केंद्र और राज्य सरकारें
हमें इस मंदी से निकाल सकती हैं ? जवाब इस सवाल में छिपा है कि उत्तर प्रदेश, मध्य
प्रदेश और कई दूसरे राज्यों ने बिजली क्यों महंगी कर दी? जबकि मंदी के समय बिजली
महंगी करने से न उत्पादन बढता है और न खपत.
लेकिन राज्य करें क्या ? एनटीपीसी
अब उन्हें उधार बिजली नहीं देगी. बकाया हुआ तो राज्यों की बैंक गारंटी भुना ली
जाएगी. यहां तक कि केंद्र सरकार राज्यों को बिजली बकाये चुकाने के लिए कर्ज लेने
से भी रोकने वाली है.
बीते सप्ताह वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर यह कहते
सुने गए कि मांग बढ़े इसके लिए राज्यों को टैक्स कम करना चाहिए. तो क्या राज्य
मंदी से लड़़ सकते हैं क्या प्रधानमंत्री मोदी की टीम इंडिया इस मंदी में उनकी
मदद कर सकती है.
राज्य सरकारों के कुल खर्च
और राजस्व में करीब 18 राज्य 91 फीसदी का हिस्सा रखते हैं. इस वित्तीय साल की
पहली तिमाही जिसमें विकास दर ढह कर पांच
फीसदी पर गई है उसके ढहने में सरकारी
खजानों की बदहाली की बड़ी भूमिका है.
- खर्च के आंकड़े खंगालने
पर मंदी बढ़ने की वजह हाथ लगती है. इस तिमाही में राज्यों का खर्च पिछले तीन साल
के औसत से भी कम बढ़ा. हर साल एक तिमाही में राज्यों का कुल व्यय करीब 15 फीसदी
बढ़ रहा था. इसमें पूंजी या विकास खर्च मांग पैदा करता है लेकिन पांच फीसदी की
ढलान वाली तिमाही में राज्यों का विकास खर्च 19 फीसदी कम हुआ. केवल चार फीसदी की
बढ़त 2012 के बाद सबसे कमजोर है.
- केंद्र का विकास या पूंजी
खर्च 2018-19 में जीडीपी के अनुपात में सात साल के न्यूनतम स्तर पर था मतलब यह कि जब अर्थव्यवस्था को मदद चाहिए तब केंद्र और राज्यों
ने हाथ सिकोड़ लिए. टैक्स तो बढ़े, पेट्रोल
डीजल भी महंगा हुआ लेकिन मांग बढ़ाने वाला खर्च नहीं बढ़ा. तो फिर मंदी क्यों न आती.
- राज्यों के राजस्व में
बढ़ोत्तरी की दर इस तिमाही में तेजी से गिरी. राज्यों का कुल राजस्व 2012
के बाद न्यूनतम स्तर पर हैं लेकिन नौ सालों में पहली बार किसी साल की पहली तिमाही
में राज्यों का राजस्व संग्रह इस कदर गिरा है. केंद्र ने जीएसटी से नुकसान की
भरपाई की गारंटी न दी होती तो मुसीबत हो जाती. 18 राज्यों में केवल झारखंड और
कश्मीर का राजस्व बढ़ा है
केंद्र सरकार का राजस्व तो
पहली तिमाही में केवल 4 फीसदी की दर से बढ़ा है जो 2015 से 2019 के बीच इसी दौरान 25
फीसदी की दर से बढ़ता था.
- खर्च पर कैंची के बावजूद
इन राज्यों का घाटा तीन साल के सबसे ऊंचे स्तर पर है. आंकड़ो पर करीबी नजर से पता चलता है कि 13 राज्यों के खजाने तो बेहद बुरी हालत में हैं. छत्तीसगढ़
और केरल की हालत ज्यादा ही पतली है. 18 में सात राज्य ऐसे हैं जिनके घाटे पिछले
साल से ज्यादा हैं. इनमें गुजरात, आंध्र,
कर्नाटक, हरियाणा, राजस्थान,
उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य हैं. इनके खर्च में कमी से मंदी और
गहराई है.
केंद्र और राज्यों की हालत एक साथ देखने पर कुछ ऐसा होता
दिख रहा है जो पिछले कई दशक में नहीं हुआ. साल की पहली तिमाही में केंद्र व राज्यों
की कमाई एक फीसदी से भी कम रफ्तार से बढ़ी. जो पिछले तीन साल में 14 फीसदी की गति
से बढ़ रही थी. इसलिए खर्च में रिकार्ड कमी हुई है.
खजानों के आंकड़े बताते हैं कि मंदी 18 माह से है लेकिन
सरकारों ने अपने कामकाज को बदल कर खर्च की दिशा ठीक नहीं की. विकास के नाम पर
विकास का खर्च हुआ ही नहीं और मंदी आ धमकी. अब राजस्व में गिरावट और खर्च में
कटौती का दुष्चक्र शुरु हो गया. यही वजह
है कि केंद्र सरकार को रिजर्व बैंक के रिजर्व में सेंध लगानी पड़ी. तमाम लानत
मलामत के बावजूद सरकारें टैक्स कम करने या खर्च बढ़ाने की हालत में नहीं है.
तो क्या मंदी की एक बड़ी वजह सरकारी बजटों का कुप्रबंध है !
चुनावी झोंक में उड़ाया गया बजट अर्थव्यवस्था के किसी काम नहीं आया ! सरकारें पता नहीं कहां कहां
खर्च करती रहीं और आय, बचत व खपत
गिरती चली गई !
अब विकल्प सीमित हैं. प्रधानमंत्रीको मुख्यमंत्रियों के साथ
मंदी पर साझा रणनीति बनानी चाहिए. खर्च के सही संयोजन के साथ प्रत्येक राज्य में
कम से कम दो बड़ी परियोजनाओं पर काम शुरु कर के मांग का पहिया घुमाया जा सकता
है
लेकिन क्या सरकारें अपनी गलतियों से कभी सबक लेंगी ! या सारे सबक सिर्फ आम लोगों की किस्मत में
लिखे गए हैं !
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