Monday, June 3, 2013

घिसटते भारत का निर्माण


दस वर्ष की सबसे कमजोर विकास दर के साथ भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था अब विशुद्ध स्‍टैगफ्लेशन में है।  इस माहौल में भारत निर्माण का प्रचारतरक्‍की के खात्‍मे पर खलनायकी ठहाके जैसा लगता है। 

भारत के पास अगर बेरोजगारी नापने का भरोसेमंद पैमाना होता या हम जिंदगी जीने की लागत को संख्‍याओं में बांध पाते तो दुनिया भारत का वह असली चेहरा देख रही होती जो विकास दर के आंकडों में नजर नहीं आता। पिछले कई दशकों में सबसे ज्‍यादा रोजगार, आय, निवेश, खपत, राजस्व, तकनीक व  खुशहाली देने वाली ग्रोथ फैक्‍ट्री के ठप होने के बाद भारत अब रोजगार व आय में साठ सत्‍तर के दशक और आर्थिक संकटों में इक्‍यानवे जैसा हो गया है। दस वर्ष की सबसे कमजोर विकास दर के साथ भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था अब विशुद्ध स्‍टैगफ्लेशन में है। जहां मंदी व महंगाई एक साथ आ बैठती हैं। बदहवास सरकार के सिर्फ किस्‍मत के सहारे आर्थिक सूरत बदलने का इंतजार कर रही है। इस माहौल में भारत निर्माण का प्रचार, तरक्‍की के खात्‍मे पर खलनायकी ठहाके जैसा लगता है। 
आर्थिक विकास के ताजे आंकडे़ बेबाक हैं। इनमें ग्रोथ के टूटने का विस्‍तार व गहराई दिखती है।  संकट पूरी दुनिया में था, लेकिन हमारा ढहना सबसे विचित्र है। सभी क्षेत्रों में ग्रोथ माह दर माह लगातार
ढही है। 2010-11 और 2012-13 के दौरान सिर्फ दो साल में विकास दर साढ़े नौ से पांच फीसदी पर आ गई। ग्रामीण भारत के शानदार निर्माण के दावों के विपरीत चौबीस महीनों में खेती की विकास दर 5.4 फीसद से 1.4 फीसद पर लुढ़क गई। पिछले दो साल में मानसून बहुत बुरा नहीं था खाद्य उत्‍पादों की मांग जोरदार थी लेकिन कृषि की विकास दर दो साल के न्‍यूनतम स्‍तर पर है। मनरेगा पर मुग्‍ध सरकार ने खेती को देखा ही नहीं, जो गांवों में सबसे ज्‍यादा रोजगार देती है। कृषि में निवेश का उत्‍साह टूट गया है अब इसी ढहती खेती पर खाद्य सुरक्षा का बोझ लादा जाएगा।
सुधारों के दावों के विपरीत चौबीस माह में फैक्‍ट्री उत्‍पादन  बढ़ने की दर 7.4 फीसद से घटकर 2.6 फीसद पर आ गई। सरकार डायरेक्‍ट कैश ट्रांसफर में लगी थी और रोजगार देने वाले उद्योग काम समेट रहे थे। शहरों से लेकर गांवों तक फैली किस्‍म किस्‍म की सेवायें रोजगार का इंजन रही हैं। इसकी ग्रोथ में गिरावट से सबसे ज्‍यादा बेकारी निकल रही है। औद्योगिक परिदृश्‍य का सबसे परेशान करने वाला पहलू यह है कि उत्‍पादन सिर्फ मांग घटने से नहीं गिरा है, जिन क्षेत्रों में मांग है वहां भी उत्‍पादन गिर रहा है।
गिरावट से उबरने की संभावनायें जानने के लिए बैंकों की तरफ देखना होगा। अर्थव्‍यवस्‍था का  भविष्‍यफल बैंक कर्ज की मांग में छिपा है क्‍यों कि यह निवेश की भावी योजनाओं का सबूत होते हैं। कर्ज की मांग अब 15 साल के न्‍यूनतम स्‍तर पर है। कारपोरेट लोन कुल बैंक कर्ज का 65 फीसदी हैं, जिनकी मांग सूख गई है। नई परियोजनाओं व वर्तमान इकाइयों में नई मशीनरी लगाने के लिए कंपनियां बैंकों से कर्ज लेती हैं। एक प्रमुख बैंकर का ताजा अध्‍ययन बताता है कि नए प्रोजेक्‍ट के लिए कर्ज के प्रस्‍ताव 70 फीसद तक घट गए हैं। मशीनरी में निवेश यानी इकाइयों के विस्‍तार व आधुनिकीकरण भी ठप हैं। इस मद में कर्ज की मांग एक चौथाई रह गई है। जीडीपी में 12 फीसदी के हिस्‍सेदार लघु उद्योगों ने सबसे अंत तक लोहा लिया। लेकिन भारत में छोटा उद्यमी होना सबसे बड़ी मुसीबत है, इनके भी पैर उखड गए। लघु उद्योगों में कर्ज की मांग दस साल के सबसे निचले सतर पर है।
अर्थव्‍यवस्‍था को सस्‍ते कर्ज की लंबी खुराक चाहिए, क्‍यों कि भारत की ग्रोथ सस्‍ती पूंजी से निकली थी। एक उम्‍मीद पिछले माह बनी थी जो रुपये में गिरावट से खत्‍म हो गई है। पेट्रोल डीजल की कीमतों में बढ़ोत्‍तरी प्रमाण है कि गिरता रुपया महंगाई का आयात कर रहा है अर्थात रिजर्व बैंक ब्‍याज दरों में बड़ी रियायत नहीं देने वाला। शेयर बाजार में जनवरी से अब तक 13 अरब डॉलर आ चुके हैं लेकिन रुपया ढह रहा है कयों कि सोना व तेल आयात में कमी नहीं हुई है। रुपये की मजबूती के लिए भारत को ठोस विदेशी निवेश चाहिए। जब देशी उद्यमी ही विदेश में पैसा लगाने के रास्‍ते तलाश रहे हों तो विदेश से कौन निवेश करेगा? इसलिए जीडीपी के अनुपात में निजी निवेश तलहटी पर है। 
भारत की औसत विकास दर पांच फीसदी से नीचे नहीं जाएगी। सभी क्षेत्रों में यह ग्रोथ का न्‍यूनतम है। वैसे भी सवा सौ करोड़ लोगों वाला भारत आबादी की सामान्‍य मांग, आपूर्ति व उपभोग के सहारे इतनी विकास दर हासिल करता रहेगा। यह साठ सत्‍तर के दशक में तीन चार फीसदी की विकास दर जैसा हाल है जो तत्‍कालीन आबादी की उपभोग खपत आधारित थी। यहां से वापसी चुनौतीपूर्ण है क्‍यों कि मंदी व महंगाई का दुष्‍चक्र तोड़ना सबसे कठिन होता है। स्‍टैगफ्लेशन में नकारात्‍मक कारक एक दूसरे को ताकत देते हैं, जिसका भारत के पास पुराना तजुर्बा है। 1991 जैसी विदेशी मुद्रा की कमी और गवर्नेंस की विफलता ने इस गांठ को और सख्‍त कर दिया है। यह समस्‍या बहुआयामी प्रयास चाहती है लेकिन पूरी सरकार खाद्य सुरक्षा को लेकर दीवानी है देश की जब समग्र आर्थिक सुरक्षा गहरे खतरे में है।
औसत भारतीय के लिए यह पिछले बीस साल का सबसे मुश्किल भरा वक्‍त है। रोजगार और कमाई पर सबसे ज्‍यादा तलवारें तनी हैं तब भारत निर्माण का दंभ भरा प्रचार लोगों को चिढ़ाता हुआ महसूस होता है। ऐसा लगता है कि सरकार अच्‍छी ग्रोथ को लेकर ग्‍लानि से भर गई थी इसलिए भारी खर्च वाली स्‍कीमों व संसाधनों के भ्रष्‍ट बंटवारे का एक समानांतर मॉडल खड़ा किया गया, जो उद्यमिता से निकली तरक्‍की को छोटा साबित करने का प्रयास था। यह मॉडल पहले ग्रोथ को खा गया और फिर बाद में खुद भी ढह गया। अब न ग्रोथ बची और न इसका इन्‍क्लूसिव चेहरा। एक घिसटते भारत का निर्माण हो गया है। दशक की सबसे निचली विकास दर गिरावट का अंत नहीं है, यहां से चढ़ाई और खड़ी हो गई है। 

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