ग्रोथ व आय बढ़ने का आसरा छोड़ कर नई महंगाई से बचने का इंतजाम शुरु करना होगा, जो ऊर्जा क्षेत्र के रास्ते पूरी अर्थव्यस्था में पैठने वाली है।
हम यह शायद कभी नहीं जान पाएंगे कि वक्त
पर आर्थिक सुधार न होने से किस राजनेता को क्या और कितना फायदा पहुंचा या दौड़ती
अर्थव्यवस्था थमने और रुपये के टूटने का जिम्मेदार कौन है। लेकिन देश बहुत जल्द
ही यह जान जाएगा कि लापरवाह व अदूरदर्शी सरकारें अपनी गलतियों के लिए भी जनता से किस
तरह कुर्बानी मांगती हैं। सियासत की चिल्ल पों के बीच भारत में दर्दनाक भूल
सुधारों का दौर शुरु हो चुका है, जो पूरी अर्थव्यवस्था में नई महंगाई की मुनादी
कर रहा है। ऊर्जा क्षेत्र में मूल्य वृद्धि का नया करंट दौड़ने वाला है जो कमजोर
रुपये के साथ मिल कर महंगाई-मंदी के दुष्चक्र की गति और तेज कर देगा। कोयला व गैस
से जुडे़ फैसलों के दूरगामी नतीजे भले ही ठीक हों लेकिन फायदों के फल मिलने तक आम
लोग निचुड़ जाएंगे।
भारत के आर्थिक सुधारों का नया मॉडल दरअसल
भूल सुधार कार्यक्रम है जिसमें सुधार की नीतियों से महंगाई घटती नहीं बल्कि बढ जाती है। बिजली घरों को पर्याप्त कोयला आपूर्ति का ड्रामा बीते बरस जुलाई में ऐतिहासिक
बिजली कटौती के बाद शुरु हुआ था। दुनिया में पांचवें सबसे बडे कोयला भंडार वाले
भारत की सरकार पूरे एक साल तक कवायद करती लेकिन बिजली घरों के लिए कोयले का इंतजाम
नहीं हो पाया। अंतत: बीते सप्ताह वित्त मंत्री पी चिदंबरम को यह इलहाम हुआ कि
बिजली न होने से तो महंगी बिजली अच्छी है। इसलिए कोयले की कमी आयात से पूरी करने
का फैसला सुना दिया गया। आयात के कारण बिजली की बढ़ी हुई लागत उपभोक्तों से वसूली
जाएगी और पूरे देश में बिजली 20 से 25
पैसे प्रति यूनिट तक महंगी होगी। बिजली दरों में यह प्रस्तावित वृद्धि दरअसल एक काहिल सरकार का अभिशाप है। जिसने अपने चहेते
उद्यमियों को खदानें देने का फैसला करने में जरा देर नहीं लगाई लेकिन प्रधानमंत्री
के नेतृत्व में पूरी सरकार, सार्वजनिक कंपनी, कोल इंडिया को उतपादन बढाने पर राजी
नहीं कर पाई। 2009 से 2015 तक देश में करीब 78000 मेगावाट की नई बिजली उत्पादन
क्षमता तैयार हो रही है। इसमें करीब 36000 मेगावाट के बिजली संयंत्र तैयार हैं और
कोयले को तरस रहे हैं। कोल इंडिया इस नई उत्पादन क्षमता की केवल 65 फीसदी जरुरत
पूरी कर सकेगी, शेष कोयला आयात होगा। कोल इंडिया की अक्षमता हमें बहुत महंगी पड़
रही है क्यों कि आयातित कोयले की कीमत घरेलू कोयले से चार गुना जयादा होगी। राज्यों
के बिजली नियामकों ने बिजली दरें बढ़ाने का फार्मूला बनाना शुरु कर दिया है। 2015
तक उपभोक्ताओं को करीब 10,000 करोड़ रुपये अतिरिक्त चुकाने होंगे। रुपया गिर रहा
है इसलिए आयातित कोयले की लागत व बिजली की कीमत बढ़ती जाएगी।
महंगी बिजली कोयले तक सीमित नहीं होगी, देश
में निकलने वाली प्राकृतिक पेट्रोलियम कीमत दोगुनी कर दी गई है, कुछ कंपनियों की
बैलेंस शीट का चमकाने वाला यह फैसला देश में गैस आधारित बिजली को 4.70 रुपये प्रति
यूनिट महंगा कर देगा। पेट्रोल डीजल मूल्य नियंत्रण से मुक्त होने के बाद से लगातार
महंगे हो रहे हैं, अब कोयला व गैस भी इस कतार में शामिल हैं। ऊर्जा क्षेत्र में
भूल सुधारों के फायदे जब मिलेंगे तब की तब देखी जाएगी फिलहाल तो ईंधन व बिजली के
बाजार में लंबी व स्थाई महंगाई की बुनियाद तैयार हो गई है। बिजली दरें बढने का
क्रम पहले से जारी है। पिछले एक साल में 23 राज्यों व पांच केंद्र शासित प्रदेशों
में बिजली दरें 2 फीसदी से 73 फीसदी तक बढ़ी हैं। सलाहकार फर्म डेलॉयट के मुताबिक
16 राज्यों में घरेलू उपभोक्ता औसतन चार
रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीद रहे हैं। भारत का ऊर्जा क्षेत्र बुरी तरह
आयात निर्भर है, रुपया गिरावट की राह पर है इसलिए ताजा फैसलों रोशनी में बिजली
दरों में भारी बढोत्तरी का एक नया दौर सर पर खडा है, जो लागत में चौतरफा बढ़ोत्तरी
करेगा।
ऊर्जा का संकट और विदेशी मुद्रा प्रबंधन भारत
की दो सबसे जोखिम भरी दरारें रही हैं। आर्थिक सुधारों व तेज विकास के बावजूद इन
दरारों को भरा नहीं जा सका। ऊर्जा सुधारों की टेढ़ी मेढ़ी राह अंतत: देश को कोयले
की मांग व आपूर्ति में असंतुलन और महंगी बिजली पर ले आई जबकि दूरगामी रणनीति के
अभाव में विदेशी मुद्रा सुरक्षा डॉलरों की रोजमर्रा आपूर्ति की मोहताज हो गई। यह
दोनों दरारें अब एक दूसरे मिल गई हैं। घरेलू आपूर्ति में कमी से कोयला व कच्चे
तेल का आयात बढ़ता है जो विदेशी मुद्रा घाटे में इजाफा करता है जिससे रुपया कमजोर
होकर आयातित ईंधन को महंगा कर देता है। ऊर्जा संकट और विदेशी मुद्रा संकट आपस में
गुंथ कर मंदी महंगाई के दुष्चक्र को ताकत बख्श रहे हैं।
आर्थिक नीतियों का ढांचा इस कदर बिगड़
चुका है कि सुधारों की लगभग हर कोशिश महंगाई बढने की वजह बन जाती है। कमजोर
होता रुपया, बाढ़ लाता मानसून और राजनीतिक अस्थिरता पहले से मौजूद है। ऊर्जा की
लागत में जबर्दस्त बढोत्तरी के बाद अब यह मुगालता नहीं पालना चाहिए कि मुद्रास्फीति
जल्द कम होगी और ब्याज दरें घटेंगी। आयात कम होने और रुपये में ताकत लौटने की
उम्मीद करना भी बेमानी है। बल्कि अब तो ग्रोथ व आय बढ़ने का आसरा छोड़ कर महंगाई से
बचने का इंतजाम करना होगा, जो ऊर्जा क्षेत्र के रास्ते पूरी अर्थव्यस्था में
पैठने वाली है। आने वाली महंगाई किसी ग्लोबल संकट की देन नहीं है बल्कि एक नाकारा
गवर्नेंस का खामयाजा है। दूरदर्शी सरकारें जनता को वक्त की मार से बचाने के लिए पहले
तैयार हो जाती हैं जबकि संवेदनशील सरकारें चुनौती आने पर कदम उठाने में देरी नहीं
करतीं। अलबत्ता भारत की किस्मत में तो एक दंभी व लापरवाह सरकार लिखी थी जो अपनी
गलतियों का बिल जनता को थमा कर चुनाव की तरफ निकल जाना चाहती है।
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