नेता केंद्रित गवर्नेंस के मॉडल का अवसान अब करीब है। स्वतंत्र नियामक यानी रेगुलेटर सत्ता के नए सुल्तान हैं
पांच साल बाद देश को शायद इससे बहुत फर्क न
पडे कि सियासत का ताज किसके पास है लेकिन यह बात बहुत बड़ा फर्क पैदा करेगी कि
संसाधनों के बंटवारे व सेवाओं की कीमत तय करने की ताकत कौन संभाल रहा है। यकीनन, कुर्सी के लिए मर खप जाने
वाले नेताओं के पास यह अधिकार नहीं रहने वाला है। भारत में एक बड़ा सत्ता हस्तांतरण
शुरु हो चुका है। स्वतंत्र नियामक यानी रेगुलेटर सत्ता के नए सुल्तान हैं जो
वित्तीय सेवाओं से बुनियादी ढांचे तक जगह जगह फैसलों में सियासत के एकाधिकार को
तोड़ रहे हैं। नियामक परिवार के विस्तार के साथ अगले कुछ वर्षों में अधिकांश
आर्थिक राजनीति, मंत्रिमंडलों से नहीं बल्कि इनके आदेश से तय
होगी। भारत में आर्थिक सुधार, विकास,
बाजार, विनिमयन के भावी फैसले, बहसें व
विवाद भी इन ताकतवर नियामकों के इर्द गिर्द ही केंद्रित होने वाले हैं जिनमें
राजनीति को अपनी जगह
तलाशनी होगी। देश के राजनेता, गवर्नेंस के इस युग परिवर्तन को भले ही न समझ पा रहे हों लेकिन चतुर निवेशक इसे समझ रहे हैं और नए सुल्तानों से रसूख बढ़ाने लगे हैं।
तलाशनी होगी। देश के राजनेता, गवर्नेंस के इस युग परिवर्तन को भले ही न समझ पा रहे हों लेकिन चतुर निवेशक इसे समझ रहे हैं और नए सुल्तानों से रसूख बढ़ाने लगे हैं।
विधायिका, नौकरशाही व अदालत के बीच सत्ता के बंटवारे को
धर्म मानने वाले भारत में नियामक संस्कृति उड़ीसा के रास्ते आई थी। 1993 के विश्व
बैंक प्रेरित सुधार कार्यक्रम में स्वतंत्र नियामकों का गठन प्रमुख शर्त थी।
उड़ीसा में बिजली सुधार हुए और 1996 में देश का पहला बिजली नियामक आयोग बना।
नियामकों को देशव्यापी बनाने वाला इलेक्ट्रिसिटी
रेगुलटरी कमीशन एक्ट 1998 में लागू हुआ लेकिन उसके पहले 1997 में दूरसंचार नियामक
अधिकरण बन चुका था। नियम बनाने, लागू करने और कुछ मामलों में
न्याय करने की ताकत को एक संस्था में समाहित करने पर बड़ी बहसें भले न हुई हों
लेकिन खुलते बाजार ने नियामकों को हाथों हाथ लिया क्यों कि इन्हें विशेषज्ञ
संभाल रहे थे और आर्थिक फैसलों में राजनीति के दबदबे को तोड़ रहे थे। नियामक बनते
ही मंत्रालयों व नौकरशाही के रसूख सिमट गए। जहां नियामकों को अर्ध न्यायिक अधिकार
मिले वहां अदालतों की भूमिका भी सीमित हो गई।
रियल एस्टेट व कोयला क्षेत्र में केंद्रीय
नियामक बनाने के फैसले के साथ सत्ता के नए स्वतंत्र केंद्रों की श्रंखला पूरी होने लगी है।
बैकिंग और पूंजी बाजार की कमान रिजर्व बैंक व सेबी के हाथ पहले से है। दूरसंचार व
प्रसारण, बिजली, बीमा, पेंशन, पेट्रोलियम, बंदरगाह, एयरपोर्ट, कमॉडिटी, फार्मास्यूटिकल
व पर्यावरण क्षेत्रों में नए कानूनों से लैस नियामक बैठ चुके हैं जो मंत्रालयों की
भूमिका सीमित कर रहे हैं। रेलवे व सड़क नियामक कतार में है। इनके अलावा सभी
क्षेत्रों के लिए ताकतवर प्रतिस्पर्धा आयोग भी है। राज्य बिजली नियामक आयोगों को
शामिल करने के बाद यह नया शासक वर्ग राजनीतिक प्रभुओं से ज्यादा बड़ा दिखता है।
नए सम्राट कागजी नहीं हैं बल्कि अपने फैसलों से गवर्नेंस में रोमांच भर रहे हैं।
भारत में कंपनियों के कार्टेल पहले से हैं मगर सरकार कभी यह हिम्मत नहीं करती जो
प्रतिस्पर्धा आयोग ने पिछले साल दिखाई जब उसने ग्यारह सीमेंट कंपनियों पर 62 अरब
रुपये का जुर्माना ठोंक दिया। सहारा समूह पर सेबी की सख्ती,
गैर बैकिंग कंपनियों पर रिजर्व बैंक का शिकंजा, इंद्रप्रस्थ
गैस पर पेट्रोलियम रेगुलेटर का कड़ा रुख, दूरसंचार आपरेटरों
पर टीआरएआई का दबाव, बीमा उत्पादों के लिए इरडा के कठोर
नियम और दवा कीमतों पर फार्मा प्राइसिंग अथॉरिटी की सख्ती कुछ ऐसे फैसले रहे हैं,
राजनीति के लिजलिजे निर्णय तंत्र से जिनकी अपेक्षा मुश्किल थी।
रिजर्व बैंक ब्याज दर घटाने पर वित्त मंत्रालय की एक नहीं सुनता और राज्यों को
नियामक आयोगों की बात मान कर बिजली दरें बढ़ानी होती हैं। सरकारें नियामकों की स्वायत्तता
के आगे सर झुका रही हैं।
इस नई गवर्नेंस से मंत्रियों व मंत्रालयों
के दबदबे ही नहीं टूटेंगे बल्कि केंद्र व राज्यों के बीच संतुलन भी बदलेगा। 2001
में गुजरात गैस वितरण का कानून इस मॉडल को चुनौती था जो सुप्रीम कोर्ट से 2004 में
खारिज हुआ। भारत में कई क्षेत्रों में केंद्र व राज्य दोनों कानून बनाते हैं, इसलिए नियामकों की सक्रियता
केंद्र व राज्यों के अधिकारों के लिए चुनौती होगी। नियामकों के बीच आपसी तालमेल व
स्पर्धा, दूसरा दिलचस्प मोर्चा होने वाला है। प्रतिस्पर्धा
आयोग जैसे बहुआयामी रेगुलेटर की भूमिका अगले वर्षों में बड़ी बहस होगी। वित्तीय
क्षेत्र में प्रस्तावित सुपर रेगुलेटर पर रिजर्व बैंक की आपत्ति के साथ नियामकों
के बीच ताकत की होड़ भी शुरु हो गई है। शासन के इस मॉडल में राजनीति का स्थान नए
सिरे से तय होना है। सरकारों को यह सच पचाना होगा कि संसद के कानून के तहत बने
नियामक किसी दल की सरकार के प्रति नहीं बलिक संसद के प्रति जवाबदेह होंगे। नेताओं
को यह स्वीकार करना होगा कि बाजार अब उनकी नहीं नियामकों की सुनेगा और उनका काम
फैसले करना नहीं बलिक फैसले करने वालों के बीच समन्वय बिठाना है। नए राजकाज की यह
रोमांचक बहस मीडिया की भूमिका में दिलचस्प बदलाव करेगी।
यूपीए की चादर भ्रष्टाचार से इतनी दागदार
है कि वह नियामकों के सृजन का श्रेय नहीं ले सकती। अलबत्ता भ्रष्टाचार के
थपेड़ों के बीच ही सबसे ज्यादा नियामक बने हैं और राजनीति ने मजबूरी में
नए सुल्तानों को ताकत सौंपी है। कोई गारंटी नहीं है कि नियामक संस्थाओं
में चहेतों को बिठाने की होड नहीं होगी या इनका कामकाज हमेशा साफ सुथरा ही रहेगा।
लेकिन यह भी जरुरी नहीं है कि आजादी का हमेशा गलत इस्तेमाल ही हो क्यों कि चुनाव
आयोग व सीएजी जैसे पुराने स्वतंत्र नियामक मौका मिलते ही परिवर्तन का जरिया बन
गए। वक्त बतायेगा इन नए हाकिमों ने टीएन शेषन के चुनाव आयोग या विनोद राय के
सीएजी की परंपरा पकड़ी या फिर उनके दफ्तर, मंत्रालयी भ्रष्टाचार
का विस्तार पटल बन गए। लेकिन इतना तय है कि नेता केंद्रित गवर्नेंस के मॉडल का
अवसान अब करीब है और यही शायद भारत के ताजा राजनीतिक आर्थिक संक्रमण का सबसे
निर्णायक दूरगामी नतीजा भी है।
RESPECTED SIR,PLZZZZZZZZZZ HUMEIN CURRENT ACCOUNT DEFICIT AUR MUTUAL FUND KE BAARE MEIN VISTAR SE HINDI MEIN BATAIYE.
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