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Wednesday, July 27, 2022

आह रुपया वाह रुपया

 

 रुपये की गिरावट को लेकर तैर रहे मीम्‍स और चुटकुलों पर जमकर ठहाके लगाइये.  आपका हक बनता है यह.. क्‍यों कि रुपये की  कीमत पर भारतीय राजनीति की प्रतिक्रियायें दरअसल   च‍िरंतन लॉफ्टर चैलेंज है. इस तरफ वालों के लिए रुपये की कमजोरी ही उसकी ताकत है और उस तरफ वालों के लिए कमजोर रुपया देश की साख का कचरा हो जाना है. कांग्रेस और भाजपा को अलग अलग भूमिकाओं को यह प्रहसन रचाते हुए बार बार देखा गया है  

अलबत्‍ता इस बार  मामला जरा ज्‍यादा ही  टेढ़ा हो गया है. डॉलर अब 80 रुपये के करीब है. इतना कभी नहीं टूटा. यानी एक बैरल तेल (115-120 डॉलर ) करीब 10000 रुपये का. या कि एक टन आयात‍ित कोयला करीब 30000 रुपये का. 

रुपये की ढलान पर खीझने और खीसें न‍िपोरने वाले दोनों को इस सवाल का जवाब चाहिए कि आख‍िर रुपया कितना और गिर सकता है? शायद वह यह भी जानना चाहेंगे कि क्‍या सरकार और रिजर्व बैंक रुपये की गिरावट रोक सकते हैं?

 

रुपया मजबूत या कमजोर 

रिजर्व बैंक के पैमानों पर रुपया अभी भी महंगा है यानी ओवरवैल्‍यूड है !!

स्‍टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक का रुपी रियल इफेक्‍ट‍िव रेट इंडेक्‍स यानी रीर जून के दूसरे सप्‍ताह में 123.4 पर था एक साल पहले यह  117 अंक पर था. इस इंडेक्‍स की बढ़त बताती है कि हमें कमजोर दिख रहा रुपया दरअसल प्रतिस्‍पर्धी मुद्राओं के मुकाबले मजबूत है.. 

रिजर्व बैंक अमेरिकी डॉलर सहित 40 मुद्राओं की एक पूरी टोकरी के आधार पर  रुपये की विन‍िमय दर तय करता है. यह मुद्रायें भारत के व्‍यापार भागीदारों की हैं. यही है रीर, जो बताता है कि न‍िर्यात बाजार में भारत की मुद्रा कितनी प्रतिस्‍पर्धात्‍मक है रीर  से  पहले नीर भी है. यानी नॉमिनल इफक्‍ट‍िव एक्‍सचेंज रेट.  जो दुतरफा कारोबार में रुपये की प्रतिस्‍पर्धी ताकत का पैमाना  है. अलग अलग मुद्राओं के नीर का औसत रीर है.

रीर सूचकांक पर रुपया डॉलर के मुकाबले तो टूटा है लेक‍िन इस टोकरी की 39 मुद्रायें भारत की तुलना में कहीं ज्‍यादा कमजोर हुई हैं. खासतौर पर यूरो बुरी तरह घायल है.  इसलिए रीर पर रुपया मजबूत है.

आप रुपये की कमजोरी को रोते रहिये, सरकार और रिजर्व बैंक के रीर पर रुपया ताकत से फूल रहा है.

रिजर्व बैंक को एक और राहत है क‍ि 2008 के वित्‍तीय संकट और 2013 में अमेरिकी ब्‍याज दरें बढ़ने के दौर में लगातार गिरावट के दौर में रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 20 फीसदी तक टूटा था. अभी दिसंबर से जून तक यह ग‍िरावट छह फीसदी से कम है.  हालांकि 2008 से 2022 के बीच भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले 48 से 80 के करीब आ गया है.  

रीर और नीर जैसे पैमाने  निर्यात के पक्ष में हैं. लेक‍िन जैसे ही हम निर्यात वाला चश्‍मा उतार देते हैं रुपये की गिरावट खौफ से भर देती है. क्‍यों कि कमजोर रुपया आयात की लागत बढ़ाकर हमें दोहरी महंगाई में भून रहा है. भारत की थोक महंगाई में 60 फीसदी हिस्‍सा इंपोर्टेड इन्‍फलेशन का है. सनद रहे कि  2022 के वित्‍त वर्ष 192 अरब डॉलर रिकार्ड व्‍यापार घाटा (आयात और न‍िर्यात का अंतर) दर्ज किया.

रिजर्व बैंक की दुविधा

अगर रिजर्व बैंक बाजार में डॉलर छोडता रहे तो रुपये की गिरावट रुक जाएगी लेक‍िन वक्‍त रिजर्व बैंक के माफ‍िक नहीं है. वह तीन वजहों से कीमती विदेशी मुद्रा का हवन नहीं करना चाहता.

एक -   2018 तक भारतीय बाजारों से औसत एक अरब डॉलर हर माह बाहर जाते थे निकल रहे थे लेक‍िन इस जनवरी के बाद यह निकासी पांच अरब डॉलर मास‍िक हो गई है.  विदेशी निवेशकों को भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में फिलहाल उम्‍मीद नहीं दिख रही है. बाजार में डॉलर झोंककर भी यह उड़ान नहीं रोकी जा सकती.

दो -  डॉलर इंडेक्‍स अपनी ताकत के शि‍खर पर है. अमेरिका में ब्‍याज दरों जि‍तनी बढ़ेंगी,  डॉलर मजबूत हो जाएगा और रुपये की कमजोरी बढ़ती रहेगी.

तीन -  महंगाई पूरी दुनिया में है. भारतीय आयात में 60 फीसदी हिस्‍सा खाड़ी देशों, चीन, आस‍ियान, यूरोपीय समुदाय और अमेरिका से आने वाले सामानों व सेवाओं का है. जहां  2021 में निर्यात महंगाई 10 से  33 फीसदी तक बढ़ी है. महंगाई का आयात रोकना मुश्‍क‍िल है. आयात‍ित सामान महंगा होने से  सरकार को ज्‍यादा इंपोर्ट ड्यूटी मिलती है तो इसलिए यहां भी कुछ खास नहीं हो सकता.

 

कहां तक गिरेगा रुपया ?

 

रिजर्व बैंक की कोशि‍श  रुपये को नहीं विदेशी मुद्रा भंडार को बचाने की है. पिछली गिरावटों की तुलना में डॉलर के मुकाबले रुपया  उस कदर नहीं टूटा है जितनी कि कमी विदेशी मुद्रा में भंडार दिख रही है. मई से फरवरी 2008-09 के बीच रुपये की निरंतर गिरावट के दौरान विदेशी मुद्रा भंडार करीब 65 अरब डॉलर की कमी आई थी उसके बाद सबसे बड़ी गिरावट बीते नौ माह में यानी 21 अक्‍टूबर से 22 जून के बीच आई जिसमें जिसमें करीब 51 अरब डॉलर विदेशी मुद्रा भंडार से न‍िकल गए हैं

विदेशी मुद्रा भंडार अभी जीडीपी का करीब 20 फीसदी है. अगर यह गिरकर 15 फीसदी यानी 450 अरब डॉलर तक चला गया तो बड़ी घबराहट फैलेगी.

 

विदेशी मुद्रा भंडार इस समय 593 अरब डॉलर है. रिजर्व बैंक का इंटरनेशनल इन्‍वेस्‍टमेंट पोजीशन (आईआईपी) इस भंडार की ताकत का  हिसाब बताता है.  दिसंबर 2021 के  आईआईपी आंकड़ों के अनुसार   छोटी अवध‍ि के कर्ज और शेयर बाजार में पोर्टफोलियो निवेश की देनदारी निकालने के बाद भंडार में करीब 200 अरब डॉलर बचते हैं जो  60-63 अरब डॉलर (जून 2022) के मासिक इंपोर्ट बिल के हिसाब से केवल तीन चार माह के लिए पर्याप्‍त है. यही वजह है कि रिजर्व बैंक ने डॉलर की आवक बढ़ाने के लिए अन‍िवासी भारतीयों ,कंपन‍ियों और  विदेशी निवेशकों  के लिए रियायतों का नया पैकेज जारी किया है.

सरकार और रिजर्व बैंक को 80 के पार रुपये पर भी कोई दिक्‍कत नहीं है. बस एक मुश्‍त तेज गिरावट रोकी जाएगी. रुपया रोज गिरने के नए रिकार्ड बनायेगा. आप  बस  किस्‍म किस्‍म की आयात‍ित महंगाई झेलने के लिए अपनी पीठ मजबूत रख‍िये.

Sunday, June 19, 2022

हम थे जिनके सहारे



 

राज्‍यों के अगले चुनाव दिल्‍ली के लिए अगला रोमांच हैं. लेक‍िन मुंबई गहरी मुश्‍क‍िल में है या यानी  कैच 22 में . मुंबई से मतलब है शेयर बाजार, सेबी, रिजर्व बैंक कंपनियों के न‍िवेश की दुनिया. जो दिल्‍ली जैसा कुछ नहीं देख पा रही है.

युद्धों की चर्चा ज़बानों की नोक पर है तो सनद रहे कैच 22 यानी गहरे अंतरविरोध का परिचय देने वाला मुहावरा दरअसल जंग की कथा से न‍िकला था. अमेरिकी उपन्‍यासकार जोसेफ हेलर ने दूसरे विश्‍व युद्ध की पृष्‍ठभूमि में जंग और नौकरशाही पर 1961 में कैच 22 नाम एक व्‍यंग्‍यात्‍मक उपन्‍यास लिखा था

यह कहानी योसेर‍ियन नाम एक लड़ाकू पायलट की थी जो जंग में तैनाती से बचने के लिए खुद को पागल घोष‍ित कर देता है. डॉक्‍टर उसकी जांच करते हैं और रिपोर्ट देते हैं कि युद्ध नहीं करना चाहता तो वह पागल है ही नहीं क्‍यों कि युद्ध के लिए पागलपन पहली शर्त है. यानी कि योसेर‍ियन को अगर खुद को पागल साबित करना है तो उसे जहाज से बम बरसाने थेलेकिन अगर यही करना है तो खुद को    पागल कहलाने से क्‍या फायदा ?

 

क्‍या है कैच 22 मुंबई का

मुंबई यानी व‍ित्‍तीय बाजारों और नियामकों का कैच 22 क्‍या है ?

भारत की ताजा मुसीबतों की जड़ शेयर बाजार है

जिनकी उम्‍मीदें थीं कि कोविड तो गया. अब भारत  तूफान से बाहर निकल आया है उन्‍हें अब यह बाजार एक एसे दुष्‍चक्र का प्रस्‍थान बिंदु लग रहा है  जहां कृपा अटक गई है

आप कहेंगे कुछ ज्‍यादा नहीं हो गया यह आकलन. इतनी विराट  अर्थव्‍यवस्‍था और छोटा सा शेयर बाजार ? भारत के लोगों की कुल बचतों में शेयरों का हिस्‍सा तो केवल 4.8 फीसदी है, एसा जेफ्रीज की एक ताजा रिपोर्ट ने कहा है

यही तो है वह रोमांचक बटरफ्लाई इफेक्‍ट यानी केऑस थ्‍योरी जिसमें एक छोटी सी घटना या बदलाव बड़े तूफान उठा देती है.  एक दूसरे में गहराई से गुंथी बुनी वित्‍तीय दुनिया इस इफेक्‍ट का शानदार नमूना है. शेयर बाजार के छोटे से आकार पर गफलत में रहना ठीक नहीं है बात तित‍िलयों की है तो यहां से कुछ ति‍त‍िलयां पतंगों की उड़ान ने कुछ एसा तूफान उठा दिया है कि दूर जालंधर में मोबाइल रिपेयर वाले परमजीत पुर्जे महंगे होने के कारण दुकान बंद करनी पड़ रही है  

आपका आश्‍चर्य बनता हैं सांसत में तो वित्‍त मंत्री निर्मला सीतारमन भी रहीं हैं, आरबीआई गवर्नर तो बेबाक चौंक रहे हैं

बटरफ्लाई इफेक्‍ट

बटरफ्लाई एफेक्‍ट को समझने के लिए इसकी सूक्ष्‍म शुरुआत को नहीं बल्‍क‍ि बल्‍क‍ि महासागरीय आकार के प्रभाव को देखना चाहिए. जड़ शेयर बाजार में तेज गिरावट, मंदी वाले बाजार की आहट और विदेशी निवेशकों के प्रवास से है लेक‍िन हम रुख करते है भारत की सबसे खतरनाक दरार की ओर. वह है डॉलर के मुकाबले कमजोर होता रुपया जो 78 के करीब है, 80 की मंज‍िल दूर नहीं है. और भारत का टूटता विदेशी मुद्रा भंडार जो अब केवल एक साल के आयात के लिए पर्याप्‍त है.

भारत में विदेशी मुद्रा के प्रमुख स्रोत सामान सेवाओ निर्यात, शेयर बाजार में निवेश और विदेशी पूंजी निवेश (पीई स्‍टार्ट अप) हैं. एक छोटा सा हिससा विदेशी व्‍यक्‍त‍िगत धन प्रेषण आदि का है.   

स्‍टैंडर्ड चार्टर्ड ने अपनी एक ताजा रिपोर्ट में कहा है कि विदेशी मुद्रा भंडार नौ माह के आयात की जरुरत के स्‍तर तक घट सकता है. गिरावट में 45 फीसदी हिस्‍सा डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोरी का है, 30 फीसदी गिरावट रुपये को बचाने में रिजर्व बैंक तरफ झोंके गए डॉलर के कारण आई है जबकि 25 फीसदी कमी आयात की लागत बढने से आई है

चार्ट .. भारत का विदेशी मुद्रा भंडा गिरावट

भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 27 मई 2022 को समाप्‍त सप्‍ताह में करीब 597 अरब डॉलर था. वित्‍त वर्ष 2022  भारत का कुल आयात करीब 610 अरब डॉलर रहा और निर्यात करीब 418 अरब डॉलर. यही वजह है कि भारत ने 2022 के वित्‍त वर्ष की समाप्‍ति‍ रिकार्ड 192 अरब डॉलर व्‍यापार घाटे (आयात और निर्यात का अंतर) से की. आयात के बिल की रोशनी में विदेशी मुद्रा भंडार साल भर के आयात से कम है. बाजार से निकलने वाली विदेशी पूंजी और विदेशी कर्ज के भुगतान की जरुरतें अलग से

विदेशी मुद्रा भंडार के हिसाब को एक और बड़ी तस्‍वीर में फिट किया जाता है. ताकि समग्र अर्थव्‍यवस्‍था की ताकत कमजोरी मापी जा सके. यह करेंट अकाउंट डेफश‍िट या सरप्‍लस है. यह किसी देश में विदेशी मुद्रा की आवक निकासी का सबसे बड़ा हिसाब होता है और देश बाहरी मोर्चे पर ताकत कमजोरी का पैमाना. इस घाटे की गणना में सामानों के निर्यात आयात के अलावा, सेवाओं का निर्यात, शेयर बाजार में विदेशी निवेश, विदेशी पूंजी न‍िवेश, विदेश से भेजे गए धन आद‍ि शामिल होते हैं .

कोविड के वर्षों में तो भारत ने इस घाटे को खत्‍म कर दिया था क्‍यों कि आयात बंद थे लेक‍िन अब यह नौ साल की ऊंचाई पर है. यानी करीब 23 अरब डॉलर. दस साल का सबसे ऊंचा स्‍तर दूर नही है.

आयात की तुलना में निर्यात तो कम हैं हीं इसके साथ ही विदेशी निवेश (प्रत्‍यक्ष, स्टार्ट अप, पीई व शेयर बाजार) में जोरदार गिरावट आई. रिजर्व बैंक के आंकड़े के अनुसार अप्रैल फरवरी 2021-22 में यह केवल 24.6 अरब डॉलर रहा हो जो बीते साल इसी अवध‍ि में 80.1 अरब डॉलर था.

ध्‍यान रखना जरुरी है कि विदेशी मुद्रा भंडार की पर्याप्‍तता यानी एक साल के आयात के बराबर होने तक रुपये का गिरना निर्यात को प्रतिस्‍पर्धी बनाता है लेक‍िन यदि भंडार घटने लगे तो रुपये की गिरावट मुसीबत बन जाती है.

रुपये की ताकत का सीधा रिश्‍ता विदेशी मुद्रा भंडार से है. व्‍यापार घाटा और करेंट अकाउंट डेफश‍िट ज‍ितना बढ़ेगा यह भंडार उतना ही घटेगा और रुपये की ताकत छीजती जाएगी. बीते एक करीब छह माह से यही हो रहा है

अब कमजोर रुपये ने कच्‍चे तेल कोयले सहित धातुओं में महंगाई का तूफान ला दिया है. रिजर्व बैंक डॉलर की मांग पूरा करने के लिए विदेशी मुद्रा झोंक रहा है, विदेशी मुद्रा भंडार गिरे रहा है और रुपये पर दबाव बढ़ रहा है. यही है कैच 22 का पहला हिस्‍सा जिसे देखकर मुंबई को ड‍िप्रशन हो रहा है

अब दूसरा हिस्‍सा

 

शुरु से शुरु करें

लौटते हैं शेयर बाजार की तरफ यानी त‍ितल‍ियों की तरफ जो शेयर बाजार से जुड़ी हैं. नोटबंदी से लेकर कोविड की बंदी और मंदी तक

भारत के शेयर बाजार में विदेशी निवेशक रीझ रीझ कर उतरते रहे. उनका निवेश बढ़ता गया और शेयर बाजार चढ़ता गया. क्‍या ही हैरत थी जब कोविड में भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था गहरी मंदी में थी, मौतें हो रही थीं तब विदेश‍ियों का भरोसा बढ़ता गया.

यकीनन शेयर बाजार से बहुतेरे लोगों को बहुत फर्क नहीं पड़ता, पड़े भी क्‍यों लेक‍िन भारत के विदेशी मुद्रा भंडार को इससे बड़ा फर्क पड़ा. अर्थव्‍यवस्‍था में तरह तरह की उठापटक के बीच शेयर बाजार में विदेशी निवेश और विदेशी मुद्रा में बढ़ोत्‍तरी में एक सीधा रि‍श्‍ता दिखता है.

बीते अक्‍टूबर से जब भारत में हालात सुधरने शुरु हुए तब से इन निवेशकों ने बाजार में बेचना शुरु कर दिया. इनकी निकासी के बाद रुपये में गिरावट शुरु हो गई. विदेशी मुद्रा भंडार छीजने लगा. बची हुई कसर महंगे तेल और रिकार्ड व्‍यापार घाटे ने पूरी कर दी.

त‍ितल‍ियो की बेरुखी

विदेशी निवेशक केवल डॉलर नहीं लाते. वे लाते हैं अरबो डॉलर का भरोसा. इसलिए क्‍यों कि वे भारत की आर्थि‍क भव‍िष्‍य पर दांव लगा रहे थे. महमारी की घोर मंदी में भी उनका निवेश सूखा नहीं क्‍यों कि वापसी की उम्‍मीद थी.

तो अब क्‍या हो रहा है?

भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था को लेकर पैमाना बदल रहा है. पूंजी की लागत बढ रही है जबकि भारत की विकास दर के आकलन गिर रहे हैं. यदि अगले कुछ साल में भारत की महंगाई रहित शुद्ध विकास दर  5-6 फीसदी रहती है तो इक्‍व‍िटी पर 10-11 फीसदी से ज्‍शदा रिटर्न मुश्‍क‍िल है. शेयर बाजार में कुछ अच्‍छी कंपनियां रहेंगी अलबत्‍ता लेक‍िन वह महंगी भी होंगी. अर्थव्‍यवस्‍था जब तक 13-14 फीसदी की महंगाई सहित दर विकास दर दर्ज नहीं करती भारत की एक तिहाई आबादी की कमाई और मांग नहीं बढ़ेगी और न ही उत्‍पादों का बाजार और कंपनियों के मुनाफे

रुपया विदेशी मुद्रा भंडार और महंगाई के साझा समाधान के लिए अगर सरकार को कोई एक दुआ मांगनी हो तो  वह यही होनी चाहिए कि क‍िसी तरह शेयर बाजार दौड़ने लगे.  विदेशी निवेशक वापस कर लें. उनकी पूंजी आई तो रुपये की ढलान रुकेगी. आयाति‍त मंहगाई कम होगी. अर्थव्‍यवस्‍था में भरोसा आएगा. घरेलू निवेशकों के छोटे निवेश बाजार को ढहने नहीं देंगी लेक‍िन बाजार को दौड़ाने की दम इस निवेश में नहीं है. लेक‍िन इसके भारत की सरकार को सब कुछ छोड़ कर अर्थव्‍यवस्‍था को ढलान रोकने का अनुष्‍ठान करना होगा जो जैसा कि 1991 में या 2008 के लीमैन संकट के वक्‍त हुआ था. विदेशी ताकत के मोर्च पर भारत या श्रीलंका पाकिस्‍तान में सबसे बड़ा फर्क यह है कि गैर इमर्जिंग अर्थव्‍यवस्‍थाओं में विकास दर भले ही तेज हो लेक‍िन यहा कैपिटल मार्केट नहीं है, निर्यात के अलावा गैर कर्ज वाली विदेशी पूंजी के स्रोत नहीं है इसलिए यह हमेशा खतरे में होंती हैं और आईएमएफ की मोहताज हैं

भारत इ‍मर्ज‍िंग इकोनॉमी इसलिए है क्‍यों क‍ि यहां डॉलरों की एक और पाइपलाइन खुलती है जो शेयर बाजार में आती है और हमें सुरक्षि‍त करती है. यह पूंजी भविष्‍य पर ग्‍लोबल भरोसे का प्रमाण है.

शेयर बाजार में बेयर ट्रैप या मंदी की भविष्‍यवाण‍ियां तैर रही हैं. अर्थव्‍यवस्‍था विदेशी निवेशकों की वापसी बर्दाश्‍त नहीं कर सकता. क्‍यों कि  आयात निर्यात वाले मुद्रा भंडार के मामले में दुन‍िया से बहुत फर्क नहीं है

 

 


Thursday, March 10, 2022

वो सदी आ गई !

 


यह फरवरी 2022 का पहला हफ्ता था.  रुसी राष्‍ट्रपति ब्‍लादीम‍िर पुत‍िन
, बेलारुस के साथ सैन्‍य अभ्‍यास के बहाने यूक्रेन पर यलग़ार की तैयार‍ियां परख रहे थे. ठीक उसी वक्‍त सुदूर पूर्व के  दक्ष‍िण कोर‍िया में आरसीईपी (रीजनल कंप्रहेसिव कोऑपरेटिव पार्टन‍रशि‍प) प्रभावी हो गई, यानी की द‍ुन‍िया की दसवीं अर्थव्‍यवस्‍था विश्‍व के सबसे बड़े व्‍यापार समूह को लागू कर चुकी थी. 2022 की शुरुआत में महामारी का मारा यूरोप खून खच्‍चर और महंगाई के  डर से अधमरा हुआ जा रहा था तब   एश‍िया की नई तस्‍वीर फलक पर उभरने लगी थी.

कोरोना वायरस के नए संस्‍करण ऑम‍िक्रॉन के हल्‍ले के बावजूद, चीन की अगुआई वाली इस व्‍यापार संध‍ि का उद्घाटन इतना तेज तर्रार रहा कि  अमेरिकी राष्‍ट्रपत‍ि जो बाइडेन को कहना पड़ा कि वह भी एक नए व्‍यापार गठजोड़ की कोशि‍श शुरु कर रहे हैं. पिछले अमेरिकी मुखि‍या डोनल्‍ड ट्रंप ने  टीपीपी यानी ट्रांस पैस‍िफि‍क पार्टनरशि‍प के प्रयासों को कचरे के डब्‍बे में फेंक दिया था जो आरसीईपी के लिए चुनौती बन सकती थी.

याद रहे क‍ि इसी भारत इसी आरसीईपी  से बाहर निकल आया था . यह दोनों बड़ी अर्थव्‍यवस्‍थायें इस समझौते का हिस्‍सा नहीं हैं. चाहे न चाहे लेकि‍न चीन इस कारवां सबसे अगले रथ पर सवार हो गया है .

आरसईपी के आंकड़ों की रोशनी में एश‍िया एक नया परिभाषा के साथ उभर आया है आस‍ियान के दस देश (ब्रुनेई, कंबोड‍िया, इंडोनेश‍िया, थाईलैंड, लाओस, मलेश‍िया, म्‍यान्‍मार, फिलीपींस, सिंगापुर, वियतनाम) इसका हिस्‍सा हैं जबकि आस्‍ट्रेल‍िया, चीन, जापान, न्‍यूजीलैंड और दक्ष‍िण कोर‍िया इसके एफटीए पार्टनर हैं. यह चीन का पहला बहुतक्षीय व्‍यापार समझौता है.

दुनिया की करीब 30 फीसदी आबादी, 30 फीसदी जीडीपी और 28 फीसदी व्‍यापार इस समझौते के प्रभाव क्षेत्र में है.  विश्‍व व्‍यापार में हिस्‍सेदारी के पैमाने  इसके करीब पहुंचने वाले व्‍यापार समझौते में अमेरिका कनाडा मैक्‍स‍िको (28%) और यूरोपीय समुदाय (17.9%) हैं

आरसीईपी के 15 सदस्‍य देशों ने अंतर समूह व्‍यापार के लिए 90 फीसदी उत्‍पादों पर सीमा शुल्‍क शून्‍य कर दि‍या है..यानी  कोई कस्‍टम ड्यूटी नहीं. संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के व्‍यापार संगठन अंकटाड ने बताया है कि इस समझौते से 2030 तक आरसीईपी क्षेत्र में निर्यात में करीब 42 अरब डॉलर की बढ़ोत्‍तरी होगी. यह समझौता अगले आठ वर्ष में ग्‍लोबल अर्थव्‍यवस्‍था में 200 अरब डॉलर का सालाना योगदान करने लगेगा. क्‍या यूरोप यह सुन पा रहा है कि बकौल अंकटाड,  अपने आकार और व्‍यापार वैव‍िध्‍य के कारण आरसीईपी  दुन‍िया में व्‍यापार का नया केंद्र होने वाला है. 

आप इसे चीन की दबंगई कहें, अमेरिका की जिद या  भारत का  स्‍वनिर्मित भ्रम लेकिन आरसीईपी और एशि‍या की सदी का उदय एक साथ हो रहा है. वही सदी जिसका जिक्र हम दशकों से नेताओं भाषणों में सुनते आए हैं.  एश‍िया की वह सदी यकीनन अब आ पहुंची है  

यह है नया एश‍िया

एश‍िया की आर्थिक ताकत बढ़ने की गणना 2010 से शुरु हो गई थी, गरीबी पिछड़पेन और आय व‍िि‍वधता के बावजूद एश‍िया ने यूरोप और अमेरिका की जगह दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍था में केंद्रीय स्‍थान लेना शुरु कर दिया था. महामारी के बाद जो आंकडे आए हैं, दुन‍िया की आर्थ‍िक धुरी बदलने की तरफ इशारा करते हैं.

कोविड के इस तूफान का सबसे मजबूती से सामना एश‍ियाई अर्थव्‍यवस्‍थाओं ने कि‍या. आईएमफ का आकलन बताता है कि महामारी के दौरान 2020 में दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍थायें करीब 3.2 फीसदी सि‍कुड़ी लेक‍िन एशि‍या की ढलान  केवल 1.5 फीसदी थी. एश‍ियाई अर्थव्‍यवस्‍थाओं की वापसी भी तेज थी जुलाई में 2021 में आईएमएफ ने बताया क‍ि 2021 में  एश‍िया  7.5 फीसदी की दर से और 2022 में 6.4 फीसदी की दर से विकास कर करेगा जबकि‍ दुनिया की विकास दर 6 और 4.9 फीसदी रहेगी.

2020 में महामारी के दौरान दुनिया का व्‍यापार 5 फीसदी सिकुड़ गया लेक‍िन ग्‍लोबल व्‍यापार में एश‍िया का हिस्‍सा 60 फीसदी पर कायम रहा यानी नुकसान यूरोप अमेरिका को ज्‍यादा हुआ. 

2021 में आस‍ियान  चीन का सबसे बड़ा कारोबारी भागीदार बन गया है. इस भागीदारी की ताकत  2019 में मेकेंजी की एक रिपोर्ट से समझी जा सकती  है. एश‍िया का 60 फीसदी व्‍यापार  और 59 फीसदी विदेशी निवेश अंतरक्षेत्रीय  है. चीन से कंपन‍ियों के पलायन के दावों की गर्द अब बैठ चुकी है. 2021 में यूरोपीय  और अमेरिकी चैम्‍बर ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि 80-90 फीसदी कंपन‍ियां चीन छोड़ कर नहीं जाना चाहती. आरसीईपी ने इस पलायन का अध्‍याय बंद कर दिया है क्‍यों कि अध‍िकांश बाजार शुल्‍क मुक्‍त या डयूटी फ्री हो गए  हैं. इन कंपनियों  ज्‍यादातर उत्‍पादन अंतरक्षेत्रीय बाजार में बिकता  है

बात पुरानी है

एशिया की यह नई ताकत एक दशक पहले बनना शुरु हुई थी. मेकेंजी सह‍ित कई अलग अलग सर्वे  2018 में ही बता चुके थे  कि ग्‍लोबल टेक्‍नोलॉजी व्‍यापार के पैमानेां पर  एश‍िया  सबसे तेज दौड़ रहा है.  टेक्‍नोलॉजी राजस्‍व की अंतरराष्‍ट्रीय विकास दर में 52 फीसदी, स्‍टार्ट अफ फंड‍िंग में 43 फीसदी, शोध विकास फंड‍िंग में 51 फीसदी और पेटेंट में 87 फीसदी ह‍िस्‍सा अब एश‍िया का है.

ब्‍लूमबर्ग इन्‍नोवेशन इंडेक्‍स 2021  के तहत कोरिया दुनिया के 60 सबसे इन्‍नोवेटिव देशों की सूची में पहले स्‍थान पर है. अमेरिका शीर्ष दस से बाहर हो गया है. यही वजह है कि   महामारी के बाद न्‍यू इकोनॉमी में एश‍िया के दांव बड़े हो रहे हैं. शोध और विज्ञान का पुराना गुरु जापान जाग रहा है. मार्च 2022 तक जापान में एक विशाल यून‍िवर्स‍िटी इनडाउमेंट फंड काम करने लगेगा  जो करीब 90 अरब डॉलर की शोध पर‍ियोजनाओं को वित्‍तीय मदद देगा. चीन में अब शोध व विकास की क्षमतायें विश्‍व स्‍तर पर पहुंचने के आकलन लगातार आ रहे हैं.

अलबत्‍ता एश‍िया की सदी का सबसे कीमती  आंकड़ा यहां है. अगले एक दशक दुनिया की आधी खपत मांग एश‍िया के उपभोक्‍ताओं से आएगी. मेंकेंजी सहित कई संस्‍थाओं के अध्‍ययन बताते हैं क‍ि यह उपभोक्‍ता बाजार कंपनियों के लिए करीब 10 अरब डॉलर का अवसर है.  क्‍यों क‍ि 2030 तक एश‍िया की करीब 70 फीसदी आबादी उपभोक्‍ता समूह का हिस्‍सा होगी यानी कि वे 11 डॉलर ( 900 रुपये) प्रति द‍िन खर्च कर रहे होंगे. सन 2000 यह प्रतिशित 15 पर था. अगले एक दशक में 80 फीसदी मांग मध्‍यम व उच्‍च आय वर्ग की खपत से निकलेगी. 2030 तक करी 40 फीसदी मांग ड‍िजटिल नैटिव तैयार करेंगे.

दुनिया की कंपनियां इस बदलाव को करीब से पढ़ती रही हैं . कोवडि  से पहले एक दशक में प्रति दो डॉलर के नए विश्‍व निवेश में एक डॉलर एश‍िया में गया था और प्रत्‍येक तीन डॉलर में से एक चीन में लगाया गया. 2020 में दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में  एशि‍या से आए राजस्‍व का हि‍स्‍सा करीब 43 फीसदी था अलबत्‍ता इस मुकाल पर  एश‍िया का सबसे बड़ी कमजोरी भी उभर आती है

सबसे बड़ी दरार  

एश‍िया की कंपन‍ियों के मुनाफे पश्‍च‍ित की कंपनी से  कम हैं. 2005 से 2017 के बीच दुन‍िया में कारपोरेट घाटों में एश‍िया की कंपनियों का हिस्‍सा सबसे बड़ा था. यही हाल संकट में फंसी कंपनियों के सूचकांकों का है एश‍िया की करीब 24 फीसदी कंपन‍ियां ग्‍लोबल कंपन‍ियों के इकनॉमिक प्रॉफि‍ट सूचकांक में सबसे नीचे हैं. शीर्ष में केवल 14 फीसदी कंपन‍ियां एश‍िया से आती हैं. एश‍िया के पास एप्‍पल, जीएम, बॉश, गूगल, यूनीलीवर, नेस्‍ले, फाइजर जैसे चैम्‍पियन नहीं हैं.

शायद यही वजह थी  एश‍िया के मुल्‍कों की कंपन‍ियों ने सरकारों की ह‍िम्मत बढ़ाई और वे आरसीईपी के जहाज पर सवार  हो गए.  अगली सदी अगर एश‍िया की है तो कंपन‍ियों को इसकी अगुआई करनी है. मुक्‍त  व्‍यापार की विटामिन से लागत घटेगी, बाजार बढ़ेगा और शायद अगले एक दशक में एश‍िया में पास भी ग्‍लोबल चैम्‍प‍ियन होंगे.

आपसी रिश्‍ते तय और अपने लोगों के भव‍िष्‍य को सुरक्ष‍ित के करने के मामलों में यूरोप के सनकी और दंभ भरे नेताओं की तुलना में में एश‍िया के छोटे देशों ने ज्‍यादा समझदारी दि‍खाई है यही वजह है कि आरसीईपी के तहत  चीन जापान व कोरिया एक साथ आए हैं यह इन तीनों प्रत‍िस्‍पि‍र्ध‍ियों का यह पहला कूटनीतिक, व्‍यापार‍िक गठजोड़ है. यूरोप जब जंग के मैदान से लौटेगा तब उसे मंदी के अंधेरे को दूर करने के लिए बाजार की  एश‍िया से रोशनी मांगनी  पड़ेगी.

भारतीय राजनीति दक‍ियानूसी बहसों का नशा किये हुए है जबकि  इस नई उड़ान की पायलट की सीट चीन ने संभाल ली है. भारत के नेताओं को पता चले क‍ि, वह एश‍िया की जिस सदी के नेतृत्‍व का गाल बजाते रहते हैं. वह सदी  शुरु होती है अब ...  

Saturday, December 7, 2019

हैं और भी वजहें मंदी की


पां ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के ख्वाब के बीच यह कैसा ब्रांड इंडिया बन रहा है जिसका निर्यात पिछले पांच साल से धराशायी है
दुनिया को बाजार खोलने की नसीहतदेते हुए भारत अपना ही बाजार क्योंबंद करने लगा
हमें खुद से भी यह पूछना पड़ेगा कि तारीफों से लदी-फंदी विदेश नीति पिछले पांच बरस में हमें एक नया व्यापार समझौता भी क्यों नहीं दे सकी?

इन सवालों का सीधा रिश्ता भारत की ताजा जिद्दी मंदी से है क्योंकि इस संकट की एक बड़ी वजह ढहता विदेश व्यापार भी हैनिर्यात की बदहाली की नई तस्वीर उस उच्चस्तरीय सरकारी समिति की रिपोर्ट में उभरी हैजिसे एशिया के सबसे बड़े व्यापार समूह यानी आरसीईपी (रीजनल कॉम्प्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिपमें भारत की भागीदारी के फायदे-नुक्सान आंकने के लिए इसी साल बनाया गया था.

पूर्व विदेशवाणिज्य सचिवोंडब्ल्यूटीओ के पूर्व महानिदेशकवित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार और अर्थशास्त्रियों से लैस इस समिति (अध्यक्ष अर्थशास्त्री सुरजीत भल्लाने 253 पेज की रिपोर्ट के जरिए भारत के आरसीईपी में शामिल होने की पुरजोर सिफारिश की थीआरसीईपी को पीठ दिखाने से एक हफ्ते पहले तक वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल इसी रिपोर्ट को सरकार के लिए गीता-बाइबिल-कुरान बता रहे थेइस रिपोर्ट की रोशनी में आरसीईपी से भारत का पलायन और ज्यादा रहस्यमय हो गया है.

हाल के वर्षों में पहली बार अर्थशास्त्रियों और नौकरशाहों ने ठकुरसुहाती छोड़ भारत के विदेश व्यापार के संकट को आंकड़ों की रोशनी दिखाई हैरिपोर्ट के तथ्य बताते हैं कि ताजा मंदी इतनी चुनौतीपूर्ण क्यों है.

·       सन् 2000 में अंतरराष्ट्रीय व्यापार (निर्यात-आयातकी भारत के जीडीपी में हिस्सेदारी केवल 19 फीसद थी जो 2011 में बढ़कर 55 फीसद यानी आधे से ज्यादा हो गई जो अब 45 फीसद रह गई हैयही वजह है कि घरेलू खपत के साथ विदेश व्यापार में कमी की मारी विकास दर 4.5 फीसद पर कराह रही है.

·       2003 से 2011 के मुकाबले 2012 से 2017 के बीच भारत का निर्यात लगातार गिरता चला गयाआरसीईपी पर बनी समिति ने गैर तेल निर्यातक 60 बड़ी अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं के साथ तुलना के बाद पाया कि जीडीपी में बढ़ोतरी और अपेक्षाकृत स्थिर विदेशी मुद्रा विनिमय दर के बावजूद इन पांच वर्षों में सभी (कृषिमैन्युफैक्चरिंगमर्चेंडाइज और सेवाएंनिर्यात में समकक्षों के मुकाबले भारत की रैंकिंग गिरी हैइस बदहाली के मद्देनजर 2014 के बाद जीडीपी के उफान (सात फीसद से ऊपरपर शक होता है.

·       2000 के बाद उदारीकरण ने भारत को सॉफ्टवेयर सेवाएंफार्मा और ऑटो निर्यात का गढ़ बना दिया थालेकिन 2010 के बाद भारत निर्यात में कोई जानदार कहानी नहीं लिख सका.

·       हाल के वर्षों में भारत ने अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने में विशेषज्ञता हासिल कर ली. 2017 से पहले लगातार घटता रहा सीमा शुल्कनई सरकार की अगुआई में बढ़ने लगाआयात महंगा होने से आयातित कच्चे माल और सेवा पर आधारित निर्यात को गहरी चोट लगीइस संरक्षणवाद से दुनिया के बाजारों में भारत के लिए समस्या बढ़ी है.

·       भल्ला समिति ने नोट किया कि भारतीय नीति नियामक आज भी आयात को वर्जित मानकर गैर प्रतिस्पर्धी उद्येागों को संरक्षण की जिद में हैं जबकि भारत ने बढ़ते विदेश व्यापार से जबरदस्त फायदे जुटाए हैं.

·       आरसीईपी विरोधियों को खबर हो कि बकौल भल्ला समितिसभी मुक्त व्यापार समझौते भारत के लिए बेहद फायदेमंद रहे हैंइनके तहत आयात-निर्यात का ढांचा सबसे संतुलित है यानी कच्चे माल का निर्यात और उपभोक्ता उत्पादों का आयात बेहद सीमित है.

·       यह रिपोर्ट आसियान के साथ व्यापार घाटे को लेकर फैलाए गए खौफ को बेनकाब करती हैयह घाटा पाम ऑयल और रबड़ के आयात के कारण हैजिनकी देशी आपूर्ति सीमित है और ये भारतीय उद्योगों का कीमती कच्चा माल हैं.

इस सरकारी समिति ने छह अलग-अलग वैश्विक परिस्थितियों की कल्पना करते हुए यह निष्कर्ष दिया है कि अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध के हालात में आरसीईपी जैसे किसी बड़े व्यापार समूह का हिस्सा बनने पर भारत के जीडीपी में करीब एक फीसदनिवेश में एक 1.22 फीसद और निजी खपत में 0.73 फीसद की बढ़ोतरी होगी!

हमें नहीं पता कि आरसीईपी में बंद दरवाजों के पीछे क्या हुआकिसे फायदे पहुंचाने के लिए सरकार ने यह मौका गंवायालेकिन अब जो आंकड़े हमारे सामने हैं उनके मुताबिकभारत की विदेश और व्यापार नीति की विफलता भी इस मंदी की एक बुनियादी वजह हैपूरी तरह ढह चुकी घरेलू खपत के बीच तेज निर्यात के बिना मंदी से उबरना नामुमकिन है और निर्यात बढ़ाने के लिए बंद दरवाजों को खोलना ही होगापांच ट्रिलियन के नारे लगाने वालों को पता चले कि हाल के दशकों में दुनिया की कोई बड़ी अर्थव्यवस्था निर्यात में निरंतर बढ़ोतरी के बगैर लंबे समय तक ऊंची विकास दर हासिल नहीं कर सकी है.