Monday, April 16, 2012

आंकड़ों का अधिकार

अंधेरे में निशाना लगाने की विद्या द्रोणाचार्यों और अर्जुनों के बाद समापत हो गई थी। विक्रमादित्‍य का वह अद्भुत सिंहासन भी फिर किसी को नहीं मिला जिस पर बैठने वाला गलत फैसले कर ही नहीं सकता। यही वजह है कि दुनिया नीति निर्माता कई टन आंकडों की रोशनी में नीति का निशाना लगाते हैं और सूझ व शोध के सहारे देश के बेशकीमती संसाधन बांटते हैं ताकि कोई गफलत न हो। दुनिया के हर देश आर्थिक और सामाजिक नीतियों के पीछे भरोसमंद और व्‍यापक आंकड़ों की बुनियाद होती है मगर भारत में ऐसा नहीं होता। भारत में आर्थिक सामाजिक आंकड़ों का पूरा तंत्र इस कदर लचर, बोदा, आधी अधूरी, लेट लतीफ और गैर भरोसमंद है कि इनसे सिर्फ भूमंडलीय बदनामी (औद्योगिक उत्‍पादन व निर्यात के ताजे आंकड़े) निकलती है। इन घटिया आंकड़ों पर जो नीतियां बनती हैं वह गरीबी या बेकारी नहीं हटाती बलिक संसाधन पचाकर भ्रष्‍टाचार को फुला देती है। जब हमारे पास इतना भरोसेमंद आंकड़ा भी नहीं है कि किससे टैक्‍स लिया जाना है और किसे सबिसडी दी जानी है तो रोजगार, खाद्य और शिक्षा के अधिकार बस केवल बर्बादी की गारंटी बन जाते हैं। भरोसेमंद और पारदर्शी आंकडे किसी स्‍वस्‍थ व्‍यवस्‍था का पहला अधिकार हैं, जो पता नहीं हमें मिलेगा भी या नहीं।
रांग नंबर
हंसिये मगर शर्मिंदगी के साथ। पता नहीं हम कितनी ज्‍यादा चीनी और कॉपर कैथोड बनाते हैं इसका सही हिसाब ही नहीं लगता। सरकार ने चीनी का उत्‍पादन 5.81 लाख टन बजाय 13.05 लाख टन मान लिया और जनवरी में औद्योगिक उत्‍पादन सूचकांक में 6.8 फीसदी की बढ़ोत्‍तरी दर्ज की गई। जब गलती पकड़ी गई और उत्‍पादन वृद्धि दर घटकर 1.1 फीसदी पर आ गई। इसके साथ भारत में आंकड़ों की साख भी ढह गई क्‍यों कि इस आंकड़े से पूरी दुनिया भारत की ग्रोथ नापती है। कॉपर कैथोड के निर्यात का भी खेल निराला था 2011 में इसका निर्यात 444 फीसदी बढता दिखाया गय जिससे निर्यात 9.4 अरब डॉलर उछल गया। बाद में उछाल झूठ निकली और निर्यात का करिश्‍मा जमीन सूंघ गया। दरअसल भारत का पूरा आंकड़ा संग्रह ही मुगल कालीन
टाइप का है, इसलिए किसी भी सामाजिक आर्थिक आंकड़े पर शक करना लाजिमी है। खेती को ही लीजिये। गिरदावरी और पटवारी आधारित कृषि उपज आंकड़ा संग्रह अधूरा और अंदाजिया है। फलों, छोटी फसलों, मांस उत्‍पादन के आंकडे ही नहीं हैं। जमीन के इस्‍तेमाल और पैदावार के आंकड़े हकीकत से उलटे होते हैं, ऊपर से खेती के आंकड़ों को मिलने में देरी ऐतिहासिक है। हालत यह है कि 2007 का 18वां पशुधन सर्वेक्षण अब हो रहा है। औद्योगिक उत्‍पादन सूचकांक के आंकडो की ताजी गफलत हम देख ही रहे हैं। यह आंकड़ा शुरुआत से अधूरा और लचर है। इसमें लघु उद्योगों के उत्‍पादन की तस्‍वीर नहीं दिखती जबकि सरकार मानती है कि छोटे उद्योग रोजगार की सबसे बड़ी फैक्‍ट्री हैं। उद्योगों का सालाना सर्वेक्षण बंद और चालू सभी फैक्ट्रियों को गिन लेता है। सेवा क्षेत्र के आंकड़ों का कोई अधिकृत स्रोत नहीं है जबकि निर्यात व आयात के मामले में रिजर्व बैंक के विदेशी मुद्रा आंकडे, वाणिज्‍य मंत्रालय के आंकडों से मेल नहीं खाते। महंगाई की आंकडों का झोल सर्वविदित है। राष्‍ट्रीय आय के आंकड़े नेशनल सैम्‍पल सर्वे के प्रति व्‍यक्ति उपभोग खर्च से फर्क पाए जाते हैं और गरीबों को‍ गिनने की गणित तो गजब की हास्‍यास्‍पद है। शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, बीमारियों, जीवन स्‍तर, आदतों, मनोरंजन आदि सामाजिक आर्थिक आंकडों की तो पूछिये ही मत। बाल मृत्‍यु दर जन्‍म दर, मृत्‍यु दर के जिलावार आंकडे आज भी अधूरे हैं। आंकडो में दरिद्रता की यह कथा अनंत है। हम तो अभी मोटे मोटे (मैक्रो) आंकडों तक के मोहताज हैं जबकि नीतियों को अब बेहद जमीनी और सूक्ष्‍म (माइक्रो) आंकड़ो की जरुरत है। अधूरे आंकडे़ और अंदाजिया नीतियां हमारी सबसे रद्दी विरासत हैं।
मूल्‍यांकन की सूझ
पैंसठ साल का देश यह तय नहीं कर पाया कि उसे अपने प्राकृतिक संसाधनों का आर्थिक मूल्‍यांकन कैसे करना चाहिए और किस तरह बांटना चाहिए। इसलिए घोटाले खुले और अनिश्चितता के एक जहरीले रसायन ने देश की अधिकांश आर्थिक गतिविधियों को पंगु कर दिया। दूरसंचार, बिजली, खनन, बुनियादी ढांचा, औद्योगिक परियोजनायें तक हर जगह निवेशक हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं और प्राकृतिक संसाधनों में आवंटन की नीति में सप्‍ष्‍टता का इंतजार कर रहे हैं। निजी कंपनियों को मनमाने ढंग से कोयला खदानों आवंटन पर जब सीएजी ने 10.67 लाख्‍ करोड़ रुपये का नुकसान बताया तो सरकार बिफर गई। सीएजी की गणित तो सिर्फ एक सीधे फार्मूले पर आधारित थी कि कोल इंडिया की खदानों में कोयले का रिजर्व कितना है और कोयले के बाजार मूल्‍य पर उसकी कीमत क्‍या है। सीएजी ने ऐसा इसलिए किया प्राकृतिक संसाधनों की आर्थिक कीमत तय करने का कोई पैमाना ही नहीं बना है। अर्से से भारत में स्‍पेक्‍ट्रम, गैस तेल क्षेत्र, खदाने व जमीनें पहले आओ पहले पाओ के आधार बंटती रही हैं। दरअसल जब थ्री जी स्‍पेक्‍ट्रम की नीलामी हुई तो पता चला अदृश्‍य तरंगें भी 67000 करोड़ की बिकती हैं। नीलामी की एक प्रक्रिया तेल क्षेत्र (एनईएलपी) में अपनाई गई, मगर वहां प्रमुख उत्‍पाद (गैस और तेल) की कीमत तय करने को लेकर गफलत थी। प्राकृतिक संसाधनों का आर्थिक मूल्‍यांकन जटिल है। इस‍लिए समझदार सरकारें शोध, अर्थव्‍यवस्‍था की जरुरतों, दूरगामी अपेक्षाओं, संसाधनो के इस्‍तेमाल के तरीकों, पर्यावरण को नुकसान, रोजगार और ग्रोथ में योगदान आदि को आधार बनाकर गहरी सूझ के आधार पर किसी संसाधन की आर्थिक कीमत तय करती हैं, ताकि संसाधनों की जमाखोरी न हो। भारत में इस मगजमारी की फुर्सत किसे हैं। इसलिए स‍ब कुछ तदर्थ है। न पहले आओ पहले पाओ के पक्ष में मजबूत आर्थिक तर्क हैं और न ही नीलामी के फायदे आंके गए हैं। एक में भ्रष्‍टाचार की बदबू है और दूसरे में आवंटित संसाधन पर आधारित सेवा महंगी होने का डर। अब सरकार अदालत से पूछ रही है कि उसे बिजली कंपनियों खदाने और टेलीकॉम कंपनियों को स्‍पेक्‍ट्रम कैसे देना चाहिए। देश बीच राह में खडा होकर अदालतों से नीतियां बनता देख रहा है।
अच्‍छे आंकडे़ नीतियों की सबसे बड़ी खुराक हैं इनके बिना नीतियां और कानून पैदाइशी तौर पर विकलांग होते हैं। यह अपंगता हमारी हर छोटी बड़ी नीति का स्‍थायी चरित्र है और करदाताओं के पैसे की लूट जरिया है। जबकि प्राकृतिक संसाधनों के अपारदर्शी मूल्‍यांकन व बंटवारे के कारण मुट्ठी भर लोगों को जमीन, पानी, खदानों का जमाखोरी का लाइसेंस मिल गया है। हमें इस बात पर गर्व नहीं करना चाहिए कि हमारे पास ग्रोथ है बलिक हमें दुनिया को हमारी पीठ इस बात ठोंकनी चाहिए कि व्‍यवस्‍था की पैदाइशी विकलांगताओं के बावजूद हम तेज दौड़ गए हैं। मगर कब तक बचते, आंकड़ो, कानूनों और नीतियों कमी से उपजी जेनेटिक बीमारियां ने आखिर हमें दबोच ही लिया। इनका इलाज के बिना (आर्थिक) सुधार होगा और न उद्धार, बस हम गंवाते जाएंगे।
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