Monday, April 9, 2012

सूबेदारों के खजाने

किस्‍मत हो तो अखिलेश यादव और विजय बहुगुणा जैसी। क्‍यों कि ममता बनर्जी और प्रकाश सिंह बादल जैसी किस्‍मत से फायदा भी क्‍या। उत्‍तर प्रदेश और उत्‍तराखंड में मुख्‍यमंत्री बनने के लिए शायद इससे अच्‍छा वक्‍त नहीं हो सकता। अखिलेश और विजय बहुगुणा को सिर्फ कुर्सी नहीं बल्कि भरे पूरे खजाने भी मिले हैं यानी कि दोहरी लॉटरी। दूसरी तरफ कंगाल बंगाल की महारानी, ममता दरअसल जीत कर भी हार गई हैं। और रहे बादल तो वह किसे कोसेंगे, उन्‍हें तो अपना ही बोया काटना है। राज्‍यों के मामले में हम एक बेहद कीमती और दुर्लभ परिदृश्‍य से मुखातिब है। जयादातर राज्‍यो के बजट में राजस्‍व घाटा खत्‍म ! करीब दो दर्जन सरकार की कमाई के खाते में सरप्‍लस यानी बचत की वापसी ! खर्च पर नियंत्रण। कर्ज के अनुपातों में गिरावट। ... प्रणव बाबू अगर राज्‍यों के यह आंकड़े देखें तो वह अपने बजट प्रबंधन ( भारी घाटा) पर शर्मिंदा हुए बिना नहीं रहेंगे। अर्से बाद राज्‍यों की वित्‍तीय सेहत इतनी शानदार दिखी है। तीन चार साल की हवा ही कुछ ऐसी थी कि यूपी बिहार जैसे वित्‍तीय लद्धढ़ भी बजट प्रबंधन के सूरमा बन गए, तो जिन्‍हें नहीं सुधरना था (बंगाल, पंजाब) वह इस मौके पर भी नहीं सुधरे। राज्‍यों के वित्‍तीय सुधार की यह खुशी शत प्रतिशत हो सकती थी, बस अगर बिजली कंपनियों व बोर्डों के घाटे न होते। राज्‍यों के वित्‍तीय प्रबंधन की चुनौती अब उनके बजट यानी टैक्‍स या खर्च से के दायरे से बाहर है। राज्‍यों की बिजली कंपनियां अब सबसे बड़ा वित्‍तीय खतरा बन गई हैं।
जैसे इनके दिन बहुरे
नजारा बड़ा दिलचस्‍प है। उत्‍तर प्रदेश, मध्‍य प्रदेश झारखंड, बजटीय संतुलन की कक्षा में मेधावी हो गए हैं जबकि पुराने टॉपर महाराष्‍ट्र, तमिलनाडु, हरियाणा और यहां तक कि गुजरात का भी रिपोर्ट कार्ड दागी है। राज्‍यों की पूरी जमात में पंजाब, हरियाणा और बंगाल तीन ऐसे राज्‍य हैं जो वित्‍तीय सेहत सुधारने मौसम में भी ठीक नहीं हो सके। अन्‍य राज्‍यों और पिछले वर्षों की तुलना में इनका राजसव्‍ गिरा और घाटे व कर्ज बढे हैं। वैसे अगर सभी राज्‍यों के संदर्भ में देखा जाए तो घाटों, कर्ज और असंतुलन का अजायबघर रहे राज्‍य बजटों का यह पुनरोद्धार
 दर्शनीय है, जबकि केंद्रीय खजाने की हालत बिगडती चली गई। राज्यों के बजटों पर रिजर्व बैंक की ताजा रिपोर्ट बताती है कि तेज ग्रोथ और अच्‍छे राजसव के चलते बीते तीन चार साल राज्‍यों की अर्थव्‍यवस्‍थाओं के लिए सबसे थे राजयो वित्‍तीय सेहत के तीन प्रमुख पैमाने हैं। एक राजस्‍व खाते का हाल यानी कि राज्‍य सरकार की टैकस से कमाई व खर्च का अंतर। दो कुल कर्ज और तीसरा राज्‍य सरकार अपना (केंद्रीय करो में हिस्‍से के अलावा) राजस्‍व। इन तीनों पैमानों पर सभी राज्‍यों की साझा तस्‍वीर हाल फिलहाल का सबसे बड़ी बजटीय उपलब्धि है। 2011-12 में देश के सभी राज्‍य राजसव घाटा नाम की मुसीबत से मुक्‍त हो जाएंगे। खासतौर पर 28 में 23 राज्‍य के राजस्‍व खाते में सरप्‍लस होगा जो कि एक बेहद अद्भुत बजटीय उपलब्धि है। जयादातर राज्‍यों ने अपने स्रोतों से राजसव्‍ (खासतौर पर अचल संपत्ति पंजीकरण) की उगाही बढ़ाई है। करीब 18 राज्‍यों में राजकोषीय घाटा (राज्‍य जीडीपी के अनुपात में) भी कम हुआ है। इस सबकी मदद से राज्‍यों की वित्‍तीय सेहत की सबसे संवेदनशील रिपोर्ट काफी सुधर गई। राज्‍यों का कर्ज जीडीपी अनुपात 2009-10 के मुकाबले दो फीसदी घटकर 23.5 पर आ गया। राज्‍यों को रिजर्व बैंक से ओवरड्राफट की जरुरत नही पड़ी, बाजार ने उन्‍हें आसानी से कर्ज दिया और केंद्र सरकार से कर्ज पर उनकी निर्भरता कम हुई। पिछले पांच सालों में वित्‍तीय सुरक्षा के हिसाब से देश का नक्‍शा बदल गया है। जो सूरमा थे वे संकट में हैं जबकि जो हाशिये पर थे उनकी किस्‍मत पलट गई है। नसीहतें और मौके दोनों तरफ हैं।
वह जो दरार है
राज्‍यों के बजटीय सुधार को कमजोर करने वाला पहलू बजट के बाहर है। राज्‍यों के बजटों में उनके वह कर्ज या गारंटियां नजर नहीं आतीं जो राज्‍यों के सार्वजनिक उपक्रम, खासतौर पर बिजली कंपनियों या बोर्ड से से जुड़ी हैं। अगर इन गारंटियों बजट में डाल दिया जाए तो सारा पराक्रम मिट्टी में मिल जाएगा। बिजली क्षेत्र में सुधारों की असफलता भारत के अर्थिक उदारीकरण का सबसे बदनुमा दाग है। वक्‍त पर बिजली दरों में संशोधन न होने से राज्‍यों की बिजली वितरण कंपनियो के घाटे (2005-10 के बीच) 820 अरब रुपये पर पहुंच गए। यह घाटे केवल बिजली दरें संशोधित (लागत और वसूली में औसतन 60 पैसा प्रति किलोवाट घंटा का फर्क ) किये जाने के कारण हैं। बिजली पर दी जा रही सब्सिडी इसके अलावा है। इन कंपनियों के 70 फीसदी घाटे बैंकों के कर्ज से पूरे हुए हैं। राज्‍यों की बिजली कंपनियों व बोर्डों पर बैंकों की बकायेदारी 585 अरब रुपये की है जिसमें 42 फीसदी कर्ज के पीछे सरकारों की गारंटी है। अर्थात अगर बिजली कंपनियां डिफाल्‍ट होती हैं तो राज्‍य सरकारों के पास 60 फीसदी कर्ज देने लायक संसाधन ही नहीं हैं। बिजली बोर्ड डूबे तो एक नए किस्‍म का वित्‍तीय और बैंकिंग संकट आ सकता है। राज्‍यों को यदि बचना है तो उन्‍हें इस बिजली कंपनियों में घाटे के इन खुले तारों को बंद करना होगा। यह इम्‍तहान राजनीतिक सूझबूझ का है। रिजर्व बैंक मानता है कि यह करेंट अब कभी भी लग सकता है और कई राज्‍यों को विकलांग बना सकता है।
 उत्‍तर प्रदेश के मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव नए मुख्‍यमंत्रियों का वह पुराना जुमला नहीं दोहरा सकते कि उनहें कुर्सी तो मिली है मगर खजाना खाली है। विजय बहुगुणा के उत्‍तराखंड का खजाना भी सबसे बेहतर स्थिति में है। मगर एक पेंच है। नई सरकारें मुफ्त तोहफे बांटने की सियासत पर सवार हो कर सत्‍ता में आई हैं। सुधारों की यह गाढ़ी कमाई उन्‍हें बेफिक्र कर सकती है और चुनावी वादों पर अमल बजट के पराक्रम का बैंड बजा सकते हैं। आने वाला वक्‍त गिरती ग्रोथ, सीमित राजस्‍व और महंगे कर्ज का है। अगले दो साल में यह समझ में आ जाएगा कि उत्‍तर प्रदेश और उत्‍तराखंड के मुख्‍यमंत्रियों ने बजट में कुछ बढाया बचाया अथवा सब कुछ लुटा दिया। रही बात बंगाल, पंजाब या हरियाणा की तो वहां तो अब हर रोज नया इम्‍तहान है कभी ओवरड्राफ्ट की जरुरत होगी तो कभी टैकस बढ़ाने की। राज्‍यों की बजटीय सफलतायें सराहनीय हैं मगर यह सफलतायें एक अनोखे मौसम की देन थीं। असली परीक्षा तो अब शुरु हुई क्‍यों कि ग्रो‍थ का बसंत खत्‍म हो रहा है और चुनौतियों की लू चलने वाली है। ... इसमें जो टिक सका वही टिकाऊ होगा।
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