इटली
के धुर पश्चिम में सुरम्य टस्कनी में एक बंदरहगार शहर है लिवोनो
यूरोप
के बंदरगाहों पर कारोबारियों की पुरानी खतो किताबत में लिवोनो के बारे में एक
अनोखी जानकारी सामने आई
17वीं
सदी में लिवोनो एक मुक्त बंदरगाह था. यह
शहर यहूदी कारोबारियों का गढ़ था यह शहर जो भूमध्यसागर के जरिये पूरी दुनिया में
कारोबार करते थे
इन्हीं
कारोबारियों था इसाक इर्गास एंड सिल्वेरा ट्रेडिंग हाउस. यह इटली के और यूरोप
के अमीरों के लिए भारतीय हीरे मंगाता था
इर्गास
एंड सिल्वेरा ठीक वैसे ही काम करते थे जैसे आज की राल्स रायस कार कंपनी करती है
जो ग्राहक का आर्डर आने के बाद उसकी जरुरत और मांग पर राल्स रायस कार तैयार करती
है.
लिवोनो
के यहूदी कारोबारियों के इतिहास का अध्ययन करने वाले इतालवी विद्वान फ्रैनेस्का
टिवोलाटो लिखते हैं कि इर्गास एंड सिल्वेरा भारत ग्राहकों की पसंद के आधार पर
भारत में हीरे तैयार करने का ऑर्डर भेजते थे. भारतीय व्यापारी इटली की मुद्रा
लीरा में भुगतान नहीं लेते थे. उन्हें मूंगे या सोना चांदी में भुगतान चाहिए थे
इर्गास
एंड सिल्वेरा मूंगे या सोने चांदी को लिस्बन (पुर्तगाल) भेजते थे जहां से बडे
जहाज ऑर्डर और पेमेंट लेकर भारत के लिए निकलते थे. मानसूनी हवाओं का मौसम बनते ही
लिस्बन में जहाज पाल चढाने लगते थे. हीरों के ऑर्डर इन जहाजों के भारत रवाना होने
से पहले नहीं पहुंचे तो फिर हीरा मिल पाने की उम्मीद नहीं थी.
डच
और पुर्तगाली जहाज एक साल की यात्रा के बाद भारत आते थे जहां कारोबारी मूंगे और
सोना चांदी को परखकर हीरे देते थे. जहाजों को वापस लिस्बन लौटने में फिर एक साल
लगता था. यानी अगर तूफान आदि में जहाज न डूबा तो करीब दो साल बाद यूरोप के अमीरों
को उनका सामान मिलता था. फिर भी यह दशकों तक यह कारोबार जारी रहा
भारत
के सोने की चिड़िया था मगर वह बनी कैसे?
भारत
में सोने खदानों का कोई इतिहास नहीं है ?
इस
सवाल का जवाब लिवोनो के दस्तावेजों से
मिलता है. 14 ईसवी के बाद यूरोप और खासतौर पर रोम को भारत के मसालो और रत्नो की की लत
लग गई थी. रोम के लोग विलासिता पर इतना खर्च करते थे सम्राट टिबेरियस को कहना पडा कि रोमन लोग अपने
स्वाद और विलासिता के कारण देश का खजाना खाली करने लगे हैं. यूरोप की संपत्ति
भारत आने का यह यह क्रम 17 वीं 18 वीं सदी तक चलता रहा.
18
वीं सदी की शुरुआत में पुर्तगाली अफ्रीका और फिर लैटिन अमेरिका से सोना हासिल
करने लगे थे. इतिहास के साक्ष्य बताते हैं कि 1712 से 1755 के बीच हर साल करीब दस
टन सोना लिस्बन से एशिया खासतौर पर भारत आता था
जिसके बदले जाते थे मसाले, रत्न और कपड़े.
यानी
भारत को सोने की चिड़िया के बनाने वाला सोना न तो भारत में निकला था और न लूट से
आया था. भारत की समग्र एतिहासिक समृद्धि केवल विदेशी कारोबार की देन थी.
आज जब
भारत में व्यापार के उदारीकरण, विदेशी निवेश और व्यापार
समझौतों को लेकर असमंजस और विरोध देखते हैं तो अनायास ही सवाल कौंधता है कि हम
अपने इतिहास क्या कुछ भी सीख पाते हैं. क्यों कि अगर सीख पाए होते मुक्त व्यापार
संधियों की तरफ वापसी में दस साल न लगते.
एक
दशक का नुकसान
आखिरी
व्यापार समझौता फरवरी 2011 में मलेशिया के साथ हुआ था. 2014 में आई सरकार सात
साल तक संरंक्षणवाद के खोल में घुस गई इसलिए अगला समझौता के दस साल बाद फरवरी 2022
में अमीरात के साथ हुआ. इस दौरान दुनिया में व्यापार की जहाज के बहुत आगे निकल
गए. कोविड के आने तक दुनिया में व्यापार
का आकार दोगुना हो गया था.
बाजार
बंद रखने का सबसे बडा नुकसान हुआ है. यह कई अलग अलग आंकड़ों में दिखता है निर्यात
की दुनिया जरा पेचीदा है. इसमें अन्य देशों से तुलना करने कई पैमाने हैं. जैसे कि
कि दुनिया के निर्यात में भारत का हिस्सा अभी भी केवल 2 फीसदी है. इसमें भी
सामनों यानी मर्चेंडाइज निर्यात में हिस्सेदारी तो दो फीसदी से भी कम है. सामानों
का निर्यात निवेश और उत्पादन का जरिया होता है.
विश्व
निर्यात में चीन अमेरिका और जर्मनी का हिस्सा 15,8
और 7 फीसदी है. छोटी सी अर्थव्यवस्था वाला सिंगापुर भी दुनिया के निर्यात हिस्सेदारी
में भारत से ऊपर है. निर्यात को अपनी ताकत बना रहे इंडोनेशिया मलेशिया वियतनाम
जैसे देश भारत के आसपास ही है. मगर एक बड़ा फर्क यह है कि इनकी
जीडीपी के अनुपात में निर्यात 45 से 100 फीसदी तक हैं. दुनिया के 130 देशों में निर्यात जीडीपी का अनुपात औसत 43 फीसदी है भारत में यह औसत आधा करीब 20 फीसदी है.
निर्यात
के हिसाब का एक और पहलू यह है कि किस देश के निर्यात में मूल्य और मात्रा का अनुपात क्या है.
आमतौर पर खनिज और कच्चे माल का निर्यात करने वाले देशों के निर्यात की मात्रा ज्यादा
होती है. यह उस देश में निवेश और वैल्यूएडीशन की कमी का प्रमाण है. भारत के
मात्रा और मूल्य दोनों में पेट्रो उत्पादों का निर्यात सबसे बड1ा है लेकिन
इसमें आयातित कच्चे माल बडा हिस्सा है
इसके
अलावा ज्यादातर निर्यात खनिज या चावल, गेहूं आदि कमॉडिटी का है. मैन्युफैक्चरिंग निर्यात तेजी से नहीं बढे
हैं. बिजली का सामान प्रमुख फैक्ट्री निर्यात है. मोबाइल फोन का निर्यात ताजी
भर्ती हैं लेकिन यहां आयातित पुर्जों पर निर्भरता काफी ज्यादा है.
पिछले
दशकों में निर्यात का ढांचा पूरी तरह बदल गया है. श्रम गहन (कपडा, रत्न जेवरात और चमड़ा) निर्यात पिछड़ रहे हैं. भारत ने रिफाइनिंग और
इलेक्ट्रानिक्स में कुछ बढ़त ली है लेकिन वह पर्याप्त नहीं है और प्रतिस्पर्धा
गहरी है.
कपड़ा
या परिधान उद्योग इसका उदाहरण है जो करीब 4.5 करोड लोगों को रोजगार देता है और
निर्यात में 15 फीसदी हिस्सा रखता है. 2000 से 2010 के दौरान विश्व कपडा निर्यात
में चीन ने अपना हिस्सा दोगुना (18 से 36%)
कर लिया जबकि भारत के केवल 3 फीसदी से 3.2 फीसदी पर पहुंच
सका. 2016 तक बंग्लादेश (6.4%) वियतनाम (5.5%) भारत (4%) को काफी पीछे छोड़ चुके थे.
शुक्र
है समझ तो आया
इस
सवाल का जवाब सरकार ने कभी नहीं दिया कि आखिर जब दुनिया को निर्यात बढ रहा तो
हमने व्यापार समझौते करने के क्यों बंद कर दिये. भारत के ग्लोबलाइजेशन का विरोध
करने वाले कभी यह नहीं बता पाए कि आखिर व्यापार समझौतों से नुकसान क्या हुआ
दुनिया
के करीब 13 देशों साथ भारत के मुक्त व्यापार समझौते और 6 देशों के साथ वरीयक व्यापार
संधियां इस समय सक्रिय हैं. आरसीईपी में भारत संभावनाओं का आकलन करने वाली भल्ला समिति ने आंकड़ों के साथ बताया है कि सभी मुक्त व्यापार समझौते भारत
के लिए बेहद फायदेमंद रहे हैं. इनके तहत आयात और
निर्यात ढांचा संतुलित है यानी कच्चे माल का निर्यात और उपभोक्ता उत्पादों का आयात बेहद सीमित है.
जैसे
कि 2009 आसियान के साथ भारत का एफटीए
सबसे सफल रहा है. फिलिप्स कैपटिल की एक ताज रिपोर्ट बताती है कि देश के कुल
निर्यात आसियान का हिस्सा करीब 10 फीसदी है. आसियान में सिंगापुर, मलेशिया इंडोनेशिया और वियतनाम सबसे बड़े भागीदार है. अब चीन की अगुआई
वाले महाकाय संधि आरसीईपी में इन देशों के शामिल होने के बाद भारत के निर्यात में
चुनौती मिलेगी क्यों इस संधि के देशों के बीच सीमा शुल्क रहित मुक्त व्यापार
की शुरुआत हो रही है.
2004
का साफ्टा संधि जो दक्षिण एशिया देशों साथ हुई उसकी हिस्सेदारी कुल निर्यात में
8 फीसदी है. यहां बंग्लादेश सबसे बडा भागीदार है.
कोरिया
के साथ व्यापार संधि में निर्यात बढ़ रहा है लेकिन भारत जापान मुक्त व्यापार
संधि से निर्यात को बहुत फायदा नहीं हुआ. जापान जैसी विकसित अर्थव्यवस्था को
भारत का निर्यात बहुत सीमित है.
अमीरात
के साथ मुक्त व्यापार समझौते के साथ दरवाजे फिर खुले हैं. यह भारत का तीसरा सबसे
बडा व्यापार भागीदार है लेकिन निर्यात में बड़ा हिस्सा मिनिरल आयल , रिफाइनरी उत्पाद, रत्न -आभूषण और बिजली मशीनरी तक
सीमित है. इस समझौते के निर्यात का दायरा
बड़ा होने की संभावना है
इसी
तरह आस्ट्रेलिया जो भारत के निर्यात भागीदारों की सूची में 14 वें नंबर पर है.
उसके साथ ताजा समझौते के बाद दवा, इंजीनियरिंग चमड़े के निर्यात बढ़ने की संभावना है.
व्यापार
समझौते सक्रिय होने और उनके फायदे मिलने में लंबा वक्त लगता है. भारत में इस राह
पर चलने के असमंजस में पूरा एक दशक निकाल दिया है वियतनाम ने बीते 10 सालों में 15 मुक्त व्यापार
समझौते (एफटीए) किये हैं जबकि 20 शीर्ष व्यापार भागीदारों में कवेल सात देशों के
साथ भारत के मुक्त व्यापर समझौते हैं. बंगलादेश, इंडोनेशिया और वियतनाम से व्यापार
में वरीयता मिलती है. यूके कनाडा और
यूरोपीय समुदाय के साथ बातचीत अभी शुरु हुई है
मौका भी जरुरत भी
वक्त भारतीय अर्थव्यवस्था को फिर एक बडे
निर्णायक मोड़ पर ले आया है. बीते दो दशक की कोशिशों के बावजूद भारत में मैन्युफैक्चरिग
में बहुत बड़ा निवेश नहीं हुआ. रोजगारों में बड़ा हिस्सा सेवाओं से ही आया फैक्ट्रियों
से नहीं. 2011 के बाद आम लोगों की कमाई में बढ़त धीमी पडती गई इसलिए जीडीपी में
उपभोग चार्च का हिस्सा अर्से से 55 -60 फीसदी के बीच सीमित है.
अब भारत को अगर पूंजी निवेश बढ़ाना है तो उसे
अपेन घरेलू बाजार में मांग चाहिए. मांग के लिए चाहिए रोजगार और वेतन में बढ़त.
मेकेंजी की रिपोर्ट बताती है कि करीब छह करोड़ नए
बेरोजगारों और खेती से बाहर निकलने वाले तीन करोड़ लोगों को काम देने के लिए भारत
को 2030 तक करीब नौ करोड़ नए रोजगार बनाने होंगे. यदि श्रम शक्ति में महिलाओं की
भागीदारी का असंतुलन दूर किया जाना है तो इनमें करीब 5.5 करोड़ अतिरिक्त रोजगार
महिलाओं को देने होंगे
2030
तक नौ करोड रोजगारों का मतलब है 2023 से अगले सात वर्ष में हर साल करीब 1.2 करोड़ रोजगारों का सृजन. यह लक्ष्य कितना बड़ा है इसे तथ्य की रोशनी में
समझा जा सकता है कि 2012 से 2018 के बीच भारत में हर साल केवल 40 लाख गैर कृषि
रोजगार बन पाए हैं.
कृषि से इतर बड़े पैमाने पर रोजगार (2030 तक नौ करोड़ गैर कृषि रोजगार)
पैदा करने के लिए अर्थव्यवस्था को सालाना औसतन 9 फीसद की दर से बढ़ना होगा. अगले तीन चार वर्षों में यह विकास दर कम से 10 से 11
फीसदी होनी चाहिए.
यह विकास दर अकेले घरेलू मांग की दम पर हासिल नहीं हो
सकती. भारत को ग्लोकल रणनीति चाहिए. जिसमें जीडीपी में निर्यात का हिस्सा कम से
कम वक्त में दोगुना यानी 40 फीसदी करना होगा. मैन्युफैक्चरिंग का पहिया दुनिया
के बाजार की ताकत चाहिए.
इस रणनीति के पक्ष में दो पहलू हैं
एक – रुस और चीन के ताजा रिश्तों के बाद अमेरिका और
यूरोप के बाजारों में चीन को लेकर सतर्कता बढ़ रही है. यहां के बाजारों में भारत
को नए अवसर मिल सकते हैं.
दूसरा – संयोग से भारत की मुद्रा यानी रुपया गिरावट के
साथ भरपूर प्रतिस्पर्धात्मक हो गया है
आईएमएफ का मानना है कि भारत अगर ग्लोबलाइजेशन की नई
मुहिम शुरु करे तो निर्यात को अगले दशक में निवेश और रोजगार का दूसरा इंजन बनाया
जा सकता है.
भारत के लिए आत्मनिर्भरता का नया मतलब यह है कि दुनिया
की जरुरत के हिसाब, दुनिया की शर्त पर उत्पादन करना. यही तो वह सूझ थी
जिससे भारत सोने की चिड़िया बना था तो अब बाजार खोलने में डर किस बात का है?
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