मंदी या लंबी आर्थिक गिरावट सिर्फ इसलिए बुरी नहीं होती कि वह हमें तोड़ देती है बल्कि ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वह हमें किस हाल में ले जाकर छोड़ देती है. अठारह महीने से जारी यह मंदी कब थमेगी, इसके संकेत मिलने अभी बाकी हैं. अगली तिमाही और मुश्किल भरी हो सकती है लेकिन मंदी से उबरने तक भारतीय बाजार में प्रतिस्पर्धा कमोबेश हमारा साथ छोड़ चुकी होगी.
· मोबाइल नेटवर्क चाहे जितने घटिया हों लेकिन अगले कुछ माह में हमें शायद दो कंपनियों में एक को चुनना होगा. बीएसएनल की बीमारी लाइलाज हो चुकी है. मंदी के बीच वोडाफोन-आइडिया संकट में है यानी कि टेलीकॉम सेवा में प्रतिस्पर्धा आखिरी सांसें ले रही है.
· स्मार्ट फोन के बाजार में भी बहुत से विकल्प नहीं रहेंगे. वहां भी चीन और कोरिया की दो कंपनियां करीब 50 फीसदी बाजार हिस्सा कब्जा चुकी हैं. देशी कंपनियां किसी गिनती में नहीं रहीं.
· पिछले सात साल में सबसे बुरा वक्त देख रहे विमानन उद्योग में जेट एयरवेज की विदाई के बाद अब प्रतिस्पर्धा सिर्फ दो कंपनियों के बीच सिमट गई है.
· 2015 में एक दर्जन से अधिक ई-कॉमर्स कंपनियां भारत में हंस खेल रही थीं लेकिन अब पूरा रिटेल (ऑनलाइन और स्टोर) बाजार अब पूरी तरह दो अमेरिकी कंपनियों के पास चला गया है. अमेरिकी ग्लोबल रिटेल स्टोर दिग्गज वालमार्ट ने फ्लिपकार्ट के अधिग्रहण के साथ खुद को ई-कॉमर्स में स्थापित कर लिया तो ई-कॉमर्स की सुल्तान अमेरिकी कंपनी अमेजन ने भारतीय रिटेल दिग्गज फ्यूचर ग्रुप में हिस्सेदारी खरीद ली है. अब रिटेल बाजार वालमार्ट बनाम अमेजन में बदल गया है.
· बीते बरस सितंबर में सेबी के चेयरमैन इस बात पर फिक्रमंद थे कि भारत के म्युचुअल फंड बाजार केवल चार कंपनियां या फंड 47 फीसदी निवेश क्यों संभाल रहे हैं जबकि (ऐसेट मैनेजमेंट) कंपनियां तो 38 हैं. शेयर बाजार में ताजा गिरावट के बाद तो अब दो या तीन खिलाड़ी ही बचेंगे.
भारतीय बाजार पहले से ही एकाधिकारों और कंपनियों की मिलीभगत का दर्द झेल रहा है. कोयला, पेट्रो ईंधन, बिजली ग्रिड, बिजली उत्पादन जैसे बड़े क्षेत्रों में सरकार का एकाधिकार है. इंडियन ऑयल जल्द ही भारत पेट्रोलियम का अधिग्रहण कर लेगी यानी कि पेट्रो उद्योग में प्रतिस्पर्धा और सिमट जाएगी. स्टील, दुपहिया वाहन, प्लास्टिक, एल्युमिनियम, ट्रक और बसें, कार्गो, रेलवे, सड़क परिवहन, कई प्रमुख उपभोक्ता उत्पाद सहित करीब एक दर्जन उद्योगों या सेवाओं में एक से लेकर तीन कंपनियां (निजी या सरकारी) काबिज हैं.
लंबी खिंचती मंदी प्रतिस्पर्धा के लिए सबसे बड़ी सजा का ऐलान है. मंदी से लड़ने के तरीके बहुत सीमित हैं. उद्योग सरकार से मदद की उम्मीद करते हैं लेकिन जब सरकार के पास खर्च बढ़ाने या टैक्स घटाने के मौके नहीं (जैसा कि अब है) होते तो उद्योगों के पास कीमत कम करने का आखिरी विकल्प बचता है. त्योहारी मौसम के मद्देनजर देश में यह आखिरी कोशिश शुरू हो रही है.
मगर ठहरिए, कीमतें कम होने से हालात बदल नहीं जाएंगे. यहां से एक दुष्चक्र शुरू होने का खतरा है. यह मंदी कीमतें ऊंची होने की वजह से नहीं है. महंगाई रिकॉर्ड न्यूनतम स्तर पर है. जीएसटी कम हुआ है. मंदी तो आय न बढ़ने के कारण है. लोगों के पास बचत नहीं है, इसलिए खपत नहीं बढ़ी.
दुनिया के अन्य बाजारों के तजुर्बे बताते हैं कि मंदी के दौर में जब कंपनियां कीमत घटाती हैं तो सिर्फ बड़ी कंपनियां इस होड़ में टिक पाती हैं. क्योंकि मंदी के बीच कीमत घटाकर उसका असर झेलने की क्षमता सभी कंपनियों में नहीं होती. टेलीकॉम इसका उदाहरण है, जहां कीमतें कम होने से कंपनियां ही मर गईं.
पिछले छह-सात वर्षों में, भारतीय बाजार में प्रतिर्स्धा सिकुड़ गई है. विदेशी कंपनियों के आक्रामक विलय, अधिग्रहण और कर्ज के कारण बड़े पैमाने पर कंपनियां बंद हुई हैं. नोटबंदी, जीएसटी ने मझोली कंपनियों को सिकोड़कर स्थानीय बाजारों में प्रतिस्पर्धा को भी सीमित कर दिया, जिसकी वजह से कई लोकल ब्रांड खेत रहे.
कहते हैं कि मंदी के बाद अमेरिकी पूंजीवाद को वापस लौटने में पांच दशक लग गए. भारत भी जब इस मंदी से उबरेगा तो यहां कई क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा सिमट चुकी होगी. कंपनियां हमेशा एकाधिकार चाहती हैं. गूगल-फेसबुक वाली नई दुनिया तो वैसे ही एकाधिकार से परेशान है.
कंपनियों के एकाधिकार सरकारों के लिए भी मुफीद होते हैं क्योंकि राजनीति-कॉर्पोरेट गठजोड़ आसानी से चलता है. लाइसेंस परमिट राज में यही तो होता था. लेकिन इस पर सवाल उठाने होंगे, क्योंकि अर्थव्यवस्था को खुली होड़ चाहिए. सीमित प्रतिस्पर्धा वाले क्षेत्रों में नई कंपनियों के प्रवेश की नीति जरूरी है. पांच-छह बड़ी और असंख्य छोटी कंपनियां हर क्षेत्र में होनी ही चाहिए. इससे निवेश आएगा और रोजगार भी.
हैरत नहीं कि प्रसिद्ध कारोबारी बोर्ड गेम ‘मोनोपॉली’ (भारत में व्यापार) अमेरिका की महामंदी के दौरान सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ था. बेकारी के दौर में लोग खेल वाले नोटों की अदला-बदली से समय काटते थे और कृत्रिम कारोबार खरीदते-बेचते थे. अगर हम नहीं चेते तो बड़ी कंपनियां मंदी की बिसात पर यह खेल शुरू कर देंगी, जिसकी कीमत हम रोजगार में कमी, खराब सेवाएं और घटिया उत्पाद खरीद कर चुकाएंगे.
मन्यवार, आपने जो चिंता व्यक्त की हैं वो सही लगती हैं, लेकिन आपको नहीं लगता कि ये सब स्वाभविक प्रक्रिया है।.... मतलब हर जगह शीर्ष में एक-दो कंपनी ही होती हैं जैसे किसी संस्थान, परिवार या देश में शीर्ष में एक-दो प्रमुख ही होते हैं।..... ऐसा नहीं लगता कि कंपनियों के मामले में भी यही प्राकृतिक व्यवस्था देखने को मिलती है ?.... फिर भी आप कहें कि यह प्राकृतिक व्यवस्था नहीं है तो कृपया मार्गदर्शन करें कि शीर्ष मे पांच-छह बड़ी और असंख्य छोटी कंपनियां हर क्षेत्र में होने के लिये सरकार क्या कर सकती है ? या सरकार को क्या करना चाहिये ?
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