अगर मंदी खपत गिरने की वजह से है तो फिर कंपनियों को करीब 1.47 लाख करोड़ की टैक्स रियायत क्यों? इतनी ही रियायत उपभोक्ताओं को दी जाती तो ? कंपनियां तो मांग बढ़ाने के उपाय मांग रही थी सरकार ने उनके मुनाफे बढ़ाने का इंतजाम कर दिया.
अगर सरकारी बैंकों का विलय इतना ही क्रांतिकारी है तो फिर बाजार क्यों कह रहा है कि यह अगले कुछ वर्ष तक बैंकों पर बड़ा भारी पड़ेगा?
अगर इलेक्ट्रिक वाहनों की इतनी जरूरत है तो फिर नीति और रियायतों के ऐलान के बाद सरकार को क्यों लगा कि जल्दबाजी ठीक नहीं है?
यह दोनों ही सिद्धांत की कसौटी पर सौ टंच सुधार हैं जैसे कि जीएसटी या फिर रियल एस्टेट रेगुलेटर (रेरा) आदि. इनकी जरूरत से किसे इनकार होगा. लेकिन यह नामुराद अर्थव्यवस्था अजीब ही शय है. यहां सबसे ज्यादा कीमती होती है नीतियों की सामयिकता. वक्त की समझ ही नीतियों को सुधार बनाती है.
पिछले पांच-छह वर्षों में सुधारों की टाइमिंग बिगड़ गई है. दवाएं बीमार कर रही हैं और सहारे पैरों में फंसकर मुंह के बल गिराने लगे हैं.
बैंकों का महाविलय अभी क्यों प्रकट हुआ? यह फाइल तो वर्षों से सरकार की मेज पर है. बैंकों को कुछ पूंजी देकर एक चरणबद्ध विलय 2014 में ही शुरू हो सकता था. या फिर स्टेट बैंक (सहायक बैंक) और बैंक ऑफ बड़ोदा (देना बैंक) के ताजा विलय के नतीजों का इंतजार किया जाता. इस समय मंदी दूर करने के लिए सस्ते बैंक कर्ज की जरूरत है लेकिन अब बैंक कर्ज बांटने की सुध छोड़कर बहीखाते मिला रहे हैं और घाटा बढ़ने के डर से कांप रहे हैं. नुक्सान घटाने के लिए कामकाज में दोहराव खत्म होगा यानी नौकरियां जाएंगी.
बैंकों के पास डिपॉजिट पर ब्याज की दर कम करने का विकल्प नहीं है, जमा टूट रही है तो फिर वह रेपो रेट के आधार पर कर्ज कैसे देंगे? यह सुधार भी बैंकों के हलक में फंस गया.
रियल एस्टेट रेगुलेटरी बिल (रेरा) एक बड़ा सुधार था. लेकिन यह आवास निर्माण में मंदी के समय प्रकट हुआ. नतीजतन असंख्य प्रोजेक्ट बंद हो गए. डूबा कौन? ग्राहकों का पैसा और बैंकों की पूंजी. अब जो बचेंगे वे मकान महंगा बेचेंगे. रिजर्व बैंक ने यूं ही नहीं कहा कि भारत में मकानों की महंगाई सबसे बड़ी आफत है और यह बढ़ती रहेगी, क्योंकि कुछ ही बिल्डर बाजार में बचेंगे.
ऑटोमोबाइल की मंदी गलत समय पर सही सुधारों की नुमाइश है. मांग में कमी के बीच डीजल कारें बंद करने और नए प्रदूषण के नियम लागू किए गए और जब तक यह संभलता, सरकार बैटरी वाहनों की दीवानी हो गई. इन सबकी जरूरत थी लेकिन क्या सब एक साथ करना जरूरी था? नतीजे सामने हैं. कई कंपनियां बंद होने की तरफ बढ़ रही हैं.
एक और ताजा फैसला. जब शेयर बाजार, अर्थव्यवस्था की बुनियाद दरकने से परेशान था तब उस पर टैक्स लगा दिए गए. बाजार पर टैक्स पहले भी कम नहीं थे लेकिन बेहतर ग्रोथ के बीच उनसे बहुत तकलीफ नहीं हुई. सरकार जब तक गलती सुधारती तब तक विदेशी निवेशक बाजार से पैसा निकाल कर रुपए को मरियल हालत में ला चुके थे.
नोटबंदी सिद्धांतों की किताब में सुधार जरूर है लेकिन यह जरूरी नहीं था कि हर अर्थव्यवस्था इसे झेल सके. काला धन नहीं रुका. कैशलैस इकोनॉमी नहीं बनी लेकिन कारोबार तबाह हो गए.
सिंगल यूज प्लास्टिक बंद होना चाहिए लेकिन विकल्प तो सोच लिया जाता. इस मंदी में केवल प्लास्टिक ही एक सक्रिय लघु उद्योग है. यह फैसला इस कारोबार पर भारी पड़ेगा.
जन धन, बैंकरप्टसी कानून, मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया... गौर से देखें तो इन सब की टाइमिंग इन्हें धोखा दे गई है. जीएसटी तो 1991 के बाद सामयिकता की सफलता और विफलता की सबसे बड़ी नजीर है.
वैट या वैल्यू एडेड टैक्स, आज के जीएसटी का पूर्वज था. उसे जिस समय लागू किया गया (2005) तब देश की अर्थव्यवस्था बढ़त पर थी. सुधार सफल रहा. खपत बढ़ी और राज्यों के खजाने भर गए. लेकिन जीएसटी जब अवतरित हुआ तब नोटबंदी की मारी अर्थव्यवस्था बुरी तरह घिसट रही थी, जीएसटी खुद भी डूबा और कारोबारों व बजट को ले डूबा. इसलिए ही तो मंदी में टैक्स सुधार उलटे पड़ते हैं.
सुधार की सामयिकता का सबसे दिलचस्प सबक रुपए के अवमूल्यन के इतिहास में दर्ज है. आजादी के बाद रुपए का दो बार अवमूल्यन हुआ. एक 6.6.66 को जब इंदिरा गांधी ने रुपए का 57 फीसद अवमूल्यन किया. 1965 के युद्ध के बाद हुआ यह फैसला उलटा पड़ा और अर्थव्यवस्था टूट गई और असफल इंदिरा गांधी लाइसेंस परमिट राज की शरण में चली गईं. दूसरा अवमूल्यन 1991 में हुआ वह भी 72 घंटे में दो बार. उसके बाद भारतीय अर्थव्यवस्था ने मुड़कर नहीं देखा.
सुधारों की सामयिकता लोकतंत्र से आती है. पिछले कई बड़े सुधार शायद इसलिए मुसीबत बन गए क्योंकि उनसे प्रभावित होने वालों से कोई संवाद ही नहीं किया गया. यह समस्या शायद अब तक कायम है?
मंदी की हां-ना के बीच पांच पैकेज न्योछावर हो चुके हैं. कारपोरेट टैक्स कम होने से खपत बढेगी क्या? निवेश तो खपत का पीछा करता है. मांग थी तो ऊंचे टैक्स पर भी कंपनियां निवेश कर रही थीं.
दुआ कीजिये कि इन रियायतों से मांग या निवेश बढ़े. नतीजे अगली तिमाही तक सामने होंगे. क्यों कि अगर यह भी एक और बदकिस्मत असामयिक सुधार साबित हुआ तो घाटे का अंबार बजटीय संतुलन का क्रिया कर्म कर देगा.
सही लिखा है आप ने पर आप के मित्र संदीप देव कुछ और ही बात जनता के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं। आप चाहे तो उनका आज का लाइव उनके चैनल पर देख सकते हैं जोकि यूट्यूब पर है।
ReplyDeleteStrong demand of the product, Strong Consumption, Low Inflation , Purchasing capacity of the people,Strong Job market attract investment and drive the domestic consumption based economy. Purchasing capacity of people in India is very low. Most of the people have low income, Job market is very low.High inflation creates problem for Domestic consumption based economy. Demand and Supply matters most.
ReplyDeleteKindly Read my research and my discoveries
ReplyDeletehttp://www.facebook.com/economicsciencebypawanupadhyay
सुधार योग्य है केवल उनकी टायमिंग गलत ऐसा लेख मे लिखा है.... मगर ये तथाकथित सुधार आम जनता के हित में नहीं यह समझना आवश्यक हैं....
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