गरज भारत सरकार की! मौका मोटी जेब वालों के लिए! माल चुनिंदा और शानदार! मंदी के मौके पर भारी डिस्काउंट.
एक एयरलाइंस, आधा दर्जन एयरपोर्ट, तेल व गैस पाइपलाइन, बंदरगाहों पर टर्मिनल, रेलवे स्टेशन, ट्रेनें, हाइवे और रेलवे कॉरिडोर के हिस्से, बिजली ट्रांसमिशन लाइनें... बहुत कुछ बिकने वाला है. अफसरों की समितियां, नीति आयोग की मदद से बेचने के तौर तरीके तय करने में लगी हैं. मुहिम नतीजे तक पहुंची तो ताजा इतिहास में सार्वजनिक संपत्तियों का यह सबसे बड़ी बिकवाली होगी.
यह निजीकरण है या संपत्तियों से ज्यादा राजस्व जुटाने (एसेट मॉनेटाइजेशन) की कोशिश? यह गुत्थी खोलने से पहले जानना जरूरी है कि यह सेल लगाने की तैयारी 2018-19 के अंतरिम बजट से ही शुरू हो गई थी. राजस्व जीएसटी के बाद से ही घिसट रहा है. विनिवेश विभाग के उत्तराधिकारी दीपम (निवेश और सार्वजनिक संपत्ति प्रबंधन) की देखरेख और कैबिनेट सचिव की अगुआई में सचिवों की समिति ने बीते अप्रैल से इस बिक्री के लिए कंपनियों, जमीनों, भवनों, परियोजनाओं की सूची बनानी शुरू की दी थी.
लॉकडाउन के बाद यह सेल अनिवार्य हो गई है. गहरी और लंबी मंदी के बीच सरकारी खजाना पूरी तरह रीत चुका है. केंद्र के सकल राजस्व में इस साल 4.32 लाख करोड़ रु. का नुक्सान होना है जो इस साल सार्वजनिक उपक्रम विनिवेश लक्ष्य (2.10 लाख करोड़ रु.) का दोगुना है. इस वित्त वर्ष में केंद्र और राज्यों का राजकोषीय घाटा जीडीपी का 10-12 फीसद होगा. यानी कि दस फीसद की नकारात्मक विकास दर पर दस फीसद से ज्यादा का घाटा. बकौल सीएजी, केंद्र सरकार ने अपना कर्ज छिपाया है, इसके बावजूद सकल कर्ज (केंद्र और राज्य) जीडीपी का 85 फीसद होगा. केंद्र इस साल 12 लाख करोड़ रु. का कर्ज (बीते साल से दोगुना) उठाएगा. अगस्त तक के आंकड़े के अनुसार, राज्यों का कर्ज बीते साल 50 फीसद ज्यादा रहा है.
अर्थव्यवस्था और घाटों की जो हालत है उसमें न तो बैंक सरकारों को एक सीमा से ज्यादा कर्ज दे सकते हैं और न ही सरकारें कर्ज का बोझ उठा सकती हैं, इसलिए अब संपत्ति बेचकर राजस्व जुटाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है.
लौटते हैं, महासेल की तरफ. सूची दिलचस्प है. जैसे कि अगर एयर इंडिया को ग्राहक मिल जाए तो इस उड़ते सफेद हाथी का कर्ज सरकार अपने सिर ले सकती है. एयरपोर्ट अथॉरिटी पटना और भोपाल सहित चार हवाई अड्डों के लिए निजी भागीदार तलाशेगी. हाइवे अथॉरिटी करीब 10,000 किमी सड़कों को निजी कंपनियों को सौंपना चाहती है. नीति आयोग ने तीन सरकारी बैंकों के निजीकरण की सिफारिश कर दी है.
पावर ग्रिड ट्रांसमिशन लाइनों को बेच कर 20,000 करोड़ रु. (शुरुआती अनुमान) का योगदान करने की तैयारी में है. शिपिंग मंत्रालय 11 बर्थ और एक क्रूज टर्मिनल लेकर बाजार में आ रहा है जबकि पेट्रोलियम मंत्रालय गेल, इंडियन ऑयल और एचपी की चुनिंदा पाइपलाइनों को निजी क्षेत्र को सौंपना चाहता है. रेलवे 150 यात्री ट्रेनें और 50 स्टेशनों के साथ डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर के लिए भी निजी भागीदार की तलाश करेगी. कोलकाता मेट्रो के बिल्डिंग कॉम्प्लेक्स सहित हुडको और एनबीसीसी से भी अपनी संपत्तियां बाजार में लाने को कहा गया है.
सरकारी उपक्रमों के विनिवेश को लेकर सरकार बीते पांच साल से तरह-तरह के प्रपंच करती रही है. एक सरकारी कंपनी दूसरी का अधिग्रहण (एलआइसी-आइडीबीआइबैंक) तक कराया गया. हालांकि 2017-18 तक पांच वर्षों में सरकारी कंपनियों की संख्या 234 से बढ़कर 257 हो (सार्वजनिक उपक्रम सर्वे 2018) हो गई. लेकिन यह चलने वाला नहीं है. खुली बिक्री ही आखिरी रास्ता है.
क्या इस महासेल को निजीकरण कहा जाएगा? फिलहाल पूरी प्रक्रिया के लिए एसेट मॉनेटाइजेशन की संज्ञा इस्तेमाल की जा रही है. जो सार्वजनिक उपक्रम विनिवेश का हिस्सा है विरोध हुआ तो सरकार यह कह सकती है कि इन संपत्तियों के मालिकाना अधिकार निजी भागीदारों को नहीं मिलेंगे. इन संपत्तियों को निजी क्षेत्र को टिकाकर अतिरिक्त राजस्व जुटाया जाएगा.
अव्वल तो इस मंदी में ग्राहक हैं ही कहां, अगर आ गए तो इन्हें खरीदने वाले निवेशक इतने भोंदू नहीं होंगे कि वे निजीकरण से कम पर मान जाएं? मंदी में गले तक धंसी अर्थव्यवस्था के बीच इन संपत्तियों के खरीददारों को तत्काल कोई फायदा नहीं मिलना, इसलिए इन ग्राहकों का हाथ ऊपर रहेगा यानी कि राजनैतिक विवादों की भरपूर गुंजाइश है.
सरकार यह जोखिम क्यों ले रही है? इसलिए कि दुनिया की साख तय करने वाली एजेंसियों यानी मूडीज और स्टैंडर्ड पुअर को पता चलता रहे कि घाटे कम करने की कोशिश जारी है, चाहे इसके लिए अपने नवरत्न भी बेचने पड़ें. बढ़ते घाटे की रोशनी में भारत की साख और टूटने (पहले से न्यूनतम) का खतरा है. अगर ऐसा हुआ तो इन रत्नों को भी ग्राहक मिलने मुश्किल हो जाएंगे.
दिल थाम के बैठिए. भारत सरकार की महासेल की उलटी गिनती शुरू होने वाली है.
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