अगर हम सियासत के
गुबार से बाहर देख पाएं तो हमें कर्ज संकट से निबटने की तैयारी शुरु कर देनी चाहिए
जो करीब दस-बारह महीने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था पर फटने को तैयार होगा.
भारत के वित्तीय
तंत्र के लिए अब यूपीए और एनडीए में कोई बड़ा फर्क नहीं बचा है. 2008 के बाद जिस तरह
यूपीए ने बैंकों से अंधाधुंध कर्ज बांटने को कहा और पूरी बैंकिंग में बकाया
कर्जों का बारूद बिछ गया,
ठीक उसी तरह
आर्थिक ग्रोथ तेज करने की कोशिशों को ढहते देख मोदी सरकार को भी लगने लगा है कि
कर्ज पर कर्ज देकर चुनावी संभावनाएं चमकाई जा सकती हैं.
सरकार और रिजर्व
बैंक के बीच ताजा विवाद के साथ ही कर्ज के इस टाइम बम की टिक्-टिक् भी शुरू हो गई
है. भारत की छद्म बैंकिंग यानी एनबीएफसी (गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों) ने पिछले
चार साल में बेरोक-टोक कर्ज बाटे हैं. सरकार, रिजर्व बैंक के जरिए कर्ज के बकायों को बैंकों के गले
बांधने जा रही है. बैंकों के पास बकाया कर्ज का भारी बारूद पहले से जमा है जिस पर
अब नया आरडीएक्स बिछने वाला है.
रिजर्व बैंक
गवर्नर रहें या जाएं लेकिन अब सरकार ने यह फरमान सुना ही दिया है कि एक-सरकारी
बैंकों को एनबीएफसी के बकाया कर्ज खरीदने होंगे या नए कर्ज देने होंगे. दो-बैंकों
पर बकाया कर्ज वसूली को लेकर सख्ती नहीं होगी और तीन-यूपीए की तर्ज पर बैंकों को
कर्ज बांटने का अभियान शुरू करना होगा.
सब जानते हुए सरकार
कर्ज से लदे बैंकों को नए बारूद पर क्यों बिठा रही है?
सरकार चुनाव के
पहले एक कर्ज संकट को टालना चाहती है. एनबीएफसी या शैडो बैंकिंग ने बाजार से बड़े
पैमाने पर (कॉमर्शियल पेपर और डिबेंचर) कर्ज लिए हैं. इन्हें जमा करने-जुटाने की
छूट नहीं है. वे बैंक व बाजार से कर्ज लेकर आगे कर्ज देते हैं. एनबीएफसी के 2.3 लाख करोड़ के
कर्ज दिसंबर तक चुकाए जाने हैं. कुछ बड़ी देनदारियां अगले साल सितंबर तक
चलेंगी.
इसी भुगतान की
आहट के बाद अक्तूबर में बाजार में नकदी का संकट शुरू हुआ कि क्यों लेनदारों को यह
पता है कि शैडो बैंकिंग के पैर के नीचे पूंजी की जमीन नहीं है.
सरकार की कवायद
इस टाइम बम की घड़ी को आगे बढ़ाने की है ताकि चुनाव अच्छे-भले गुजर जाएं. ऐसा ही
यूपीए ने किया था जब कंपनियों के बकाया कर्जों का भुगतान टाल कर उन्हें नए कर्ज
दिए गए थे. सरकार के धमकाने पर रिजर्व बैंक ने बैंकों से कहा है कि वे इस शैडो
बैंकिंग को और कर्ज दें,
उनके बॉन्ड्स को
गारंटी दें और यहां तक कि स्टेट बैंक तो एनबीएफसी के 45,000 करोड़ रु. के
बकाया कर्ज खरीदने जा रहा है.
म्युचुअल फंड भी
अपनी नकदी एनबीएफसी के बॉन्ड्स में लगाते थे. उन्हें इस शैडो बैंकिंग की सचाई
मालूम है इसलिए पिछले दो माह में उन्होंने काफी बिकवाली की है. यानी अब इनके बकाया
कर्ज की जिम्मेदारी बदहाल बैंकों पर आ गई है जिनके पास करोड़ों जमाकर्ताओं की बचत
है.
रिजर्व बैंक के
एनपीए फॉर्मूले के मुताबिक,
एनबीएफसी यानी
शैडो बैंकिंग के एनपीए उनके कुल उधार का 5.8 फीसदी है जबकि बैंकों का एनपीए (कुल कर्ज का प्रतिशत) 11.8 फीसदी है.
इन्हें मिलने वाली ताजा राहत एक साल बाद बड़ी आफत बनकर टूटेगी और तब मुसीबत के नए
दांत उग चुके होंगे.
2022 से सरकारी कर्ज
की देनदारी का सबसे लंबा क्रम शुरू हो रहा है. यानी सरकार को या तो बैंकों से लिया
कर्ज (ट्रेजरी बिल के जरिए) चुकाना होगा या उसे चुकाने के लिए नया कर्ज उठाना
होगा. इस बीच सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ब्याज दरें बढऩे लगी हैं जो इस संकट को
समय से पहले आमंत्रित कर सकती हैं.
चुनाव सामने हैं, वित्तीय संकट सबको दिख
रहा है इसलिए कर्ज पर कर्ज बांटने से तत्काल न तो मांग बढऩी है और न निवेश. इसका
लाभ कुछ ही बड़े शैडो बैंकों (एनबीएफसी) को ही मिलेगा. जैसा कि 2010 में
माइक्रोफाइनेंस कंपनियों पर संकट के दौरान अन्य वित्तीय कंपनियों पर संकट बना
रहेगा.
वित्तीय तंत्र
में कर्ज मिथकों के राक्षस रक्तबीज की तरह होता है. वह सिर्फ जगह बदलता है, बढ़ता है, मरता कभी नहीं.
बाजार को यह अच्छी तरह पता है. बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में ऐसे कर्ज संकट की स्थिति 40 साल में एक बार
बनती है. क्या हम इससे बच पाएंगे?
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