अमेरिकी राष्ट्रपतियों के इतिहास में, जो बाइडेन को क्या जगह मिलेगी, यह वक्त पर छोड़िये फिलहाल तो ब्लादीमिर पुतिन की युद्ध लोलुपता से अमेरिका को वह एक ध्रुवीय दुनिया गढ़ने का मौका मिल गया है जिसकी कोशिश में बीते 75 बरस में. अमेरिका के 13 राष्ट्रपति इतिहास बन गए.
आप
यह मान सकते हैं कि युद्ध के मैदान में रुस का खेल अभी खत्म नहीं हुआ है लेकिन
युद्ध के करण बढी महंगाई के बाद ग्लोबल मुद्रा बाजार में अमेरिकी डॉलर अब अद्वितीय
है. मुद्रा बाजार में अन्य करेंसी के मुकाबले अमेरिकी डॉलर की ताकत बताने वाला
डॉलर इंडेक्स 20 साल के सर्वोच्च स्तर पर है.
अमेरिका
ने फिएट करेंसी (व्यापार की आधारभूत मुद्रा) की ताकत के दम पर रुस के विदेशी
मुद्रा भंडार को (630 अरब अमेरिकी डॉलर) को बेकार कर दिया है. पुतिन का मुल्क ग्लोबल
वित्तीय तंत्र से बाहर है. इसके बाद तो चीन भी लड़खड़ा गया है.
विश्व
बाजार में अमेरिकी डॉलर की यह ताकत निर्मम है और चिंताजनक है.
एसे आई ताकत
अमेरिकी
डॉलर का प्रभुत्व जिस इतिहास की देन है अब फिर वह नई करवट ले रहा है.
दूसरे
विश्व युद्ध में पर्ल हार्बर पर जापानी हमले ने दुनिया की मौद्रिक व्यवस्था की
बाजी पलट दी थी. इससे पहले तक अमेरिका दूसरी बड़ी जंग में
सीधी दखल से दूर था. जापान की बमबारी के बाद, ब्रिटेन
के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल जंगी जहाज लेकर अमेरिका पहुंच गए और तीन हफ्ते के
भीतर अमेरिका को युद्ध में दाखिल हो गया. यह न होता तो हिटलर शायद ब्रिटेन को भी
निगल चुका होता.
जुलाई
1944 में ब्रेटन वुड्स समझौता हुआ. गोल्ड स्टैंडर्ड के साथ (अमेरिकी डॉलर और
सोने की विनिमय दर) आया. दुनिया के देशों ने अमेरिकी डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडान
बनाना शुरु कर दिया. 1945 में हिटलर की मौत और दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति से
पहले ही अमेरिकी डॉलर का डंका बजने लगा था.
अमेरिकी
में आर्थिक चुनौतियों और फ्रांस के राष्ट्रपति चार्ल्स डि गॉल के कूटनीतिक
वार के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने 1971 में गोल्ड स्टैंडर्ड तो
खत्म कर दिया लेकिन तब तक अमेरिकी डॉलर दुनिया की जरुरत बन चुका था.
डॉलर कितना ताकतवर
अमेरिकी
डॉलर की ताकत है कितनी? बकौल फेड रिजर्व ग्लोबल
जीडीपी में अमेरिका का हिस्सा 20 फीसदी है मगर मुद्रा की ताकत देखिये कि दुनिया
में विदेशी मुद्रा भंडारों में अमेरिकी डॉलर का हिस्सा (2021) करीब 60 फीसदी था.
डॉलर, अमेरिका की दोहरी ताकत है. व्यापार व निवेश के जरिये विदेशी मुद्रा भंडारों
में पहुंचे अमेरिकी डॉलरों का का निवेश अमेरिकी बांड में होता है. अमेरिकी फेडरल
रिजर्व की तरफ से जारी कुल बांड में विदेशी निवेशकों का हिस्सा 33 फीसदी है. यूरो,
ब्रिटिश पौंड और जापानी येन के बांड में निवेश से कहीं ज्यादा.
मौद्रिक साख और ताकत का यह मजबूत चक्र टूटना मुश्किल है.
विश्व के लगभग 80% निर्यात इनवॉयस, 60% विदेशी मुद्रा बांड और ग्लोबल बैंकिंग की करीब 60% देनदारियां भी अमेरिकी डॉलर में हैं.
विकल्प क्या
दुनिया
के देश एक दूसरे अपनी मुद्राओं में विनिमय क्यों नहीं करते ? क्यों कि दुनिया की कोई अमेरिकी डॉलर नहीं हो सकती.
पहली
शर्त है मुद्रा की साख- करेंसी के की
पीछे मजबूत राजकोषीय व्यवस्था ही करेंसी स्टोर वैल्यू बनाती है . एक दशक पहले
तक यूरो को अमेरिकी डॉलर का प्रतिद्वंद्वी माना गया था लेकिन यूरो के पीछे कई
छोटे देशों की अर्थव्यवस्थायें हैं. किसी भी एक देश में उथल पुथल से यूरो
लड़खड़ा जाता है.
विदेशी
मुद्रा भंडारों में यूरो का हिस्सा केवल 21 फीसदी है.
ब्रिटिश पाउंड, जापानी येन, युआन का हिस्सा और भी कम है.
मुद्रा
का मुक्त रुप से ट्रेडेबल या व्यापार योग्य दूसरी शर्त है इसी से
करेंसी की करेंसी यानी गति तय होती है. चीन का युआन दावेदार नहीं बन
पाता. दुनिया का सबसे बडा निर्यातक अपनी करेंसी को
कमजोर रखता है, मुद्रा संचालन साफ सुथरे नहीं हैं. इसलिए
युआन को विदेश्ी मुद्रा भंडारों में दो फीसदी जगह भी नहीं मिली है.
मुद्रा
की स्थिरता सबसे जरुरी शर्त है. 2008 के वित्तीय संकट के बाद मुद्रा स्थिरता
सूचकांक में अमेरिकी डॉलर करीब 70 फीसदी स्थिर रहा है, यूरो 20 फीसदी पर है. येन और युआन काफी नीचे हैं. स्थिरता अमेरिकी डॉलर
बडी ताकत है.
क्रिप्टोकरेंसी
के साथ डॉलर के विकल्प की कुछ बहसें शुरु हुईं थीं. अलबत्ता कोविड के बाद
क्रिप्टोकरेंसी बुलबुला फूट गया और रुस पर प्रतिबंधों से डॉलर की
क्रूर रणनीतिक ताकत भी सामने आ गई.
इतिहास की वापसी
अमेरिकी
डॉलर का प्रभुत्व दूसरे विश्व के बाद पूरी तरह स्थापित हो गया था.
डॉलर की ताकत के दम पर यूरोप की मदद के लिए 1948 में अमेरिका ने 13
अरब डॉलर का मार्शल प्लान (विदेश मंत्री जॉर्ज सी मार्शल) लागू किया था. युद्ध से तबाह यूरोप के करीब 18 देशों को इसका बड़ा लाभ
मिला. हालांकि यही प्लान शीत युद्ध की शुरुआत भी था. यूरोप में रुस व अमेरिकी
खेमों में नाटो (1948-49) और वारसा संधि (1955) में बंट गया.
अब
फिर महामारी और युद्ध का मारा यूरोप अमेरिका ऊर्जा व रक्षा जरुरतों के लिए अमेरिका
पर निर्भर हो रहा है डॉलर की इस नई ताकत के सहारे अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन
एक तरफ यूरोप को रुस के हिटलरनुमा खतरे बचने की गारंटी दे रहे है तो दूसरी तरफ एशिया
में चीन डरे देशों नई छतरी के नीचे जुटा रहे हैं. अमेरिकी डॉलर की बादशाहत इन्हीं हालात से निकली थी. महंगा होता अमेरिकी कर्ज डॉलर को नई मौद्रिक ताकत दे रहा है. इसलिए यूरो, युआन,रुपया सबकी हालत पतली है.
विदेशी
मुद्रा बाजार वाले कहते हैं डॉलर अमेरिका का सबसे मजबूत सैनिक है. यह कभी नहीं
हारता. दूसरी करेंसी को बंधक बनाकर वापस अमेरिका के पास लौट आता है
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