बगैर तली वाले बर्तन में पानी भरने का अपना ही रोमांच है..जादू जैसा? बर्तन में पानी जाता हुआ तो दिखता है मगर अचानक गायब। वित्त मंत्री हर बजट में यह जादू करते हैं। हर बजट में खर्च के कुछ बड़े आंकड़े वित्त मंत्रियों के मुंह से झरते हैं और फिर मेजों की थपथपाहट के बीच लोकसभा की वर्तुलाकार दीवारों में खो जाते हैं। पलट कर कौन पूछता है कि आखिर खर्च की इन चलनियों में कब कितना दूध भरा गया, वह दूध कहां गया और उसे लगातार भरते रहने का क्या तुक था? वित्त मंत्री ने पिछले साल दस लाख करोड़ रुपये का जादू दिखाया था और खर्च के तमाम अंध कूपों में अरबों रुपये डाल दिए थे। इस साल उनका जादू बारह लाख करोड़ रुपये का हो सकता है या शायद और ज्यादा का?
तिलिस्मी सुरंग में अंधे कुएं
खर्च बजट की तिलिस्मी सुरंग है। कोई वित्त मंत्री इसमें आगे नहीं जाता। खो जाने का पूरा खतरा है। खर्च का खेल सिर्फ बड़े आंकड़ों को कायदे से कहने का खेल है। पिछले दस साल में सरकार का खर्च पांच गुना बढ़ा है। 1999-2000 में यह 2 लाख 68 हजार करोड़ रुपये पर था मगर बीते बजट में यह दस लाख करोड़ रुपये हो गया। कभी आपको यह पता चला कि आखिर सरकार ने इतना खर्च कहां किया? बताते तो यह हैं कि पिछले एक दशक के दौरान सरकार अपनी कई बड़ी जिम्मेदारियां निजी क्षेत्र को सौंप कर उदारीकरण के कुंभ में नहा रही है। दरअसल खर्च में पांच गुना वृद्घि को जायज ठहराने के लिए सरकार के पास बहुत तर्क नहीं हैं। यह खर्च कुछ ऐसे अंधे कुओं में जा रहा है, जो गलतियों के कारण खोद दिए गए मगर अब उनमें यह दान डालना अनिवार्य हो गया है। दस साल पहले केंद्र सरकार 88 हजार करोड़ रुपये का ब्याज दे रही थी मगर आज ब्याज भुगतान 2 लाख 25 हजार करोड़ रुपये का है। यानी कि दस लाख करोड़ के खर्च का करीब 22 फीसदी हिस्सा छू मंतर। दूसरा ग्राहक सब्सिडी है। दस साल पहले सब्सिडी थी 22 हजार करोड़ रुपये की और आज है एक लाख 11 हजार करोड़ रुपये की। यानी बजट का करीब 11 फीसदी हिस्सा गायब। ब्याज और सब्सिडी मिलकर सरकार के उदार खर्च का 30-31 फीसदी हिस्सा पी जाते हैं। मगर जादू सिर्फ यही नहंी है और भी कुछ ऐसे तवे हैं जिन पर खर्च का पानी पड़ते ही गायब हो जाता है। तभी तो कुल बजट में करीब सात लाख करोड़ रुपये का खर्च वह है जिसके बारे में खुद सरकार यह मानती है कि इससे अर्थव्यवस्था की सेहत नहीं ठीक होती मगर फिर भी यह रकम अप्रैल से लेकर मार्च तक खर्च की तिलिस्मी सुरंग में गुम हो जाती है। सरकार के मुताबिक उसके बजट का महज 30 से 32 फीसदी हिस्सा ऐसा है जो विकास के काम का है। आइये अब जरा इस काम वाले खर्च की स्थिति देखें।
चलनियों का चक्कर
देश मे करीब 35 करोड़ ग्रामीण गरीबी की रेखा से नीचे हैं। एक दशक पहले भी इतने ही लोग गरीब थे। (जनसंख्या के अनुपात में कमी के आंकड़े से धोखा न खाइये, गरीबों की वास्तविक संख्या हर पैमाने पर बढ़ी है।) अभी भी दो लाख बस्तियों में कायदे का पेयजल नहीं है। इसे आप पुराना स्यापा मत समझिये, बल्कि यह देखिये कि सरकार ने पिछले एक दशक में सिर्फ गांव में गरीबी मिटाने की स्कीमों पर 78 हजार करोड़ रुपये खर्च किये हैं और गांवों को पीने का पानी देने की योजनाओं पर कुल 36 हजार करोड़। यानी दोनों पर करीब 11 हजार करोड़ रुपये हर साल। ... दरअसल यह कुछ नमूने हैं उन चलनियों के, जिनमें सरकार अपने योजना बजट का दूध भरती है। इन पर गांधी, नेहरू, इंदिरा, राजीव जैसे बड़े नाम चिपके हैं, इसलिए सिर्फ नाम दिखते हैं काम नहीं। पिछले एक दशक में गरीबी उन्मूलन की स्कीमों में खर्च को लेकर जितने सवाल उठे हैं, उनमें आवंटन उतना ही बढ़ गया है। स्कीमों का नरेगा मनरेगा परिवार इस समय सरकार के स्कीम बजट का सरदार है। वैसे चाहे वह पढ़ाने लिखाने वाली स्कीमों का कुनबा हो या सेहतमंद बनाने वाली स्कीमों का, यह देखने की सुध किसे है कि 200 के करीब सरकारी स्कीमों की चलनियों में जाने वाला दूध नीचे कौन समेट रहा है? सीएजी से लेकर खुद केंद्रीय मंत्रालयों तक को इनकी सफलता पर शक है। लेकिन हर बजट में वित्त मंत्री इन्हें पैसा देते हैं तालियां बटोरते हैं। बेहद महंगे पैसे के आपराधिक अपव्यय से भरपूर यह स्कीमें सरकारी भ्रष्टाचार का जीवंत इतिहास बन चुकी हैं मगर यही तो इस बजट का रोमांच है।
थैले की करामात
बजट का अर्थ ही है थैला। मगर असल में यह कर्ज का थैला है। सरकार देश में कर्जो की सबसे बड़ी ग्राहक है और सबसे बड़ी कर्जदार भी। वह तो सरकार है इसलिए उसे कर्ज मिलता है नहीं तो शायद इतनी खराब साख के बाद किसी आम आदमी को तो बैंक अपनी सीढि़यां भी न चढ़ने दें। बजट के थैले से स्कीमें निकलती दिखतीं हैं, खर्च के आंकड़े हवा में उड़ते हैं मगर थैले में एक दूसरे छेद से कर्ज घुसता है। इस थैले की करामात यही है कि सरकार हमसे ही कर्ज लेकर हमें ही बहादुरी दिखाती है। सरकार के पास दर्जनों क्रेडिट कार्ड हैं यह बांड, वह ट्रेजरी बिल, यह बचत स्कीम, वह निवेश योजना। पैसा बैंक देते हैं क्योंकि हमसे जमा किये गए पैसे का और वे करें भी क्या? मगर इस थैले का खेल अब बिगड़ गया है। सरकार का कर्ज कुल आर्थिक उत्पादन यानी जीडीपी का आधा हो गया है। अगले साल से सरकार के दरवाजे पर बैंकों के भारी तकाजे आने वाले हैं। यह उन कर्जो के लिए होंगे जो पिछले एक दशक में उठाये गए थे। ऐसी स्थिति में हर वित्त मंत्री अपना सबसे बड़ा मंत्र चलाता है। वह है नोट छापने की मशीन जो रुपये छाप कर घाटा पूरा करने लगती है। कुछ वर्ष पहले तक यह खूब होता रहा है। हमें तो बस यह देखना है कि इस बजट में यह मंतर आजमाया जाएगा या नहीं?
सरकार के खर्च में वृद्घि से ईष्र्या होती है। काश देश के अधिकांश लोगों की आय भी इसी तरह बढ़ती, सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता भी इसी तर्ज पर बढ़ जाती। बुनियादी सुविधायें भी इतनी नहंी तो कम से कम थोड़ी भी बढ़ जातीं, तो मजा आ जाता। लेकिन वहां सब कुछ पहले जैसा है या बेहतरी नगण्य है। इधर बजट में खर्च फूल कर गुब्बारा होता जा रहा है और सरकार का कर्ज बैंकों की जान सुखा रहा है लेकिन इन चिंताओं से फायदा भी क्या है? बजट तो खाली खजाने से खरबों के खर्च का जादू है और जादू में सवालों की जगह कहां होती है? वहां तो सिर्फ तालियों सीटियों की दरकार होती है, इसलिए बजट देखिये या सुनिये मगर गालिब की इस सलाह के साथ कि .. हां, खाइयो मत, फरेब -ए- हस्ती / हरचंद कहें, कि है, नहीं है।
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अन्यर्थ के लिए
http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच)
तिलिस्मी सुरंग में अंधे कुएं
खर्च बजट की तिलिस्मी सुरंग है। कोई वित्त मंत्री इसमें आगे नहीं जाता। खो जाने का पूरा खतरा है। खर्च का खेल सिर्फ बड़े आंकड़ों को कायदे से कहने का खेल है। पिछले दस साल में सरकार का खर्च पांच गुना बढ़ा है। 1999-2000 में यह 2 लाख 68 हजार करोड़ रुपये पर था मगर बीते बजट में यह दस लाख करोड़ रुपये हो गया। कभी आपको यह पता चला कि आखिर सरकार ने इतना खर्च कहां किया? बताते तो यह हैं कि पिछले एक दशक के दौरान सरकार अपनी कई बड़ी जिम्मेदारियां निजी क्षेत्र को सौंप कर उदारीकरण के कुंभ में नहा रही है। दरअसल खर्च में पांच गुना वृद्घि को जायज ठहराने के लिए सरकार के पास बहुत तर्क नहीं हैं। यह खर्च कुछ ऐसे अंधे कुओं में जा रहा है, जो गलतियों के कारण खोद दिए गए मगर अब उनमें यह दान डालना अनिवार्य हो गया है। दस साल पहले केंद्र सरकार 88 हजार करोड़ रुपये का ब्याज दे रही थी मगर आज ब्याज भुगतान 2 लाख 25 हजार करोड़ रुपये का है। यानी कि दस लाख करोड़ के खर्च का करीब 22 फीसदी हिस्सा छू मंतर। दूसरा ग्राहक सब्सिडी है। दस साल पहले सब्सिडी थी 22 हजार करोड़ रुपये की और आज है एक लाख 11 हजार करोड़ रुपये की। यानी बजट का करीब 11 फीसदी हिस्सा गायब। ब्याज और सब्सिडी मिलकर सरकार के उदार खर्च का 30-31 फीसदी हिस्सा पी जाते हैं। मगर जादू सिर्फ यही नहंी है और भी कुछ ऐसे तवे हैं जिन पर खर्च का पानी पड़ते ही गायब हो जाता है। तभी तो कुल बजट में करीब सात लाख करोड़ रुपये का खर्च वह है जिसके बारे में खुद सरकार यह मानती है कि इससे अर्थव्यवस्था की सेहत नहीं ठीक होती मगर फिर भी यह रकम अप्रैल से लेकर मार्च तक खर्च की तिलिस्मी सुरंग में गुम हो जाती है। सरकार के मुताबिक उसके बजट का महज 30 से 32 फीसदी हिस्सा ऐसा है जो विकास के काम का है। आइये अब जरा इस काम वाले खर्च की स्थिति देखें।
चलनियों का चक्कर
देश मे करीब 35 करोड़ ग्रामीण गरीबी की रेखा से नीचे हैं। एक दशक पहले भी इतने ही लोग गरीब थे। (जनसंख्या के अनुपात में कमी के आंकड़े से धोखा न खाइये, गरीबों की वास्तविक संख्या हर पैमाने पर बढ़ी है।) अभी भी दो लाख बस्तियों में कायदे का पेयजल नहीं है। इसे आप पुराना स्यापा मत समझिये, बल्कि यह देखिये कि सरकार ने पिछले एक दशक में सिर्फ गांव में गरीबी मिटाने की स्कीमों पर 78 हजार करोड़ रुपये खर्च किये हैं और गांवों को पीने का पानी देने की योजनाओं पर कुल 36 हजार करोड़। यानी दोनों पर करीब 11 हजार करोड़ रुपये हर साल। ... दरअसल यह कुछ नमूने हैं उन चलनियों के, जिनमें सरकार अपने योजना बजट का दूध भरती है। इन पर गांधी, नेहरू, इंदिरा, राजीव जैसे बड़े नाम चिपके हैं, इसलिए सिर्फ नाम दिखते हैं काम नहीं। पिछले एक दशक में गरीबी उन्मूलन की स्कीमों में खर्च को लेकर जितने सवाल उठे हैं, उनमें आवंटन उतना ही बढ़ गया है। स्कीमों का नरेगा मनरेगा परिवार इस समय सरकार के स्कीम बजट का सरदार है। वैसे चाहे वह पढ़ाने लिखाने वाली स्कीमों का कुनबा हो या सेहतमंद बनाने वाली स्कीमों का, यह देखने की सुध किसे है कि 200 के करीब सरकारी स्कीमों की चलनियों में जाने वाला दूध नीचे कौन समेट रहा है? सीएजी से लेकर खुद केंद्रीय मंत्रालयों तक को इनकी सफलता पर शक है। लेकिन हर बजट में वित्त मंत्री इन्हें पैसा देते हैं तालियां बटोरते हैं। बेहद महंगे पैसे के आपराधिक अपव्यय से भरपूर यह स्कीमें सरकारी भ्रष्टाचार का जीवंत इतिहास बन चुकी हैं मगर यही तो इस बजट का रोमांच है।
थैले की करामात
बजट का अर्थ ही है थैला। मगर असल में यह कर्ज का थैला है। सरकार देश में कर्जो की सबसे बड़ी ग्राहक है और सबसे बड़ी कर्जदार भी। वह तो सरकार है इसलिए उसे कर्ज मिलता है नहीं तो शायद इतनी खराब साख के बाद किसी आम आदमी को तो बैंक अपनी सीढि़यां भी न चढ़ने दें। बजट के थैले से स्कीमें निकलती दिखतीं हैं, खर्च के आंकड़े हवा में उड़ते हैं मगर थैले में एक दूसरे छेद से कर्ज घुसता है। इस थैले की करामात यही है कि सरकार हमसे ही कर्ज लेकर हमें ही बहादुरी दिखाती है। सरकार के पास दर्जनों क्रेडिट कार्ड हैं यह बांड, वह ट्रेजरी बिल, यह बचत स्कीम, वह निवेश योजना। पैसा बैंक देते हैं क्योंकि हमसे जमा किये गए पैसे का और वे करें भी क्या? मगर इस थैले का खेल अब बिगड़ गया है। सरकार का कर्ज कुल आर्थिक उत्पादन यानी जीडीपी का आधा हो गया है। अगले साल से सरकार के दरवाजे पर बैंकों के भारी तकाजे आने वाले हैं। यह उन कर्जो के लिए होंगे जो पिछले एक दशक में उठाये गए थे। ऐसी स्थिति में हर वित्त मंत्री अपना सबसे बड़ा मंत्र चलाता है। वह है नोट छापने की मशीन जो रुपये छाप कर घाटा पूरा करने लगती है। कुछ वर्ष पहले तक यह खूब होता रहा है। हमें तो बस यह देखना है कि इस बजट में यह मंतर आजमाया जाएगा या नहीं?
सरकार के खर्च में वृद्घि से ईष्र्या होती है। काश देश के अधिकांश लोगों की आय भी इसी तरह बढ़ती, सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता भी इसी तर्ज पर बढ़ जाती। बुनियादी सुविधायें भी इतनी नहंी तो कम से कम थोड़ी भी बढ़ जातीं, तो मजा आ जाता। लेकिन वहां सब कुछ पहले जैसा है या बेहतरी नगण्य है। इधर बजट में खर्च फूल कर गुब्बारा होता जा रहा है और सरकार का कर्ज बैंकों की जान सुखा रहा है लेकिन इन चिंताओं से फायदा भी क्या है? बजट तो खाली खजाने से खरबों के खर्च का जादू है और जादू में सवालों की जगह कहां होती है? वहां तो सिर्फ तालियों सीटियों की दरकार होती है, इसलिए बजट देखिये या सुनिये मगर गालिब की इस सलाह के साथ कि .. हां, खाइयो मत, फरेब -ए- हस्ती / हरचंद कहें, कि है, नहीं है।
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