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Saturday, August 31, 2019

उम्मीदों की ढलान


र्थशास्त्र की असंख्य तकनीकी परिभाषाओं के परे कोई आसान मतलब? प्राध्यापक ने कहा, उम्मीद और विश्वास. कारोबार, विनिमय, खपत, बचत, कर्ज, निवेश अच्छे भविष्य की आशा और भरोसे पर टिका है. इसी उम्मीद का थम जाना यानी भरोसे का सिमट जाना मंदी है.

खपत आधारित है आगे आय बढ़ते रहने की उम्मीद पर. कर्ज अपनी वापसी की उम्मीद पर टिका है; औद्योगिक व्यापारिक निवेश खपत बढ़ने पर केंद्रित है; और बचत या शेयरों की खरीद इस उम्मीद पर टिकी है कि यह चक्र ठीक चलेगा.

सरकार ने मंदी से निबटने के लिए दो माह पहले आए बजट को शीर्षासन करा दिया. लेकिन उम्मीदें निढाल पड़ी हैं.

क्या हम उम्मीद और विश्वास में कमी को आंकड़ों में नाप सकते हैं? मंदी के जो कारण गिनाए जा रहे हैं या जो समाधान मांगे जा रहे हैं उन्हें गहराई से देख कर यह नाप-जोख हो सकती है.

मंदी की पहली वजह बताई जा रही है कि बाजार में पूंजी, पैसे या तरलता की कमी है लेकिन...

·       भारत में नकदी (करेंसी इन सर्कुलेशन), जुलाई के पहले सप्ताह में 21.1 लाख करोड़ रुपए पर थी जो पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले 13 फीसदी ज्यादा है. दूसरी तरफ, बैंकों में जमा की दर 2010 से गिरते हुए दस फीसदी से नीचे आ गई.

·       रिजर्व बैंक ब्याज की दर एक फीसद से ज्यादा घटा चुका है लेकिन कर्ज लेने वाले नहीं हैं. यानी कि बाजार में पैसा है, लोगों के हाथ में पैसा है, बैंक कर्ज सस्ता कर रहे हैं लेकिन लोग बिस्किट खरीदने से पहले भी सोच रहे हैं, कार और मकान आदि तो दूर की बात है.

·       अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध (आयात महंगा करना) से तो निर्यात बढ़ाने का मौका है. कमजोर रुपया भी निर्यातकों के माफिक है लेकिन न निर्यात बढ़ा, न उत्पादन.

·       खर्च चलाने के लिए सरकार ने रिजर्व बैंक का रिजर्व निचोड़ लिया है तो सुझाव दिए जा रहे हैं कि जीएसटी कम होने से मांग बढ़ जाएगी. लेकिन लागू होने के बाद से हर छह माह में जीएसटी की दर कम हुई. न मांग बढ़ी, न खपत, राजस्व और बुरी तरह टूट गया.

·       पिछले पांच साल के दौरान एक बार भी महंगाई ने नहीं रुलाया फिर भी बचत और खपत गिर गई.

हाथ में पैसा होने के बाद भी खर्च न बढ़ना,

टैक्स और कीमतें घटने के बाद भी मांग न बढ़ना,

कर्ज सस्ता होने के बाद भी कर्ज न उठना...

इस बात की ताकीद करते हैं कि जिन्हें खर्च करना या कर्ज लेकर घर-कार खरीदनी है उन्हें यह भरोसा नहीं है कि आगे उनकी कमाई बढ़ेगीजिन्हें उद्योग के लिए कर्ज लेना है उन्हें मांग बढ़ने की उम्मीद नहीं है और जिन्हें कर्ज देना हैउन्हें कर्ज की वापसी न होने का डर है.

इस जटिलता ने दो दुष्चक्र शुरू कर दिए हैं. टैक्स कम होगा तो घाटा यानी सरकार का कर्ज बढ़ेगा. ब्याज दर बढ़ेगी, नए टैक्स लगेंगे या पेट्रोल-डीजल की कीमत बढ़ेगी. अगर बैंक कर्ज और सस्ता करेंगे तो डिपॉजिट पर भी ब्याज घटेगा. इस तरह बैंक बचतें गंवाएंगे और पूंजी कम पड़ेगी.

यही वजह है कि यह मंदी अपने ताजा पूर्वजों से अलग है. 2008 और 2012 में सरकार ने पैसा डाला और टैक्स काटे, जिससे बात बन गई लेकिन अब मुश्किल है.

2015 के बाद से लगातार सरकारी खर्च में इजाफा हुआ है और जीएसटी के चुनावी असर को कम करने के लिए टैक्स में कमी हुई लेकिन फिर भी हम ढुलक गए. अब संसाधन ही नहीं बचे. सरकारी खर्च के लिए रिजर्व बैंक के रिजर्व के इस्तेमाल से डर बढ़ेगा और विश्वास कम होगा.

कमाई, बचत और खपत, तीनों में एक साथ गिरावट मंदी की बुनियादी वजह है. लोगों को आय बढ़ने की उम्मीद नहीं है. देश में बड़ा मध्य वर्ग कर्ज में फंस चुका है. रोजगार न बढ़ने के कारण घरों में एक कमाने वाले पर आश्रितों की संख्या बढ़ रही है. यही वजह है कि बचत (बैंक, लघु बचत, मकान) 20 साल के न्यूनतम स्तर पर (जीडीपी का 30 फीसद) पर है. यह सब उस कथित तेज विकास के दौरान हुआ, जिसके दावे बीते पांच बरस में हुए. कोई अर्थव्यवस्था अगर अपने सबसे अच्छे दिनों में रोजगार सृजन या बचत नहीं करती तो आने वाली पीढ़ी के लिए मौके कम हो जाते हैं.

सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में तेज विकास के जो आंकड़े गढ़े थे क्या उन पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया? उसी की चमक में निवेश बढ़ाने, सरकारी दखल कम करने, मुक्त व्यापार के लिए ढांचागत सुधार नहीं किए गए जिसके कारण हम एक जिद्दी ढांचागत मंदी की चपेट में हैं

अगर यही सच है तो फिर जरूरत उन सुधारों की है, सुर्खियां बनाने वाले पैकेजों की नहीं क्योंकि उम्मीदों की मंदी बड़ी जिद्दी होती है.


Monday, September 3, 2018

पर्दा अभी उठा नहीं है


वह 2016 नवंबर का दूसरा सप्ताह था. नोटबंदी को केवल दस दिन बीते थे और जनता के पास मौजूद बड़े नोटों का लगभग 40 फीसदी हिस्सा बैंकों में पहुंचा चुका था. बची हुई नकदी पेट्रोल पंपोंस्कूलोंअस्पतालों में पहुंच रही थी जहां उसे स्वीकार करने की इजाजत थी. इसी दौरान रिजर्व बैंक ने यह बताना बंद कर दिया कि बैंक खातों में जमा किस तरह बढ़ रहा है और इसके साथ ही यह तय हो गया कि शायद अधिकांश नकदी बैंकों में वापस हो रही है.

बंद किए गए 99 फीसदी नोटों की बैंकों में वापसी का संकेत तो पिछले साल जून में ही मिल गया था. अब इन खिसियाये स्पष्टीकरणों का कोई अर्थ नहीं है कि नोटबंदी के बाद आयकर रिटर्न या टैक्स भरने वाले बढ़े हैं. क्या नोटबंदी जैसे विराट और मारक जोखिम का मकसद आयकर रिटर्न भरने की आदत ठीक करना था?

और बाजार में नकदी तो इस कदर बढ़ चुकी है कि कैशलेस या लेसकैश अर्थव्यवस्था की बहस ही अब बेसबब हो गई.

दरअसलनोटबंदी के बड़े रहस्य अभी भी पोशीदा हैं. रिजर्व बैंक व सरकार अगर देश को कुछ सवालों के जवाब देंगे तो हमें पता चल सकेगा कि भारत के आर्थिक इतिहास की सबसे बड़ी उथल पुथल के दौरान क्या हुआ था और शायद इसी में हमें काले धन के कुछ सूत्र मिल जाएंजिन के लिए यह इतना जान-माललेवा जोखिम उठाया गया था.

- कौन थे वे "गरीब'' जिन्होंने लाखों की तादाद में जनधन खाते खोले और नोटबंदी के दौरान पुराने और नए खातों में करोड़ों रुपए जमा किएनोटबंदी के ठीक बाद 23.30 करोड़ नए जन धन खाते खोले गए. इनमें से 80 फीसदी सरकारी बैंकों में खुले. नोटबंदी के वक्त (9 नवंबर 2016) को इन खातों में कुल 456 अरब रुपए जमा थे जो 7 दिसंबर 2016 को 746 अरब रुपए पर पहुंच गए.

जनधन खातों के दुरुपयोग की खबरों के बीच सरकार ने 15 नवंबर 2016 को जनधन खातों में रकम जमा करने के लिए 50,000 रुपए की ऊपरी सीमा तय कर दी थी. वित्त मंत्री ने पिछले साल फरवरी में संसद को बताया था कि विभिन्न खाताधारकों (जनधन सहित) को आयकर विभाग ने 5,100 नोटिस भेजे हैंइसके बाद नोटबंदी में जनधन के इस्तेमाल की जांच कहीं गुम हो गई!

- क्या हमें कभी यह पता चल पाएगा कि नोटबंदी के दिनों में सरकारी (केंद्र और राज्य) खजानों और  बैंकों में सरकारी/पीएसयू खातों के जरिए कितनी रकम का लेनदेन हुआसनद रहे कि सरकारी विभागों और सेवाएं नोटबंदी या नकद लेनदेन की तात्कालिक सीमा से मुक्त थे. कई सरकारी सेवाओं को प्रतिबंधित नोटों में भुगतान लेने की इजाजत दी गई थी. सरकारी सेवाओं के विभागों के नेटवर्क जरिए कितनी पुरानी नकदी बदली गईक्या इसका आंकड़ा देश को नहीं मिलना चाहिए?

 नोटबंदी के दौरान बड़ी कंपनियों व कारोबारियों के चालू खातों और नकद लेनदेने के जरिए बैंकों में कितने पुराने नोट पहुंचेइसकी हमें कोई जानकारी नहीं है. बाद की पड़ताल में कई छद्म (शेल) कंपनियां मनी लॉन्ड्रिंग में शामिल पाई गईं. ऐसे में यह उम्मीद करना जायज है कि सरकार के पास कारोबारी नकद खातों के इस्तेमाल के बारे में काफी जानकारी होगी. नोटबंदी के दौरान बड़ी कंपनियों में नकदी की आवाजाही की पड़ताल की जानकारी उन लोगों को मिलनी चाहिए जो अपने कुछ सैकड़ा रुपए बदलवाने के लिए नोटबंदी की लाइनों में बिलख रहे थे. 

- क्या देश को यह जानने का हक नहीं है कि नोटबंदी के दौरान राजनैतिक पार्टियों के खातों में कितने लेनदेन हुए और उस वक्त जब लोगों के पास  अस्पतालों में दवा खरीदने के लिए नकदी नहीं थीतब सियासी धूम-धड़ाकों पर कहां और कैसे खर्च किया गयासनद रहे कि आम लोग जब नोटबंदी की अग्निपरीक्षा दे रहे थे तब सरकार ने सियासी पार्टियों को अपने खातों में 500 रुपए और 1,000 रुपए के पुराने नोट जमा करने की इजाजत दी थीजिसे हर तरह का जांच से बाहर रखा गया था.

- देश के लिए यह भी जानना जरूरी है कि नोटबंदी के दौरान बैंकों में जो भ्रष्टाचार हुआ उसकी जांच आखिर कहां रुकी हुई है.

रिजर्व बैंक ने अपनी बात कह दी है. अब सरकार को सवालों से आंख मिलाना ही होगा. ऐसा कहां लिखा है कि सरकारें गलत नहीं हो सकतीं. दुनिया के हर देश में सरकारें किस्म-किस्म की गलतियां करती हैं लेकिन वे उन्हें स्वीकार भी करती हैं. भारत के करोड़ों आम लोगों ने नोटबंदी में तपकर अपनी ईमानदारी साबित की है. अब अग्नि परीक्षा से गुजरने की बारी सरकार की है.



Sunday, September 10, 2017

खर्च करेंगे तो बचेंगे

हम सरकार से सहमत या असहमत हो सकते हैं लेकिन अर्थव्यवस्था में ढलान से तो गाफिल नहीं होंगे.

माना कि सरकार ने टैक्स (जीएसटी) थोपने में कोई मुरव्वत नहीं की फिर भी ढहती अर्थव्यवस्था की मदद की खातिर अब शॉपिंग बैग उठाना ही पड़ेगा.

नोटबंदी के बाद आर्थिक विकास दर क्‍यों 
ढह गई! 

सरकारें जब खुद को सर्वशक्तिमान मान लेती हैं तो नोटबंदी जैसे हादसे होते हैं.

जीडीपी यानी आर्थिक उत्पादन बाजार में उपलब्ध  कुल करेंसी और उस करेंसी के इस्तेमाल (करेंसी इन सर्कुलेशन+वेलॉसिटी ऑफ मनी) की दोस्ती से बनता है. इस फॉर्मूले से हम समझ पाते हैं कि प्रत्येक रुपया कितना आर्थिक उत्पादन (जीडीपी) करता है.

वेलॉसिटी ऑफ मनी यानी रुपए का बार-बार इस्तेमाल खासा दिलचस्प है. एक डॉक्टर ने टैक्सी वाले को सौ रुपए दिए. टैक्सी वाले ने वह सौ रुपए देकर खाना खाया. होटल वाले ने उस सौ रुपए से मोबाइल चार्ज करा लिया और मोबाइल वाला वह सौ रुपए इलाज के लिए वापस उसी डॉक्टर को दे आया. डॉक्टर के पास वापस आने तक वह सौ रुपए, चार सौ रुपए का कारोबार कर चुके थे. 

वेलॉसिटी ऑफ मनी की जटिल गणना में नकद लेन-देन ही नहीं, बैंक अकाउंट से भुगतान और निवेश भी शामिल होता है. नकदी तेजी से हाथ बदलती है, जबकि वित्तीय निवेश धीमे चलते हैं. भारत में मनी की वेलॉसिटी, करेंसी के प्रवाह की तुलना में लगभग आठ गुना ज्यादा है. हर नोट औसतन सात से आठ (ज्यादा भी) बार विनिमय में इस्तेमाल होता है.

सरकार नोट छापकर या उन्हें कागज का टुकड़ा बनाकर (नोटबंदी), करेंसी के प्रवाह को तो नियंत्रित कर सकती है लेकिन सौ रुपए का एक नोट कितनी बार (वेलॉसिटी) इस्तेमाल होगा, इस पर सरकार का कोई बस नहीं है.

मनी की वेलॉसिटी अर्थव्यवस्था में डांडिया नाच की तरह है, जिसमें हर नाचने वाला दूसरे के साथ अपने उत्साह को चटकाता है. वेलॉसिटी खरीद, उपभोग, निवेश से बढ़ती है. यह अर्थव्यवस्था में विश्वास का उत्सव है जिससे मांग बढ़ती है.

सरकारें कभी-कभी ऐसे समाधान लाती हैं जो समस्या से ज्यादा खतरनाक होते हैं. कुछ चूहों को निकालने के लिए पूरे डांडिया पंडाल में नोटबंदी की जहरीली गैस छोड़ दी गई. नाचने वाले निढाल होकर गिर गए. करेंसी के साथ ही वेलॉसिटी भी गई और जीडीपी ढह गया. 

करेंसी तो धीमे-धीमे वापस लौट रही है लेकिन गैस का असर इतना गहरा हुआ कि वेलॉसिटी का डांडिया दोबारा चटकाने यानी खर्च करने का उत्साह खत्म (कंज्यूमर सर्वे-रिजर्व बैंक) हो गया है. आज भी नकदी (करेंसी) की उपलब्धता नोटबंदी के पहले के स्तर से 20 फीसदी कम है. डिजिटल पेमेंट काफी धीमे पड़ गए हैं लेकिन हैरत है कि नकदी की कमी सरकार के लिए नोटबंदी की सफलता है! 

सरकारें अर्थव्यवस्था नहीं चलातीं. भारत का जीडीपी देश के लोगों की मेहनत और उपभोग से बढ़ता है. निजी उपभोग के लिए होने वाला खर्च जीडीपी में 60 फीसदी का हिस्सेदार है. जिन वर्षों में भारत ने सबसे अच्छी विकास दर दर्ज की है, उनमें लोगों का उपभोग खर्च शानदार ऊंचाई पर था. 

पिछले साल नोटबंदी के दौरान, इसी कॉलम में हमने लिखा था कि जीडीपी के अनुपात में नकदी करीब 12 फीसदी है, जिसके अधिकांश हिस्से का इस्तेमाल उपभोग खर्च में होता है. नोटबंदी, जीडीपी की सांस घोंटकर भारत की आर्थिक रफ्तार तोड़ देगी.

नोटबंदी के बाद जीडीपी इसलिए ढहा क्योंकि देश के करोड़ों लोगों ने अपनी खपत सिकोड़ ली. नवंबर के धमाके से पहले, अर्थव्यवस्था की ढलान शुरू हो चुकी थी. नोटबंदी के तत्काल बाद खपत को जीएसटी ने दबोच लिया इसलिए संकट गहरा गया है.

सरकार दो काम करते-करते लगभग थक चुकी है.

·       बजट से खूब खर्च किया गया ताकि किसी तरह ढलान रोकी जा सके लेकिन करोड़ों उपभोक्‍ताओं के उपभोग का विकल्प नहीं है.
·       आर्थिक आंकड़ों को खूब प्रोटीन पिलाया गया ताकि अर्थव्यवस्था को बढ़ता दिखाया जा सके .लेकिन सूरत संवारने में बिगड़ती चली गई.

चीनी दार्शनिक लाओत्सु कहते थे, किसी महान देश में सरकार चलाना छोटी मछली को पकाने जैसा होता है. ज्यादा हस्तक्षेप व्यंजन को बिगाड़ देता है. नोटबंदी में यही हाल हुआ है.

अब जीडीपी को न सस्ता कर्ज उबार सकता है और न सरकारी खर्च और विदेशी निवेश. ढहती अर्थव्यवस्था को हमारे आपके खर्च की जरूरत है. हमारा उत्साह ही इसका इलाज है. 

अपने आर्थिक भविष्य के लिए खर्च करिए.

सरकार के भरोसे मत बैठिए, सरकार अब आपके भरोसे बैठी है.


Sunday, February 12, 2017

नोटबंदी का बजट


नोटबंदी के नतीजों पर सरकार में सन्‍नाटे के बावजूद कुछ तथ्‍य

 सामने आ ही गए हैं

हिम्मतवर सरकारें अगर बड़े फैसले लेती हैं तो उन्हें फैसलों के नतीजे बताने से हिचकना नहीं चाहिए. नोटबंदी ने रोजगार से लेकर कारोबार तक सबका बजट बिगाड़ दिया तो इससे सरकार को भरपूर टैक्स या फिर रिजर्व बैंक से मोटा लाभांश जरूर मिलने वाला होगा! लेकिन बजट भी गुजर गया अलबत्ता नोटबंदी के फायदे-नुक्सान को लेकर न तो सरकार का बोल फूटा, न ही रिजर्व बैंक ने आंकड़े बताने की जहमत उठाई.

नोटबंदी को बिसारने की तमाम कोशिशों के बावजूद बजट और आर्थिक समीक्षा नोटबंदी से जुड़े कुछ तथ्य सामने लाती है. अगर उन्हें एक सूत्र में बांधा जाए तो हमें एहसास हो जाएगा कि नोटबंदी पर बेखुदी बेसबब नहीं है, कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.
तीर!
कहावत है जिसकी नाप-जोख नहीं हो सकती, उसे संभालना भी असंभव है. वित्त मंत्री कह चुके हैं कि नकद काले धन का कोई ठोस आकलन उपलब्ध नहीं है. तो 500 और 1000 के नोट बंद करने और 86 फीसदी नकदी को एकमुश्त अवैध करार देने का इतना बड़ा निर्णय किस आकलन पर आधारित था?
आर्थिक समीक्षा की मानें तो करेंसी नोटों का सॉयल रेट (नोटों के गंदे होने और कटने-फटने की दर) इस फैसले का आधार था. सॉयल रेट नोटों के इस्तेमाल की जानकारी देता है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, 500 रु. से नीचे के मूल्य वाले नोट में सॉयल रेट 33 फीसदी सालाना है यानी 33 फीसदी गंदे कटे-फटे नोट हर साल बदल जाते हैं. 500 रु. के नोट में सॉयल रेट 22 और 1000 रु. के नोट में 11 फीसदी है.
समीक्षा ने दुनिया के अन्य देशों में सॉयल रेट को भारत में बड़े नोटों के प्रचलन पर लागू करते हुए निष्कर्ष निकाला है कि नोटबंदी से पहले करीब 3 लाख करोड़ रु. के बड़े नोट ऐसे थे जिनका भरपूर इस्तेमाल लेन-देन में नहीं होता था. इस राशि को क्या काली नकदी माना जा सकता है जो जीडीपी के दो फीसदी के बराबर है?
इस सवाल पर समीक्षा मौन है अलबत्ता वह नकदी के दो आयाम बताती है.
सफेद धनः रसीद काटकर और टैक्स की घोषणा के बाद कर्मचारियों को दिया गया नकद वेतन या घरों में आकस्मिकता के लिए रखा गया धन.
काला धनः छोटी कंपनियां या व्यापारी नकद में धन रखते हैं और चुनाव में चंदा देते हैं. 
निशाना!
बजट के आंकड़े नोटबंदी के निशाने पर बैठने का प्रमाण नहीं देते. टैक्स के आंकड़ों में एकमुश्त कोई बहुत बड़ी रकम मिलने का आकलन नहीं है, अलबत्ता आंकड़े इतना जरूर बताते हैं कि आयकर संग्रह में बढ़त की दर तेज रहेगी. नोटबंदी के बाद एडवांस टैक्स भुगतान लगभग 35 फीसदी बढ़ा है. अगले साल आयकर संग्रह में लगभग 25 फीसदी की बढ़त की उम्मीद है. यदि आकलन सही उतरे तो दो साल में करीब 1.5 लाख करोड़ रु. का अतिरिक्त आयकर मिल सकता है.
रिजर्व बैंक ने नहीं बताया है कि बड़े नोटों में कितना धन बैंकिंग सिस्टम से बाहर रह गया है इसलिए रिजर्व बैंक से मोटा लाभांश मिलने का आकलन उपलब्ध नहीं है
नुक्सान 
''नोटबंदी से नहीं कोई मंदी" का दम भरने के बावजूद सरकार ने मान लिया है कि ग्रोथ की गाड़ी पटरी से उतर गई है. आर्थिक समीक्षा बताती है कि नोटबंदी के चलते इस साल आर्थिक विकास दर में करीब एक फीसदी (पिछले साल 7.6) की गिरावट होगी. अगले साल भी विकास दर सात फीसदी से नीचे रहेगी. नोटबंदी से रोजगार घटा है, खेती में आय को चोट लगी है और नकद पर आधारित असंगठित क्षेत्र में बड़ा नुक्सान हुआ, लेकिन इसके आंकड़े सरकार के पास उपलब्ध नहीं हैं.
सरकार मान रही है कि नकदी का प्रवाह सामान्य होने के बाद बैंकों से जमा तेजी से बाहर निकलेगी, नोटबंदी से सरकार-रिजर्व बैंक की साख को धक्का लगा है और लोगों में भविष्य के प्रति असमंजस बढ़ा है.
हिसाब-किताब
नोटबंदी मौद्रिक फैसला था इसलिए फायदे-नुक्सान को आंकड़ों में नापना होगा. बजट और समीक्षा को खंगालने पर हमें इसके सिर्फ दो ठोस आंकड़े मिलते हैं.
फायदा
नोटबंदी के बाद इस साल के चार महीनों में और अगले साल के दौरान आयकर संग्रह में लगभग 1.5 लाख करोड़ रु. की बढ़त हो सकती है.
नुक्सान  
2016-17 में नोटबंदी से जीडीपी में एक फीसदी की कमी आएगी जो कि 1.5 लाख करोड़ रु. के आसपास है. रिजर्व बैंक के लिए नोटों की छपाई की लागत और बाजार में नकदी का प्रवाह संतुलित करने के लिए जारी बॉन्डों पर ब्याज को भी इसमें जोडऩा होगा.

अगर परोक्ष नुक्सान को गिनती में न लिया जाए तो  भी आयकर राजस्व में बढ़ोतरी का अनुमान जीडीपी के नुक्सान के बिल्कुल बराबर है.

बाकी आप खुद समझदार हैं.


Tuesday, May 24, 2016

असर तो है मगर !


काले धन पर रोक की कोशिशों के शुरुआती नतीजे नकारात्‍मक हैं लेकिन सरकार ने उन पर टिके रहने की हिम्‍मत दिखाई है 

जोखिम उठाए बिना बड़े तो दूर, छोटे बदलाव भी संभव नहीं हैं, कम से कम गवर्नेंस पर यह पुरानी सूझ पूरी तरह लागू होती है. दो साल की लानत-मलामत के बाद मोदी सरकार अंततः नपे-तुले जोखिम लेने लगी है. हमारा संकेत उन कदमों की तरफ है जो काले धन की अर्थव्यवस्था पर रोक को लेकर पिछले एक साल में उठाए गए हैं. हालांकि उनके शुरुआती नतीजे नकारात्मक रहे हैं लेकिन इसके बावजूद सरकार ने उन पर टिके रहने की हिम्मत दिखाई है.  वित्तीय पारदर्शिता को लेकर पिछले एक साल में तीन बड़े फैसले हुए, जो नकद लेन-देन सीमित करने, सर्राफा बाजार को नियमों में बांधने और शेयर बाजार के जरिए काले धन की आवाजाही पर सख्ती करने से जुड़े हैं. इन तीनों कदमों के प्रारंभिक नतीजे वित्तीय और राजनैतिक चुनौती बनकर सामने आए लेकिन शुक्र है कि सरकार ने प्रॉविडेंट फंड की तरह कोई पलटी नहीं मारी और जोखिम से जूझने की हिम्मत दिखाई है.
इस साल अप्रैल में आए रिजर्व बैंक के एक आंकड़े ने बैंकों और अर्थशास्त्रियों का सिर चकरा दिया. रिजर्व बैंक ने बताया कि वित्तीय सिस्टम में नकदी का प्रवाह अचानक तेजी से बढ़ा है, जिसे तकनीकी शब्दों में करेंसी इन सर्कुलेशन कहा जाता है. यही वह नकदी है जिसे हम जेब में रखते हैं. 20 मार्च, 2016 तक मौद्रिक प्रणाली में नकदी का स्तर 16.7 खरब (ट्रिलियन) रुपए पहुंच गया जो पिछले साल मार्च में 14.8 खरब (ट्रिलियन) पर था. यह बढ़ोतरी करीब 2 खरब (ट्रिलियन) रु. की है. 2015-16 में करेंसी इन सर्कुलेशन की वृद्धि दर 15.4 फीसदी दर्ज की गई जो पिछले साल केवल 10.7 फीसदी थी. सिर्फ यही नहीं, अप्रैल, 2015 से जनवरी, 2016 के बीच एटीएम से निकासी में भी भारी बढ़ोतरी दर्ज किए जाने के आंकड़ों ने इस नकद कथा के रहस्य को और गहरा दिया.
नकदी में बढ़ोतरी पर रिजर्व बैंक गवर्नर को भी हैरत हुई. अर्थव्यवस्था में ऐसा कोई कारण नहीं था जो ऐसा होने की वजह बनता. मुद्रास्फीति न्यूनतम स्तर पर है, बाजार में मांग नदारद है, अचल संपत्ति का कारोबार ठप है तो फिर लोग कैश लेकर क्यों टहल रहे हैं? खास तौर पर उस दौर में जब इलेक्ट्रॉनिक और मोबाइल बैंकिंग गति पकड़ रही है और सरकार भी बैंकिंग सिस्टम के जरिए ही लोगों को सब्सिडी पहुंचाने की कोशिश में है.
बैंकिंग विशेषज्ञ इशारा कर रहे हैं कि बड़े नकद लेन-देन पर सख्ती, सिस्टम में नकदी बढ़ने की प्रमुख वजह हो सकती हैं. पिछले बजट में अचल संपत्ति सौदों में 20,000 रु. से ज्यादा के नकद एडवांस पर रोक लगा दी गई थी और एक लाख रु. से ऊपर की किसी भी खरीद-बिक्री पर पैन (इनकम टैक्स का परमानेंट एकाउंट नंबर) दर्ज करना भी अनिवार्य किया गया था. इस साल जनवरी में आयकर विभाग ने किसी भी माध्यम से दो लाख रु. से अधिक के लेन-देन पर पैन का इस्तेमाल जरूरी बना दिया और गलत पैन नंबर पर सात साल तक की सजा अधिसूचित कर दी. इसके साथ ही दो लाख रुपए से ऊपर की ज्वेलरी खरीद पर भी पैन बताने की शर्त लगा दी गई. इन फैसलों ने काले धन की नकद अर्थव्यवस्था पर चोट की है. रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, सिस्टम में नकदी की बढ़ोतरी नवंबर, 2015 से शुरू हुई जो, जनवरी, 2016 में काले धन पर सख्ती के आदेश लागू होने तक सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई, यानी लोग सख्ती से बचने के लिए नवंबर से नकदी जुटाने में लग गए थे.
नकद कारोबार कालेधन को सफेद करने का बड़ा जरिया है जिसे रोकने की कोशिशें असर तो कर रही हैं लेकिन इसका शुरुआती बुरा प्रभाव बैंकों पर पड़ा है, जहां जमा की वृद्धि दर 50 साल के सबसे निचले स्तर पर है. कारोबारी लेन-देन का बड़ा हिस्सा बैंकों से बाहर होता दिख रहा है. सरकार ने बैंक जमा घटने का जोखिम उठाते हुए नकद लेन-देन पर सख्ती बरकरार रखी है लेकिन अब बैंकों में जमा को प्रोत्साहन देने की जरूरत है क्योंकि बैंक भारी दबाव में हैं.

2010 में काले धन पर संसद में पेश श्वेत पत्र में सरकार ने माना था कि सोने और आभूषण कारोबार का एक बहुत बड़ा हिस्सा सरकारी तंत्र की नजरों से ओझल रहता है. यह कारोबार, अचल संपत्ति के बाद भारत में काले धन का सबसे बड़ा ठिकाना है. इस पर टैक्स की दर न्यूनतम है इसलिए यह धंधा गांवों तक फैला है. वित्त मंत्री ने इस बजट में जब सोने के आभूषणों पर एक फीसदी की एक्साइज ड्यूटी लगाई तो मकसद राजस्व जुटाना नहीं बल्कि इस कारोबार को टैक्स की रोशनी में लाना था.
इस फैसले के बाद हड़ताल हुई जो व्यापक राजनैतिक नुक्सान की वजह बनी, क्योंकि आभूषण कारोबारी बीजेपी के पारंपरिक वोटर हैं, लेकिन वित्त मंत्री ने इस जोखिम के बावजूद न केवल फैसला कायम रखा बल्कि स्वीकार किया कि देश में सोने-चांदी पर टैक्स की दर अनुचित रूप से कम है. इस सख्ती का नतीजा है कि सोने-चांदी के कारोबार पर ग्राहक (ज्वेलरी खरीद पर पैन का नियम) और विक्रेता (एक्साइज ड्यूटी) दोनों तरफ से शिकंजा कस गया है.
तीसरा बड़ा फैसला बीते सप्ताह हुआ है, जब सरकार ने दोहरा कराधान टालने की संधि को सख्त करते हुए दुरुपयोग के रास्ते सीमित करने पर मॉरिशस से सहमति बनाई. भारत में टैक्स से बचने के लिए मॉरिशस के जरिए शेयर बाजारों में बड़ा निवेश होता है, जिसमें बड़े पैमाने पर काले धन की आवाजाही होती है. कर संधियों का दुरुपयोग रोकने और उन्हें पारदर्शी बनाने की कोशिशें काफी समय से लंबित थीं. भारत ने करीब 80 देशों के साथ ऐसी संधियां की हैं जिन्हें आधुनिक बनाया जाना है. संधियों को बदलने का फैसला तात्कालिक तौर पर देश के शेयर बाजार में निवेश को प्रभावित करेगा लेकिन सरकार ने इस जोखिम को स्वीकार करते हुए यह ऑपरेशन शुरू किया है.

काले धन को लेकर बेसिर-पैर के चुनावी वादे पर फजीहत झेलने के बाद मोदी सरकार ने ठोस कदमों के साथ आगे बढ़ने का साहस दिखाया है, जो पिछले दो साल की कम चर्चित लेकिन प्रमुख उपलब्धि है. उम्मीद की जानी चाहिए कि यह संकल्प आगे बना रहेगा, क्योंकि काले धन से लड़ाई लंबी और पेचीदा है जिसमें कई आर्थिक और राजनैतिक चुनौतियां सरकार का इंतजार कर रही हैं.