अर्थार्थ
पचहत्तर साल के प्रणव मुखर्जी इकसठ साल के गणतंत्र को जब नया बजट देंगे तब भारत की नई अर्थव्यवस्था पूरमपूर बीस की हो जाएगी। ... है न गजब की कॉकटेल। हो सकता है कि महंगाई को बिसूरते, थॉमसों, राजाओं और कलमाडि़यों को कोसते या सरकार की हालत पर हंसते हुए आप भूल जाएं कि अट्ठाइस फरवरी को भारत का एक बहुत खास बजट आने वाला है। बजट यकीनन रवायती होते हैं लेकिन यह बजट बड़े मौके का है। यह बजट भारत के नए आर्थिक इंकलाब (उदारीकरण) का तीसरा दशक शुरु करेगा। यह बजट नए दशक की पहली पंचवर्षीय योजना की भूमिका बनायेगा जो उदारीकरण के बाद सबसे अनोखी चुनौतियों से मुकाबिल होगी क्यों कि खेत से लेकर कारखानों और सरकार से लेकर व्या पार तक अब उलझनें सिर्फ ग्रोथ लाने की नहीं बल्कि ग्रोथ को संभालने, बांटने और बेदाग रखने की भी हैं। हम एक जटिल व बहुआयामी अर्थव्यवस्था हो चुके हैं, जिसमें मोटे पैमानों (ग्रोथ, राजकोषीय संतुलन) पर तो ठीकठाक दिखती तस्वी्र के पीछे कई तरह जोखिम व उलझने भरी पडी हैं। इसलिए एक रवायती सबके लिए सबकुछ वाला फ्री साइज बजट उतना अहम नहीं है जितना कि उस बजट के भीतर छिपे कई छोटे छोटे बजट। देश इस दशकारंभ बजट को नहीं बलिक इसके भीतर छिपे बजटों को देखना चाहेगा, जहां घाटा बिल्कुल अलग किस्म का है।
ग्रोथ : रखरखाव का बजट
वित्त मंत्री को अब ग्रोथ की नहीं बलिक ग्रोथ के रखरखाव और गुणवत्ता की चिंता करनी है। बीस साल की आर्थिक वृद्धि ऊंची आय, असमानता, असंतुलन, निवेश, तेज उतपादन, भ्रष्टाचार, उपेक्षा, अवसर यानी सभी गुणों व दुर्गुणों के साथ मौजूद है। मांग के साथ महंगाई मौजूद है और आपूर्ति के साथ बुनियादी ढांचे की किल्लत लागत चौतरफा बढ़ रही है और ग्रोथ की दौड़ मे पिछड़ गए कुछ अहम क्षेत्र आर्थिक वृद्धि की टांग खींचने लगे हैं। कायदे से वित्त मंत्री को महंगाई से निबटने का बजट ठीक करते नजर आना चाहिए। महंगाई भारत की ग्रोथ कथा में खलनायक बनने वाली है। इस आफत को टालने के लिए खेती को जगाना जरुरी है। यानी कि इस बजट को पूरी तरह
किसान, गांव व खेती का बजट होना चाहिए। यह समाजवादी व किसानवादी सोच नहीं बल्कि विशुद्ध बाजारी सोच है। उदारीकरण के बाद पिछले बीस बजटों में खेती की उपेक्षा का पाप महंगाई बनकर हमारे गले में लिपट गया है। पूरी अर्थव्यवस्था महंगी होकर पिछले एक दशक की उपलब्धियों के फायदे पोंछ रही है। इसी तरह वित्तत मंत्री अगर ग्रोथ को टिकाऊ बनाना चाहेंगे तो वह बुनियादी ढांचे के लिए रवायती बजट को बदलते नजर आएंगे। भारत अपने मरियल व कमजोर बुनियादी ढांचे को निचोड़ कर नौ फीसदी विकास दर की मंजिल तक आ गया है लेकिन इसके बाद का सफर बहुत मुश्किल है। वहां बिजली की ताकत, सड़कों की रफ्तार, शहरों का नया अवतार चाहिए। लोग यह भी जानना चाहेंगे कि उन्हें कर व वित्तीय कानूनों की नई पीढ़ी (जीएसटी-डीटीसी) के लिए कितना इंतजार करना होगा ओर विदेशी निवेश के उदारीकरण का नया बिगुल कब बजेगा। भारत में ग्रोथ अब असंतुलन का घाटा पैदा कर रही है। क्या यह बजट इस घाटे को दूर करने की राह दिखायेगा ?
किसान, गांव व खेती का बजट होना चाहिए। यह समाजवादी व किसानवादी सोच नहीं बल्कि विशुद्ध बाजारी सोच है। उदारीकरण के बाद पिछले बीस बजटों में खेती की उपेक्षा का पाप महंगाई बनकर हमारे गले में लिपट गया है। पूरी अर्थव्यवस्था महंगी होकर पिछले एक दशक की उपलब्धियों के फायदे पोंछ रही है। इसी तरह वित्तत मंत्री अगर ग्रोथ को टिकाऊ बनाना चाहेंगे तो वह बुनियादी ढांचे के लिए रवायती बजट को बदलते नजर आएंगे। भारत अपने मरियल व कमजोर बुनियादी ढांचे को निचोड़ कर नौ फीसदी विकास दर की मंजिल तक आ गया है लेकिन इसके बाद का सफर बहुत मुश्किल है। वहां बिजली की ताकत, सड़कों की रफ्तार, शहरों का नया अवतार चाहिए। लोग यह भी जानना चाहेंगे कि उन्हें कर व वित्तीय कानूनों की नई पीढ़ी (जीएसटी-डीटीसी) के लिए कितना इंतजार करना होगा ओर विदेशी निवेश के उदारीकरण का नया बिगुल कब बजेगा। भारत में ग्रोथ अब असंतुलन का घाटा पैदा कर रही है। क्या यह बजट इस घाटे को दूर करने की राह दिखायेगा ?
विकास : समावेश का बजट
सरकार को करीब तीन साल पहले विकास को समावेशी बनाने की सुध आई थी तो उसने सरकारी स्कीमों में मोटा पैसा भर दिया जो छेदों से होकर बह गया। भारत सरकारी सामाजिक स्की मों की दूसरी पीढ़ी देख रहा है। भारी बजटों और विशाल सरकारी तंत्र से लैस रोजगार आश्वासनों, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा स्वास्थ्य की स्कीमें जब कोई करिश्मा नहीं कर सकीं तो सरकारें कानूनी गारंटी पर आ गईं और सरकारी स्कीमों का भ्रष्टाचार गारंटीशुदा हो गया। हमारा सामाजिक विकास जटिल किस्मक के उलझनों से मुकाबिल है। भारत के छोटे मझोले उद्योगो के पास श्रमिकों की कमी है और कुछ पढ़े लिखे युवकों के सामने रोजगार की। श्रम की मांग की व आपूर्ति बुरी तरह असंतुलित है। सामाजिक सेवाओं का बाजार इतना बड़ा है कि सरकार के चाहे अनचाहे निजी क्षेत्र शिक्षा से सेहत तक हर जगह आ गया है और बगैर किसी विनियमन के बढ़ रहा है। जिस तरह सरकारी शिक्षा का बाजार से कोई से वास्ता नहीं था ठीक उसी तरह शिक्षा का निजी कारोबार भी बाजार की असलियत से नावाकिफ है। भारत अगले पांच साल शायद बिल्कुल नई किस्म की चुनौतियों से घिरा होगा जहां गरीबी विकास की कमी से नहीं बल्कि महंगाई की वजह से बढेगी जहां श्रमिकों की कमी भी होगी और बेरोजगारी भी। जहां सैकड़ों अस्पताल होंगे लेकिन इलाज के नियम व्यवस्थायें नहीं। जहां लाखों नए मकान बनेंगे लेकिन रहने वालों के लिए नहीं बलिक बचत का निवेश करने वालों के लिए। भारत में समावेशी यानी इन्क्लूसिव ग्रोथ की गणित कुछ दूसरा ही फार्मूला मांगती है। पता नहीं वित्ता मंत्री क्या देने वाले हैं।
गर्वनेंस : साख का बजट
दुआ कीजिये की बजट की साख को किसी की नजर न लगे क्यों कि सरकार का साख जबर्दस्त घाटे में है। सरकार अब खुद यह मानती है कि गरीबी कब की खतम हो जाती अगर भ्रष्टाचार न होता। पिछले बीस साल में हमने सुधारों को सरकार से दूर रखा। देश आधुनिक और अमीर हुआ मगर सरकारी तंत्र सड़ता गया। वहां भ्रष्टा चार की नई तकनीकें ईजाद हुई और देश की साख डुबाने वाले नए नए चेहरे उभरे। भारतीय उद्यमिता की सफल कथाओं को सरकार के धतकरमों ने दागदार किया है। इसलिए भारत में सुधारों की अगली पीढी किसी बैंक, शेयर बाजार, विदेशी निवेश से नहीं सरकार भीतर पैदा होनी चाहिए। यह कोई आदर्शवादी उम्मीद नहीं है बलिक एक इमर्जेंसी है। सुधारों का अगला पड़ाव राज्यों में होगा जबकि केंद्र के सतर पर नीतियों में सूक्ष्म फेरबदल की जरुरत होगी। इस तरह जटिल सुधारों के लिए राजनीतिक प्रशासनिक ईमानदारी पहली शर्त है। सरकारी तंत्र ने अपनी साख का बजट नहीं सुधारा तो पूरी ग्रोथ की साख गिर जाएगी। बजट सरकार का एक सबसे अहम नीति दसतावेज है यदि वित्त मंत्री चाहें तो प्रशासनिक सुधार, पारदर्शिता, कानूनों में बदलाव की ठोस कोशिशों के जरिये साख की बैलेंस शीट ठीक करने की तरफ बढ़ सकते हैं।
संकट ही हमें बदलने का मौका देते हैं 1991 में 67 टन सोना बेचने साथ उभरे संकट का इंकलाबी इलाज हमें यहां तक लाया है। मगर अब हजारों टन सोने से बड़ी गवर्नेंस की साख और व्यवस्था का संकट हमारे सामने है। उदारीकरण के तीसरे दशक की चुनौती अब बचने या बढ़ने की बल्कि बने और बेदाग ढंग से बढ़ते रहने की है। जिसके लिए मजबूत और पारदर्शी गवर्नेंस चाहिए। ग्रोथ प्राकृतिक होती है जंगल की मानिंद, जबकि विकास संतुलित होता है उपवन की भांति। भारत को अब ग्रोथ की आंतरिक फिटनेस पर ध्यातन देना यानी ग्रोथ को विकास में बदलना है। इसलिए इस बजट को अंदर से देखियेगा कयों कि हर बजट में कई छोटे छोटे बजट होते हैं। यह उन छोटे बजटों को ठीक करने का मौका है। एक बडा मौका !!... चूक न जाए !!
संकट ही हमें बदलने का मौका देते हैं 1991 में 67 टन सोना बेचने साथ उभरे संकट का इंकलाबी इलाज हमें यहां तक लाया है। मगर अब हजारों टन सोने से बड़ी गवर्नेंस की साख और व्यवस्था का संकट हमारे सामने है। उदारीकरण के तीसरे दशक की चुनौती अब बचने या बढ़ने की बल्कि बने और बेदाग ढंग से बढ़ते रहने की है। जिसके लिए मजबूत और पारदर्शी गवर्नेंस चाहिए। ग्रोथ प्राकृतिक होती है जंगल की मानिंद, जबकि विकास संतुलित होता है उपवन की भांति। भारत को अब ग्रोथ की आंतरिक फिटनेस पर ध्यातन देना यानी ग्रोथ को विकास में बदलना है। इसलिए इस बजट को अंदर से देखियेगा कयों कि हर बजट में कई छोटे छोटे बजट होते हैं। यह उन छोटे बजटों को ठीक करने का मौका है। एक बडा मौका !!... चूक न जाए !!
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Una vez más ejecuta presupuesto Berchiaan hombre común está por venir. Ver las lágrimas acelera o se Thomt ... Atul Kushwaha
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