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Friday, July 26, 2019

डर के आगे जीत है


ऐसा अक्सर नहीं होता जब प्रत्येक उदारीकरण और विदेशी मेलजोल पर बिदकने वाले स्वदेशी और अर्थव्यवस्था को खोलने के परम पैरोकार उदारवादी एक ही घाट पर डुबकी लगाते नजर आएं.

मोदी सरकार का फैसला है कि भारत अब बॉन्ड के जरिए विदेशी बाजारों से कर्ज लेगा. ये बॉन्ड भारत की संप्रभु साख (सॉवरिन रेटिंग) पर आधारित होंगे. इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था. सरकार के विचार परिवार वाले रूढ़िवादी स्वदेशियों को लगता है कि इससे आसमान फट पड़ेगा और उदारवादियों को लगता है कि सुर्खियां बटोरने के शौक में मोदी सरकार एक गैर-जरूरी कोशिश कर रही है जो मुश्किल में डालेगी.

दोनों ही बेमतलब डरा रहे हैं. जबकि इस डर के आगे जीत है. यहां से एक बड़े सुधार की शुरुआत हो सकती है.

विदेशी कर्ज भारत के लिए नया नहीं है. सरकार को बहुपक्षीय संस्थाओं (विश्व बैंक, एडीबी) और देशों (जैसे बुलेट ट्रेन के लिए जापान) से कर्ज मिलता रहा है. यह कर्ज देशों या संस्था और देश के बीच होता है. कर्ज बाजार का इस पर कोई असर नहीं होता. भारतीय  कंपनियां अपनी साख के बदले दुनिया भर से कर्ज लेती हैं, जो सरकार के खाते में दर्ज नहीं होता.
सरकार के अधिकांश कर्ज देश के भीतर से आते हैं और रुपए में होते हैं. यह कर्ज डॉलर में होगा और डॉलर में ही चुकाना होगा. डॉलर महंगा होने से यह कर्ज बढ़ेगा.

दुनिया के अन्य देशों की तरह, जो विश्व के बाजारों से कर्ज लेते हैं, भारत की साख की रेटिंग होगी. भारत के बॉन्ड दुनिया के बाजारों में सूचीबद्ध होंगे.

भारत शुरुआत में केवल कुल दस अरब डॉलर जुटाना चाहता है. फायदा यह कि यह कर्ज घरेलू बाजार की तुलना में लगभग आधी लागत पर मिलेगा. इस बॉन्ड के बाद देशी बाजार से सरकार कुछ कम कर्ज लेगी.

इस पहल से भारत को तत्काल कोई खतरा नहीं है. इस तरह के विदेशी कर्ज, जोखिम के जिन पैमानों पर मापे जाते हैं, उनमें भारत की स्थिति बेहतर है. जीडीपी के अनुपात में भारत का कुल संप्रभु विदेशी कर्ज केवल 3.8 फीसद है. विदेशी मुद्रा (428 अरब डॉलर) कर्ज अनुपात भी 75 फीसद के बेहतर स्तर पर है.

इस तरह के बॉन्ड के मामले में भारत की तुलना ब्राजील, चीन, इंडोनेशिया, मेक्सिको, फिलीपींस और थाईलैंड से होनी चाहिए. भारत की कुल आय के अनुपात में विदेशी कर्ज 19.8 फीसद (इंडोनेशिया, मेक्सिको 35 फीसद से ज्यादा) है. इसमें संप्रभु गांरटी पर लिया गया विदेशी कर्ज तो चीन व थाईलैंड की तुलना में बहुत कम है.

स्वदेशी और वामपंथी तो 1991 और 95 में भी डरा रहे थे लेकिन भारत अगर उदारीकरण न करता तो ज्यादा बड़ा नुक्सान होता. डराने वालों को खबर हो कि भारत में भरपूर विदेशी पूंजी पहले से है. शेयर बाजारों में विदेशी निवेश (433 अरब डॉलर) और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआइ (325 अरब डॉलर), दरअसल सरकार (309 अरब डॉलर) और कंपनियों पर कुल विदेशी कर्ज (104 अरब डॉलर)  से भी ज्यादा है.

इसलिए दस अरब डॉलर के सॉवरिन कर्ज से प्रलय नहीं आ जाएगी, बल्कि अगर मोदी सरकार इस फैसले पर आगे बढ़ती है तो एक बड़ी आर्थिक पारदर्शिता उभरेगी. भारत को पहली बार ग्लोबल डॉलर सूचकांक का हिस्सा बनना होगा. इस दर्जे की बड़ी कीमत है और जोखिम भी.

भारत सरकार को अपने सभी वित्तीय आंकड़े पारदर्शी करने होंगे और घाटा या कर्ज छिपाने की आदत छोड़नी होगी. सरकार हमें केंद्र और राज्यों के कर्ज व घाटे की आधी अधूरी तस्वीर दिखाती है. बैंकों के एनपीए, एनबीएफसी का कर्ज, बजट से बाहर रखे जाने वाले कर्ज जैसे छोटी बचत स्कीमें या सरकारी कंपनियों पर लदा कर्ज, क्रेडिट कार्ड आदि के कर्ज, सरकारी कंपनियों का घाटा...दुनिया के निवेशकों अब आर्थिक सेहत की कोई भी जानकारी छिपाना महंगा पड़ेगा.

इस बॉन्ड से मिलने वाली राशि नहीं बल्कि यह महत्वपूर्ण होगा कि भारत अपने जोखिम का प्रबंधन कैसे करता है अब पूरी दुनिया को वित्तीय पारदर्शिता का विश्वास दिलाना होगा जिसके आधार पर भारत की संप्रभु साख तय होगी जो बताएगी कि दुनिया के बाजार में हम कहां खड़े हैं. जो रेटिंग हमें विदेश में मिलेगी, देश का बाजार भी उसी हिसाब से कर्ज देगा.
ग्रीस, तुर्की, अर्जेंटीना, थाईलैंड, ब्राजील के जले निवेशक अब किसी को बख्शते नहीं हैं. बदहाल आर्थिक प्रबंधन के कारण इन मुल्कों को बॉन्ड बाजार में बड़ी सजा झेलनी पड़ी. सनद रहे कि ग्रीस इसलिए डूबा क्योंकि उसने अपना घाटा छिपाया था. बॉन्ड बाजार झूठ से सबसे ज्यादा बिदकता है.

अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के सलाहकार जेम्स कारविल कहते थे कि अगर मुझे दोबारा अवतार मिले तो मैं राष्ट्रपति या पोप नहीं बल्कि बॉन्ड मार्केट बनूंगा, जो हर किसी को डरा सकता है.

बॉन्ड आने दीजिए, दुनिया का डर ही भारत सरकार को अपने तौर-तरीके बदलने में मदद करेगा.

Monday, February 6, 2017

ट्रंप बिगाड़ देंगे बजट

पिछले दो दशक में दुनिया के सभी आर्थिक उथल पुथल की तुलना में ट्रंप भारत की ग्‍लोबल सफलताओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन रहे हैं

सात-आठ साल पहले अटलांटा (जॉर्जियाअमेरिका) में कोका कोला के मुख्यालय की यात्रा के दौरान मेरे लिए सबसे ज्यादा अचरज वाला तथ्य यह था कि इस ग्लोबल अमेरिकी दिग्गज की करीब पंद्रह सदस्यीय ग्लोबल शीर्ष प्रबंधन टीम में छह लोग भारतीय थे. तब कोका कोला की भारत में वापसी को डेढ़ दशक ही बीता था और सिलिकॉन वैली में भारतीय दक्षता की कथाएं बनना शुरू ही हुई थीं. इसके बाद अगले एक दशक में दुनिया के प्रत्येक बड़े शहर के सेंट्रल बिजनेस डिस्ट्रिक्टयुवा भारतीय प्रोफेशनल्स की मौजूदगी से चहकने लगे क्योंकि भारत के दूरदराज के इलाकों में सामान्य परिवारों के युवा भी दुनिया में बड़ी कंपनियों में जगह बनाने लगे थे.
भारत की यह उड़ान उस ग्लोबलाइजेशन का हिस्सा है जिस पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मंडराने लगे हैं.
बजटोत्तर अंक में ट्रंप की चर्चा पर चौंकिए नहीं!
बजट तो खर्च हो गया. कभी-कभी सरकार कुछ न करे तो ज्यादा बेहतर होता है. इस बजट में सरकार ने कुछ भी नहीं कियाकोई पॉलिसी एडवेंचरिज्म (नीतिगत रोमांच) नहीं. नोटबंदी के घावों को वक्त के साथ भरने के लिए छोड़ दिया गया है. इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था की बड़ी चिंता फीका बजट नहीं बल्कि एक अति आक्रामक अमेरिकी राष्ट्रपति है जो भारत की सफलताओं पर भारीबहुत भारी पडऩे वाला है.
पिछले 25 साल के आंकड़े गवाह हैं कि अगर भारत ग्लोबल अर्थव्यवस्था से न जुड़ा होता तो शायद विकास दर चार-पांच फीसद से ऊपर न निकलती. ग्लोबलाइजेशन भारतीय ग्रोथ में लगभग एक-तिहाई हिस्सा रखता है.
भारत की ग्रोथ के तीन बड़े हिस्से अंतरराष्ट्रीय हैं. 
पहलाः भारत में विदेशी निवेशजो बड़ी कंपनियांतकनीकइनोवेशन और रोजगार लेकर आया है.
दूसराः भारतवंशियों को ग्लोबल कंपनियों में रोजगार और सूचना तकनीक निर्यात.
तीसराः ारतीय शेयर बाजार में विदेशी निवेशकों का भरपूर निवेश.
डोनाल्ड ट्रंप इन तीनों के लिए ही खतरा हैं. 
विदेशी निवेश (डिग्लोबलाइजेशन)
दुनिया की दिग्गज कंपनियों का 85 फीसदी ग्लोबल निवेश 1990 के बाद हुआ. इसमें नए संयंत्रों की स्थापनानए बाजारों को निर्यातमेजबान देशों की कंपनियों का अधिग्रहण शामिल था. भारत सहित उभरती अर्थव्यवस्थाएं इस निवेश की मेजबान थीं. इसलिए 1995 के बाद से दुनिया के निर्यात में उभरती अर्थव्यवस्थाओं का हिस्सा और चीन-भारत का विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ता चला गया. बहुराष्ट्रीय निवेश का यह विस्तार और भारत का उदारीकरण एक तरह से सहोदर थे इसलिए दुनिया की हर बड़ी कंपनी ने भारतीय बाजार में निवेश किया.
ट्रंप डिग्लोबलाइजेशन के नए पुरोधा हैं. उनकी धमक से बाद भारत में सक्रिय बहुराष्ट्रीय कंपनियों की विस्तार योजनाएं व नए निवेश टल रहे हैं. अमेरिका अगर अपना बाजार बंद करेगा तो दुनिया के अन्य देश भी ऐसी ही प्रतिक्रिया करेंगे. अर्थव्यवस्थाएं संरक्षणवाद की राह पकड़ लेंगी और संरक्षणवाद की नीति युद्ध नीति जैसी होती हैजैसा कि ऑस्ट्रियन अर्थशास्त्री लुडविग वॉन मिसेस मानते थे. सरकार की ताजा आर्थिक समीक्षा भी ट्रेड वार के खतरे की घंटी बजा रही है.
रोजगार (संरक्षणवाद)
भारत के नए मध्यवर्ग की अगुआई सूचना तकनीक ने की है. कंप्यूटरों ने न केवल जिंदगी बदली बल्कि नई पीढ़ी को रोजगार भी दिया. आउटसोर्सिंग पर ट्रंप का नजला गिरने और नए वीजा नियमों के बाद भारत के हजारों मध्यमवर्गीय परिवारों में चिंता गहरा गई है. अमेरिकी वीजा दोबारा मिलना और वहां नौकरी मिलना तो मुश्किल है हीवीजा रहने तक भारत आकर वापस अमेरिका लौटना भी मुश्किल होने वाला है.
सूचना तकनीक व फार्मा भारत की सबसे बड़ी ग्लोबल सफलताएं हैंजो न केवल भारत में विदेशी निवेश लाईं बल्कि बड़े पैमाने पर प्रोफेशनल की कमाई (रेमिटेंस) भी भारत आई जो बाजार में मांग का आधार है. अगले दो साल के भीतर प्रशिक्षित मगर बेकार लोगों की जो भीड़ विदेश से वापस लौटेगी उसके लिए नौकरियां कहां होंगी?
मजबूत डॉलर (शेयर बाजार)
कमजोर डॉलर और सस्ते कर्ज ने भारत के शेयर बाजार को दुनिया भर के निवेशकों का दुलारा बना दिया. सन् 2000 के बाद भारत के वित्तीय बाजार में करीब दस लाख करोड़ रु. का विदेशी निवेश आया. लेकिन ट्रंप के आगमन के साथ ही अमेरिका में ब्याज दरें बढऩे लगीं. ट्रंप की व्यापार व बजट नीतियां डॉलर की मजबूती की तरफ इशारा करते हैं जो रुपए की कमजोरी की वजह बनेगा और भारत के वित्तीय निवेश पर असर डालेगा. यही वजह है कि इस बार शेयर बाजार मोदी के बजट के बजाए ट्रंप के फैसलों को लेकर ज्यादा फिक्रमंद थे.
भारत के लिए जब आक्रामक उदारीकरण के जरिए ग्लोबलाइजेशन के बचे-खुचे मौके समेटने की जरूरत थी तब वित्त मंत्री एक रक्षात्मक बजट लेकर आए हैं जो ग्लोबल चुनौतियों को पीठ दिखाता लग रहा है.

Monday, November 24, 2014

मोदी के भारतवंशी


भारतवंशियों पर मोदी के प्रभाव को समझने के लिए शेयर बाजार को देखना जरुरी है. यहां इस असर की ठोस पैमाइश हो सकती है. इन अनिवासी भारतीय पेश्‍ोवरों की अगली तरक्की, अब प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत की सफलता से जुड़ी है.
मोदी सरकार बनाने जा रहे हैं इसमें रत्ती भर शक नहीं है. आप यह बताइए कि आर्थिक सुधारों पर स्वदेशी के एजेंडे का कितना दबाव रहेगा?” यह सवाल भारतीय मूल के उस युवा फंड मैनेजर का था जो इस साल मार्च में मुझे हांगकांग में मिला था, जब नरेंद्र मोदी का चुनाव अभियान में देश को मथ रहा था. वन एक्सचेंज स्क्वायर की गगनचुंबी इमारत के छोटे-से दफ्तर से वह, ऑस्ट्रेलिया और जापान के निवेशकों की भारी पूंजी भारतीय शेयर बाजार में लगाता है. हांगकांग की कुनमुनी ठंड के बीच इस 38 वर्षीय फंड मैनेजर की आंखों में न तो भावुक भारतीयता थी और न ही बातों में सांस्कृतिक चिंता या जड़ों की तलाश, जिसका जिक्र विदेश में बसे भारतवंशियों को लेकर होता रहा है. वह विदेश में बसे भारतवंशियों की उस नई पेशेवर पीढ़ी का था जो भारत की सियासत और बाजार को बखूबी समझता है और एक खांटी कारोबारी की तरह भारत की ग्रोथ से अपने फायदों को जोड़ता है. भारतवंशियों की यह प्रोफेशनल और कामयाब जमात प्रधानमंत्री मोदी की ब्रांड एंबेसडर इसलिए बन गई है क्योंकि उनके कारोबारी परिवेश में उनकी तरक्की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत की सफलता से जुड़ी है. यही वजह है कि भारत को लेकर उम्मीदों की अनोखी ग्लोबल जुगलबंदी न केवल न्यूयॉर्क मैडिसन स्क्वेयर गार्डन और सिडनी के आलफोंस एरिना पर दिखती है बल्कि इसी फील गुड के चलते, शेयर बाजार बुलंदी पर है. इस बुलंदी में उन पेशेवर भारतीय फंड मैनेजरों की बड़ी भूमिका है जिनमें से एक मुझे हांगकांग में मिला था.
भारत के वित्तीय बाजारों में विदेशी निवेश की एक गहरी पड़ताल उन मुट्ठी भर भारतीयों की ताकत बताती है जो मोदी की उम्मीदों के सहारे

Tuesday, September 16, 2014

चीन का डिजिटल डिजाइन


पिछले साल नवंबर में जबभारत की सियासत बड़े परिवर्तन के लिए पर तोल रही थी, ठीक उसी वक्त बीजिंग में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपने तीसरे प्लेनम में राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ अर्थव्यवस्था को रिफ्रेश करने की जुगत में लगी थी. चीन के सुधार पुरोधा देंग जियाओपिंग ने आर्थिक सुधारों को चीन की (माओ की क्रांति के बाद) दूसरी क्रांति भले ही कहा हो लेकिन देंग से जिनपिंग तक आते-आते 35 साल में चीनी नेतृत्व को यह एहसास हो गया कि ज्यादा घिसने से सुधारों का मुलम्मा भी छूट जाता है. इसलिए कम्युनिस्ट पार्टी की महाबैठक से सुधारों का जो नया एजेंडा निकला वह ‘‘मेड इन चाइना’’ की ग्लोबल धमक पर नहीं बल्कि देश की भीतरी तरक्की पर केंद्रित था. दुनिया अचरज में थी कि विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अपनी देसी इकोनॉमी में ऐसा क्या करने वाली है जिससे 1.35 अरब लोगों की आय में बढ़ोतरी होती रहेगी? संयोग से राष्ट्रपति जिनपिंग के दिल्ली पहुंचने से पहले दुनिया को चीन की ‘‘तीसरी क्रांति’’ के एजेंडे का मोटा-मोटा खाका मिल गया है. चीन 2025 तक अपने जीडीपी को दोगुना करने वाला है. यह करिश्मा इंटरनेट इकोनॉमी से होगा
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Monday, January 20, 2014

गति से पहले सुरक्षा

मंदी से उबरी दुनिया में अब तेज ग्रोथ के चमत्‍कार नहीं होंगे बल्कि सफलता का आकलन इस पर होगा कि कौन कितना निरंतर व सुरक्षित है

ड़ी खबर यह नहीं है कि पांच साल पुराने ग्‍लोबल वित्‍तीय संकट के समापन का आधिकारिक ऐलान हो गया है बल्कि ज्‍यादा बड़ी बात यह है कि दुनिया ने अब बहुत तेज दौड़ने यानी ग्रोथ की धुआंधार रफ्तार से तौबा कर ली है। 2008 से पहले तक ग्रोथ की उड़न तश्‍तरी पर सवार ग्‍लोबल अर्थव्‍यवस्‍था अब धीमे व ठोस कदमों से चलने की शपथ ले रही है। यही वजह है कि बीते सप्‍ताह जब विश्‍व बैंक ने दुनिया के मंदी से उबरने का ऐलान किया तो बाजार उछल नहीं पड़े और न ही अमेरिका में ग्रोथ चमकने, यूरोप का ढहना रुकने, जापान की वापसी और भारत चीन में माहौल बदलने के ठोस संकेतों से आतिशबाजी शुरु हो गई। बल्कि विश्‍व के आर्थिक मंचों से नसीहतों की आवाजें और मुखर हो गईं जिनमें यह संदेश साफ था कि अगर सुधारों को आदत नहीं बनाया गया तो आफत लौटते देर नहीं लगेगी। खतरनाक गति नहीं बल्कि सुरक्षित निरंतरता, वित्‍तीय बाजारों का नया सूत्र है और मंदी के पार की दुनिया इसी सूत्र की रोशनी में आगे बढ़ेगी।
2014 का पहला सूरज सिर्फ साल बदलने का संदेश नहीं लाया था बल्कि यह पांच साल लंबे दर्द और पीड़ा की समाप्ति का ऐलान भी था। विश्‍व बैंक के आंकड़ों की  रोशनी में  अर्थव्यवस्‍था की ग्‍लोबल तस्वीर भरोसा जगाती है। इस साल दुनिया की विकास दर 3.2 फीसद रहेगी, जो बीते साल 2.4 फीसद थी। 2008-09 के बाद यह पहला मौका है जब दुनिया में ग्रोथ के तीनों बड़े इंजनों, अमेरिका, जापान और यूरोप में गुर्राहट लौटी है।

Monday, October 1, 2012

बड़े दांव और गहरे जोखिम



ह इतिहास बनते देखने का वक्‍त है, जो आर या पार के मौके पर बनता है। दोहरी मंदी और वित्‍तीय संकटों की अभूतपूर्व त्रासदी में खौलते अटलांटिक के दोनों किनारों में ऐतिहासिक फैसले शुरु हो गए हैं। यूरोप और अमेरिका में ग्रोथ को वापस लाने की निर्णायक मुहिम शुरु हो चुकी है। जिसकी कमान सरकारों के नहीं बल्कि प्रमुख देशों के केंद्रीय बैंकों के हाथ है। अमेरिकी फेड रिजर्व और यूरोपीय केंद्रीय बैंक अब मंदी और संकट से मुकाबले के आखिरी दांव लगा रहे हैं। केंद्रीय बैंकों के नोट छापाखाने ओवरटाइम में काम करेंगे। मंदी को बहाने के लिए बाजार में अकूत पूंजी पूंजी छोड़ी जाएगी। यह एक नया और अनदेखा रास्‍ता है जिसमें कौन से मोड और मंजिले आएंगी, कोई नहीं जानता। क्‍या पता मंदी भाग जाए या फिर यह भी सकता है कि  सस्‍ते डॉलर यूरो दुनिया भारत जैसी उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं के बाजार में पहुंच कर नई धमाचौकड़ी मचाने लगें। या ग्‍लोबल महंगाई नई ऊंचाई छूने लगे। .... खतरे भरपूर हैं क्‍यों कि इतने बड़े जोखिम भी रोज रोज नहीं लिये जाते।
पूंजी का पाइप 
बीते 15 सितंबर को दुनिया के बाजारों में लीमैन ब्रदर्स की तबाही की चौथी बरसी अलग ढंग से मनाई गई। फेड रिजर्व के मुखिया बेन बर्नांके ने अमेरिका के ताजा इतिहास का सबसे बड़ा जोखिम लेते हुए बाजार में हर माह 40 अरब डॉलर झोंकने का फैसला किया, यानी क्‍वांटीटिव ईजिंग का तीसरा दौर। तो दूसरी तरफ यूरोपीय सेंट्रल बैंक ने कर्ज संकट में ढहते यूरोपीय देशों के बांड खरीदने का ऐलान कर दिया। बैंक ऑफ जापान  ने भी बाजार में पूंजी का पाइप खोल दिया। इन खबरों से शेयर बाजार जी उठे और यूरोप और अमेरिका के बांड निवेशकों के चेहरे खिल गए।
अमेरिका को मंदी से उबारने के लिए शुरु हुआ फेड रिजर्व का आपरेशन ट्विस्‍ट कई मामलों में अनोखा और क्रांतिकारी है। पहला मौका है जब

Monday, November 7, 2011

शिखर पर शून्‍य

हीं, वे कुछ नहीं कर सके!! झूठी मुस्‍कराहटों में खिसियाहट छिपाते हुए जी20 की बारात कांस से अपने डेरों को लौट गई है। 1930 की मंदी के बाद सबसे भयानक हालात से मुखातिब है दुनिया को अपने  रहनुमाओं कर्ज संकट और मंदी रोकने की रणनीति तो छोडि़ये, एकजुटता, साहस, दूरंदेशी, रचनात्‍मकता, नई सोच तक नहीं मिली। जी20 की जुटान शुरु से अंत तक इतनी बदहवास थी कि कि शिखर बैठक का 32 सूत्रीय बयान दुनिया के आर्थिक परिदृश्‍य पर उम्‍मीद की एक रोशनी भी नहीं छोड़ सका। इस बैठक के बाद यूरो जोन बिखराव और राजनीतिक संकट के कई कदम करीब खिसक गया है। इटली आईएमएफ के अस्‍पताल में भर्ती हो रहा है और जबकि ग्रीस के लिए ऑक्‍सीजन की कमी पड़ने वाली है। तीसरी दुनिया ने यूरोप के डूबते अमीरों को अंगूठा दिखा दिया है और मंदी से निबटने के लिए कोई ग्‍लोबल सूझ फिलहाल उपलब्‍ध नहीं है। कांस की विफलता की सबसे त्रासद पहलू यह है कि इससे दुनिया में नेतृत्‍व का अभूतपूर्व शून्‍य खुलकर सामने आ गया है अर्थात दुनिया दमदार नेताओं से खाली है। इसलिए कांस का थियेटर अपनी पूरी भव्‍यता के साथ विफल हुआ है।
डूबता यूरो
देखो लाश जा रही है ! (डेड मैन वाकिंग).. य‍ह टिप्‍पणी किसी ने इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्‍कोनी को देखकर की थी जब वह कांन्‍स की बारिश से बचने के लिए काले ओवरकोट में लिपटे हुए फ्रेंस रिविऐरा रिजॉर्ट ( बैठक स्‍थल) पहुंचे। यह तंज आधे यूरोप के लिए भी फिट था, जो कर्ज में डूबकर अधमरा हो गया है। जी20 ने यूरोप का घाव खोल कर छोड़ दिया है। बैठक का उद्घघाटन यूरोजोन के बिखरने की चेतावनी के साथ हुआ। ग्रीस ने खुद को उबारने की कोशिशों को राजनीति (उद्धार पैकेज पर जनमत संग्रह) में फंसाकर पूरे यूरोपीय नेतृत्‍व की फजीहत करा दी और यूरो जोन की एकजुटता पर बन आई। ग्रीस का राजनीतिक संकट जब टला तब तक कांन्‍स का मेला उखड़ गया था। यूरोप को सिर्फ यह मिला कि कर्ज के जाल में फंसा इटली आईएमएफ की निगहबानी में आ गया है। जो इटली की गंभीर बीमारी

Monday, October 31, 2011

रहनुमाओं का थियेटर

बाल बाल बचा !!! कौन ? ग्रीस ? नहीं यूरोप अमेरिका को चलाने वाला एंग्‍लो सैक्‍सन आर्थिक मॉडल। ग्रीस अगर दिनदहाडे़ डूब जाता तो पूरा जी 20 ही बेसबब हो जाता। ग्रीस की विपत्ति टालने के लिए यूरोप में बैंकों की बलि का उत्‍सव शुरु हो गया है। बैंकों से कुर्बानी लेकर अटलांटिक के दोनों किनारों पर (अमेरिकी यूरोपीय) सियासत ने अपनी इज्‍जत बचा ली है नतीजतन ओबामा-मर्केल-सरकोजी-कैमरुन (अमेरिका, जर्मन फ्रांस, ब्रिटेन राष्‍ट्राध्‍यक्षों) की चौकडी जी 20 की कान्‍स पंचायत को अपना चेहरा दिखा सकेंगे। ग्रीस राहत पैकेज के बाद फिल्‍मों के शहर कांस (फ्रांस) में विश्‍व संकट निवारण थियेटर का कार्यक्रम बदल गया है। यहां अब भारत चीन जैसी उभरती ताकतों के शो ज्‍यादा गौर से देखे जाएंगे। इन नए अमीरों को यूरोप को उबारने में मदद करनी है और विकसित मुल्‍कों से अपनी शर्तें भी मनवानी हैं। विश्‍व के बीस दिग्‍गज रहनुमाओं के शो पर पूरी दुनिया की निगाहें हैं। कांस का मेला बतायेगा कि विश्‍व नेतृत्‍व ने ताजा वित्‍तीय हॉरर फिल्‍म की सिक्रप्‍ट बदलने की कितनी ईमानदार कोशिश की और यह संकट का यह सिनेमा कहां जाकर खत्‍म होगा।
और ग्रीस डूब गया
यूरोपीय सियासत की चपेट में आर्थिक परिभाषायें बदलने लगी हैं। शास्‍त्रीय अर्थों में मूलधन या ब्‍याज को चुकाने में असफल होने वाला देश संप्रभु दीवालिया (सॉवरिन डिफॉल्‍ट) है। इस हिसाब से बैंकों की कृपा ( तकनीकी भाषा में 50 फीसदी हेयरकट) का मतलब ग्रीस का दीवालिया होना है। मगर यूरोपीय सियासत इसे कर्ज माफी कह रही है। पिछली सदी के सातवें दशक में अर्जेंटीना यही हाल हुआ था और बाजार ने उसे दीवालिया ही माना था। यूरोप व तीसरी दुनिया में यही फर्क है। ग्रीस का ताजा पैकेज 2008 अमेरिकी लीमैन संकट की तर्ज पर है यानी कि बैंकर्ज माफ करेंगे और बाद में सरकारें बैंकों को

Monday, October 3, 2011

पलटती बाजी

ह यूरोप और अमेरिका के संकटों का पहला भूमंडलीय तकाजा था, जो बीते सपताह भारत, ब्राजील, कोरिया यानी उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं के दरवाजे पर पहुंचा। इस जोर के झटके में रुपया, वॉन (कोरिया), रिएल (ब्राजील), रुबल, जॉल्‍टी(पोलिश), रैंड (द.अफ्रीका) जमीन चाट गए। यह 2008 के लीमैन संकट के बाद दुनिया के नए पहलवानों की मुद्राओं का सबसे तेज अवमूल्‍यन था। दिल्‍ली, सिओल, मासको,डरबन को पहली बार यह अहसास हुआ कि अमेरिका व यूरोप की मुश्किलों का असर केवल शेयर बाजार की सांप सीढ़ी तक सीमित नहीं है। वक्‍त उनसे कुछ ज्‍यादा ही बडी कीमत वसूलने वाला है। निवेशक उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं में उम्‍मीदों की उड़ान पर सवार होने को तैयार नहीं हैं। शेयर बाजारों में टूट कर बरसी विदेशी पूंजी अब वापस लौटने लगी है। शेयर बाजारों से लेकर व्‍यापारियों तक सबको यह नई हकीकत को स्‍वीकारना जरुरी है कि उभरती अर्थव्‍यवस्‍थाओं के लिए बाजी पलट रही है। सुरक्षा और रिर्टन की गारंटी देने वाले इन बाजारों में जोखिम का सूचकांक शिखर पर है।
कमजोरी की मुद्रा
बाजारों की यह करवट अप्रत्याशित थी, एक साल पहले तक उभरते बाजार अपनी अपनी मुद्राओं की मजबूती से परेशान थे और विदशी पूंजी की आवक पर सख्‍ती की बात कर रहे थे। ले‍किन अमेरिकी फेड रिजर्व की गुगली ने उभरते बाजारों की गिल्लियां बिखेर दीं। फेड  का ऑपरेशन ट्विस्‍ट, तीसरी दुनिया के मुद्रा बाजार में कोहराम की वजह बन गया। अमेरिका के केंद्रीय बैंक ने देश को मंदी से उबारने के लिए में छोटी अवधि के बांड बेचकर लंबी अवधि के बांड खरीदने का फैसला किया। यह फैसला बाजार में डॉलर छोडकर मुद्रा प्रवाह बढाने की उम्‍मीदों से ठीक उलटा था। जिसका असर डॉलर को मजबूती की रुप में सामने आया। अमेरिकी मुद्रा की नई मांग निकली और भारत, कोरिया, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील के केद्रीय बैंक जब तक बाजार का बदला मिजाज समझ पाते तब तक इनकी मुद्रायें डॉलर के मुकाबले चारो खाने चित्‍त