Friday, May 7, 2021

हारा कौन ?

 


मनुष्य के सभी दुखों और त्रासदियों में सबसे घृणि दुख यह है कि उसे दुख की वजह पता है लेकिन उसमें कुछ कर पाने की ताकत नहीं है. दुख, शोक, हताशा और विवशता में डूबे हजारों भारतीयों के मुंह से मानो प्राचीन ग्रीक इतिहासकार हेरोडोटस बोल रहे हैं. पंद्रह लोकसभाएं और असंख्य विधानसभाएं बना चुके भारतीयों ने पहली बार वोटों और शवों की गिनती एक साथ देखी. उन्होंने देखा कि मतगणना की सुर्खियां, ऑक्सीजन की कमी से मौतों की सुर्खियों से होड़ कर सकती हैं.

यकीनन चुनावों से कुछ नहीं बदलता. मार्क ट्वेन मजाक में कहते थे, अगर चुनावों से कुछ ठीक हो जाता 'वेइन्हें भी बंद करा देते फिर भी ऑक्सीजन से लेकर मरघटों तक लाइनों में लगे लोग यह नहीं समझ पा रहे कि वोट तो उन्होंने गवर्नेंस की मशीन को ठीक करने लिए दिए थे, सरकारें चुनावों की मशीनों में कैसे बदल गईं? चुनाव इतने अपरिहार्य कैसे हो गए कि मौतों की कीमत पर भी 'उत्सवमनाया जा सकता है?

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर पिपा नॉरिस ने व्हाइ इलेक्शंस फेल नाम की एक मशहूर किताब लिखी है. इलेक्टोरल इंटेग्रिटी प्रोजेक्ट के तहत 97 देशों के 117 चुनावों का अध्ययन के बाद उनका निष्कर्ष है कि चुनाव एक संस्था के तौर पर असफल हो गए हैं. इनसे कभी अच्छा प्रशासन या सरकार नहीं निकलती क्योंकि चुनाव कभी उन सवालों पर नहीं होते जिनसे हमारी जिंदगी प्रभावित होती है. चुनाव झूठ, पैसे, भावनात्मक उभार, ध्रुवीकरण, प्रशासन के बेजा इस्तेमाल पर नतीजे निकालने की मशीन है.

जॉन्स हॉपकिंस यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर बेंजामिन गिंसबर्ग चुनावों की विफलता (कई पुस्तकें) को और लंबे समय से पढ़ रहे हैं. उनके मुताबिक, चुनाव एक दकियानूसी व्यवस्था बन गई है, जिसमें झूठ से बहक जाने वाले वोटरों से ज्यादा से ज्यादा वोट कराए जाते हैं ताकि समझदार वोटरो के फैसले बेअसर हो सकें. चुनाव सत्ता को मनमानी की ताकत देते हैं और सबसे कमजोर तबकों की ताकत छीन लेते हैं.

नॉरिस और गिंसबर्ग के निष्कर्षों की रोशनी में हमारी उलझन और बढ़ जाती है. आखि क्यों भारत राजनैतिक दल छोटे से छोटे चुनावों को जीतने में बड़ी से बड़ी ताकत झोंक रहे हैं? क्या सरकारों ने खुद को कामयाब और उत्तरदायी साबित करने के सभी आयोजन भंग कर दिए हैं और अब वह केवल चुनावों से ही अपनी सफलता को साबित करना चाहती हैं?

चुनाव नहीं, लोकतंत्र हमारी दैनिक जिंदगी है. इसलिए संविधान ने असंख्य संस्थाओं को पर्याप्त ताकत देकर इस बात के लिए तैयार किया था कि वह सरकारों के कामकाज पर कठोर से कठोर से सवाल पूछ सकें. संसद, अदालतें, सतर्कता संस्थाएं, मीडिया यहां तक ग्लोबल संस्थाओं (वर्ल्ड बैंक, यूएनओ, ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल) को लोकतंत्रों ने इसलिए स्वीकार किया ताकि सरकारों का लगातार मूल्यांकन होता रहे.

भारत की अदालतें कोविड पर अगर बीते साल ही सक्रिय हो जातीं, संसद अस्पतालों की व्यवस्था पर सरकार से जवाब मांगती, सीएजी स्वास्थ्य सेवाओं का बेबाक ऑडिट कर पाता, सत्ता से सवालों पर पहरे  बिठाए जाते तो शायद कई मौतें बच जातीं.

ऐसा लगता है कि भारत में चुनाव जीतना आसान है, सरकार चलाना कठिन, इसलिए संस्थाओं को जानबूझ कर बेजान बनाया गया ताकि सरकार के हर शुभ-अशुभ कर्म पर फैसला केवल चुनाव के जरिए किया जाए. मसलन, सरकार ने खुद माना कि नोटबंदी अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ी लेकिन उसके बाद हुए चुनाव में भाजपा की जीत ने उसे जायज ठहरा दिया.

लोकतंत्र में चुनाव जीतने को लेकर पागलपन की हद तक पहुंचते आग्रह की एक और वजह भारत की प्रोफेशनल पॉलिटिक्स है. राजनैतिक कार्यकर्ता और नेता (संगठन) अपनी बेहतर जिंदगी के लिए राजनीति से मिलने वाले लाभों पर निर्भर हैं. संसाधनों का सबसे बड़ा संग्रह सत्ता के पास है और उसी के पास है अवसर बांटने की अकूत ताकत. ऐसे में सियासत की विराट मशीन तभी चल सकती है जब सत्ता में हर स्तर पर नियंत्रण बनाया जाए ताकि इस संयंत्र को पैसे की नियमित खुराक मिल सके.

अचरज है कि गांवों से लेकर राजधानियों तक दवा, इलाज, ऑक्सीजन का नेटवर्क नहीं बन सका लेकिन बूथ से दिल्ली तक चुनाव जीतने का व्यापक ढांचा बनते देर नहीं लगी.

लोगों की जिंदगी बदलने में चुनावों की असफलता के कारण गवर्नेंस के नए तरीकों की कोशिशें शुरू हो गई हैं. महामारी के बाद दुनिया की गवर्नेंस बदलेगी, जिसमें सरकार के निर्णयों पर जनमत संग्रह, फैसलों से पहले तकनीक की मदद से जनभागीदारी, स्कीमों पर निष्पक्ष रियल टाइम मूल्यांकन और सरकार को कसौटी पर कसने वाली लोकतंत्र की संस्थाओं की संवैधानिक ताकत में बढ़ोतरी के उपाय सामने आएंगे. हालांकि भारत में ऐसा होगा या नहीं होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है.

ब्राहम लिंकन ने कहा था कि चुनाव लोगों के होते हैं, यह उनका फैसला है. अगर वे आग को पीठ दिखाकर खुद को जला लेना चाहते हैं तो फिर उन्हें फफोलों पर बैठने का दर्द सहना पड़ेगा.

महामारी के बीच अगर हम भी ऐसा ही महसूस कर रहे हैं तो अपने पीड़ा को ताकत दीजिए ताकि आगे कभी हमें यह दिन देखने पड़ें.

8 comments:

  1. Sir،आजकल खर्चा पानी नही आ रहा

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  2. बेहद सटीक लेख 👍

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  3. देश का दुर्भाग्य है कि समझदारों की संख्या कम है और लोकतंत्र तो भीड़ की आवाज है हालांकि यह आवाज कम और शोर ज़्यादा है

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  4. दुर्भाग्य यह है कि भारत की एक बड़ी आबादी अभी भी यह बात नहीं समझ रही है। बहुत अच्छा लेख ।

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  5. इस बार सही आईना दिखाया है।

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