Monday, January 31, 2011

हम सब काले, कालिख वाले !


अर्थार्थ
कसठ का हो चुका गणतंत्र अपनी सबसे गहरी कालिख को देखकर शर्मिंदा है। सराहिये इस शर्मिंदगी को, यही तो वह काला (धन) दाग है जो हर आमो-खास के धतकरम, चवन्नी छाप रिश्वंतखोरी से लेकर कीर्तिमानी भ्रष्टाचार और हर किस्म के जरायम अपने अंदर समेट लेता है। यह धब्बा हर क्षण बढ़ता है महसूस होता है मगर नजर नहीं आता। सरकार की साख में अभूतपूर्व गिरावट के बीच काले धन की कालिख भी चमकने लगी है। दिल्ली से स्विटजरलैंड तक भारत के काले (धन) किस्से कहे सुने जा रहे हैं। वैसे अगर टैक्स हैवेन की पुरानी और रवायती बहस को छोड़ दिया जाता तो हकीकत यह है कि काली अर्थव्यवस्था हमारे संस्कार में भिद चुकी है। आर्थिक अपराध का यह अदृश्‍य चरम अब हम हिंदुस्ता्नियों की नंबर दो वाली आदत है। अर्थव्‍यवस्था इसकी चिकनाई पर घूमती है। टैक्सन हैवेन के रहस्यों पर सरकार का असमंजस लाजिमी है क्यों कि पिछले साठ वर्षों में इस कालिख के उत्पावदन को हर तरह से बढ़ावा दिया गया है। भारत में साल दर साल काले धन के धोबी घाट( मनी लॉड्रिंग के रास्ते ) बढ़ते चले गए हैं। काला धन हमारी मजबूर और मजबूत आर्थिक विरासत बन चुका है।
कालिख के कारखाने
अब टैक्स के डर से और काली कमाई कोई नहीं छिपाता बल्कि काले धन का उत्पादन सुविधा, स्‍वभाव और सु‍नोयजित व्यवस्था के तहत होता है। भारत कुछ ऐसे अजीबोगरीब ढंग से उदार हुआ है कि एनओसी, अप्रूवल, नाना प्रकार के फॉर्म, सार्टीफिकेट, डिपार्टमेंटल क्लियरेंस, इंस्पेक्शन रिपोर्ट, तरह तरह की फाइलों, दस्तावेजों, इंसपेक्टेर राज आदि से गुंथी बुनी सरकारी दुनिया में हर सरकारी दफ्तर एक प्रॉफिट सेंटर
बन गया है और हर बाबू काला धन बनाने की एक इकाई। सिंगल विंडो क्लियरेंस अब एक के जरिये सभी को साधने का रास्ता है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल बता चुकी है कि भारत में ग्यारह बुनियादी सरकारी सेवाओं में चाय पानी वाली रिश्वेतखोरी ही अकेले सालाना 21000 करोड़ रुपये की है। जब भारत के ट्रक हर साल करीब पांच अरब डॉलर की रिश्वकत देते हों कालिख की पैदावार का आकार समझा जा सकता है। भारत एशिया का दूसरा ( इं‍डो‍नेशिया पहला) सबसे भ्रष्ट। देश है। छोटे सरकारी दफ्तर कालेधन का कुटीर उद्योग है और राजनेताओं बड़े कारखाने चलताते हैं जहां विनिवेश, नीतियों में बदलाव, कंपनियों से सांठगांठ पुराने पहचाने रास्तेक हैं। रिश्वीत भारत में व्यवस्था का सहज हिस्सा है, उद्यमी के लिए यह कारोबार की लागत है और आम लोगों के लिए यह जरुरी शुल्क है। निजीकरण और उदार नीतियां भ्रष्टा चार में लाइसेंस परमिट राज को मात दे रही हैं। भारत में लाभ के बढ़ते अवसर, देने वाले हाथ और समृद्धि में बढ़ोत्तदरी काले धन को पोस रही हैं। काली अर्थव्य वसथा की ग्रोथ आधिकारिक अर्थव्यवस्‍था से हमेशा ज्यादा होती है मगर हमने जानबूझ कर कालिख के कारखानों की अनदेखी की है, इसलिए अब दो नंबर के दागों पर झुंझलाने से क्या फायदा।
काले धन के धोबी घाट
पैसे की कालिख उसकी धुलाई (मनी लॉड्रिंग)के बाद ही पता चलती है। भारत में कालिख का उत्पादन और उसे धोने की नई नई लॉंड्री एक साथ बढ़ी हैं।काले धन को रोकना एक जटिल काम है मगर इसकी धुलाई रोकी जा सकती है इसलिए तो यूरोप से लेकर अमेरिका तक हर कोई मनी लॉड्रिंग के रास्ते बंद करने में जुटा है मगर भारत ने पिछले एक दशक में कालेधन का हर धोबी घाट अपने यहां खोल लिया है। भारत में मनी लॉड्रिंग रोकने का कानून बनने तक काले धन को धोने की पूरी व्यलवस्था यहां जडें जमा चुकी थी। सरकारों की नाक के नीचे पैदा हो रहा काला धन अचल संपत्ति को गुलजार कर रहा है। जमीन जायदाद की लॉंड्री में सबके पाप धुल जाते हैं। बड़ी कंपनियों की ओट में चलने वाली फर्जी कंपनियां हों, निर्यात आयात कारोबार हो, शेयर बाजार हो या फिर हवाला, ट्रस्ट् हों या आईपीएल, भारत में काले धन को घुमाने और साफ कर मुख्य। धारा में लाने का पूरा तंत्र बेहद सहज ढंग से चलता है। नशे, आतंक, हथियार का पैसा भी इसी में गड्ड मड्ड हो जाता है। भारत में काला धन अब सिर्फ जगह बदलता है इसलिए अधिकांश कालिख देश के भीतर ही खप जाती है और यह पैसा छोटे उपभोक्ता खर्चों या निवेशों में बदल कर अर्थव्यवस्था को गति देता रहता है। सिर्फ एक छोटा हिस्सा देश से बाहर जाता है क्यों कि भारत में काले धन की फैक्ट्री अब लॉड्रिंग की क्षमता से ज्यादा उत्पादन कर रही है।
कालिख की तिजोरी
इस बात पर मत चौंकिये कि पिछले एक दशक में करीब 4.8 लाख करोड़ रुपये (ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी रिपोर्ट) अवैध ढंग से विदेश पहुंचे हैं बल्कि अचरज इस बात पर करिये कि भारत की यह सामानांतर अर्थव्यवस्था कितनी बड़ी है कि देश के भीतर काले धन को खपाने के तमाम विकल्प मिलकर भी इतनी कालिख नहीं पचा पाते। काले धन का हिसाब किताब खुद काले धन की तरह ही अबूझ और रहस्यमय है। लेकिन इन स्वपतंत्र आकलनों पर भरोसा किया जा सकता है कि काले धन की अर्थव्य वस्था जीडीपी की करीब 40 फीसदी यानी करीब 25,00,000 करोड़ रुपये की है। पता नहीं कि स्विस बैंकों में भारतीयों के 1500 बिलियन डॉलर जमा हैं या और ज्यादा। लेकिन यह तय है कि पूंजी को अवैध रास्तों से बाहर भेजने में भारत दुनिया में पांचवें नंबर पर है और 1948 से 2008 के बीच 462 अरब डॉलर (ग्लोंबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी रिपोर्ट) भारत से बाहर गए हैं। दरअसल स्विस बैंक काले धन को बनाने, खपाने या धोनने और छिपाने की श्रंखला में सबसे आखिरी कडी हैं, जहां तक सिर्फ वहीं पहुंचते हैं जिन्हें देश में इसे ठिकाने लगाने की जगह नहीं मिलती। यह शानदार तिजोरियां काले धन की दुनिया के हर नत्थू खैरे को हासिल नहीं है। उनका काल धन तो देश में ही खप जाता है। देश के चुनिंदा बड़े ही अपनी कालिख स्विटरजलैंड ले जाते लेकिन उनके सहारे समानांतर अर्थव्यवस्था की पूरी बहस को जड़ो से कटकर फैशनेबल बना देते हैं। विदेश में जमा काले धन की चर्चा देशी कालिख को ढकने का सबसे आसान रास्ता है।
 हम चोरों, उठाईगीरों, जालसाजों का देश नहीं हैं। एक औसत हिंदुस्तानी ईमानदारी के साथ विकास करना, कमाना, टैक्सा देना, खर्च करना चाहता है। वह कतई नहीं चाहता कि उसे जन्म का सार्टीफिकेट लेने से लेकर मरने की सूचना दर्ज कराने तक हर जगह काजल की कोठरी से गुजरना पड़े। वह नहीं चाहता कि उसकी मेहनत और समर्पण से आया विकास चंद लोगों के कारण दागदार हो जाए। मगर बदकिस्मसती ही है कि हम काले धन के अभूतपूर्व जटिल दुष्चक्र में फंस चुके है, जिससे निकलने की कोई सूरत फिलहाल नहीं है। चाहे या अनचाहे हम सब इस पाप में शामिल हैं। काले धन की कालिख में सबके हाथ काले हैं। यह हमारा सामूहिक राष्ट्रीय आर्थिक अपराध है।
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