मंदी के जख्म भरने लगे हैं न? तो आइए कुछ नई चोट खाने की तैयारी करें। बजट तो यूं भी स्पंज में छिपी पिनों की तरह होते हैं, ऊपर से गुदगुदे व मुलायम और भीतर से नुकीले, छेद देने वाले। मगर इस बजट के मुलायम स्पंज में तो नश्तर छिपे हो सकते हैं। पिछले एक माह के भीतर बजट की तैयारियों के तेवर चौंकाने वाले ढंग से बदल गए हैं। बात तो यहां से शुरू हुई थी कि मंदी से मुकाबले का साहस दिखाने वाली अर्थव्यवस्था की पीठ पर शाबासी की थपकियां दी जाएंगी, पर अब तो कुछ डरावना होता दिख रहा है। मौका भी है दस्तूर भी और तर्क भी। पांच साल तक राज करने के जनादेश को माथे पर चिपकाए वित्त मंत्री को फिलहाल किसी राजनीतिक नुकसान की फिक्र नहीं करनी है। दूसरी तरफ घाटे के घातक आंकड़े उन्हें सख्त होने का आधार दे रहे हैं। यानी कि इशारे अच्छे नहीं हैं। ऐसा लगता है मानो वित्त मंत्री बर्छियों पर धार रख रहे हैं। दस के बरस का बजट करों के नए बोझ वाला, तेल की जलन वाला और महंगाई के नए नाखूनों वाला बजट हो सकता है यानी कि ऊह, आह, आउच! !.. वाला बजट।
करों की कटार
कमजोर याददाश्त जरूरी है, नहीं तो बहुत मुश्किल हो सकती है। जरा याद तो करिए कि कौन सा बजट करों की कील चुभाए बिना गुजरा है? बजट हमेशा नए करों की कटारों से भरे रहे हैं। यह बात अलग है कि वित्त मंत्रियों ने कभी उन्हें दिखाकर चुभाया है तो कभी छिपाकर। यकीन नहीं होता तो यह आंकड़ा देखिए इस दशक के पहले बजट यानी 1999-2000 के बजट से लेकर दशक 2009-10 तक के बजट तक कुल 55,694 करोड़ रुपये के नए कर लगाए गए हैं। यहां तक कि चुनाव के वर्षो में भी करों में ऐसे बदलाव किए गए हैं जो बाद में चुभे हैं। पिछले दस सालों का हर बजट (08-09 के बजट को छोड़कर) कम से कम 2,000 करोड़ रुपये और अधिकतम 12,000 करोड़ रुपये तक का कर लगाता रहा है। इस तथ्य के बाद सपनीले बनाम डरावने बजटों की बहस बेमानी हो जाती है। इन करों के तुक पर तर्क वितर्क हो सकता है, लेकिन करों की कटार बजट की म्यान में हमेशा छिपी रही है। जो कंपनियों से लेकर कंज्यूमर तक और उद्योगपतियों से लेकर आम करदाताओं तक को काटती रही है। यह बजट कुछ ज्यादा ही पैनी कटार लेकर आ सकता है। बजट को करीब से देख रहे लोग बीते साल से सूंघ रहे थे कि दस का बजट सताने वाला होगा, ताजी सूचनाओं के बाद ये आशंकाएं मजबूत हो चली हैं। वित्त मंत्री को न तो दूरसंचार कंपनियों से राजस्व मिला और न सरकारी कंपनियों में सरकार का हिस्सा बेचकर। घाटा ऐतिहासिक शिखर पर पहुंचने वाला है। दादा कितने उदार कांग्रेसी क्यों न हों, लेकिन आखिर राजकोषीय जिम्मेदारी भी तो कोई चीज है? आने वाले बजट में वह इस जिम्मेदारी को हमारे साथ कायदे से बांट सकते हैं। आने वाला बजट न केवल मंदी के दौरान दी गई कर रियायतें वापस लेगा यानी कि करों का बोझ बढ़ाएगा, बल्कि नए करों के सहारे खजाने की सूरत ठीक करने की जुगत भी तलाशेगा। ऐसी स्थितियों में वित्त मंत्रियों ने अक्सर सरचार्ज, सेस और अतिरिक्त उत्पाद शुल्क या अतिरिक्त सीमा शुल्क की अदृश्य कटारें चलाई हैं और काफी खून बहाया है। संभल कर रहिएगा, वित्त मंत्री इन कटारों की धार कोर दुरुस्त कर रहे हैं।
तेल बुझे तीर
कभी आपने यह सोचा है कि आखिर पेट्रो उत्पादों की कीमतें बढ़ने के तीर बजट के साथ ही क्यों चलते हैं? बजट से ठीक पहले ही तेल कंपनियां क्यों रोती हैं, पेट्रोलियम मंत्रालय उनके स्यापे पर मुहर क्यों लगाता है और क्यों बजट की चुभन के साथ तेल की जलन बोनस में मिल जाती है? दरअसल यह एक रहस्यमय सरकारी दांव है। बजट से ठीक पहले तेल कीमतों का मुद्दा उठाना सबके माफिक बैठता है। सरकार के सामने दो विकल्प होते हैं या तो कीमतें बढ़ाएं या फिर तेल कंपनियों के लिए आयात व उत्पाद शुल्क घटाएं। अगर उदारता दिखाने का मौका हुआ तो शुल्क दरें घट जाती हैं और अगर खजाने की हालत खराब हुई तो कीमतें बढ़ जाती हैं। पेट्रो कीमतों के मामले में बरसों बरस से यही होता आया है। तेल कंपनियां व उनके रहनुमा पेट्रोलियम मंत्रालय को अब यह मालूम हो गया है कि उनका मनचाहा सिर्फ फरवरी में हो सकता है। यह महीना वित्त मंत्रियों के लिए भी माफिक बैठता है, क्योंकि वह भारी खर्च वाली स्कीमों के जयगान के बीच सफाई से यह काम कर जाते हैं और कुछ वक्त बाद सब कुछ पहले जैसा हो जाता है। रही बात तेल मूल्य निर्धारण की नीति ठीक करने की तो उस पर बहस व कमेटियों के लिए पूरा साल पड़ा है। यह तो वक्त बताएगा कि तेल बुझे तीर बजट से पहले छूटेंगे, बजट में या बजट के बाद, लेकिन दर्द का पूरा पैकेज एक साथ अगले कुछ हफ्तों में आने वाला है।
महंगाई का मूसल
इससे पहले तक हम अक्सर बजट के बाद ही यह जान पाते थे कि बजट महंगाई की कीलें कम करेगा या बढ़ाएगा, लेकिन यह बजट तो आने से पहले ही यह संकेत दे रहा है कि इससे महंगाई की आग को हवा और घी दोनों मिलेंगे। कैसे? इशारे इस बात के हैं कि वित्त मंत्री पिछले साल दी गई कर रियायतें वापस लेने वाले हैं। यह सभी रियायतें अप्रत्यक्ष करों यानी उत्पाद व सीमा शुल्कों से संबंधित थीं। मतलब यह कि आने वाले बजट में कई महत्वपूर्ण उत्पादों पर अप्रत्यक्ष कर बढेंगे। अप्रत्यक्ष कर का बढ़ना हमेशा महंगाई बढ़ाता है, क्योंकि कंपनियां बढ़े हुए बोझ को उपभोक्ताओं के साथ बांटती हैं। यानी कि महंगाई को पहला प्रोत्साहन तो दरअसल प्रोत्साहन पैकेज की वापसी से ही मिल जाएगा। साथ ही महंगाई की आग में पेट्रोल भी पड़ने वाला है यानी कि पेट्रो उत्पादों की कीमतें बढ़ने वाली हैं। यह महंगाई की कीलों को आग में तपाने जैसा है। इसके बाद बची खुची कसर सरकार का घाटा पूरा कर देगा। सरकार को अगले साल बाजार से अभूतपूर्व कर्ज लेना होगा। जो कि बाजार में मुद्रा आपूर्ति बढ़ाएगा और महंगाई के कंधे से अपना कंधा मिलाएगा।
करों की कटार के साथ तेल बुझे तीर और ऊपर से महंगाई.. लगता है कि जैसे बजट घायल करने के सभी इंतजामों से लैस होकर आ रहा है। दरअसल मंदी के होम में सरकार ने अपने हाथ बुरी तरह जला लिये हैं। वह अब आपके मलहम नहीं लगाएगी, बल्कि आपसे मलहम लेकर अपनी चोटों का इलाज करेगी। लगता नहीं कि यह बजट अर्थव्यवस्था की समस्याओं के इलाज का बजट होगा, बल्कि ज्यादा संभावना इस बात की है कि इस बजट से सरकार अपने खजाने का इलाज करेगी। जब-जब सरकारों के खजाने बिगड़े हैं तो लोगों ने अपनी बचत और कमाई की कुर्बानी दी है, यह कुर्बानी इस बार भी मांगी जा सकती है अर्थात नया बजट तोहफे देने वाला नहीं, बल्कि तकलीफ देने वाला हो सकता है।
अन्यर्थ
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच) SATORI
करों की कटार
कमजोर याददाश्त जरूरी है, नहीं तो बहुत मुश्किल हो सकती है। जरा याद तो करिए कि कौन सा बजट करों की कील चुभाए बिना गुजरा है? बजट हमेशा नए करों की कटारों से भरे रहे हैं। यह बात अलग है कि वित्त मंत्रियों ने कभी उन्हें दिखाकर चुभाया है तो कभी छिपाकर। यकीन नहीं होता तो यह आंकड़ा देखिए इस दशक के पहले बजट यानी 1999-2000 के बजट से लेकर दशक 2009-10 तक के बजट तक कुल 55,694 करोड़ रुपये के नए कर लगाए गए हैं। यहां तक कि चुनाव के वर्षो में भी करों में ऐसे बदलाव किए गए हैं जो बाद में चुभे हैं। पिछले दस सालों का हर बजट (08-09 के बजट को छोड़कर) कम से कम 2,000 करोड़ रुपये और अधिकतम 12,000 करोड़ रुपये तक का कर लगाता रहा है। इस तथ्य के बाद सपनीले बनाम डरावने बजटों की बहस बेमानी हो जाती है। इन करों के तुक पर तर्क वितर्क हो सकता है, लेकिन करों की कटार बजट की म्यान में हमेशा छिपी रही है। जो कंपनियों से लेकर कंज्यूमर तक और उद्योगपतियों से लेकर आम करदाताओं तक को काटती रही है। यह बजट कुछ ज्यादा ही पैनी कटार लेकर आ सकता है। बजट को करीब से देख रहे लोग बीते साल से सूंघ रहे थे कि दस का बजट सताने वाला होगा, ताजी सूचनाओं के बाद ये आशंकाएं मजबूत हो चली हैं। वित्त मंत्री को न तो दूरसंचार कंपनियों से राजस्व मिला और न सरकारी कंपनियों में सरकार का हिस्सा बेचकर। घाटा ऐतिहासिक शिखर पर पहुंचने वाला है। दादा कितने उदार कांग्रेसी क्यों न हों, लेकिन आखिर राजकोषीय जिम्मेदारी भी तो कोई चीज है? आने वाले बजट में वह इस जिम्मेदारी को हमारे साथ कायदे से बांट सकते हैं। आने वाला बजट न केवल मंदी के दौरान दी गई कर रियायतें वापस लेगा यानी कि करों का बोझ बढ़ाएगा, बल्कि नए करों के सहारे खजाने की सूरत ठीक करने की जुगत भी तलाशेगा। ऐसी स्थितियों में वित्त मंत्रियों ने अक्सर सरचार्ज, सेस और अतिरिक्त उत्पाद शुल्क या अतिरिक्त सीमा शुल्क की अदृश्य कटारें चलाई हैं और काफी खून बहाया है। संभल कर रहिएगा, वित्त मंत्री इन कटारों की धार कोर दुरुस्त कर रहे हैं।
तेल बुझे तीर
कभी आपने यह सोचा है कि आखिर पेट्रो उत्पादों की कीमतें बढ़ने के तीर बजट के साथ ही क्यों चलते हैं? बजट से ठीक पहले ही तेल कंपनियां क्यों रोती हैं, पेट्रोलियम मंत्रालय उनके स्यापे पर मुहर क्यों लगाता है और क्यों बजट की चुभन के साथ तेल की जलन बोनस में मिल जाती है? दरअसल यह एक रहस्यमय सरकारी दांव है। बजट से ठीक पहले तेल कीमतों का मुद्दा उठाना सबके माफिक बैठता है। सरकार के सामने दो विकल्प होते हैं या तो कीमतें बढ़ाएं या फिर तेल कंपनियों के लिए आयात व उत्पाद शुल्क घटाएं। अगर उदारता दिखाने का मौका हुआ तो शुल्क दरें घट जाती हैं और अगर खजाने की हालत खराब हुई तो कीमतें बढ़ जाती हैं। पेट्रो कीमतों के मामले में बरसों बरस से यही होता आया है। तेल कंपनियां व उनके रहनुमा पेट्रोलियम मंत्रालय को अब यह मालूम हो गया है कि उनका मनचाहा सिर्फ फरवरी में हो सकता है। यह महीना वित्त मंत्रियों के लिए भी माफिक बैठता है, क्योंकि वह भारी खर्च वाली स्कीमों के जयगान के बीच सफाई से यह काम कर जाते हैं और कुछ वक्त बाद सब कुछ पहले जैसा हो जाता है। रही बात तेल मूल्य निर्धारण की नीति ठीक करने की तो उस पर बहस व कमेटियों के लिए पूरा साल पड़ा है। यह तो वक्त बताएगा कि तेल बुझे तीर बजट से पहले छूटेंगे, बजट में या बजट के बाद, लेकिन दर्द का पूरा पैकेज एक साथ अगले कुछ हफ्तों में आने वाला है।
महंगाई का मूसल
इससे पहले तक हम अक्सर बजट के बाद ही यह जान पाते थे कि बजट महंगाई की कीलें कम करेगा या बढ़ाएगा, लेकिन यह बजट तो आने से पहले ही यह संकेत दे रहा है कि इससे महंगाई की आग को हवा और घी दोनों मिलेंगे। कैसे? इशारे इस बात के हैं कि वित्त मंत्री पिछले साल दी गई कर रियायतें वापस लेने वाले हैं। यह सभी रियायतें अप्रत्यक्ष करों यानी उत्पाद व सीमा शुल्कों से संबंधित थीं। मतलब यह कि आने वाले बजट में कई महत्वपूर्ण उत्पादों पर अप्रत्यक्ष कर बढेंगे। अप्रत्यक्ष कर का बढ़ना हमेशा महंगाई बढ़ाता है, क्योंकि कंपनियां बढ़े हुए बोझ को उपभोक्ताओं के साथ बांटती हैं। यानी कि महंगाई को पहला प्रोत्साहन तो दरअसल प्रोत्साहन पैकेज की वापसी से ही मिल जाएगा। साथ ही महंगाई की आग में पेट्रोल भी पड़ने वाला है यानी कि पेट्रो उत्पादों की कीमतें बढ़ने वाली हैं। यह महंगाई की कीलों को आग में तपाने जैसा है। इसके बाद बची खुची कसर सरकार का घाटा पूरा कर देगा। सरकार को अगले साल बाजार से अभूतपूर्व कर्ज लेना होगा। जो कि बाजार में मुद्रा आपूर्ति बढ़ाएगा और महंगाई के कंधे से अपना कंधा मिलाएगा।
करों की कटार के साथ तेल बुझे तीर और ऊपर से महंगाई.. लगता है कि जैसे बजट घायल करने के सभी इंतजामों से लैस होकर आ रहा है। दरअसल मंदी के होम में सरकार ने अपने हाथ बुरी तरह जला लिये हैं। वह अब आपके मलहम नहीं लगाएगी, बल्कि आपसे मलहम लेकर अपनी चोटों का इलाज करेगी। लगता नहीं कि यह बजट अर्थव्यवस्था की समस्याओं के इलाज का बजट होगा, बल्कि ज्यादा संभावना इस बात की है कि इस बजट से सरकार अपने खजाने का इलाज करेगी। जब-जब सरकारों के खजाने बिगड़े हैं तो लोगों ने अपनी बचत और कमाई की कुर्बानी दी है, यह कुर्बानी इस बार भी मांगी जा सकती है अर्थात नया बजट तोहफे देने वाला नहीं, बल्कि तकलीफ देने वाला हो सकता है।
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