Monday, January 19, 2015

भूमिहीन मेक इन इंडिया

जमीन की सहज सप्लाई में वरीयता किसे मिलनी चाहिएनिरंतर रोजगार देने वाले मैन्युफैक्चरर को या फिर दिहाड़ी रोजगार देने वाले ‘‘बॉब द बिल्डर’’ को?
दि आप मामूली यूएसबी ड्राइव बनाने की फैक्ट्री लगाना चाहते हैं, जो चीन से इस कदर आयात होती हैं कि सरकार के मेक इन इंडिया का ब्योरा भी पत्रकारों को चीन में बनी पेन ड्राइव में दिया गया था, तो जमीन हासिल करने के लिए आपको कांग्रेसी राज के उसी कानून से जूझना होगा, जो वित्त मंत्री अरुण जेटली के मुताबिक इक्कीसवीं सदी की जरूरतों के माफिक नहीं है. अलबत्ता अगर आप सरकार के साथ मिलकर एक्सप्रेस-वे, इंडस्ट्रियल पार्क अथवा लग्जरी होटल-हॉस्पिटल बनाना चाहते हैं तो नए अध्यादेश के मुताबिक, आपको किसानों की सहमति या परियोजना के जीविका पर असर को आंकने की शर्तों से माफी मिल जाएगी. यह उस बहस की बानगी है जो वाइब्रेंट गुजरात और बंगाल के भव्य आयोजनों के हाशिए से उठी है और निवेश के काल्पनिक आंकड़ों में दबने को तैयार नहीं है. इसे मैन्युफैक्चरिंग बनाम इन्फ्रास्ट्रक्चर की बहस समझने की गलती मत कीजिए, क्योंकि भारत को दोनों ही चाहिए. सवाल यह है कि जमीन की सहज सप्लाई में वरीयता किसे मिलनी चाहिए, निरंतर रोजगार देने वाले मैन्युफैक्चरर को या फिर दिहाड़ी रोजगार देने वाले ‘‘बॉब द बिल्डर’’ को? मेक इन इंडिया के तहत तकनीक, इनोवेशन लाने वाली मैन्युफैक्चरिंग को या टोल रोड बनाते हुए, कॉलोनियां काट देने वाले डेवलपर को?
जमीनें जटिल संसाधन हैं. एक के लिए यह विशुद्ध जीविका है तो दूसरे के लिए परियोजना का कच्चा माल है जबकि किसी तीसरे के लिए जमीनें मुनाफे का बुनियादी फॉर्मूला बन जाती हैं. जमीन अधिग्रहण के नए कानून और उसमें ताबड़तोड़ बदलावों ने इन तीनों हितों का संतुलन बिगाड़ दिया है. पुराने कानून (1894) के तहत मनमाने अधिग्रहण होते थे जिनमें किसानों को पर्याप्त मुआवजा भी नहीं मिलता था. पिछली सरकार ने विपह्न की सहमति से नए कानून में 21वीं सदी का मुआवजा तो सुनिश्चित कर दिया लेकिन नया कानून किसानों की सियासत पर केंद्रित था इसलिए विकास के लिए जमीन की सप्लाई थम गई. बीजेपी ने अध्यादेशी बदलावों से कानून को जिस तरह उदार किया है उससे फायदे चुनिंदा निवेशकों की ओर मुखातिब हो रहे हैं, जिससे जटिलताओं की जमीन और कडिय़ल हो जाएगी. 
खेती के अलावा, जमीन के उत्पादक इस्तेमाल के दो मॉडल हैं. एक बुनियादी ढांचा परियोजनाएं है जहां जमीन ही कारोबार व मुनाफे का बुनियादी आधार है. दूसरा ग्राहक मैन्युफैक्चरिंग है जहां निवेशकों के लिए भूमि, परियोजना की लागत का हिस्सा है, क्योंकि फैक्ट्री का मुनाफा तकनीक और प्रतिस्पर्धा पर निर्भर है. सड़क, बिजली, आवास, एयरपोर्ट की बुनियादी भूमिका और जरूरत पर कोई विवाद नहीं हो सकता लेकिन स्वीकार करना होगा कि सरकारी नीतियां इन्फ्रास्ट्रक्चर ग्रंथि की शिकार भी हैं. आर्थिक विकास की अधिकांश बहसें बुनियादी ढांचे की कमी से शुरू होती हैं. रियायतों, कर्ज सुविधाओं और परियोजनाओं में सरकार की सीधी भागीदारी (पीपीपी-सरकारी गारंटी जैसा है) का दुलार भी महज एक दर्जन उद्योग या सेवाओं को मिलता है. सरकार की वरीयता बैंकों की भी वरीयता है इसलिए, इन्फ्रास्ट्रक्चर और पीपीपी परियोजनाओं में भारी कर्ज फंसा है.
संशोधित भूमि अधिग्रहण कानून से जमीन की सप्लाई में आसानी होगी लेकिन सिर्फ इन्फ्रास्ट्रक्चर उद्योगों के लिए. इन उद्योगों में चार गुना कीमत देकर खरीदी गई जमीन से भी मुनाफा कमाना संभव है क्योंकि मकान, एयरपोर्ट और एक्सप्रेस-वे इत्यादि बनाने में जमीन के कारोबारी इस्तेमाल की अनंत संभावनाएं हैं. अलबत्ता मैन्युफैक्चरिंग उद्योग के लिए सस्ती जमीन तो दूर, उन्हें वह सभी शर्तें माननी होंगी, जिनसे इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपर को मुक्ति मिल गई है. इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए सुविधाएं और रियायतें पहले से हैं, मैन्युफैक्चरिंग को लेकर उत्साह, मोदी के मेक इन इंडिया अभियान के बाद बढ़ा है. मैन्युफैक्चरिंग स्थायी और प्रशिक्षित रोजगार लाती है जबकि कंस्ट्रक्शन उद्योग दैनिक और अकुशल श्रमिक खपाता है. निवेशक यह समझ रहे थे कि सरकार स्थायी नौकरियों को लेकर गंभीर है इसलिए मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिलेगा. ध्यान रखना जरूरी है कि मैन्युफैक्चरिंग के दायरे में सैकड़ों उद्योग आते हैं जबकि जिन उद्योगों के लिए कानून उदार हुआ है, वहां मुट्ठी भर बड़ी कंपनियां ही हैं. इसलिए बदलावों का फायदा चुनिंदा उद्योगों और कंपनियों के हक में जाने के आरोप बढ़ते जाएंगे.

बीजेपी की मुश्किल यह है कि पिछले भूमि अधिग्रहण कानून में कई बदलाव सुमित्रा महाजन, वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष, के नेतृत्व वाली संसदीय समिति की सिफारिश से हुए थे. सर्वदलीय बैठकों से लेकर संसद तक बीजेपी ने बेहद सक्रियता के साथ जिस नए भूमि अधिग्रहण कानून की पैरवी की, नए संशोधन उसके विपरीत हैं. कांग्रेस सरकार ने नए कानून पर सर्वदलीय सहमति बनाई थी, बीजेपी ने तो इन संवेदनशील बदलावों से पहले सियासी तापमान परखने की जरूरत भी नहीं समझी. दरअसल, मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण कानून को तर्कसंगत बनाने का मौका चूक गई है. मैन्युफैक्चरिंग सहित अन्य उद्योगों को इसमें शामिल कर कानून को व्यावहारिक बनाया जा सकता था ताकि रोजगारपरक निवेश को प्रोत्साहन मिलता. वैसे भी इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए जमीन का  व्यापक और एकमुश्त अधिग्रहण चाहिए जिनमें समय लगता है. मैन्युफैक्चरिंग के लिए जमीन की आपूर्ति बढ़ाकर रोजगार सृजन के सहारे विरोध के मौके कम किए जा सकते थे. कांग्रेस ने नया कानून बनाते हुए और बीजेपी ने इसे बदलते हुए इस तथ्य की अनदेखी की है कि जमीन का अधिकतम उत्पादक इस्तेमाल बेहद जरूरी है. कांग्रेस का भूमि अधिग्रहण कानून, विकास की जरूरतों के माफिक नहीं था लेकिन बीजेपी के बदलावों के बाद यह न तो मेक इन इंडिया के माफिक रहा है और न किसानों के. भूमि अधिग्रहण कानून 21वीं सदी का तो है मगर न किसान इसके साथ हैं और न बहुसंख्यक उद्योग. अब आने वाले महीनों में जमीनें विकास और रोजगार नहीं, सिर्फ राजनीति की फसल पैदा करेंगी.