Sunday, June 26, 2022

कौन बढ़ाता है कितनी महंगाई ?


 

एक ट्व‍िटर चर्चा ..

पहला - सरकार ने एक्‍साइज ड्यूटी घटाकर पेट्रोल डीजल सस्‍ता किया. बधाई दीजिये संवेदनीशलता को

दूसरा – दस रुपये बढ़ाकर नौ रुपये कम किये, कीमत तो वहीं है जहां मार्च से पहले थी, पहले बढ़ाओ फिर घटा कर ताली बजवाओ.

यद‍ि कोई इन राजनीतिक स्‍वादानुसार बहसों के परे भारत की महंगाई का सबसे विद्रूप सच समझना चाहता है तो सरकार का ताजा फैसला उसकी नज़ीर है. दरअसल भारत में महंगाई जहां से निकलती वहीं से उसे कम किया जा सकता है और सरकार अब हार कर इस सच को स्‍वीकार करना पड़ा है कि कीमतें न तो रिजर्व बैंक के कर्ज सस्‍ता करने से घटेंगी न और बयानबाजी से.

हमारी ऊर्जा महंगाई के लिए पूरी दुनिया को लानते भेजने के बाद अंतत: सरकार ने यह मान लिया कि यह टैक्‍स ही है महंगाई की जड़ है.

फॉसि‍ल फ्यूल यानी जैव ईंधन यानी कोयला और पेट्रो उत्‍पाद भारत में ऊर्जा का प्रमुख स्रोत हैं.. भारत दुनिया के उन गिने चुने देशों में होगा जहां ऊर्जा और ईंधन यानी कच्‍चा तेल, पेट्रोल डीजल कोयला बिजली और यहां तक क‍ि सौर ऊर्जा का साजोसामान पर भी भारी टैक्‍स लगता है. यह टैक्‍स न केवल हमें महंगाई के नर्क में जला रहे हैं बल्‍क‍ि भारतीय उत्‍पादों और सेवाओं की प्रतिस्‍पर्धा खत्‍म कर रहे हैं

केंद्र सरकार के कुल टैक्‍स राजस्‍व का करीब 25 फीसदी हिस्‍सा ऊर्जा से आता है राज्‍यों के कुल राजस्‍व का 13 फीसदी ऊर्जा से मिलता है

 

पेट्रोल डीजल पर एक्‍साइज कटौती की रोशनी में चलते हैं भारत के टैक्‍स भवन में जहां ऊर्जा पर टैक्‍स से थोक में महंगाई बन रही है

ईंधन और महंगाई

पेट्रो उत्‍पादों पर एक्‍साइज ड्यूटी क्‍यों घटी क्‍यों कि रिजर्व बैंक ने कारोबारों और उपभोक्‍ताओं की लागत का आकलन करने के बाद कहा था कि ज्‍यादातर महंगाई तो ईंधन से आ रही है. रिजर्व बैंक ने अपनी मॉनेटरी पॅालिसी रिपोर्ट 2021 में बताया था कि खुदरा और थोक दोनों ही वर्गों में ईंधन की महंगाई जुलाई 2020 से शुरु हो गई थी. जो पेट्रोल डीजल कीमतों में ताजा यानी चुनाव बाद मार्च के बाद बढ़ोत्‍तरी का दौर शुरु होने से पहले तक दहाई के अंकों में पहुंच चुकी थी.

भारत की अध‍िकांश महंगाई जो ऊर्जा की कीमतों से निकल रही है, उसकी बड़ी वजह खुद सरकार के टैक्‍स हैं इन्हें टैक्‍स कम किये बिना यह आग ठंडी कैसे होती.

इसल‍िए जब सरकार ने टैक्‍स का लोभ कम किया तो कीमतों का सूचकांक नीचे आया.

पेट्रोल डीजल पर उत्‍पाद शुल्‍क या एक्‍साइज और वैट की चर्चा होतीहै लेकिन यहां तो टैक्‍सों का पूरा परिवार ही पेट्रो उत्‍पादों के पीछे पड़ा है
इंपोर्टेड महंगाई

  • भारत सरकार इंपोर्टेड कच्‍चे तेल पर एक रुपये प्रति टन बेसिक कस्‍टम ड्यूटी, इतनी ही काउंटरवेलिंग ड्यूटी और 50 रुपये प्रति टन का राष्‍ट्रीय आपदा राहत शुल्‍क लगाती है.
  • भारत अपनी जरुरता का 85.5 फीसदी तेल आयात करता है मार्च 2022 में समाप्‍त वर्ष में कच्‍चे तेल का कुल आयात 212 मिल‍ियन टन रहा जो अभी कोविड के पहले के आयात (227 मिलियन टन) से कम है.
  • देश के भीतर निकाले जाने वाले कच्‍चे तेल पर एक रुपये प्रति‍ टन बेसिक एक्‍साइज ड्यूटी, 50 रुपये प्रति टन का आपदा राहत शुल्‍क तो लगता ही इसके अलावा 20 फीसदी का सेस भी लगता है जो कच्‍चे तेल की कीमत पर आधार‍ित (एडवैलोरम) है. इसे 2016 में लगाया गया था. देशी कच्‍चे तेल की कीमत तय करने के लिए भारत के तेल आयात की कीमत को आधार बनाया जाता है यानी अगर इंपोर्टेड क्रूड महंगा तो देशी भी महंगा होगा.
  • आत्‍मनिर्भरता का यह अनोखा तकाजा है कि भारत मे घरेलू तेल उत्‍पादन कुल आयात का 15 फीसदी भी नहीं लेक‍िन इस पर टैक्‍स आयात‍ित क्रूड से काफी ज्‍यादा है
  • आयात‍ित और देशी कच्‍चे तेल पर टैक्‍स से सरकार ने कोविड से पहले के वर्ष यानी 2019-20 में 43.8 अरब रुपये का राजस्‍व जुटाया.
  • भारत में पेट्रोल डीजल का आयात भी होता है पेट्रोल पर 2.5% कस्‍टम ड्यूटी,1.4 रुपये प्रति लीटर की काउंटरवेलिंग ड्यूटी, 11 रुपये प्रति लीटर स्‍पेशल एडीशनल ड्यूटी, 2.5 रुपये प्रति‍ लीटर का इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर सेस, 13 रुपये प्रति लीटर की एडीशनल कस्‍टम ड्यूटी लगती है. डीजल पर बेसिक कस्‍टम ड्यूटी, काउंटर वेलिंग ड्यूटी के अलावा 8 रुपये प्रति लीटर की स्‍पेशल ड्यूटी , 4 रुपये प्रति लीटर का इन्‍फ्रा से और 8 रुपये प्रति लीटर की एडीशनल कस्‍टम ड्यूटी लगती है. 2019-20 में इनसे 73 अरब रुपये का राजस्‍व मिला.
  • आयात‍ित कच्‍चा तेल और पेट्रोउत्‍पाद पर टैक्‍स का इनकी कीमतों सीधा रिश्‍ता है. कच्‍चा तेल लगातार महंगा हुआ इसलिए सरकार की कमाई भी खूब बढ़ी है. 2021-22 में भारत का तेल आयात ब‍िल दोगुना बढ़कर 119 अरब डॉलर हो गया जबकि मात्रा में आयात कम हुआ था.

 

  • मोटे तौर यह समझ‍िये कि एक्‍साइज, स्‍पेशल एडीशनल ड्यूटी, सडक सेस और राज्‍यों के वैट आदि को मिलाकर लगभग अधि‍कांश भारत मे पेट्रोल और डीजल की कीमत का आधा हिस्‍सा टैक्‍स है. बीते साल यूपी चुनाव से पहले और इसी मई 21 यही हिस्‍सा हल्‍का क‍िया गया है.
  • पेट्रोल डीजल पर टैक्‍स कटौती और बढ़त का हिसाब कि‍ताब बताता है कि राहत क्‍यों खोखली होती है 2015 में जब कच्‍चे तेल की कीमत कम थी तब से केंद्र सरकार ने पेट्रो उत्‍पादों पर टैक्‍स बढ़ाना शुरु किया. अक्‍टूबर 2021 तक पेट्रोल पर एक्‍साइज ड्यूटी 200 फीसदी और डीजल पर 600 फीसदी बढ़ी. इसकी क्रम में राज्‍यों का वैट भी बढ़ा. नतीजतन 2014-15 से 20-21 के बीच पेट्रो उत्‍पादों से केंद्रीय एक्‍साइज संग्रह 163 फीसदी बढ़कर 1.72 लाख करोड़ रुपये से 4.5 लाख करोड़ हो गया. इसी दौरान मार्च 2014 से अक्‍टूबर 2021 तक राज्‍यों का वैट संग्रह 35 फीसदी बढ़कर 1.6 लाख करोड़ से 2.1 लाख करोड़ हो गया.
  • केंद्र सरकार पेट्रोल डीजल पर बेसिक एक्‍साइज पर राजस्‍व का 42 फीसदी हिस्‍सा राज्‍यों से बांटती है जो पेट्रोल पर केवल 58 पैसे और डीजल पर 75 पैसे प्रति लीटर है जबकि इन दोनों पर कुल एक्‍साइज क्रमश 33 रुपये और 42 रुपये प्रति लीटर है.

 

कोयला और बिजली वाला टैक्‍स

केवल पेट्रोल डीजल ही नहीं , टैक्‍स निचोड़ नीति के कारण कोयले और बिजली का हाल भी इतना ही बुरा है. भारत की करीब 60 फीसदी बिजली कोयले से बनती है

  • बिजली के कोयले की औसत बेसिक कीमत (955-1100 रुपये) पर रॉयल्‍टी, पर्यावरण विकास उपकर, सीमा कर, कुछ राज्‍यों मे जंगल कर, विकास कर, कोयला निकालने का चार्ज, 5 फीसदी का जीएसटी, 400 रुपये प्रति बिजली घर तक टन के बाद कोयले की कीमत लगभग दोगुनी हो जाती है. रेलवे का भाड़ा (दूरी के अनुसार) और उस पर जीएसटी अलग से.
  • कोल कंट्रोलर के आंकडे बताते हैं केंद्र सरकार को कोयले से करीब 25000 करोड़ का जीएसटी मिलता है. राज्‍यों को मिलने वाला टैक्‍स इससे अलग है.
  • इन टैक्‍स के कारण घरेलू और औद्योगिक उपभोक्‍ताओं के लिए बिजली करीब 26 पैसे प्रति यूनिट महंगी हो जाती है
  • कई राज्‍य सरकारें बिजली पर इलेक्‍ट्र‍िस‍िटी बिल पर ड्यूटी या टैक्‍स लगाती हैं. यह टैक्‍स, चुनावी वादों बिजली को सस्‍ता रखने के लिए लगाया जाता है.

 

नई ऊर्जा नया टैक्‍स

  • टैक्‍स का शिकंजा बडा हो रहा है . सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के प्रचार के बीच सरकार ने सोलर मॉड्यूल्‍स के आयात पर 40 फीसदी और सेल पर 25 फीसदी इंपोर्ट ड्यूटी लगा दी है. भारत में उत्‍पादन क्षमता है नहीं, आयात चीन होता है नतीजतन बढ़ती लागत के कारण सौर ऊर्जा क्रांति का दम भी टूट रहा है

पुणे की रिसर्च संस्‍था प्रयास एनर्जी ग्रुप का अध्‍यन बताता है कि केंद्र सरकार के कुल टैक्‍स राजस्‍व का करीब 25 फीसदी हिस्‍सा ऊर्जा से आता है राज्‍यों के कुल राजस्‍व का 13 फीसदी ऊर्जा से मिलता है. करीब से देखने पर पता चलता है कि केंद्र सरकार को ऊर्जा क्षेत्र से कंपनियों के लाभांश सहित जितना राजस्‍व मिलता है उसमें 90 फीसदी टैक्‍स हैं.

केंद्र को ऊर्जा क्षेत्र से मिलने वाले कुल राजस्‍व में 83 फीसदी पेट्रो उत्‍पादन से और 17 फीसदी कोयले से आता है जबकि राज्‍यों को कोयले से केवल दो फीसदी राजस्‍व मिलता है. 83 फीसदी पेट्रो उत्‍पादों से और शेष बिजली से आता है... रिजर्व बैंक के आंकडे बताते हैं कि 2018-19 के बाद से ऊर्जा पर केंद्र सरकार का राजस्‍व बढ़ा और सब्‍स‍िडी घटती चली गई.

इधर राज्‍य अपने ऊर्जा राजस्‍व का करीब आधा हिस्‍सा , लगभग 1.33 लाख करोड़ रुपये सब्सिडी पर खर्च कर रहे हैं हमें समझना होगा कि पेट्रोल डीजल और बिजली की महंगाई केवल सरकारी टैक्‍स से निकल रही है.

 

GST ked ayre mein kyuu nahi le aateघ्‍

यही वजह है कि सरकारें पेट्रो उत्‍पादों, कोयला और बिजली को जीएसटी के दायरे में नहीं लाना चाहतीं. जबकि यह टैक्‍स वाली लागत का सबसे बड़ा हिस्‍सा है जिस इनपुट टैक्‍स क्रेडिट‍ मिलना चाहिए भारत के नेता जितनी बडी बड़ी बातें करते हैं, उतनी चतुरता उनके आर्थि‍क प्रबंधन में नहीं है. बजटों का राजस्‍व ढांचा बुरी तरह सीमित हो चुका है. सरकारें खर्च कम करने को राजी नहीं है. देश ऊर्जा के बिना रह नहीं सकता. शाहखर्च सरकारें टैक्‍स निचोड़कर हमें महंगाई में भून रही हैनतीजा यह है कि भारत अब दुनिया के सबसे महंगे मोटर ईंधन और पर्याप्‍त महंगी बिजली वाले देशों में शामिल हो गया.

यदि प्रति व्‍यक्‍ति‍ खपत खर्च या क्रय क्षमता के आधार पर देखें तो यह महंगाई और ज्‍यादा भयावह लगती है भारत के पास अब विकल्‍प कम हैं. कोयले और कच्‍चे तेल की महंगाइ्र स्‍थायी हो रही है. या तो ऊर्जा पर टैक्‍स कम करने होंगे या फिर झेलनी होगी महंगाई. इसके अलावा कोई रास्‍ता नहीं है सनद रहे कि पर्यावरण की चिंताओं के बाद भारत को ऊर्जा का ढांचा बदलना है. नई तकनीकों के बाद ऊर्जा और महंगी होगी. जब तक टैक्‍स नहीं कम हो ऊर्जा क्षेत्र में कोई नया बदलाव मुश्‍क‍िल होगा...

 

Sunday, June 19, 2022

हम थे जिनके सहारे



 

राज्‍यों के अगले चुनाव दिल्‍ली के लिए अगला रोमांच हैं. लेक‍िन मुंबई गहरी मुश्‍क‍िल में है या यानी  कैच 22 में . मुंबई से मतलब है शेयर बाजार, सेबी, रिजर्व बैंक कंपनियों के न‍िवेश की दुनिया. जो दिल्‍ली जैसा कुछ नहीं देख पा रही है.

युद्धों की चर्चा ज़बानों की नोक पर है तो सनद रहे कैच 22 यानी गहरे अंतरविरोध का परिचय देने वाला मुहावरा दरअसल जंग की कथा से न‍िकला था. अमेरिकी उपन्‍यासकार जोसेफ हेलर ने दूसरे विश्‍व युद्ध की पृष्‍ठभूमि में जंग और नौकरशाही पर 1961 में कैच 22 नाम एक व्‍यंग्‍यात्‍मक उपन्‍यास लिखा था

यह कहानी योसेर‍ियन नाम एक लड़ाकू पायलट की थी जो जंग में तैनाती से बचने के लिए खुद को पागल घोष‍ित कर देता है. डॉक्‍टर उसकी जांच करते हैं और रिपोर्ट देते हैं कि युद्ध नहीं करना चाहता तो वह पागल है ही नहीं क्‍यों कि युद्ध के लिए पागलपन पहली शर्त है. यानी कि योसेर‍ियन को अगर खुद को पागल साबित करना है तो उसे जहाज से बम बरसाने थेलेकिन अगर यही करना है तो खुद को    पागल कहलाने से क्‍या फायदा ?

 

क्‍या है कैच 22 मुंबई का

मुंबई यानी व‍ित्‍तीय बाजारों और नियामकों का कैच 22 क्‍या है ?

भारत की ताजा मुसीबतों की जड़ शेयर बाजार है

जिनकी उम्‍मीदें थीं कि कोविड तो गया. अब भारत  तूफान से बाहर निकल आया है उन्‍हें अब यह बाजार एक एसे दुष्‍चक्र का प्रस्‍थान बिंदु लग रहा है  जहां कृपा अटक गई है

आप कहेंगे कुछ ज्‍यादा नहीं हो गया यह आकलन. इतनी विराट  अर्थव्‍यवस्‍था और छोटा सा शेयर बाजार ? भारत के लोगों की कुल बचतों में शेयरों का हिस्‍सा तो केवल 4.8 फीसदी है, एसा जेफ्रीज की एक ताजा रिपोर्ट ने कहा है

यही तो है वह रोमांचक बटरफ्लाई इफेक्‍ट यानी केऑस थ्‍योरी जिसमें एक छोटी सी घटना या बदलाव बड़े तूफान उठा देती है.  एक दूसरे में गहराई से गुंथी बुनी वित्‍तीय दुनिया इस इफेक्‍ट का शानदार नमूना है. शेयर बाजार के छोटे से आकार पर गफलत में रहना ठीक नहीं है बात तित‍िलयों की है तो यहां से कुछ ति‍त‍िलयां पतंगों की उड़ान ने कुछ एसा तूफान उठा दिया है कि दूर जालंधर में मोबाइल रिपेयर वाले परमजीत पुर्जे महंगे होने के कारण दुकान बंद करनी पड़ रही है  

आपका आश्‍चर्य बनता हैं सांसत में तो वित्‍त मंत्री निर्मला सीतारमन भी रहीं हैं, आरबीआई गवर्नर तो बेबाक चौंक रहे हैं

बटरफ्लाई इफेक्‍ट

बटरफ्लाई एफेक्‍ट को समझने के लिए इसकी सूक्ष्‍म शुरुआत को नहीं बल्‍क‍ि बल्‍क‍ि महासागरीय आकार के प्रभाव को देखना चाहिए. जड़ शेयर बाजार में तेज गिरावट, मंदी वाले बाजार की आहट और विदेशी निवेशकों के प्रवास से है लेक‍िन हम रुख करते है भारत की सबसे खतरनाक दरार की ओर. वह है डॉलर के मुकाबले कमजोर होता रुपया जो 78 के करीब है, 80 की मंज‍िल दूर नहीं है. और भारत का टूटता विदेशी मुद्रा भंडार जो अब केवल एक साल के आयात के लिए पर्याप्‍त है.

भारत में विदेशी मुद्रा के प्रमुख स्रोत सामान सेवाओ निर्यात, शेयर बाजार में निवेश और विदेशी पूंजी निवेश (पीई स्‍टार्ट अप) हैं. एक छोटा सा हिससा विदेशी व्‍यक्‍त‍िगत धन प्रेषण आदि का है.   

स्‍टैंडर्ड चार्टर्ड ने अपनी एक ताजा रिपोर्ट में कहा है कि विदेशी मुद्रा भंडार नौ माह के आयात की जरुरत के स्‍तर तक घट सकता है. गिरावट में 45 फीसदी हिस्‍सा डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोरी का है, 30 फीसदी गिरावट रुपये को बचाने में रिजर्व बैंक तरफ झोंके गए डॉलर के कारण आई है जबकि 25 फीसदी कमी आयात की लागत बढने से आई है

चार्ट .. भारत का विदेशी मुद्रा भंडा गिरावट

भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 27 मई 2022 को समाप्‍त सप्‍ताह में करीब 597 अरब डॉलर था. वित्‍त वर्ष 2022  भारत का कुल आयात करीब 610 अरब डॉलर रहा और निर्यात करीब 418 अरब डॉलर. यही वजह है कि भारत ने 2022 के वित्‍त वर्ष की समाप्‍ति‍ रिकार्ड 192 अरब डॉलर व्‍यापार घाटे (आयात और निर्यात का अंतर) से की. आयात के बिल की रोशनी में विदेशी मुद्रा भंडार साल भर के आयात से कम है. बाजार से निकलने वाली विदेशी पूंजी और विदेशी कर्ज के भुगतान की जरुरतें अलग से

विदेशी मुद्रा भंडार के हिसाब को एक और बड़ी तस्‍वीर में फिट किया जाता है. ताकि समग्र अर्थव्‍यवस्‍था की ताकत कमजोरी मापी जा सके. यह करेंट अकाउंट डेफश‍िट या सरप्‍लस है. यह किसी देश में विदेशी मुद्रा की आवक निकासी का सबसे बड़ा हिसाब होता है और देश बाहरी मोर्चे पर ताकत कमजोरी का पैमाना. इस घाटे की गणना में सामानों के निर्यात आयात के अलावा, सेवाओं का निर्यात, शेयर बाजार में विदेशी निवेश, विदेशी पूंजी न‍िवेश, विदेश से भेजे गए धन आद‍ि शामिल होते हैं .

कोविड के वर्षों में तो भारत ने इस घाटे को खत्‍म कर दिया था क्‍यों कि आयात बंद थे लेक‍िन अब यह नौ साल की ऊंचाई पर है. यानी करीब 23 अरब डॉलर. दस साल का सबसे ऊंचा स्‍तर दूर नही है.

आयात की तुलना में निर्यात तो कम हैं हीं इसके साथ ही विदेशी निवेश (प्रत्‍यक्ष, स्टार्ट अप, पीई व शेयर बाजार) में जोरदार गिरावट आई. रिजर्व बैंक के आंकड़े के अनुसार अप्रैल फरवरी 2021-22 में यह केवल 24.6 अरब डॉलर रहा हो जो बीते साल इसी अवध‍ि में 80.1 अरब डॉलर था.

ध्‍यान रखना जरुरी है कि विदेशी मुद्रा भंडार की पर्याप्‍तता यानी एक साल के आयात के बराबर होने तक रुपये का गिरना निर्यात को प्रतिस्‍पर्धी बनाता है लेक‍िन यदि भंडार घटने लगे तो रुपये की गिरावट मुसीबत बन जाती है.

रुपये की ताकत का सीधा रिश्‍ता विदेशी मुद्रा भंडार से है. व्‍यापार घाटा और करेंट अकाउंट डेफश‍िट ज‍ितना बढ़ेगा यह भंडार उतना ही घटेगा और रुपये की ताकत छीजती जाएगी. बीते एक करीब छह माह से यही हो रहा है

अब कमजोर रुपये ने कच्‍चे तेल कोयले सहित धातुओं में महंगाई का तूफान ला दिया है. रिजर्व बैंक डॉलर की मांग पूरा करने के लिए विदेशी मुद्रा झोंक रहा है, विदेशी मुद्रा भंडार गिरे रहा है और रुपये पर दबाव बढ़ रहा है. यही है कैच 22 का पहला हिस्‍सा जिसे देखकर मुंबई को ड‍िप्रशन हो रहा है

अब दूसरा हिस्‍सा

 

शुरु से शुरु करें

लौटते हैं शेयर बाजार की तरफ यानी त‍ितल‍ियों की तरफ जो शेयर बाजार से जुड़ी हैं. नोटबंदी से लेकर कोविड की बंदी और मंदी तक

भारत के शेयर बाजार में विदेशी निवेशक रीझ रीझ कर उतरते रहे. उनका निवेश बढ़ता गया और शेयर बाजार चढ़ता गया. क्‍या ही हैरत थी जब कोविड में भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था गहरी मंदी में थी, मौतें हो रही थीं तब विदेश‍ियों का भरोसा बढ़ता गया.

यकीनन शेयर बाजार से बहुतेरे लोगों को बहुत फर्क नहीं पड़ता, पड़े भी क्‍यों लेक‍िन भारत के विदेशी मुद्रा भंडार को इससे बड़ा फर्क पड़ा. अर्थव्‍यवस्‍था में तरह तरह की उठापटक के बीच शेयर बाजार में विदेशी निवेश और विदेशी मुद्रा में बढ़ोत्‍तरी में एक सीधा रि‍श्‍ता दिखता है.

बीते अक्‍टूबर से जब भारत में हालात सुधरने शुरु हुए तब से इन निवेशकों ने बाजार में बेचना शुरु कर दिया. इनकी निकासी के बाद रुपये में गिरावट शुरु हो गई. विदेशी मुद्रा भंडार छीजने लगा. बची हुई कसर महंगे तेल और रिकार्ड व्‍यापार घाटे ने पूरी कर दी.

त‍ितल‍ियो की बेरुखी

विदेशी निवेशक केवल डॉलर नहीं लाते. वे लाते हैं अरबो डॉलर का भरोसा. इसलिए क्‍यों कि वे भारत की आर्थि‍क भव‍िष्‍य पर दांव लगा रहे थे. महमारी की घोर मंदी में भी उनका निवेश सूखा नहीं क्‍यों कि वापसी की उम्‍मीद थी.

तो अब क्‍या हो रहा है?

भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को लेकर पैमाना बदल रहा है. पूंजी की लागत बढ रही है जबकि भारत की विकास दर के आकलन गिर रहे हैं. यदि अगले कुछ साल में भारत की महंगाई रहित शुद्ध विकास दर  5-6 फीसदी रहती है तो इक्‍व‍िटी पर 10-11 फीसदी से ज्‍शदा रिटर्न मुश्‍क‍िल है. शेयर बाजार में कुछ अच्‍छी कंपनियां रहेंगी अलबत्‍ता लेक‍िन वह महंगी भी होंगी. अर्थव्‍यवस्‍था जब तक 13-14 फीसदी की महंगाई सहित दर विकास दर दर्ज नहीं करती भारत की एक तिहाई आबादी की कमाई और मांग नहीं बढ़ेगी और न ही उत्‍पादों का बाजार और कंपनियों के मुनाफे

रुपया विदेशी मुद्रा भंडार और महंगाई के साझा समाधान के लिए अगर सरकार को कोई एक दुआ मांगनी हो तो  वह यही होनी चाहिए कि क‍िसी तरह शेयर बाजार दौड़ने लगे.  विदेशी निवेशक वापस कर लें. उनकी पूंजी आई तो रुपये की ढलान रुकेगी. आयाति‍त मंहगाई कम होगी. अर्थव्‍यवस्‍था में भरोसा आएगा. घरेलू निवेशकों के छोटे निवेश बाजार को ढहने नहीं देंगी लेक‍िन बाजार को दौड़ाने की दम इस निवेश में नहीं है. लेक‍िन इसके भारत की सरकार को सब कुछ छोड़ कर अर्थव्‍यवस्‍था को ढलान रोकने का अनुष्‍ठान करना होगा जो जैसा कि 1991 में या 2008 के लीमैन संकट के वक्‍त हुआ था. विदेशी ताकत के मोर्च पर भारत या श्रीलंका पाकिस्‍तान में सबसे बड़ा फर्क यह है कि गैर इमर्जिंग अर्थव्‍यवस्‍थाओं में विकास दर भले ही तेज हो लेक‍िन यहा कैपिटल मार्केट नहीं है, निर्यात के अलावा गैर कर्ज वाली विदेशी पूंजी के स्रोत नहीं है इसलिए यह हमेशा खतरे में होंती हैं और आईएमएफ की मोहताज हैं

भारत इ‍मर्ज‍िंग इकोनॉमी इसलिए है क्‍यों क‍ि यहां डॉलरों की एक और पाइपलाइन खुलती है जो शेयर बाजार में आती है और हमें सुरक्षि‍त करती है. यह पूंजी भविष्‍य पर ग्‍लोबल भरोसे का प्रमाण है.

शेयर बाजार में बेयर ट्रैप या मंदी की भविष्‍यवाण‍ियां तैर रही हैं. अर्थव्‍यवस्‍था विदेशी निवेशकों की वापसी बर्दाश्‍त नहीं कर सकता. क्‍यों कि  आयात निर्यात वाले मुद्रा भंडार के मामले में दुन‍िया से बहुत फर्क नहीं है

 

 


Friday, June 10, 2022

असली ताकत तो इधर है




अमेरिकी राष्‍ट्रपतियों के इतिहास में, जो बाइडेन को क्‍या जगह मिलेगी, यह वक्‍त पर छोड़‍िये फिलहाल तो ब्‍लादीम‍िर पुतिन  की युद्ध लोलुपता से अमेरिका को वह एक ध्रुवीय दुनिया गढ़ने का मौका मिल गया है जिसकी कोश‍िश में बीते 75 बरस में. अमेरिका के 13 राष्‍ट्रपति इतिहास बन गए.

आप यह मान सकते हैं क‍ि युद्ध के मैदान में रुस का खेल अभी खत्‍म नहीं हुआ है लेक‍िन युद्ध के करण बढी महंगाई के बाद ग्‍लोबल मुद्रा बाजार में अमेरिकी डॉलर अब अद्व‍ितीय है. मुद्रा बाजार में अन्‍य करेंसी के मुकाबले अमेरिकी डॉलर की ताकत बताने वाला डॉलर इंडेक्‍स 20 साल के सर्वोच्‍च स्‍तर पर है.

अमेरिका ने फ‍िएट करेंसी (व्‍यापार की आधारभूत मुद्रा) की ताकत के दम पर रुस के विदेशी मुद्रा भंडार को (630 अरब अमेर‍िकी डॉलर) को बेकार कर दिया है. पुतिन का मुल्‍क ग्‍लोबल व‍ित्‍तीय तंत्र से बाहर है. इसके बाद तो चीन भी लड़खड़ा गया है.

विश्‍व बाजार में अमेरिकी डॉलर की यह ताकत निर्मम है और चिंताजनक है.

एसे आई ताकत

अमेर‍िकी डॉलर का प्रभुत्‍व जिस इतिहास की देन है अब फिर वह नई करवट ले रहा है.

दूसरे विश्‍व युद्ध में पर्ल हार्बर पर जापानी हमले ने दुनिया की मौद्रिक व्‍यवस्‍था की बाजी पलट दी थी. इससे पहले तक अमेरिका दूसरी बड़ी जंग में  सीधी दखल से दूर था. जापान की बमबारी के बाद, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्‍टन चर्चिल जंगी जहाज लेकर अमेरिका पहुंच गए और तीन हफ्ते के भीतर अमेरिका को युद्ध में दाख‍िल हो गया. यह न होता तो हिटलर शायद ब्रिटेन को भी निगल चुका होता.

जुलाई 1944 में ब्रेटन वुड्स समझौता हुआ. गोल्‍ड स्‍टैंडर्ड के साथ (अमेरिकी डॉलर और सोने की विन‍िमय दर) आया. दुनिया के देशों ने अमेरिकी डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडान बनाना शुरु कर दिया. 1945 में हिटलर की मौत और दूसरे विश्‍व युद्ध की समाप्‍त‍ि से पहले ही अमेरिकी डॉलर का डंका बजने लगा था.

अमेरिकी में आर्थि‍क चुनौतियों और फ्रांस के राष्‍ट्रपत‍ि चार्ल्‍स ड‍ि गॉल के कूटनीतिक वार के बाद अमेरिकी राष्‍ट्रपत‍ि रिचर्ड निक्‍सन ने 1971 में गोल्‍ड स्‍टैंडर्ड तो खत्‍म कर दिया लेक‍िन तब तक अमेरिकी डॉलर दुनिया की जरुरत बन चुका था. 

डॉलर कितना ताकतवर

अमेरिकी डॉलर की ताकत है कितनी? बकौल फेड रिजर्व ग्‍लोबल जीडीपी में अमेरिका का हिस्‍सा 20 फीसदी है मगर मुद्रा की ताकत देख‍िये क‍ि दुनिया में विदेशी मुद्रा भंडारों में अमेरिकी डॉलर का हिस्‍सा (2021) करीब 60 फीसदी था.

डॉलर, अमेरिका की दोहरी ताकत है. व्‍यापार व निवेश के जरिये विदेशी मुद्रा भंडारों में पहुंचे अमेरिकी डॉलरों का का निवेश अमेरिकी बांड में होता है. अमेरिकी फेडरल रिजर्व की तरफ से जारी कुल बांड में विदेशी निवेशकों का हिस्‍सा 33 फीसदी है. यूरो, ब्रिटिश पौंड और जापानी येन के बांड में निवेश से कहीं ज्‍यादा.  मौद्रिक साख और ताकत का यह मजबूत चक्र टूटना  मुश्‍क‍िल है.

 नकदी के तौर पर भी डॉलर खूब इस्‍तेमाल होता है 2021 की पहली ति‍माही में करीब 950 अरब अमेरिकी डॉलर के बैंकनोट दुनिया विदेश में थे यह बाजार में उपलब्‍ध कुल नकद अमेरिकी डॉलर का लगभग आधा है.

विश्‍व के लगभग 80% निर्यात इनवॉयस, 60% विदेशी मुद्रा बांड और ग्‍लोबल बैंकिंग की करीब 60% देनदारियां भी अमेरिकी डॉलर में हैं.

विकल्‍प क्‍या 

दुनिया के देश एक दूसरे अपनी मुद्राओं में विनिमय क्‍यों नहीं करते ? क्‍यों क‍ि दुनिया की कोई अमेरिकी डॉलर नहीं हो सकती.

पहली शर्त है मुद्रा की साख-  करेंसी के की पीछे मजबूत राजकोषीय व्‍यवस्‍था ही करेंसी स्‍टोर वैल्‍यू बनाती है . एक दशक पहले तक यूरो को अमेरिकी डॉलर का प्रतिद्वंद्वी माना गया था लेकि‍न यूरो के पीछे कई छोटे देशों की अर्थव्‍यवस्‍थायें हैं. किसी भी एक देश में उथल पुथल से यूरो लड़खड़ा जाता है.

विदेशी मुद्रा भंडारों में यूरो का हिस्‍सा केवल 21 फीसदी है.  ब्रिटिश पाउंड, जापानी येन, युआन का हिस्‍सा और भी कम है. 

मुद्रा का मुक्‍त रुप से ट्रेडेबल या व्‍यापार योग्‍य दूसरी शर्त है इसी से  करेंसी की करेंसी यानी गति तय होती है. चीन का युआन दावेदार नहीं बन पाता.  दुनिया का सबसे बडा निर्यातक अपनी करेंसी को कमजोर रखता है, मुद्रा संचालन साफ सुथरे नहीं हैं. इसलिए युआन को विदेश्‍ी मुद्रा भंडारों में दो फीसदी जगह भी नहीं मिली है.

मुद्रा की स्‍थ‍िरता सबसे जरुरी शर्त है. 2008 के वित्‍तीय संकट के बाद मुद्रा स्‍थ‍िरता सूचकांक में अमेरिकी डॉलर करीब 70 फीसदी स्‍थिर रहा है, यूरो 20 फीसदी पर है. येन और युआन काफी नीचे हैं. स्‍थ‍िरता अमेरिकी डॉलर बडी ताकत है.

क्रिप्‍टोकरेंसी के साथ डॉलर के विकल्‍प की कुछ बहसें शुरु हुईं थीं. अलबत्‍ता कोविड के बाद  क्रिप्‍टोकरेंसी बुलबुला फूट गया और रुस पर प्रतिबंधों से डॉलर की क्रूर रणनीतिक ताकत भी सामने आ गई.

इतिहास की वापसी 

अमेरिकी डॉलर का प्रभुत्‍व दूसरे विश्‍व के बाद पूरी तरह स्‍थाप‍ित हो गया था.  डॉलर की ताकत के दम पर यूरोप की मदद के लिए 1948 में अमेरिका ने 13 अरब डॉलर का मार्शल प्‍लान (वि‍देश मंत्री जॉर्ज सी मार्शल)   लागू किया था. युद्ध से तबाह यूरोप के करीब 18 देशों को इसका बड़ा लाभ मिला. हालांक‍ि यही प्‍लान शीत युद्ध की शुरुआत भी था. यूरोप में रुस व अमेरिकी खेमों में नाटो (1948-49) और वारसा संधि (1955) में बंट गया.

अब फिर महामारी और युद्ध का मारा यूरोप अमेरिका ऊर्जा व रक्षा जरुरतों के लिए अमेरिका पर निर्भर हो रहा है डॉलर की इस नई ताकत के सहारे अमेरिकी राष्‍ट्रपति जो बाइडेन एक तरफ यूरोप को रुस के हिटलरनुमा खतरे बचने की गारंटी दे रहे है तो दूसरी तरफ एश‍िया में चीन डरे देशों नई छतरी के नीचे जुटा रहे हैं.  अमेरिकी डॉलर की बादशाहत इन्‍हीं हालात से निकली थी.  महंगा होता अमेरिकी कर्ज डॉलर को नई मौद्रिक ताकत दे रहा है. इसलिए यूरो, युआन,रुपया सबकी हालत पतली है.

विदेशी मुद्रा बाजार वाले कहते हैं डॉलर अमेरिका का सबसे मजबूत सैन‍िक है. यह कभी नहीं हारता. दूसरी करेंसी को बंधक बनाकर वापस अमेरिका के पास लौट आता है


Sunday, June 5, 2022

जाने कहां गए वो दिन ?


राजामणि‍ टैक्‍सी खरीदना चाहते हैं. उनको याद है कि उनके दोस्‍त महेशबाबू ने चार साल पहले  टैक्‍सी ली थी. महेशबाबू को बैंक कर्ज नहीं दे रहे थे.  कर्ज महंगा तो मिला लेक‍िन फाइनेंस कंपनी से कर्ज की मदद मिल गई . टैक्‍सी चलने लगी. लॉकडाउन में नुकसान हुआ लेक‍िन महेश बाबू खींचतान कर बुरा वक्‍त काट ले गए

राजामण‍ि को भी बैंक कर्ज नहीं दे रहा. उनके पास कमाई का कोई ठोस जरिया नहीं है. और अब वह कंपनी बंद हो गई है जिससे महेशबाबू को कर्ज मिला था. निजी महाजनों से कर्ज लेने का मतलब है सूदखोरी की चपेट में आना.

राजामण‍ि जैसों के लिए बड़ा कठिन वक्‍त शुरु हुआ है. इस फेहर‍िस्‍त में छोटे उद्योग, गांवों ट्रैक्‍टर खरीदने वाले, व्‍यापारी आदि भी शामिल हैं जिनके लिए कर्ज की ख‍िड़की सरकारी या निजी बैंकों में नहीं बल्‍क‍ि  शैडो बैंकों में खुलती थी. वक्‍त ने कुछ एसा पलटा खाया कि भारत की शैडो बैंकिंग का युग खत्‍म हो रहा है. बदलते कानून, नई तकनीकें और महंगा होता कर्ज भारत की विवादि‍त और क्रांतिकारी शैडो बैंकिंग को इति‍हास में दफ्न करने जा रहे हैं 

शैडो बैंकिंग से हमारा मतलब एनबीएफसी से है यानी नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनी से. यानी वे बैंक जैसी कंपन‍ियां जो कर्ज तो दे सकती थीं लेक‍िन बैंकों की तरह डिपॉजिट नहीं ले सकती थीं. यह कर्ज के लिए धन कहां से लातीं थी इसकी कहानी जरा लंबी और पेचीदा है क्‍यों कि इस कहानी में इनके ध्‍वस्‍त होने का इतिहास छिपा है.

पहले यह समझना ठीक रहेगा कि किस तरह शैडो बैंकिंग यानी एनबीएफसी  ने कोविड से पहले तक भारत बाजार कर्ज की पूरी तस्‍वीर ही बदल दी थी.

भारत में नई एनबीएफसी बनाने की रफ्तार में 2010 के बाद तेजी आई. 2012 के बाद भारत की बैंकिंग ढांचा लड़खड़ाने लगा था. यह ट‍ि्वन बैलेंस शीट की उलझन का दौर था. भारी कर्ज में डूबी कंपन‍ियों के कारोबार टूट रही थे. सरकारी बैंकों का  बकाया का कर्ज  फंसने लगा था. 2014 तक यह हालत और गंभीर हो गई. बैंकों को कर्ज से हाथ पीछे खींचने पड़े. अगले चार साल में पूरे बैंकिंग सिस्‍टम में  एनपीए यानी फंसे हुए कर्ज का स्‍तर (कुल कर्ज के अनुपात में ) दोगुना हो गया.

 

2014 वह वक्‍त था जब भारत में शैडो बैंकिंग का उदय हुआ. एनबीएफसी की कतार लग गई. कई प्रमुख औद्योगिक घरानों और बड़े निवेशक इस कारोबार में कूद पड़े. उद्योगों से उपभोक्‍तओं तक कर्ज बांटने की कमान इन कंपनियों ने संभाल ली. इन कंपनियों के पास बैंकों की तरह आम लोगों से बचत जुटाने की छूट नहीं थी लेक‍िन कर्ज बांटने की इजाजत थी. बांटने के लिए यह पैसा इन्‍हें बैंकों से मिलता था. बैंक इन्‍हें सीधा कर्ज भी देते थे और इनके बांड में निवेश करते थे  

 

बैंक अपने फंसे कर्ज के कारण नए कर्ज रोक रहे थे. 2014 के ब्‍याज दर कम होने से बाजार में पूंजी भी थी. नोटबंदी (2016) के बाद बैंकों के पास काफी बचत मौजूद थी. इधर  2012 से 2017 के बीच बड़ी मात्रा में लोगों की बचतें म्‍युचुअल फंड के पास पहुंचने लगी थीं. इस दौरान में इनके पास उपलब्‍ध निवेश धन (एसेट अंडर मैनेजमेंट ) में सालाना 22.1 फीसदी के दर बढ़ा.   बैंक और म्‍युचुअल फंड की बचतें यह बचतें एनबीएफसी कर्ज देने या उनके बांड में निवेश में इस्‍तेमाल हुई.


कर्ज की पायलट सीट पर आ गई भारत की शैडो बैंकिंग. मुख्‍य बैकिंग अब पीछे से इन्‍हें पैसा दे रही थी. यही वह दौर था जब भारत में लगभग 10-11 अलग अलग तरह के एनबीएफसी बने जिनमें आटो, हाउस‍िंग, माइक्रो फाइनेंस आद‍ि प्रमुख थे. 

रिजर्व बैंक के आंकडे बताते हैं कि 2014 से 2017  तक कुल कर्ज में बैंकों का हिस्‍सा 62 फीसदी से घटकर 35 फीसदी रह गया. 2013 से 2017 के बीच एनबीएफ का कर्ज वितरण सालाना 13.1 फीसदी और 2017 से 2019 के बीच 23.4 फीसदी की गत‍ि से बढ़ा. 2018-19 तक यानी  कोविड से पहले  वाण‍िज्‍य‍िक कर्ज में खासतौर पर उद्योगों को कर्ज में एनबीएफसी बैंकों की बराबरी पर आ गए थे. 2020 की पहली छमाही तक शैडो बैंकिंग का कुल कर्ज वितरण 23 लाख करोड़ पहुंच रहा था.

 शैडो बैंकिंग का लीमैन मौका

फिर आया 2018, जहां अमेरिका के लीमैन ब्रदर्स की बैंक की तर्ज पर पर  भारत की शैडों बैंकिंग साइकिल स्‍टैंड पर खड़ी साइकिलों की तरह गिरने लगी. भारत की एनबएफसी कर्ज को बांट कर उसे प्रतिभूत‍ियों में बदल रही थी यानी सिक्‍योरिटाइज कर रही थीं. बाजार में पूंजी सस्‍ती थी, बैंक और म्‍युचुअल उनके बांड में पैसा लगा रहे थे. एनबीएफ छोटी अवध‍ि का कर्ज लेकर लंबी अवध‍ि के लिए बांट रही थीं. लिया गया कर्ज सस्‍ता था और बांटा गया महंगा. सामान्‍य तौर पर एनबीएफसी उनको कर्ज दे रही थीं जिन्‍हें बैंक कर्ज लेने लायक नहीं मानते थे. अर्थव्‍यवस्‍था में ढांचागत मंदी आ चुकी थी, एनबीएफसी के कर्ज की क‍िश्‍तें टूटने लगीं, कर्ज डूबने लगे. एनबीएफस का कर्ज सिक्‍यूराइटजेशन 2018 में 1.99 लाख करोड़ तक पहुंच गया था लेक‍िन इनका बिजनेस मॉडल दरक गया था

पहले डूबी देवान हाउस‍िंग जहां 30000 करोड़ का कर्ज घोटाला हुआ और फिर भारत की एनबीएफस की लीमैन आईएलएफस का पतन हुआ. इन्‍हें कर्ज देने वाले बैंक और म्‍युचुअल फंड भी संकट में आ गए.

सनद रहे कि 2014 के बाद कर्ज की सप्‍लाई में इनका हिस्‍सा बहुत बड़ा था. भरपूर कर्ज बांटने का सरकारी अभियान इनके कंधों पर था इसल‍िए सरकार ने बैंकों के जरिये इनके पैकेज, बेलआउट का इंतजाम किया लेक‍िन निवेश हाथ क्‍या कोहनी भी जला चुके थे. वे एनबीएफसी के लिए सख्‍त और बैंकों जैसे नियम मांग रहे थे इसल‍िए शैडो बैंकिंग अस्‍ताचल की तरफ बढ़ चली. यहीं से भारत की शैडो बैंक‍िंग को लेकर नियम कानूनों का मि‍जाज बदलने लगा.

2018 के बाद इस एनबीएफ की दुनिया में तीन बड़े भूचाल आए हैं. इनको समझना जरुरी है ताकि हमें पता चल सके कि राजामणि‍ को जैसों कर्ज मिलना कयों मुश्‍क‍िल हो गया है.

1- आईएलएफएस के डूबने के बाद रिजर्व बैंक को शैडो बैंकिंग की दरारें नजर आईं. नियम बदले गए. एनबीएफसी को बैंकों तरह संकट के लिए रिजर्व बनाने होंगे. एनपीए घोष‍ित करने होंगे. कर्ज फंसने की सूरत बैंकों की तर्ज इन्‍हें सख्‍त नियमों (पीसीए) में बांधा जाएगा. अब केवल बड़ी एनबीएफसी ही टिकेंगी लेक‍िन उन्‍हें बहुत पूंजी लगानी होगी

2- दूसरा भूचाल तकनीक की दुनिया से आया. फिनटेक के बाद नई तरह व‍ित्‍तीय सेवायें. एनबीएफसी केवल कर्ज बांटने में सक्रिय थे. इस बीच बैकों व अन्‍य वित्‍तीय कंपनियों में पेमेंट, वालेट, यूपीआई,  ऑनलाइन पेमेंट, आदि सेवाओं का  पूरा पोर्टफोलियो बना लिया. सरकारी और निजी बैंक तेजी से से आगे गए आ गए.  कर्ज के कारोबार तक सीम‍ित एनबीएफसी इस होड़ में अब दौड़ नहीं पाएंगे

3- तीसरा सबसे बड़ा झटका कर्ज की महंगाई है. एनबीएफसी सस्‍ते कर्ज के युग में उभरे थे. यह वित्‍तीय प्रणाली के आर‍बि‍ट्राज पर चलते थे. बैंकों व बांड के जरिये सस्‍ता कर्ज उठाकर आगे बांटते थे. कर्ज महंगा होने के बाद यह संभावान चुक गई है. एनबीएफसी के लिए फंड की लागत में बेतहाशा बढ़ोत्‍तरी हो रही हैं दूसरी तरफ महंगे कर्ज के लेनदार घट हैं

 

चार अप्रैल का दिन भारत के वित्‍तीय बाजार की एक और बड़ी करवट थी जब एचडीएफसी के एचडीएफसी बैंक में विलय का एलान हुआ. देश की सबसे बड़ी हाउस‍िंग फाइनेंस कंपनी एचडीएफसी जो कि एनबीएफसी है, वह सबसे बड़ी निजी बैंक में विलय होने जा रही थी. यह विलय अभी मंजूर‍ियों में फंसा है लेक‍िन बाजार ने समझ लिया था कि जब नए कानूनों में बैंकों और एनबीएफसी में अंतर नहीं बचा दो का क्‍या फायदा. अचरज नहीं कि बची हुए बड़ी एनबीएफसी या तो बैंकों के लाइसेंस लें लें या किसी बैंक की गोद में समा जाएं.

शैडो बैंकिंग के पतन के साथ देश के कर्ज के बाजार में दो बहुत बड़े  बदलाव हो रहे हैं. 

एक-                     कर्ज अब आमतौर पर महंगा होगा और कर्ज देने वाले कम बचेंगे

दो-                         दो- बहुत बड़ा तबका बैंकों से कर्ज नहीं ले पाएगा क्‍यों कि उनके पास मजबूत बिजनेस मॉडल नहीं है और बैंक उनके साथ जोखिम नहीं ले सकते.

भारत इस समय करीब 3 ट्र‍िल‍ियन डॉलर की अर्थव्‍यवस्‍था है जिसमें कर्ज का हिसस करीब 1.6 ट्रिल‍ियन डॉलर है. बैंक कर्ज का जीडीपी से अनुपात 56 फीसदी है जबक‍ि कारपोरेट कर्ज जीडीपी का 90 फीसदी. विक‍स‍ित देशों में प्राइवेट कर्ज जीडीपी अनुपात 200 फीसदी से ऊपर है. स्‍टेट बैंक का आकलन है कि भारत मे 5 ट्रि‍ल‍ियन डॉलर की अर्थव्‍यवस्‍था बनने के लिए करीब एक ट्र‍िल‍ियन डॉलर के कर्ज बांटने होंगे...

सरकार को कर्ज बाजार और कर्ज विकल्‍पों की नियमावली नए स‍िरे लिखनी होगी. लेक‍िन सरकारों के पास वक्‍त कहां है?