Thursday, October 29, 2020

एक अचंभा देखा भाई


सीधे सवाल सबसे मारक होते हैं.

कर्मचारियों की कमी के कारण सरकारी सेवाओं का बुरा हाल है फिर भी लाखों पद खाली हैं?

भारत की घोड़ा पछाड़ विकास दर (2018) के दौरान बेकारी 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर क्यों पर गई? हम ऐसा क्या बना रहे थे जिससे रोजगार खत्म हो रहे थे?

जो पढ़ने पर अपना समय और पूंजी लगाते हैं वे ही सबसे ज्यादा बेरोजगार क्यों पाए जाते हैं? 

सरकारें सीधे सवालों से डरती हैं इसलिए जवाब इतना पेचीदा कर दिए जाते हैं कि पूछने वाला खुद को नासमझ मान ले. फिर भी अगर कोई जवाब पर अड़े तो वे आंकडे़ ही खत्म कर दिए जाते हैं जो सवालों का आधार बनते हैं.

भारत में बेरोजगारी का यही किस्सा है.

दुनिया में प्रति 100 लोगों की आबादी पर 3.5 सरकारी कर्मचारी हैं. कुछ देशों में यह औसत पांच से आठ कर्मचारियों तक है. भारत में प्रति 100 लोगों पर केवल दो कर्मचारी. शिक्षक, डॉक्टर, पुलिस सभी की कमी है, दफ्तरों में लंबी लाइनें हैं क्योंकि काम करने वाले कम हैं.

खाली पद भर दें तो केवल रोजगार ही नहीं मिलेंगे बल्कि सरकारी सेवाएं भी सुधर जाएंगी, जहां मांग ज्यादा और आपूर्ति कम होने के कारण प्रचंड भ्रष्टाचार है यानी कमी है तो कमाई है.

बजट की कमी के तर्क जवाब को पेचीदा बनाते हैं. टैक्स तो लगातार बढ़ रहे हैं, हमारी बचत भी सरकार खा जाती है. दस साल में केंद्र का बजट खर्च तीन गुना बढ़ गया. लेकिन सरकारी सेवाएं जस की तस हैं और लाखों पद भी खाली पड़े हैं. यह बढ़ता खर्च जा कहां रहा है?

जब टैक्स लगाने में हिचक नहीं है तो भर्तियों के लिए संसाधन जुटाने में क्या दिक्कत? स्वच्छता सेस तो लगा लेकिन स्वच्छता मिशन से कितने रोजगार मिले?

सनद रहे कि नौकरियां मिलेंगी तो मांग बढे़गी, ज्यादा टैक्स मिलेगा.  

...और यह भारतीय चमत्कार तो अनोखा है. यहां सबसे तेज विकास के दशकों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी बढ़ी (एनएसएसओ 2017-18, 1972 के बाद सबसे ज्यादा बेकारी दर). इसी दौरान सबसे ज्यादा पूंजी आई और नई तकनीक भी लेकिन कमाई और पगार नहीं बढ़ी.

अमेरिकी अर्थशास्त्री रॉबर्ट सोलोलो ने तकनीक और उत्पादकता के रिश्ते को समझाया था. उनके फॉर्मूले की रोशनी में भारत के हाल पर हैरत होती है. 1991 के बाद उत्पादन जरूर बढ़ा लेकिन इसकी वजह पूंजी निवेश था, श्रम और तकनीक नहीं. उद्योग और व्यापार के उदारीकरण के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में समग्र उत्पादकता नहीं बढ़ी. निवेश करने वालों ने पैसा मशीनें खरीदने में लगाया, रोजगार या वेतन बढ़ाने में नहीं.

भारत का पूरा टैक्स सिस्टम रोजगार विरोधी है. पेट्रोलियम और बिजली जैसे उद्योगों को कम टैक्स देना होता है, जहां एकाधिकार हैं और रोजगार कम हैं, जबकि ज्यादा रोजगार वाले ऑटोमोबाइल, भवन निर्माण, वित्तीय सेवाओं, कपड़ा उद्योग आदि पर प्रभावी टैक्स दर ज्यादा है.

कंपनियों को मशीन खरीदने में निवेश पर इनकम टैक्स रियायत मिलती है. इस निवेश से रोजगार के अवसर कम होते हैं. बीते दिसंबर में कॉर्पोरेट टैक्स घटाकर कंपनियों के खजाने भर दिए गए. कोविड के बाद कंपनियों को सस्ता कर्ज मिला, तमाम रियायतें भी लेकिन सरकार ने कर्मचारियों की छंटनी करने की कोई शर्त नहीं रखी.

जिसे मापना मुश्किल है उसे संभालना असंभव होता है. अलबत्ता भारत में सरकार जिसे संभाल नहीं पाती, उसकी पैमाइश बंद कर देती है. बेरोजगारी का हिसाब ही नहीं रखा जाता. भारत का जीडीपी अंधे रोबोट की तरह है जो केवल उत्पादन की पैमाइश करता है.

यह जीडीपी झूठा भी है जो तरक्की को लोगों की कमाई या रोजगार की तरफ से कभी नहीं मापता. आर्थिक आंकड़ों में एवरेज यानी प्रति व्यक्ति आय या खपत से बड़ा धोखा और कोई नहीं है. इससे कुछ नहीं पता चलता सिवा इसके कि मुकेश अंबानी और मरनेगा मजदूर की आय बराबर है!

बेकारी आत्मसम्मान तोड़ देती है. इसके बावजूद हम सरकारों से सीधे सवाल क्यों नहीं पूछते और रोजगार पर वोट क्यों नहीं करते?

इसका जवाब प्रख्यात विज्ञानी डैनियल  कॉहनमेन (किताब-थिंक फास्ट ऐंड स्लो) के पास है. उन्हें आदमी के दिमाग के भीतर वह ऑटो पायलट ब्रेन मिल गया, जिसके असर से लोगों का व्यवहार छिपकली (लिजर्ड ब्रेन) की तरह हो जाता है. यानी वे व्यावहारिक समझ (कॉमन सेंस) को भी भूल कर पूरी तरह जैविक प्रतिक्रिया करने लगते है. राजनीति ने लोगों को स्वीकार करा दिया है कि बेरोजगारी के लिए वे खुद जिम्मेदार हैं, सरकारी नीतियां नहीं.

हम अपना गिरेबान पकड़ कर खुद को ही पीट रहे हैं और वे आनंदित हैं. लाखों लोगों की ऐसी सामूहिक प्रतिक्रिया राजनीति के लिए एक चुनाव की जीत मात्र नहीं होती बल्कि इसके जरिए वे करोड़ों दिमागों पर लंबा राज करते हैं.

 

 

3 comments:

  1. इतना बेहतरीन लेख लिखते हैं काश हमारे मुख्यधारा की टीवी मीडिया के साथी पढ़ते तो शायद सवाल पूछने की ताकत आ जाती..
    सदा की तरह सारगर्वित लेख

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  2. THIS IS AMAZING POSTT I REALLY LIKE IT KEEP IT UPMOBILE SE PAISE KAISE KAMAYE

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  3. बहुत सटीक लिखते है आप। अगर इन बातों पर सरकार अमल करें तो बहुत बदलाव किया जा सकता है

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