Monday, May 30, 2011

कुर्बानी का मौसम

रा देखिये तो कि पेट्रो कीमतों के फफोले भूलकर आप दुनियावी बाजार के सामने सरकार की लाचारी पर किस तरह पिघल गए ? जरा गौर तो करिये कि तेल कंपनियों की बैलेंस शीट ठीक रखने के लिए कितने फख्र के साथ बलिदानी चोला पहन लिया। महसूस तो करिये सब्सिडीखोर होने की तोहमत से बचने के लिए आप सरकार के पेट्रो सुधारों पर किस अदा के साथ फिदा हो गए।..... गलती आपकी नहीं है, दरअसल यह मौसम ही कुर्बानी का है। बैंकों से लेकर बाजार तक और तेल कंपनियों से लेकर सरकार तक सब आम लोगों से ही कुर्बानी मांग रहे हैं, और हम भी कभी मजबूरी में तो कभी मौज में बहादुरी दिखाये जा रहे हैं। मगर इससे पहले कि शहादत का नया परवाना (पेट्रो कीमतों में अगली बढ़ोतरी ) आपके पास पहुंचे, सभी सिक्कों के दूसरे पहलू देख लेने में कोई हर्ज नहीं है। पेट्रो उत्पादों पर टैक्स और सब्सिडी के तंत्र को सिरे से परखने की जरुरत बनती है क्योंभ कि पेट्रो कीमतों में हमाम में दुनिया अन्य देश भी हमारे जैसे ही हैं। इस असंगति से मगजमारी करने में कोई हर्ज नहीं है कि हजारों करोड़ की सब्सिडी बाबुओं जेब में डालने वाली सरकार, सब्सिडी को महापाप बताकर हमें महंगे पेट्रोल डीजल की आग में झोंक देती है। यह गुत्थी खोलने की कोशिश जरुरी है कि लोक कल्याणकारी राज्य के तहत बाजार में सरकार के हस्तक्षेप की जरुरत कब और क्योंी होती है। यह सवाल उठाने में हिचक कैसी कि देश की कथित जनप्रिय सरकारों को पेट्रोल पर टैक्स कम करने से किसने रोका है? और यह तलाशना भी आवश्यक है कि भारत में पेट्रो उत्पादों की मांग अन्य ऊर्जा स्रोतों की किल्लत के कारण बढ़ी है या सिर्फ ग्रोथ के कारण।
सब्सिडी का हमाम
पेट्रो सब्सिडी की हिमायत और हिकारत पर बहस से बेहतर है कि इसकी असलियत देखी जाए। पेट्रो सब्सिडी पर शर्मिंदा होने की जरुरत तो कतई नहीं है क्यों कि इस पृथ्वी तल पर हम अनोखे नहीं हैं, जहां सरकारें अंतरराष्ट्रीय पेट्रोकीमतों की आग पर सब्सिडी का पानी पर डालती हैं। आईएमएफ का शोध बताता है कि 2003 में पूरी दुनिया में पेट्रोलियम उत्पादों पर उपभोक्ता सब्सिडी केवल 60 अरब डॉलर थी जो 2010 में 250 अरब डॉलर पर पहुंच गई। 2007 से दुनिया की तेल कीमतों में आए उछाल के बाद सब्सिडी घटाने की मुहिम हांफने लगी और पूरी दुनिया अपनी जनता को सब्सिडी का मलहम
लगाने लगी। मगर यह अंतरराष्ट्रीय पेट्रो सब्सिडी का यह आधा सच है। कर की दर कम रखकर भी सब्सिडी या राहत दी जाती है। इसे मिलाने के बाद पेट्रो उत्पादों पर अंतरराष्ट्रीय सब्सिडी पिछले साल 740 अरब डॉलर थी, जो कि दुनिया के जीडीपी का एक फीसदी है। पेट्रो सब्सिडी के इस साम्राज्य की अगुआई भी अमीर देश (जी 20) करते हैं जो सब्सिडी को लेकर नसीहतें बांटते हैं। हमारी सरकारें हमें सब्सिडी का आइना दिखाकर शर्मिंदा करती हैं लेकिन पिछले एक दशक में दुनिया के करीब 155 प्रमुख देशों में से दो तिहाई देशों ने पूरी पेट्रो मूल्य वृद्धि उपभोक्ताओं के सर नहीं मढ़ी। जबकि करीब आधे देशों ने डीजल के मामले भी ऐसा ही किया। यह उदारता दिखाने वाले देशों में कई ऐसे हैं, जहां ऊर्जा क्षेत्र विकसित है और महंगाई नियंत्रित रहती है। इनकी तुलना में हमारी जलन ज्यादा गहरी व भयानक है और मगर हम राहत की जगह सब्सिडीखोर होने की तोहमत झेल रहे हैं।
टैक्स के धुरंधर
भारत पेट्रोल पर टैक्स लगाने में धुरंधर है। इतना टैक्स कि दुनिया के अमीर देश जलन से मर जाएं। केंद्र सरकार के लिए अन्य उत्पाद एक तरफ हैं और अकेला पेट्रोल डीजल एक तरफ। कुल राजस्व का 40-45 फीसदी तेल से निकाल आता है। पेट्रोल-डीजल महंगा तो (एडवैलोरम- मूल्यानुसार) टैक्स भी ज्यादा। राज्य सरकारों के बीच तो महंगाई बढ़ाने वाले इस उत्पाद को टैक्स से दुहने की होड़ है। केंद्र और राज्यों के टैक्स विभाग कर जुटाने के नए प्रयोगों में मुफलिस हैं इसलिए भारत में उपभोक्ता विश्व बाजार (महंगे कच्चे तेल) नहीं बल्कि सरकार की वजह से तेल की आधी कीमत टैक्स के तौर पर देते हैं। हम कॉलर ऊंचा कर उन देशों की कतार में शामिल हो गए हैं जो, बकौल विश्व बैंक, पेट्रोल डीजल को ओवरटैक्स करते हैं। भारत के साथ इस सूची में ब्रिटेन, इटली, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी जैसे विकसित देश भी हैं मगर हैरत में डालने वाली सूची उन देशों की है जहां सरकारें पेट्रोल को टैक्स से कम निचोड़ती हैं। उस सूची में अमेरिका, चीन, रुस, ब्राजील, मैक्सिको व कनाडा हैं। अमेरिका जैसा विकसित और चीन व ब्राजील जैसे विकासशील देश कम टैक्स लगाकर अपने अपने उपभोक्ताओं पर रहम करते हैं और अपनी अर्थव्यवस्थाओं को महंगा होने से बचाते हैं मगर भारत के सरकारी राजस्व बहादुर तेल महंगा कर लोगों की जेब व ग्रोथ का शिकार कर रहे हैं।
किल्लत की मांग
पेट्रो उत्पादों की मांग थामने के लिए कीमतें बढ़ाने का तर्क ठहाके के लायक है। मोटर ईंधन को महंगा रखने की पूरी अंतरराष्ट्रीय बहस पर्यावरण की फिक्र से उपजी है। ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन घटाने के लिए निजी वाहन कम और सार्वजनिक परिवहन ज्यादा इस्तेमाल करने का दर्शन इसके पीछे है। मगर भारत में तो डीजल परिवहन का नहीं बल्कि रोशनी और ऊर्जा का ईंधन है। सरकारों ने देश को पर्याप्त बिजली नहीं दी तो दैत्याकार मेगावाटी जेनरेटर, शॉपिग मालों से लेकर आवासीय परिसरों तक को उजाला और ठंडक दे रहे हैं। देश के अधिकांश हिस्सों में उद्योगों ताजी ग्रोथ स्टोरी डीजल से निकली है ग्रिड की बिजली से नहीं। कार व बाइक कंपनियों की कामयाबी की कहानियां भी सार्वजनिक परिवहन की शहादत से उपजी हैं। अगर देश को अबाधित और अच्छी क्वालिटी की बिजली मिल जाए तो डीजल की खपत कम से पंद्रह फीसदी घट जाएगी और अगर हर शहर दिल्ली की तर्ज पर अच्छी बसों या मेट्रो से धन्य हो जाएं तो महंगे पेट्रोल में हाथ कौन जलायेगा। भारत में पेट्रो उत्पादों की मांग का चरित्र दुनिया से निराला है। हम तापीय, जल, नाभिकीय जैसे ऊर्जा स्रोतों के मामले में अफ्रीका से ज्याादा बेहतर नहीं हैं मगर शॉपिंग मॉल व कारों के मामले में यूरोप से होड़ कर सकते हैं। भारत में आय बढऩे के कारण पेट्रो उत्पादों की खपत नहीं बढ़ी है बल्कि ग्रोथ को पेट्रोल डीजल पिलाकर पाला जा रहा है।
  कुर्बानी तो हमारी मजबूरी है, डेढ़ लाख करोड़ की सब्सिडी हर साल लुटाने वाली सरकार कैसे मजबूर हो सकती है। हजार किस्मो के फालतू खर्चों से लंदी फंदी तेल कंपनियों को स्वहस्थ रखना हमारी ड्यूटी है, सरकार का काम तो महंगाई के नाखूनों को टैक्स के जहर में डुबोना है। महंगाई स्वीकार कर मांग घटाना हमारी जिम्मेदारी है, बिजली उत्पादन बढ़ाकर डीजली बिजली को रोकना सरकार की कृपा पर है। सुधारों के सारे संकल्प हमारे हैं इसलिए पेट्रो सुधारों के ठीकरे हमारे सर फूट रहे हैं। एक दशक पहले तक महंगाई एक राजनीतिक जोखिम हुआ करता था मगर सरकारें अब इससे नहीं डरती क्यों। कि हमें अब इसकी आदत पड़ गई। ....पेट्रो सुधारों को लेकर हमारी कुर्बानी से सरकार बहुत खुश है। वह जल्द ही हमें महंगी एलपीजी व केरोसिन नया तोहफा देने वाली है। .... वीर तुम बढ़े चलो!!
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1 comment:

  1. so true..... you expressed the plight of a common man !!

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