Monday, June 24, 2013

वो उबरे और डूबे हम


2014 के मध्‍य तक ग्‍लोबल बाजारों से अतिरिक्‍त पूंजी उड़ जाएगी और भारत को   महंगाई में स्‍थायी कमी व आर्थिक ग्रोथ लौटने तक कमजोर रुपये व अस्थिर बाजार के साथ जीना होगा। 


मेरिकी फेड रिजर्व के मुखिया बेन बर्नाके बीते सप्‍ताह उत्‍साह के साथ दुनिया को जब यह बता रहे थे कि मंदी व बेकारी से घिसटता अमेरिका वापसी कर रहा है, तब भारत के नीति नियामक अमेरिका में मंदी लंबी चलने की दुआ कर रहे थे। ग्‍लोबल बाजारों के लिए इससे अचछी खबर क्‍या होगी कि दुनिया का सबसे बड़ा बाजार यानी अमेरिका मंदी से उबर रहा है लेकिन भारत के लिए फिलहाल यह सबसे बुरी खबर है क्‍यों कि ग्‍लोबल बाजारों में सस्‍ती अमेरिकी पूंजी की सप्‍लाई रोकने का कार्यक्रम घोषित होते ही विदेशी निवेशकों ने भारतीय बाजारों से वापसी शुरु कर दी  है। डॉलर 65-70 रुपये की नई तलहटी तलाश रहा है और वित्‍तीय बाजार रोज की उठा पटक के लिए तैयार हो रहे हैं। फेड रिजर्व के फैसले से किसी को अचरज नहीं है, हैरत तो इस बात पर है कि भारत के नीति निर्माताओं के पास इस आपदा के लिए कोई आकस्मिक प्रबंधन नहीं था। अब हम ग्‍लोबल पूंजी के चक्रवात में फंस गए हैं क्‍यों कि मंदी से उबरने के बाद जापान भी यही राह पकड़ेगा जिससे बाजार में सस्‍ती पूंजी की अतिरिक्‍त आपूर्ति और घट जाएगी। 
भारत के बाजारों पर आपदा का बादल अचानक नहीं फटा। दुनिया को इस बात का इलहाम था कि अमेरिका में मंदी उबरने के संकेत मिलते ही ईजी मनी यानी सस्‍ती पूंजी की पाइप लाइन बंद होने लगेगी। अप्रैल मई में बाजारों को इसका इशारा भी
मिल गया था। मंदी से उबरने के लिए बाजार को सस्‍ती पूंजी देना एक आजमाया हुआ नुस्‍खा है जिसकी मांग भारत में रिजर्व बैंक से भी की जा रही है। क्‍वांटीटिव ईजिंग के तहत फेड रिजर्व ने भरपूर डॉलर छापे और नवंबर 2008 से शुरु हुए तीन चरणों के तहत बाजार में पांच खरब डॉलर से जयादा की पूंजी छोड़ी गई है। विदेशी निवेशक भारत निर्माण से प्रभावित होकर नहीं आए थे। भारतीय शेयर बाजारों में तेजी इस ईजी मनी की देन थी। अमेरिकी में ब्‍याज दर शून्‍य पर है और भारत में दस गुनी ज्‍यादा। ग्‍लोबल निवेशकों के लिए यह भरपूर मुनाफे का मौका था जिसके चलते 2012 में भारतीय शेयर व बांड बाजार में करीब 88 अरब डॉलर आए और यह क्रम इस साल मई मध्य तक जारी रहा है। भारत के पास निवेशकों को लुभाने के लिए न आर्थिक सुधार थे और न ग्रोथ, बस ब्‍याज दरों में अंतर ही निवेश का आकर्षण था।
मंदी से उबरता अमेरिका, अब घाटे और अस्थिरता से घिरे भारत से बेहतर है इसलिए विदेशी निवेशक लौट रहे हैं। खासतौर पर कर्ज व बांड बाजार में पिछले एक पखवाडे में 4.7 अरब डॉलर का विदेशी निवेश वापस गया है जो वस्‍तुत: लंबे समय के लिए आया था। इस निवेश के लौटने के साथ अन्‍य उभरते बाजारों की तुलना में भारत ज्‍यादा कमजोर जमीन पर खड़ा दिख रहा है। आयात व निर्यात का असंतुलन यानी चालू खाते का घाटा रिकार्ड 90 अरब डॉलर पर है। करीब 290 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार सात माह के आयात की जरुरत पूरी कर सकता है। रिजर्व बैंक बीते साल ही आगाह कर चुका है कि विदेशी मुद्रा भंडार में लगभग 80 फीसदी डॉलर शेयर बाजारों के जरिये आ रहे हैं जिनके टिकाऊ होने की कोई गारंटी नहीं है।
भारत के संकट का पर्चा दुनिया के सामने खुल चुका है। रुपये को इमदाद पहुंचाने के रास्‍ते सीमित हैं।  अगले कुछ महीनों में तकरीबन 45 अरब डॉलर का आयात घटाना होगा ताकि चालू खाते के घाटे को आधा किया जा सके। या फिर लगभग 80-120 अरब डॉलर का अति‍रिक्‍त जुगाड़ करना होगा ताकि कम से कम नौ दस माह के आयात के लायक विदेशी मुद्रा जुट सके। विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ने या चालू खाते के घाटे में निर्णायक कमी से ही रुपये में ताकत व निवेशकों का भरोसा लौटेगा। आर्थिक मंदी व गिरती साख के बीच चिदंबरम सुब्‍बाराव की जोड़ी के लिए यह जुगाड नामुमकिन है। डॉलरों की आपूर्ति बढ़ाने के मकसद से विदेशी निवेशकों के लिए बांड या अनिवासी भारतीयों के लिए विशेष जमा स्‍कीमों को आजमाया जा सकता है हालांकि इन विकल्‍पों से पर्याप्‍त विदेशी मुद्रा मिलने की गारंटी नहीं है। यह कोशिशें बाजार में घबराहट भी बढायेंगी, इसलिए सरकार की हिचक लाजिमी है।  
रुपये को उबारने के दूसरे रास्‍ते घुमावदार हैं। बढ़ती लागत व ग्‍लोबल बाजार में सीमित मांग कारण निर्यात तो बढ़ने से रहे और आयातों का ढांचा बड़ा कडि़यल है। पेट्रो उत्‍पादों की मांग घटाना मुश्किल है लेकिन दुनिया में पांचवे सबसे बडे कोयला भंडार वाला भारत अगर घरेलू उत्‍पादन बढ़ाये तो कोयले का आयात जरुर घट सकता है।  महंगाई घटा कर बचतों पर रिटर्न बेहतर किया जा सकता है ताकि सोने की मांग व आयात कम हो सके। अलबत्‍ता इन रास्‍तों में गहरे गड्ढे हैं। कमजोर रुपया आयात महंगे कर रहा है। बिजली दरों व पेट्रो  मूल्‍यों में बढ़ोत्‍तरी का अगला दौर प्रस्‍तावित है। लगभग सौ बड़ी कंपनियां विदेशी कर्ज से लदी हैं। कमजोर रुपया इनकी लागत बढ़ा रहा है जो उत्‍पादों व सेवाओं का मूल्‍य बढ़ाकर उपभोक्‍ताओं के सर मढ़ी जाएगी। 
फेड रिजर्व के कार्यक्रम के मुता‍बिक 2014 के मध्‍य तक ग्‍लोबल बाजारों से अतिरिक्‍त पूंजी निकल जाएगी। अर्थात भारत को डॉलरों की कमी, कमजोर रुपये व अस्थिर बाजार के साथ तब तक जीना होगा जब तक महंगाई में स्‍थायी कमी व ग्रोथ नहीं लौटती। रेटिंग एजेंसियां भारत को डरायेंगी नतीजन अगले कई महीनों तक रुपये व बाजार की कलाबाजी से हमारा कलेजा मुंह को आएगा।  2008 में हम पूरी दुनिया के साथ ही ढहे थे लेकिन दूसरों ने जो वक्‍त खुद को उबारने की कोशिश में लगाया हमने उसे भ्रष्‍टाचार व नीति शून्‍यता में बिता दिया। कमजोर रुपये ने हमारे लिए मंदी से वापसी मंजिल को और दूर कर दिया है। भारत डूबने में सबसे आगे था लेकिन उबरने में सबसे पिछड़ा साबित होगा।




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