यह महाबहस
का वक्त है। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की बहस को महाबहस होना भी चाहिए क्यों
कि इससे बड़ा कारोबार भारत में है भी कौन सा ? समृद्ध
व्यापारिक अतीत, नए उपभोक्ता और खुलेपन की चुनौतियों को जोड़ने वाला यही तो एक मुद्दा
है, जो तेज तर्रार, तर्कपूर्ण लोकतांत्रिक महाबहस की काबिलियत रखता है। संगठित
बहुराष्ट्रीय खुदरा कारोबार राक्षस है या रहनुमा ? करोड़ो
उपभोक्ताओं के हित ज्यादा जरुरी हैं या लाखों व्यापारियों के? देश
के किसानों को बिचौलिये या आढ़तिये ज्यादा लूटते हैं या फिर बहुराष्ट्रीय
कंपनियां ज्यादा लूटेंगी? बहुतों की दुकाने बंद होने का खौफ सच है या रोजगार
बाजार के गुलजार होने की उम्मीदें ?... गजब के ताकतवर प्रतिस्पर्धी तर्कों की
सेनायें सजी हैं। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि संसद रिटेल में विदेश निवेश पर क्या
फैसला देगी यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा कि भारत की संसद गंभीर मुद्दों पर कितनी
गहरी है और सांसद कितने समझदार। या फिर भारत के नेता राजनीतिक अतिसाधारणीकरण में इस
संवेदनशील सुधार की बहस को नारेबाजी में बदल देते हैं।
आधुनिक अतीत
यह देश के आर्थिक उदारीकरण की पहली ऐसी बहस हैं
जिसमें सियासत भारत के मध्य वर्ग से मुखातिब होगी। वह मध्यवर्ग जो पिछले दो दशक
में उभरा और तकनीक व उपभोक्ता खर्च जिसकी पहचान है। भारत की ग्रोथ को अपने खर्च
से सींचने वाले इस नए इंडिया को इस रिटेल (खुदरा कारोबार) के रहस्यों की जानकारी
देश के नेताओं से कहीं ज्यादा है। यह उपभोक्ता भारत संगठित रिटेल को अपनी नई
पहचान से जोड़ता है। इसलिए मध्य वर्ग ने खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश की चर्चाओं
में सबसे दिलचस्पी
के साथ भागीदारी की है।
के साथ भागीदारी की है।
संसद की बहस सिर्फ उपभोक्ताओं या ग्लोबल
रिटेलरों को ही संबोधित नहीं करेगी। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश का फैसला भारत के सदियों पुराने व्यापार के स्वरुप को
बदलने का पहला बड़ा कदम भी है। भारत ईसा से 400 वर्ष पूर्व से व्यापार का देश है।
सैकड़ों वर्षों, कई पीढि़यों, लंबी परंपराओं और बड़ी आबादी ने खुदरा कारोबार को देश
का सबसे सहज कारोबार बना दिया है। लाखों छोटी बड़ी दुकानों में फैला यह भीमकाय कारोबार
अलग अलग आकलनों के मुताबिक 20,000 अरब रुपये का है। यह पहला मौका है जब संसद भारत
की सबसे बडी कारोबारी गतिविधि का डीएनए बदलने पर चर्चा करेगी जो अपनी तमाम
कमजोरियों खामियों के बावजूद सदियों से
भारतीय नगरीय जीवन की आर्थिक बुनियाद रहा है।
खौफ और खूबियां
भारत में संगठित खुदरा यानी ऑर्गनाइज्ड रिटेल का
पूरे दशक का इतिहास भी तैयार हो चुका है, जिसकी रोशनी में बहस को पर्याप्त
तर्कसंगत और धारदार किया जा सकता है। संगठित रिटेल के पिछले दस साल, फ्यूचर्स (बिग बाजार), स्पेंसर, मोर, सुभिक्षा
जैसे देशी रिटेलरों ने गढे हैं। ढेरों अध्ययन, सर्वेक्षण
व रिपोर्टें (इक्रीयर 2008, केपीएमजी
2009, एडीबी 2010, नाबार्ड
2011 आदि) भारत में संगठित रिटेल की बहस को आंकड़ों की जमीन देते हैं। 2008-09 में
कुल खुदरा (संगठित व असंगठित) बाजार 17,594
अरब रुपये का था जो 2004-05 के बाद से औसतन 12 फीसदी सालाना की रफतार से बढ़ रहा
है, जो 2020 तक 53,517 अरब रुपये का हो जाएगा।
नाबार्ड की रिपोर्ट बताती है कि संगठित रिटेल करीब 855 अरब रुपये का है जिसमें
2000 फिट के छोटे स्टोर ( सुभिक्षा मॉडल) से लेकर 25000 फिट तक के मल्टी ब्रांड
हाइपरमार्केट आदि आते हैं।
तेज ग्रोथ के बावजूद संगठित रिटेल पिछले एक दशक
में कुल खुदरा बाजार में केवल पांच फीसदी हिस्सा ले पाया है। अलग अलग अध्ययन
बताते हैं कि इस पांच फीसदी हिस्से ने करीब एक करोड़ रोजगार पैदा किये हैं जो 2020 तक 1.84
करोड़ हो जाएंगे। दरअसल प्रति 206 वर्ग फिट पर एक कर्मचारी के
औसत वाला यह उद्योग सीमित दक्षता वाले कर्मचारियों से लेकर उच्च प्रशिक्षित
कर्मियों तक सबको एक साथ खपाता है। इसलिए
रिटेल से रोजगार की बात मध्य वर्ग के गले उतरती है।
खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों का खौफ
पुराना है। वालमार्ट, ट्रेस्को
और कार्फू जैसे रिटेल दिग्गजों के छोटे देशों में असर की कहानियों से यह डर और
बडा हो रहा है। शायद यही वजह थी कि सरकार ने इन् दिग्गजों को दस लाख की आबादी
वाले शहरों तक सीमित कर दिया। फिर भी इस खौफ को मजबूत तर्कों का आधार देने की जरुरत
है ताकि देश की सबसे बडे कारोबार को इस उदारीकरण के नुकसान फायदे समझ में आ सकें। भारत
के खुदरा कारोबार में 61 फीसद हिस्सा खाद्य उत्पादों (अनाज, दाल, फल
सब्जी दूध, चाय
कॉफी, अंडा चिकन, मसाले)
का है। जो करीब 11000 अरब रुपये बैठता है। नाबार्ड के सर्वेक्षण के मुताबिक इस
कारोबार पर असंगठित क्षेत्र का राज है। असंगठित क्षेत्र की दुकाने उपभोक्ताओं के घर से औसतन
280 मीटर की दूरी पर स्थित हैं जबकि संगठित क्षेत्र की दुकानों की दूरी औसतन डेढ़
किमी. है। यह बात सही है कि उपभोक्ताओं की टॉप अप खरीद (फुटकर ग्रॉसरी) और मासिक खरीद
संगठित रिटेलर्स के पास पहुंच रही है। अर्थात जोखिम पड़ोस के दूध ब्रेड वाले के लिए
नहीं बलिक करोलबागों और अमीनाबादों जैसे पुराने बाजारों के लिए है, जहां लोग महीने
में एक बार चक्कर लगाते थे।
यह सारे तथ्य बहस का सर पैर पकड़ने में मदद करेंगे
क्यों कि मध्य वर्ग की उम्मीदों, रोजगार की जरुरतों आधुनिक भारत की अपेक्षाओं,
अतीत के आग्रहों और सियासत के व्यापारिक वित्तपोषण जैसे तमाम परस्पर विरोधी
आयामों ने मिलकर मल्टीब्रांड रिटेल में विदेशी निवेश को हाल के दशकों को सबसे जानदार
सामाजिक आर्थिक बहस में तब्दील कर दिया। रिटेल में एफडीआई को लेकर सड़क पर बहस का
वक्त पूरा हो चुका है। विदेशी निवेश वाले रिटेल ब्रह्म के सत्य की तलाश संसद
पहुंच गई है। यूं भी भारत के पास आर्थिक उदारीकरण
पर कायदे की संसदीय बहसों का इतिहास ही कितना है। रिटेल की यह यह महाबहस न केवल एक
बहुत गहरे व दूरगामी सुधार पर नतीजा सुनायेगी बलिक इससे हम यह भी जान पाएंगे कि भारतीय
संसद में तथ्यों, तर्कों से लैस स्तरीय बहस के कुछ अवशेष बचे भी हैं या फिर
गंभीर बहसों वाला संसदीय लोकतंत्र पूरी तरह मर चुका है।
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