बीते हफ्ते सिंगापुर में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया की वित्तीय तकनीकी (फिनटेक) कंपनियों को भारत में आने का न्योता दे रहे थे तब भारत में मोबाइल, बैंकिंग, बीमा, म्युचुअल फंड का बाजार 'आधार' खिसकने के झटके से उबरने की कोशिश कर रहा था. आधार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कई सेवाओं को ग्राहकों की पहचान की उलझन ने घेर लिया है.
वित्तीय सेवा उद्योग अपने दर्द को जीएसटी के साथ साझा कर सकता है लेकिन सरकार और बाजार, दोनों के फायदों की सूरत नहीं दिख रही है.
जीएसटी वाले अपनी निराशा को राफेल या फिर वायु सेना की चिंताओं से बांट सकते हैं जहां प्रतिरक्षा की एक बेहद संवेदनशील जरूरत सरकार और देश की साख पर भारी पडऩे वाले विवाद में उलझ गई है.
आधार, जीएसटी और राफेल में गहरा रिश्ता है. इनकी भूमिकाएं अलग-अलग हैं लेकिन इनकी समानताएं और मुसीबत अनोखे ढंग से एक जैसी है.
इससे कौन असहमत होगा कि तीनों ही फैसले या प्रस्ताव देश के लिए जरूरी थे. अर्थव्यवस्था को वैज्ञानिक यानी बायोमीट्रिक आधार जन-पहचान प्रणाली चाहिए. जीएसटी को लागू किया ही जाना था और वायु सेना का आधुनिकीकरण अर्से से लंबित था.
दिलचस्प है कि पिछली सरकार इनका निर्णय कर चुकी थी या फिर उन्हें लागू करने की जमीन तैयार हो गई थी. इन तीनों फैसलों को नई यानी मोदी सरकार ने हाथोहाथ लिया था यानी कि तीनों फैसलों पर, सिद्धांततः, एक किस्म की राजनैतिक सहमति थी.
लेकिन ऐसा क्या हुआ कि तीनों जरूरी सुधार, समाधान के बजाए उलझन, विवाद और राजनीति की वजह बन गए.
दरअसल, भारतीय लोकतंत्र इस समय कुछ अप्रत्याशित मुसीबतों से रूबरू है. यहां अब सुधार इसलिए असफल नहीं हो रहे हैं कि उन पर राजनैतिक मतभेद हैं या आम लोग इन फैसलों के साथ नहीं हैं अथवा देश खुद को बदलने की क्षमता नहीं रखता... असफलता की वजह अब यह है कि अच्छे सुधार इसलिए मुसीबत बन रहे हैं क्योंकि सरकार उचित लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अनदेखी कर रही है.
दंभ से निकला कल्याण भी घातक होता है और वही आधार, जीएसटी व राफेल के साथ हुआ है.
मसलन आधार को लें...यह सहमति तो लगभग एक दशक पहले बन गई थी कि भारत को बायोमीट्रिक पहचान प्रणाली अपनानी होगी ताकि सरकारी कल्याण संसाधनों के बंटवारे में लूट बंद हो सके. यूपीए से एनडीए तक आते-आते आधार की संकल्पना पर बहस खत्म हो चुकी थी, नीतिगत सवाल यह था कि भारत में नागरिकता की पहचान को आधार से जोड़ा जाए या इसे सिर्फ सरकारी स्कीमों के लाभार्थियों की पहचान तक सीमित रखा जाए? इस सवाल के उत्तर में उन सभी उलझनों के जवाब छिपे थे जिनके कारण आधार विवादित हुआ.
लोकतंत्र का तकाजा था कि सरकार इस पर संवाद के बाद नीति बनाती और सहजता से इसे लागू किया जाता, लेकिन खुद को सही मानने की सरकारी जिद इस कदर बढ़ी कि पहले तो इसे तदर्थ तौर पर लागू किया गया और फिर सुप्रीम कोर्ट के दबाव पर आधार के कानून को मनी बिल बनाकर संसद से मंजूर करा लिया गया.
आधार का फैसला (संकल्पना नहीं) लोकतंत्र के पैमानों पर खरा नहीं था इसलिए भारी खर्च पर खड़ा हुआ आधार, सुप्रीम कोर्ट में खेत रहा. अब पहचान प्रमाणों को लेकर पुरानी अराजकता लौट आई. आधार से जुडऩे के बाद अब इससे अलग होने की मुहिम चल रही है. मोबाइल, बैंक और वित्तीय सेवा कंपनियों के लिए ग्राहकों की पहचान की लागत में इजाफा हुआ है. धोखाधड़ी के खतरे गई गुना बढ़ गए हैं.
ठीक इसी तरह जीएसटी भी जिद और पूर्वाग्रह में फंस कर बिखर गया. एक ऐसा सुधार जिससे जीडीपी बढऩे, लागत घटने और टैक्स चोरी रुकने की उम्मीद थी उसकी तैयारी खराब थी और बदलाव पर बदलाव इसलिए हुए क्योंकि उनके साथ कोई सहमति नहीं बनाई गई जिन पर इसे लागू किया जाना था. जीएसटी को भारत जितने खराब ढंग से और कहीं नहीं लागू किया गया.
जीएसटी और आधार तो नए फैसले थे लेकिन रक्षा खरीद में विवादों के तजुर्बे के बावजूद, राफेल में पारदर्शिता के लिए उन प्रक्रियाओं का पालन नहीं हुआ जिनके जरिए इसे विवादों से बचाया जा सकता था. सुप्रीम कोर्ट में सरकारी हलफनामे बता रहे हैं कि राफेल के फैसले में कैबिनेट की समितियों या संप्रभु गारंटी जैसे नियमों की अनदेखी हुई है.
गांधी की एक बुनियादी बात अब सरकारें अक्सर भूलने लगी हैं: अच्छे लक्ष्य के लिए साधनों की पवित्रता भी जरूरी है. सरकारों को समझना पड़ेगा कि कोई भी सुधार अगर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से नहीं निकलता तो सक्रिय लोकतंत्रों में उसके समस्या बनने के खतरे बढ़ जाते हैं.
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