की बैलेंस शीट
हमें
हैरत होनी ही चाहिए कि भारत में अब कंपनियां कम और लोग ज्यादा टैक्स देते हैं.
इंडिया रेटिंग्स की रिपोर्ट बताती है कि 2010 में केंद्र सरकार के प्रति सौ रुपए के राजस्व में
कंपनियों से 40 रुपए और आम लोगों
से 60 रुपए आते थे. अब 2020 में कंपनियां केवल 25 रुपए और आम परिवार 75 रुपए का टैक्स दे रहे हैं. 2018 में कॉर्पोरेट टैक्स में 1.45 लाख करोड़ रुपए की रियायत दी गई है.
2010 से 2020 के बीच भारतीय परिवारों पर टैक्स (इनकम टैक्स और जीएसटी)
का बोझ 60 से बढकर 75 फीसदी हासे गया. पिछले सात साल
पेट्रो उत्पादों से टैक्स संग्रह 700 फीसद बढ़ा है. यह बोझ जीएसटी के बाद भी नहीं घटा. इस हिसाब में राज्यों के
टैक्स शामिल नहीं हैं जो लगातार बढ़ रहे हैं.
भारत और दुनिया में अब बड़ा फर्क आ चुका
है. कोविड के दौरान भारतीय सबसे ज्यादा गरीब हुए. ताजा अध्ययन बताते हैं कि
अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया व यूरोप में सरकारों ने सीधी मदद के जरिए परिवारों की कमाई में कमी नहीं होने दी. जबकि भारत में राष्ट्रीय आय का 80 फीसद नुक्सान परिवार (और छोटी कंपनियों) में खाते में गया.
कंपनियां कमायें और आम लोग गंवाये. कर्ज
में डूबते जाएं. यह किसी भी आर्थिक मॉडल में चल ही नहीं सकता. परिवारों और कंपनियों
की अर्थव्यवस्थायें एक दूसरे के विपरीत दिशा चलना आर्थिक बिखराव की शर्तिया
गारंटी है. भारत के नीति नियामकों को यह समझने में जितनी देर लगेगी, हमारा भविष्य उतना ही
ज्यादा अनिश्चित हो जाएगा
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