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Sunday, October 31, 2021

आरोग्‍य का बहीखाता

 



भारत सरकार हर साल प्रतिरक्षा पर कितना खर्च करती है जीडीपी के अनुपात में 2.1 फीसदी

और

स्वास्‍थ्य पर ? जीडीपी का केवल 1.1 फीसदी.

तुलना विचारोत्तेजक है.

अलबत्ता महामारी के बाद दुनिया के लोग एसे ही खौलते हुए हिसाब कर रहे हैं. यदि हमें कोराना महामारी के महाश्मशान याद हैं (होंगे ही) तो इतिहास की कांव-कांव छोड़कर हमें सबसे बड़ी उलझनों का मर्म समझना चाहिए.

कोविड ने कायदे से समझाया कि किसी देश की आर्थि‍क प्रगति (जीडीपी) का उस देश के लोगों की स्वास्थ्य से सीधा रिश्ता होता है. सरकारों ने हमें यह सोचने ही नहीं दिया कि लोगों की  सेहत या स्वास्‍थ्य सुविधायें विशुद्घ रुप से एक आर्थिक संसाधन हैं.



इतिहास से क्या सीखा?

पहले विश्व युद्ध, स्पेनिश फ्लू से लेकर दूसरी बड़ी लड़ाई तक दुनिया में औसत आयु करीब 42 साल थी. 20 वीं सदी में दवाओं की खोज हुई, एंटीबायोटिक्स आएपानी, आवासीय स्वच्छता और खान पान बेहतर हुए, जिससे जीवन की प्रत्याशा या औसत आयु 42 से बढ़ कर 75 वर्ष पहुंच गई.  

1900 से 2000 के बीच दुनिया की आबादी 1.6 अरब से 7.5 अरब हो गई. इसमें स्वस्थ लोगों की आबादी काफी बड़ी थी. इन्होंने श्रम बाजार का चेहरा बदल दियाउत्पादकता बढ़ी, नई मांग पैदा हुई और मानव संसाधन को नए अर्थ मिल गए. बीसवीं सदी में विकसित अर्थव्यवस्थाओं की विकास दर का एक तिहाई हिस्सा अच्छी सेहत से आया है.

अब किसी को शक नहीं है कि अच्छी स्वास्‍थ्य व्यवस्था आर्थि‍क प्रगति बढ़ाने में शि‍क्षा जि‍तना ही योगदान करती हैं. (सुचिता अरोरा 2001 कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी)

बीमारियां तरक्की और समृद्धि को खा जाती हैः मेकेंजी ने अपने एक ताजा अध्ययन में बताया कि 2017 के दौरान बीमारियों और चि‍कित्सा की कमी से करीब 1.7 करोड लोगों की असामयिक मौत हुई. इससे ग्लोबल जीडीपी को 12 खरब डॉलर का नुकसान हुआ जो विश्व के जीडीपी का 15 फीसदी है.

 सेहत की करेंसी

महामारी के बाद समृद्धि के नए पैमाने बन रहे हैं. जिस मुल्क का स्वास्थ्य ढांचा जितना चुस्त है उस पर उतने बड़े दांव लगाये जाएं. दुनिया में बुढ़ापा बढ़ रहा है यानी श्रमिकों संख्या घट रही है. एसे में मौजूदा श्रमिकों से बेहतर और दक्ष (तकनीकी) उत्पादकता की जरुरत है.

स्वास्थ्य सेवाओं को सड़क, बिजली, दूरसंचार की तर्ज पर विकसित करना होगा ताकि कार्यशील आयु बढ़ाई जा सके और 65 की आयु वाले लोग 55 साल वालों के बराबर उत्पादक हो सकें.

स्वास्थ्य में नई तकनीकें लाकर, बेहतर प्राथमि‍क उपचारसाफ पानी और समय पर इलाज देकर बडी आबादी की सेहत 40 फीसदी तक बेहतर की जा सकती है. स्वास्‍थ्य पर प्रति 100 डॉलर अतिरिक्त खर्च हों जीवन में प्रति वर्षएक स्वस्थ वर्ष बढाया जा सकता है. स्वास्थ्य सुविधायें संभाल कर, 2040 तक दुनिया के जीडीपी में 12 ट्रि‍ि‍लयन डॉलर जोडे जा सकते हैं जो ग्लोबल जीडीपी का 8 फीसदी होगा यानी कि करीब 0.4 फीसदी की सालाना बढ़ोत्तरी (मेकेंजी)

अनिवार्य है यह

भारत की नई गरीबी, बीमारी से निकल रही है. यूनिवर्सल हेल्थकेयर अब अनिवार्य है. यूरोप और अफ्रीका तक (इथि‍योपिया) मे सरकारें समग्र स्वास्थ्य सेवायें देने की तरफ बढ़ रही हैं. निजी और सरकारी सेवाओं को जोड़कर  बीमा और कैश ट्रांसफर जैसे प्रयोग किये जा रहे हैं

मार्च 2021 में संसद को बताया गया था कि स्वास्थ्य पर सरकार का प्रति व्यक्ति खर्च 1418 रुपये (अमेरिका 4 लाख और यूके  2.6 लाख रुपये) है. बकौल विश्व बैंक भारत में स्वास्थ्य पर कुल खर्च में सरकार का हिस्सा केवल 27 फीसदी है जबकि लोग अपनी जेब से करीब 72 फीसदी लागत उठाते हैं. ओईसीईडी और स्वयंसेवी संसथाओं के आकलन के अनुसार भारत में निजी यानी अपनी जेब से और सरकारी खर्च मिलाकर चि‍कित्सा इलाज पर कुल प्रति व्यक्ति खर्च जीडीपी का 3.6 फीसदी है.

सबको सरकारी खर्च पर स्वास्थ्य (यूनिवर्सल हेल्थकेयर) के लिए दवाओं का खर्च मिलाकर प्रति व्यक्ति‍ 1700-2000 रुपये खर्च करने होंगे. (शंकर पिरिंजा व अन्य 2012 ). स्वास्‍थ्य पर जीडीपी का 4 से 5 फीसदी तक खर्च करना होगा , जो 2021 में केवल 1.26 फीसदी है.

भारत के भविष्य की राह सेहत सुविधाओं की मंजिलों से ही तय होगी. मेकेंजी का हिसाब है कि भारत में स्वास्‍थ्य पर प्रति एक डॉलर के अतिरिक्त निवेश पर 4 डॉलर का आर्थि‍क रिटर्न संभव है. स्वास्थ्य सेवायें बेहतर करने से हर व्यक्ति के जीवन में हर साल औसतन करीब 24 स्वस्थ दिन बढ़ाये जा सकते हैं और 2040 तक जीडीपी में करीब 598 अरब डॉलर जोड़े जा सकते हैं जो भारत के कोविड पूर्व जीडीपी का करीब 6 फीसदी होगा.

1930 की महामंदी के बाद दुनिया के जान गई थी कि उसे अपनी समस्याओं के हल तलाशने होंगे. हमारे पास भी अब कोई विकल्प नहीं है. हमें सरकारों को अहसास कराते रहना होगा भव‍िष्‍य की समृद्ध‍ि के ल‍िए आरोग्‍य लक्ष्‍मी का आवाहन-आराधन अन‍िवार्य है, उसके चरण पड़ने से ही कल्‍याण होगा.

 

Saturday, September 14, 2019

मंदी के प्रायोजक



केंद्र और राज्य सरकारें हमें इस मंदी से निकाल सकती हैं ? जवाब इस सवाल में छिपा है कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और कई दूसरे राज्यों ने बिजली क्यों महंगी कर दी? जबकि मंदी के समय बिजली महंगी करने से न उत्‍पादन बढता है और न खपत.  
लेकिन राज्य करें क्या ? एनटीपीसी अब उन्हें उधार बिजली नहीं देगी. बकाया हुआ तो राज्यों की बैंक गारंटी भुना ली जाएगी. यहां तक कि केंद्र सरकार राज्यों को बिजली बकाये चुकाने के लिए कर्ज लेने से भी रोकने वाली है.

जॉन मेनार्ड केंज के दशकों पुराने मंतर के मुताबिक मंदी के दौरान सरकारों को घाटे की चिंता छोड़ कर खर्च बढ़ाना चाहिए. सरकार के खर्च की पूंछ पकड़ कर मांग बढ़ेगी और निजी निवेश आएगा.  लेकिन केंद्र और राज्यों के बजटों के जो ताजा आंकडे हमें मिले हैं वह बताते हैं कि इस मंदी से उबरने लंबा वक्त लग सकता है.

बीते  सप्ताह वित्त राज्‍य मंत्री अनुराग ठाकुर यह कहते सुने गए कि मांग बढ़े इसके लिए राज्यों को टैक्स कम करना चाहिए. तो क्या राज्य मंदी से लड़़ सकते हैं क्‍या प्रधानमंत्री मोदी की टीम इंडिया इस मंदी में उनकी मदद कर सकती है.

राज्य सरकारों के कुल खर्च और राजस्व में करीब 18 राज्य 91 फीसदी का हिस्सा रखते हैं. इस वित्‍तीय साल की पहली तिमाही जिसमें विकास दर ढह कर पांच  फीसदी पर  गई है उसके ढहने में सरकारी खजानों  की बदहाली की बड़ी भूमिका है.

- खर्च के आंकड़े खंगालने पर मंदी बढ़ने की वजह हाथ लगती है. इस तिमाही में राज्यों का खर्च पिछले तीन साल के औसत से भी कम बढ़ा. हर साल एक तिमाही में राज्यों का कुल व्यय करीब 15 फीसदी बढ़ रहा था. इसमें पूंजी या विकास खर्च मांग पैदा करता है लेकिन पांच फीसदी की ढलान वाली तिमाही में राज्यों का विकास खर्च 19 फीसदी कम हुआ. केवल चार फीसदी की बढ़त 2012 के बाद सबसे कमजोर है.

- केंद्र का विकास या पूंजी खर्च 2018-19 में जीडीपी के अनुपात में सात साल के न्यूनतम स्तर पर था मतलब यह  कि जब अर्थव्यवस्था को मदद चाहिए तब केंद्र और राज्यों ने हाथ सिकोड़ लिए. टैक्स तो बढ़े, पेट्रोल डीजल भी महंगा हुआ लेकिन मांग बढ़ाने वाला खर्च नहीं बढ़ा. तो फिर मंदी क्यों न आती.

- राज्यों के राजस्व में बढ़ोत्तरी की दर इस तिमाही में तेजी से गिरी. राज्यों का कुल राजस्व 2012 के बाद न्यूनतम स्तर पर हैं लेकिन नौ सालों में पहली बार किसी साल की पहली तिमाही में राज्यों का राजस्व संग्रह इस कदर गिरा है. केंद्र ने जीएसटी से नुकसान की भरपाई की गारंटी न दी होती तो मुसीबत हो जाती. 18 राज्यों में केवल झारखंड और कश्मीर का राजस्व बढ़ा है

केंद्र सरकार का राजस्व तो पहली तिमाही में केवल 4 फीसदी की दर से बढ़ा है जो 2015 से 2019 के बीच इसी दौरान 25 फीसदी की दर से बढ़ता था.

- खर्च पर कैंची के बावजूद इन राज्यों का घाटा तीन साल के सबसे ऊंचे स्तर पर है. आंकड़ो पर करीबी नजर से  पता चलता है कि 13 राज्यों के खजाने तो बेहद बुरी हालत में हैं. छत्तीसगढ़ और केरल की हालत ज्यादा ही पतली है. 18 में सात राज्य ऐसे हैं जिनके घाटे पिछले साल से ज्यादा हैं. इनमें गुजरात, आंध्र, कर्नाटक, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य हैं. इनके खर्च में कमी से मंदी और गहराई है.

केंद्र और राज्यों की हालत एक साथ देखने पर कुछ ऐसा होता दिख रहा है जो पिछले कई दशक में नहीं हुआ. साल की पहली तिमाही में केंद्र व राज्यों की कमाई एक फीसदी से भी कम रफ्तार से बढ़ी. जो पिछले तीन साल में 14 फीसदी की गति से बढ़ रही थी. इसलिए खर्च में रिकार्ड कमी हुई है.  

खजानों के आंकड़े बताते हैं कि मंदी 18 माह से है लेकिन सरकारों ने अपने कामकाज को बदल कर खर्च की दिशा ठीक नहीं की. विकास के नाम पर विकास का खर्च हुआ ही नहीं और मंदी आ धमकी. अब राजस्व में गिरावट और खर्च में कटौती का दुष्चक्र शुरु हो गया.  यही वजह है कि केंद्र सरकार को रिजर्व बैंक के रिजर्व में सेंध लगानी पड़ी. तमाम लानत मलामत के बावजूद सरकारें टैक्स कम करने या खर्च बढ़ाने की हालत में नहीं है.

तो क्या मंदी की एक बड़ी वजह सरकारी बजटों का कुप्रबंध है ! चुनावी झोंक में उड़ाया गया बजट अर्थव्यवस्था के किसी काम नहीं आया ! सरकारें पता नहीं कहां कहां खर्च करती रहीं और आय, बचत व खपत गिरती चली गई !

अब विकल्प सीमित हैं. प्रधानमंत्रीको मुख्यमंत्रियों के साथ मंदी पर साझा रणनीति बनानी चाहिए. खर्च के सही संयोजन के साथ प्रत्येक राज्य में कम से कम दो बड़ी परियोजनाओं पर काम शुरु कर के मांग का पहिया घुमाया जा सकता है 

लेकिन क्या सरकारें अपनी गलतियों से कभी सबक लेंगी ! या सारे सबक सिर्फ आम लोगों की किस्मत में लिखे गए हैं  !



Sunday, November 4, 2018

कायम रहे बीमारी !



कागज देखना कुछ नहींटेलीफोन आयालोन दे दो. लोन चुकाने का समय आया तो नया लोन दे दो. जो गया सो गयाजमा करने के लिए नया लोन दे दो. यही कुचक्र चलता गया और भारत के बैंक एनपीए के जंजाल में फंस गए!

यह थे प्रधानमंत्रीदो माह पहले लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान! वे बता रहे थे कि यूपीए के दौर में किस तरह बैंकों को लूटा गया था. नेतासरकारबिचैलिए मिलकर बकाया कर्ज की देनदारी टाल (रिस्ट्रक्चर कर) देते थे. सरकार बदली तो यह लूट खुली. सक्चती की जा रही है. अब किसी को माफ नहीं किया जाएगा.

साठ दिन भी नहीं बीते कि अब सरकार रिजर्व बैंक पर ही आंखें तरेर रही है कि बकाया कर्ज को लेकर बैंकों पर कुछ ज्यादा ही सख्ती हो गई. कर्ज की किल्लत हो रही है. कर्जदारों को रियायत मिलनी चाहिए. बिजली कंपनियों के बकाया कर्ज की वसूली टाली जानी चाहिए.

इस दिल बदल का सबब क्या है?

चुनाव की धमक के साथ पारदर्शिता के संकल्पों की शवयात्रा प्रारंभ हो गई है.

छह माह पहले बैंकों के स्वच्छता अभियान की कसम खा रही सरकार ने जमा बकाया कर्ज के कीचड़ को ढकने के लिए रिजर्व बैंक की स्वायत्तता पर पंजे गड़ा दिए हैं. बैंकिंग सुधारों के सारे दावे और वादे सिर के बल खड़े होकर नृत्य कर रहे हैं.

2015 में इस सरकार के वही मंत्रीजो आज नियामकों को संविधान पढ़ा रहे हैंकह रहे थे कि अगर मोदी सरकार न आई होती तो देश को पता ही नहीं चलता कि किस तरह कर्ज पर कर्ज दिए गए. सरकार को फख्र था कि उसने रिजर्व बैंक को एनपीए (बकाया कर्ज) पहचानने का फॉर्मूला बदलने को कहा ताकि सच सामने आ सके.

रिजर्व बैंक ने फॉर्मूला बदलकर बकाया कर्ज से जूझते बैंकों को एक नई व्यवस्था के तहत रखा जिसे प्रॉम्प्ट करेक्टिव ऐक्शन (पीसीए) कहते हैं. इसके तहत रखे गए 11 सरकारी बैकों को ब्रांच नेटवर्क बढ़ानेकर्ज वितरण सीमित करनेलाभांश बांटने पर रोक लगाई गई. उन्हें अपने मुनाफों का बड़ा हिस्सा बकाया कर्ज के बदले पूंजी बनाने में लगाना पड़ रहा है. उनका मुनाफा गिर रहा है. रिजर्व बैंक ने बैंकों से कहा है कि अपने मालिक या सरकार से पूंजी लेकर आएं नहीं तो उनके डूबने का खतरा है.

अचरज देखिए कि पीसीए पिछले एक साल से अमल में है. अभी कल तक सरकार इस सख्ती पर फूल कर गुब्बारा हो रही थी. उसे लगता था कि बैंकों को बचाने के लिए यह जरूरी है. जून मेंइसी पीसीए के तहत सरकारी बैंकों ने अपनी पुनरोद्धार योजना सरकार को सौंपी थी लेकिन अब सरकार के अधिकारी यह कहते सुने जा रहे हैं कि रिजर्व बैंक ने पीसीए बनाने में वित्त मंत्रालय से राय नहीं ली.

यही सरकार है जो संसद में मेज ठोक कर कह रही थी कि बैंकों के कर्जदारों को बचाने की यूपीए की नीति अब खत्म हो चुकी है. लेकिन अब उसे लगता है कि निजी बिजली कंपनियों को इससे बाहर रखा जाए. बैंक उन्हें बकाया कर्ज में रियायत दें.

दरअसलचुनावी झोंक में ईमानदारी के हलफनामों और सुधारों के कौल की चिंदिया उड़ रही हैं. बकाया कर्ज को लेकर रिजर्व बैंक की सख्ती अचानक सरकार को इसलिए खलने लगी है क्योंकि उसे अब बैंकों से सस्ते कर्ज बंटवाने यानी लोकलुभावन इस्तेमाल की जरूरत है. सरकार तो यह भी चाहती है कि रिजर्व बैंक को मुश्किल में फंसी गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को भी पूंजी देनी चाहिए. लेकिन कोई भी नियामक कैसे सहमत होगा कि सुधारों की इबारत चुनाव देखकर बदल दी जानी चाहिए. अगर चुनाव है तो बैंकों को बकाया कर्ज के भंवर से निकालने के लिए सख्ती क्यों रुकनी चाहिएएनपीए के नियम सबके लिए एक जैसे होने चाहिए! कारोबारी गलतियों के लिए जमाकर्ताओं के पैसे से खैरात बांटना कैसे नैतिक है! 

दरअसलभारत में सिर्फ एक जमात ऐसी है जो सब कुछ केवल चुनाव को देखकर करती है. और शायद कोई काम या कारोबार सिर्फ पांच साल की एक्सपायरी डेट के साथ शुरू नहीं होता. राजनैतिक दल अपने चुनावी वादों से चाहे जो कॉमेडी कराएंलेकिन जब वे नीतियों को सिर के बल खड़ा करने लगते हैं तो स्वतंत्र नियामकों का यह दायित्व है कि वे सरकार को आईना दिखाएं. रिजर्व बैंक को धमका रही सरकार क्या समझ पा रही है कि लोकतंत्र में चुने प्रतिनिधि इसलिए सर्वोच्च हैं क्योंकि वे संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता की हिफाजत करने के लिए भेजे जाते हैंउन्हें डराने के लिए नहीं.

Wednesday, September 2, 2015

जीएसटी है, कोई जादू नहीं


जीएसटी में जितनी उम्मीदें पैवस्त हैंजटिलताओं व किंतु-परंतुओं का हिस्सा उनसे ज्यादा बड़ा हैउम्‍मीदों को तर्कसंगत रखने के लिए जिन्‍हें समझना जरुरी है।
ह शायद हमारी चमत्कारप्रियता का नतीजा ही है कि हम वैसे ही सोचने लगते हैं, जैसा कि सियासत या सरकारें हमसे चाहती  हैं. जैसे, जादू-टोने के कद्रदान हम हिंदुस्तानी यह समझ रहे थे कि कांग्रेस तरक्की का कोई स्विच चुरा ले गई है नई सरकार आते ही उसे फिट कर देगी और सब कुछ चमक उठेगा. ठीक उसी तरह हमें समझाया गया कि गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) लागू होते ही विकास दर छलांगे लगाने लगेगी. यह बात अलग है कि बीजेपी को भी जीएसटी में कमजोर ग्रोथ का शर्तिया इलाज, गद्दीनशीन होने के बाद ही नजर आया. इससे पहले तक जीएसटी महज एक टैक्स सुधार था, जिसमें जल्दबाजी को लेकर बीजेपी को गहरी आपत्ति थी. फिर भी सियासत को माफ किया जा सकता है. ज्यादा बड़ा अचरज यह है कि निवेशकों से विशेषज्ञ तक, सब जीएसटी की बारात में शामिल हो गए. शुक्र है कि सरकार, जब जीएसटी के बुनियादी विधेयक को पारित कराने के लिए संसद के विशेष सत्र की तैयारी कर रही है, तब इस टैक्स सुधार को लेकर तर्कहीन उत्साह की गर्द बैठने लगी है और इसे वास्तविकता की रोशनी में देखने की कोशिश शुरू हो गई है.
जीएसटी के मामले में विपक्ष और पक्ष, दोनों ही खेमों को धन्य कर चुकी बीजेपी को सरकार में आने के बाद उम्मीदों को तर्क का आधार देना चाहिए था. जीएसटी में जितनी उम्मीदें पैवस्त हैं, जटिलताओं व किंतु-परंतुओं का हिस्सा उनसे ज्यादा बड़ा है, जिन्हें न केवल जागरूक बहस के लिए समझना जरूरी है बल्कि इसलिए भी जानना चाहिए ताकि जीएसटी की राह में आने वाले झटकों और यू टर्न के लिए पहले से तैयार रहा जा सके. जैसे कि इस प्रचार को कुछ ठहर कर निगलने की जरूरत है कि जीएसटी लागू होते ही देश की विकास दर एक से दो फीसदी बढ़ जाएगी. आइएमएफ की सूचनाओं के आधार पर एम्बिट कैपिटल का एक ताजा अध्ययन साबित करता है कि इनडायरेक्ट टैक्स सुधार और आर्थिक ग्रोथ का कोई सीधा रिश्ता नहीं है.
1986 से लेकर 2000 के बीच दुनिया के चार अलग-अलग देशों में जीएसटी लागू हुआ था. न्यूजीलैंड ने 1986 में जीएसटी अपनाया और 1989 में इसकी दर बढ़ाई. ऑस्ट्रेलिया में 2000 में जीएसटी आया जबकि कनाडा में 1991 में. कनाडा ने 2006 और 2008 में इसकी दरें बदलीं. थाईलैंड में 1991 में एकमुश्त जीएसटी लागू हुआ. इन चारों देशों में केवल न्यूजीलैंड ऐसा था जहां जीएसटी के बाद ग्रोथ तेज हुई. शेष तीन देशों में ग्रोथ में गिरावट रही. विशेषज्ञ मानते हैं कि न्यूजीलैंड में ग्रोथ की कई और दूसरी वजहें भी थीं.
तो फिर जीएसटी लागू होने के बाद भारत में विकास दर दो फीसदी बढ़ जाने का आकलन आखिर आया कहां से? दरअसल, एनसीएईआर ने 2009 में एक रिपोर्ट दी थी जिसके मुताबिक, यदि भारत में आदर्श और आधुनिक जीएसटी लागू होता है तो ग्रोथ की उम्मीद लगाई जानी चाहिए. लेकिन अब जो जीएसटी आने वाला है, उसमें पांच स्तरीय टैक्स होंगे. सीजीएसटी के तहत केंद्र के टैक्स (एक्साइज, सर्विस), एसजीएसटी के तहत राज्यों के टैक्स—अंतरराज्यीय बिक्री पर आइजीएसटी (सेंट्रल सेल्स टैक्स की जगह), अंतरराज्यीय आपूर्ति पर एक फीसदी अतिरिक्त टैक्स और पेट्रोल डीजल, एविएशन फ्यूल पर टैक्स अलग से होंगे. इस पांच मंजिला जीएसटी के बाद ग्रोथ का तर्क अपने अपने आप दुबक जाता है.
जीएसटी दोहरा-तिहरा टैक्स खत्म करता है इसलिए महंगाई में कमी का इसका रिश्ता जरूर स्थापित होता है. ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, थाईलैंड और न्यूजीलैंड में जीएसटी के बाद महंगाई घटी. लेकिन भारत में जीएसटी को लेकर सबसे बड़ा असमंजस इसी पहलू पर है. जिन देशों ने हाल में इसे लागू किया है, वहां जीएसटी दर पांच (जापान) से लेकर 19.5 फीसदी (यूरोपीय यूनियन) तक है. जीएसटी में एक रेवेन्यू न्यूट्रल रेट होता है यानी कि जिस दर पर सरकार को राजस्व का नुक्सान नहीं होगा. मौजूदा आकलनों में भारत के लिए यह दर 18 फीसद आंकी गई है इससे राजस्व तो नहीं बढ़ेगा लेकिन सरकारों को नुक्सान भी नहीं होगा.
भारत में इनडायरेक्ट टैक्स की औसत दर इस समय 24 फीसदी है इसलिए जीएसटी दर इससे ऊपर ही होने की संभावना है, क्योंकि सरकारों को बढ़ते खर्च को संभालने के वास्ते राजस्व में बढ़ोतरी चाहिए. एम्बिट का अध्ययन बताता है कि 25 फीसदी का जीएसटी रेट होने पर सरकारों का टैक्स जीडीपी अनुपात एक से दो फीसदी बढ़ेगा. उनको ज्यादा राजस्व मिलेगा, जिसे वे विकास में खर्च कर सकती हैं. लेकिन 25 फीसदी की जीएसटी दर महंगाई को भड़का देगी, जिससे मांग कम हो सकती है.
जीएसटी को लेकर केवल क्रियान्वयन की उलझन ही नहीं है बल्कि व्यावहारिक पेचीदगियां हैं, जिन्हें पारदर्शिता के साथ बताया जाना चाहिए. मसलन, अगर जीएसटी दर 18 फीसदी तय होती है तो शायद कारें, उपभोक्ता सामान, भवन निर्माण सामग्री सस्ती होगी लेकिन अगर दर 25 फीसदी तक रही तो कीमतें ऊंची ही रहेंगी. भारत में टेलीफोन, शिक्षा, होटल आदि दर्जनों सेवाओं की लागत आम लोगों के खर्च का बड़ा हिस्सा है. सेवाओं को लेकर जीएसटी में हर तरह से चोट लगनी है. सर्विस टैक्स की दर 14 फीसद है, जिसे बढ़ाकर 18 फीसद (आरएनआर) तो किया ही जाना है. यानी सेवाएं महंगी होंगी और अगर जीएसटी दर 25 या उससे ऊपर हुई तो सेवाओं पर टैक्स लगभग दोगुना हो जाएगा.

आर्थिक सुधारों को लेकर उम्मीदें जायज हैं लेकिन हवाई किले औंधे मुंह ला पटकते हैं. प्रत्येक आर्थिक सुधार फायदे और चुभन साथ लेकर आता है. सुधारों की स्लेट पर पहले हस्ताक्षर को बेताब सरकार का एक संवेदनशील, बहुआयामी और पेचीदा सुधार को जादुई बनाकर पेश करना स्वीकार हो सकता है, लेकिन यह समझना मुश्किल है कि जीएसटी पर कोई चर्चा राजनैतिक दायरे से निकलकर उत्पादक, व्यापारी और उपभोक्ता तक क्यों नहीं पहुंचाई गई, जिन्हें इसे लगाना, वसूलना और चुकाना है. जीएसटी को लेकर दीवानगी का आलम तैयार करने की बजाए इस पर ठोस चर्चा जरूरी है, क्योंकि इस टैक्स सुधार में फूल और कांटों का औसत रह-रहकर बदलने वाला है.

Tuesday, June 23, 2015

फिसलन की शुरुआत

मोदीसत्ता में आते हुए इस सच से वाकिफ थे कि हितों के टकरावकॉर्पोरेट और नेता गठजोड़क्रोनी कैपटिलिज्मग्रैंड करप्शनतरह-तरह की तरफदारियां और भ्रष्टाचार के तमाम तरीके पूरे तंत्र में गहराई से भिदे हैं. उनसे इसी की साफ-सफाई की अपेक्षा थी.
बात इसी अप्रैल की है. वित्त मंत्री अरुण जेटली सीबीआइ दिवस पर कह रहे थे कि देश की शीर्षस्थ जांच एजेंसी को फैसलों में गलती (ऑनेस्ट एरर) और भ्रष्टाचार में फर्क समझना होगा. इसके लिए सरकार भ्रष्टाचार निरोधक कानून को भी बदलेगी. वित्त मंत्री की बात अफसरों के कानों में शहद घोल रही थी क्योंकि भ्रष्टाचार की दुनिया तोवैसे भी बचने के विभिन्न रास्तों से भरी पड़ी है. इस बीच अगर सरकार का सबसे ताकतवर मंत्री ईमानदार गलती और भ्रष्टाचार के बीच फर्क करने की सलाह दे रहा है तो यह मुंहमांगी मुराद जैसा था. अलबत्ता यह अंदाजा किसी को नहीं था कि इस तर्क का सबसे पहला इस्तेमाल सरकार को अपनी वरिष्ठतम मंत्री सुषमा स्वराज के बचाव में करना पड़ेगासरकार में आते ही जिनकी कथित मानवीयता कानून की नजर में बड़े गुनाहगार के काम आई है. आइपीएल के पूर्व प्रमुख ललित मोदी के खिलाफ फरारी के नोटिस की पुष्टि करने के बादसुषमा के बचाव में वित्त मंत्री अरुण जेटली के पास साफ नीयत की दुहाई के अलावा और कुछ नहीं था. ऐसा लग रहा था कि मानो जेटलीसुषमा-ललित मोदी प्रकरण को ऑनेस्ट एरर कहना चाहते थे.  
इसी जगह हमने जून की शुरुआत में (http://goo.gl/cVAy8P) लिखा था कि मोदी सरकार ने पिछले एक साल में ऐसा कुछ भी नहीं किया है जिससे पारदर्शिता बढ़ना तो दूर, बने रहने का भी भरोसा जगता हो. इसलिए भ्रष्टाचार को लेकर मोदी सरकार की साख खतरे में है. अब जब कि सुषमा-ललित मोदी-वसुंधरा प्रकरण में सरकार बुरी तरह लिथड़ चुकी है तो यह समझना जरूरी है कि पारदर्शिता का परचम लहराने वाली एनडीए सरकार के लिए पहले ही साल में यह नौबत क्यों आ गई, यूपीए जिससे अपनी दूसरी पारी के अंत में दो चार हुई थी.
सवाल बेशक पूछा जाना चाहिए कि प्रवर्तन निदेशालय ने ललित मोदी को वह नोटिस पिछले एक साल में क्यों नहीं भेजे जो यह प्रकरण खुलने के बाद दागे गए हैं? मोदी सरकार ने पिछले एक साल में यूपीए के घोटालों की जांच को कोई गति नहीं दी. एयरसेल मैक्सिस, नेशनल हेराल्ड, सीडब्ल्यूजी, आदर्श, वाड्रा, महाराष्ट्र सिंचाई जैसे बड़े घोटालों में जांच जहां की तहां ठप पड़ी है. इनमें आइपीएल भी शामिल है, जिसकी जांच अगर गंभीरता से होती तो ललित मोदी वर्ल्ड टूर पर न होते. सरकार के देखते देखते व्यापम घोटाले के प्रमुख सूत्र मौत का शिकार होते चले गए. राष्ट्रमंडल घोटाले में जमानत पर रिहा सुरेश कलमाडी व उनके सहायक ललित भनोत एशियन एथलेटिक्स एसोसिएशन के पदाधिकारी बन गए और बीजेपी बेदाग सरकार का पोस्टर बांटती रही. नतीजा यह हुआ है कि राज्यों में भी भ्रष्टाचार के बड़े मामलों की जांच धीमी पड़ गई है. घोटालों की जांच से बचना सदाशयता नहीं है बल्कि यह साहस व संकल्प की कमी है जिसने पारदर्शिता को लेकर मोदी सरकार की बोहनी खराब कर दी है.
ईमानदार गलती व भ्रष्टाचार के बीच अंतर बताने के लिए भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा 13 को बदलने की कोशिशों पर सवाल इसलिए नहीं उठे थे क्योंकि फैसलों की रक्रतार बढ़ाने और अधिकारियों को दबाव से मुक्त करने पर विरोध था बल्कि अपेक्षा यह थी कि सरकार ऐसा करने से पहले लोकपाल गठित करेगी और सतर्कता ढांचे को मजबूत करेगी ताकि पारदर्शिता को लेकर भरोसा बन सके. सरकार ने नियामकों और निगहबानों को ताकत देना तो दूर पारदर्शिता की उपलब्ध खिड़कियों पर भी पर्दे टांग दिए. सूचना के अधिकार पर पहरे बढ़ा दिए गए. सरकार के फैसलों पर पूछताछ वर्जित हो गई और स्वयंसेवी संस्थाओं के हर कदम की निगहबानी होने लगी. पारदर्शिता के मौजूदा तंत्र पर रोक और नए ढांचे की अनुपस्थिति से कामकाज की गति तो तेज नहीं हुई अलबत्ता सरकार के इरादे जरूर गंभीर सवालों में घिर गए. 
सवाल तो बनता ही है कि क्रिकेट में 2008 से लेकर आज तक दर्जनों घोटाले हुए हैं और बीजेपी हर घोटाले के विरोध में आगे रही है तो सत्ता में आने के बाद क्रिकेट को साफ करने के कदम क्यों नहीं उठाए गए जबकि विपक्ष में रहते हुए यह पार्टी इसके लिए कानून की मांग कर रही थी. साफ-सुथरी सरकार का यह चेहरा समझ से परे था जिसमें बीजेपी के एक सांसद और प्रमुख बीड़ी निर्माता संसदीय समिति के सदस्य के तौर पर अपने ही उद्योग के लिए नियम बना रहे थे. इस संसदीय समिति लामबंदी के बाद सरकार ने खतरे की चेतावनी को प्रभावी बनाने का फैसला अंततः ठंडे बस्ते में डाल दिया. जनसेवाओं को पारदर्शी बनाने, छोटे और बड़े भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक संस्थागत ढांचा बनाने और नियामक संस्थाओं की मजबूती पर ध्यान न देने से पारदर्शिता को लेकर सरकार में यथास्थितिवाद पैठ गया है. इसकी वजह से पहले ही साल में एक बड़ी गफलत सामने आ गई है.
ललित मोदी-वसुंधरा-सुषमा प्रकरण भारत में उच्च पदों पर हितों के टकराव और फायदों के लेन-देन का बेहद ठोस उदाहरण है. राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा के बेटे की कंपनी में ललित मोदी का निवेश और सुषमा स्वराज परिवार से मोदी के प्रोफेशनल व निजी रिश्ते प्रामाणिक हैं. वित्तीय धांधली के आरोपी ललित मोदी को इन रिश्तों के बदले मिले फायदे भी दस्तावेजी हैं. बीजेपी इन मामलों पर बचाव के लिए कांग्रेस के धतकरमों को ढाल बना सकती है लेकिन बात भ्रष्टाचार में प्रतिस्पर्धा की नहीं है बल्कि पिछली सरकार से प्रामाणिक रूप से अलग होने की है.
अपनी ताजा यात्रा के दौरान नरेंद्र मोदी को चीन के स्वच्छता मिशन के बारे में जरूर पता चला होगा, जहां राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपनी ही पार्टी के 1.82 लाख पदाधिकारियों पर भ्रष्टाचार को लेकर कार्रवाई कर चुके हैं. भ्रष्टाचार पर मोदी सरकार से भी ऐसे ही साहस की अपेक्षा थी क्योंकि मोदी, सत्ता में आते हुए इस सच से वाकिफ थे कि हितों के टकराव, कॉर्पोरेट और नेता गठजोड़, क्रोनी कैपटिलिज्म, ग्रैंड करप्शन, तरह-तरह की तरफदारियां और भ्रष्टाचार के तमाम तरीके पूरे तंत्र में गहराई से भिदे हैं. उनसे इसी की साफ-सफाई की अपेक्षा थी. मोदी को समझना होगा कि उच्च पदों पर पारदर्शिता तय करना उनको मिले जनादेश का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है और इस मामले में उनकी सरकार की फिसलन शुरू हो चुकी है.