कानपुर के दीपू घरेलू खपत की सामानों
के डिस्ट्रीब्यूटर हैं. बीते पांच छह महीने में हर सप्ताह जब उनका मुनीम उन्हें
हिसाब दिखाता है उलझन में पड़ जाते हैं. ज्यादातर
सामानों की बिक्री बढ़ नहीं रही है. कुछ की बिक्री घट रही है और कई सामानों की
मांग जिद्दी की तरह एक ही जगह अड़ गई है, बढ़ ही नहीं रही.
दीपू हर सप्ताह कंपनियों के एजेंट को यह हाल बताते
हैं कंपनियां अगली खेप में कीमत बढ़ा देती हैं या पैकिंग में माल घटा देती हैं.
दीपू के कमीशन में कमी नहीं हुई मगर मगर बिक्री टर्नओवर नहीं बढ़ रहा. ज्यादा बिक्री
पर इंसेटिव लेने का मामला अब ठन ठन गोपाल है. कोविड के बाद बाजार खुलते ही दीपू ने
तीन लडकों की डिलीवरी टीम बनाई थी, अब दो को हटा दिया है. नए
दुकानदार नहीं जुड़ रहे और नए आर्डर मिल रहे हैं.
दीपू की डिलीवरी टीम में एक लड़का बचा है जिसके साथ वह
खुद माल पहुंचाते हैं. वसूली करते हैं. उधारी लंबी हो रही है.
दीपू जैसा हाल अगर आपने अपने आसपास सुना हो तो समझिये
कि आप अर्थशास्त्र की हकीकत के करीब पहुंच गए हैं. दीपू का रोजनामचा और बैलेंस
शीट अर्थशास्त्रियों के अध्ययन का विषय होनी चाहिए. आर्थिक सिद्धांतों में जिस
स्टैगफ्लेशन का जिक्र होता है, उसकी पूरी व्यंजन विधि दीपू के हिसाबी पर्चे में है. स्टैगफ्लेशन
की खिचड़ी महंगाई, मांग में कमी और बेरोजगारी से बनती है. स्टैगफ्लेशन के स्टैग का
मतलब है विकास दर में स्थिरता. यह मंदी नहीं है मगर ग्रोथ भी नहीं. तरक्की बस
पंचर कार की तरह ठहर जाती है. फ्लेशन यानी इन्फेलशन यानी महंगाई.
दुनिया की सबसे जिद्दी आर्थिक बीमारी है यह. जिसमें
कमाई नहीं बढती, लागत और कीमतें बढ़ती जाती हैं. दुनिया के बैंकर इतना मंदी से
नहीं डरते. मंदी को सस्ते कर्ज की खुराक से दूर किया जा सकता है लेकिन स्टैगफ्लेशन
का इलाज नहीं मिलता. सस्ता कर्ज महंगाई बढता और महंगा कर्ज मंदी.
शायद आपको लगता होगा कि बाजार में माल तो बिक रहा है.
जीएसटी बढने के आंकडे तो कहीं से महंगाई के असर नहीं बताते तो फिर यह स्टैगफ्लेशन
कहां से आ रही है. महंगाई से मांग गिरने के असर को लेकर अक्सर तगड़ी बहस चलती है
क्यों कि पैमाइश जरा मुश्किल है. भारत में तो इस वक्त इतने परस्पर विरोधी तथ्य
तैर रहे हैं कि तय करना मुश्किल है कि महंगाई का असर है भी या नहीं.
इसके लिए आंकड़ो को कुछ दूसरे नजरिये से देखते हैं.
अर्थव्यवस्था में हमेशा बड़ी तस्वीर ही पूरी तस्वीर होती है और अब हमारे पास
महंगाई से मांग टूटने के कुछ ठोस तथ्य हैं. बजट की तरफ बढ़ते हुए इन्हें देखना
जरुरी है
खपत और उत्पादन का रिश्ता नापने के लिए सबसे व्यावहारिक
बाजार उपभोक्ता उत्पादों का है. इस वर्ग में हर तरह के उपभोक्ता शामिल है, चाय मंजन , मसालों से लेकर सीमेंट और
कारों तक. हर माह जारीहोने वाला औद्योगिक उत्पादन सूचकांक इनके उत्पादन में कमी
या बढत की जानकारी देती है.
अप्रैल से अक्टूबर 2022 के दौरान कंज्यूमर
ड्यूरेबल्स के उत्पादन में 6.6 फीसदी की गिरावट दर्ज हुई इसमें इलेक्ट्रानिक्स
उत्पाद से लेकर कारें तक शामिल हैं 2021 में यहां करीब 30.4 फीसदी की बढ़त हुई
थी. कंज्यूमर नॉन ड्यूरेबल्स यानी साबुल मंजन,
बिस्किट आदि के उत्पादन तो
अप्रैल अक्टूबर 2022 में सिकुड़कर -4.2 फीसदी रह गई जो बीते साल इसी दौरान 7.2 फीसदी
बढ़ी थी
यही तो बडे वर्ग हैं जहां महंगाई से मांग का सीधा
रिश्ता दिखता है. बैंक ऑफ बडोदा के एक ताजा अध्ययन में महंगाई और मांग के रिश्ते
को करीब से पढा गया है.
औद्योगिक उत्पादन सूचकांक और महंगाई के आंकडों को एक
साथ देखने पर करीब 20 से अधिक उत्पाद एसे मिलते हैं महंगाई के कारण जिनकी मांग
में कमी आई जिसके कारण उत्पादन में गिरावट दर्ज हुई
उर्वरकों का किस्सा दिलचस्प है सरकार की सब्सिडी
के बावजूद इस साल महंगाई के कारण उर्वरक की मांग टूटी. गिरावट दर्ज हुई पोटाश और
फास्फेट वर्ग के उर्वरक में, जहां सब्सिडी नही मिलती नतीजतन 2021 में कीमतों की बढ़त 3.2
फीसदी थी 2022 में 12.1 फीसदी हो गई. महंगाई के कारण खरीफ मौसम में बुवाई के बढ़ने
के बावजूद उर्वरक की बिक्री अप्रैल से अक्टूबर 2022 में करीब 5.5 फीसदी कम रही.
स्टील की कीमतों में 2022 में महंगाई का रफ्तार धीमी
तो पड़ी लेकिन दहाई के अंक में थी इसलिए बिक्री में केवल 11.7 फीसदी बढ़ी जो 2021 में 28 फीसदी बढ़ी थी.
खाद्य सामानों में मक्खन, घी, केक, बिस्किट, चॉकलेट चाय, कॉफी, कपडे, फुटवियर में महंगाई ने 5 से
12.5 फीसदी तक की बढ़त दिखाई तो बिक्री ने तेज गोता लगाया.
मक्खन, केक, लिनेन फुटवियर की बिक्री तो नकारात्मक हो गई.
ठीक इसी तरह अप्रैल अक्टूबर 2022 में सीमेंट और ज्यूलरी
की बिक्री में तेज गिरावट आई जिसकी वजह यहां 6 से सात फीसदी की महंगाई थी.
महंगाई के बावजूद
महंगाई से न प्रभावित होने वालों सामानों की सूची
बहुत छोटी है. यानी एसे उत्पाद जिनकी बिक्री बढ़ी जबकि इनकी कीमतें भी बढ़ी थीं.
इसमें सब्सिडी वाली उर्वरक यानी यूरिया और डीएपी है. इसके अलावा आइसक्रीम, डिटर्जेंट, टूथपेस्ट और मोबाइल फोन
हैं. हालांकि त्योहारी मौसम खत्म होने यानी अक्टूबर के बाद मोबाइल की बिक्री
घटने के संकेत भी मिलने लगे थे.
बैंक ऑफ बडोदा के इस अध्ययन में कुछ उत्पाद एसे भी
मिले हैं जिनकी बिक्री का महंगाई से रिश्ता स्पष्ट नहीं होता. जैसे कि कारें, ट्रैक्टर, दोपहिया-तिपहिया वाहन और
कंप्यूटर. इन सबकी कीमतें बढ़ी लेकिन दिसंबर तक कारों की बिक्री ने सारा पुराना
घाटा पाट दिया. 2018 के बाद सबसे ज्यादा कारें बिकीं.
बजट की पृष्ठभूमि
2022-23 में कुल उत्पादन में कमी नजर आने की एक वजह 2021
में तेज बिक्री रही थी जिसे बेसइ इफेक्ट कहते हैं लेकिन आंकड़ो को करीब से देखने
पर महंगाई और मांग का रिश्ता साफ दिख जाता है.
इससे यह भी जाहिर होता है कि सरकार का जीएसटी संग्रह
महंगाई के कारण बढ़ रहा है, बिक्री बढ़ने के कारण नहीं. महंगाई के कारण जीएसटी संग्रह बढ़ने
के सबूत पहले से मिल रहे हैं.
स्टैगफ्लेशन की रोशनी में बजट गणित पेचीदा हो गई है.
अर्थव्यवस्था के चार प्रमुख भागीदार हैं. पहला है उत्पादक, दूसरा है उपभोक्ता तीसरे हैं रोजगार और चौथी है सरकार
महंगाई और लागत बढ़ने के साथ उत्पादकों ने अपनी गणित
बदल ली. कानपुर के दीपू को महंगा माल मिल रहा है क्यों कि मांग में कमी के साथ
कंपनियां क्रमश: कीमतें अपने न्यूनतम मार्जिन सुनश्चित कर रही हैं. वितरकों के
कमीशन सुरक्षति हैं लेकिन कारोबार में बढ़त नहीं है.
दूसरी तरफ उपभोक्ता है. इस माहौल ने उनकी खपत का नजरिया बदल दिया है. तभी तो जरुरी चीजों की मांग गिरी है. रिजर्व बैंक का ताजा कंज्यूमर कान्फीडेंस सर्वे बताता है कि ज्यादातर उभोक्ता अगले एक साल तक गैर जरुरी सामान पर खर्च नहीं करना चाहता है. जरुरी सामानों पर भी उनके खर्च में बड़ी बढ़त नहीं होगी. यही वजह है दीपू को नए दुकानदार नहीं मिल रहे और पुराने दुकानदार आर्डर बढ़ा नहीं रहे हैं.
अप्रैल से दिसंबर के बीच भारत में बेरोजगारी दर 7
फीसदी से ऊपर रही है. दिसंबर में शहरी बेरोजगारी दस फीसदी से ऊपर निकल गई. गांवों में
भी काम नहीं. स्टैगफ्लेशन का सबूत यही है. रोजगार इसलिए टूट रहे हैं क्यों कि
कंपनियों ने नई क्षमताओं में निवेश रोक दिया और उत्पादन को घटाकर मांग से हिसाब
से समायोजित किया है. इस सूरत में नौकरियां आना तो दूर खत्म होने की कतार लगी
है. श्रम बाजार में काम के लिए लोग हैं मगर काम कहां है. दीपू ने भी बेकारी बढाने
में अपनी योगदान किया है. अपने टीम के दो लड़के हटा दिये.
अगर इस वित्त वर्ष में भारत की जीडीपी दर 6.9 फीसदी भी रहती है तो भी बीते
तीन साल में भारत की औसत विकास दर केवल 2.8 फीसदी रहेगी जो कि बीते तीन साल की औसत
विकास दर यानी 5.7 फीसदी का आधी है
अर्थात भारत का सकल घरेलू उत्पादन या बीते 36 महीनों
में तीन फीसदी की दर से भी नहीं बढ़ा है. इसी का सीधा असर हमें खपत पर दिख रहा है.
वित्त वर्ष 2024 की विकास दर अगर छह फीसदी से नीचे रहती है तो फिर चार साल तक देश
के लोगों की कमाई में कोई खास बढ़त नजर नहीं आएगी. यही वजह है कि अब माना जा रहा
है कि यदि 2023 में महंगाई 6 फीसदी से नीचे आ भी गई तो भी लोगों के पास कमाई नहीं
होगी जिससे मांग को तेज बढ़त मिल सके. मांग के बिना कंपनियां नया निवेश नहीं
करेंगी तो रोजगार कहां बनेंगे. विकास दर के गिरने के साथ सरकार के लिए जीएसटी
संग्रह में तेजी बनाये रखना मुश्किल होगा.
यही तो जिद्दी स्टैगफ्लेशन है जो दीपू की बैलेंस शीट
पर दस्तखत कर चुकी है. सरकार को अब कुछ और ही करना
होगा क्यों कि महंगाई कम होने मात्र से मांग के तुरंत लौटने की उम्मीद नहीं है.
कमाई बढेगी तभी शायद बात बनेगी
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