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Sunday, December 16, 2018

उन्नीस का पहाड़


अगर लोगों ने कर्नाटक में कांग्रेस को पलट दिया तो क्या गारंटी कि वे मध्य प्रदेशराजस्थानछत्तीसगढ़ में भाजपा को नहीं पलटेंगे. अगर लोग सरकारें बदलना चाहते हैं तो कहीं भी बदलेंगे. गुजरात में गोली कान के पास से निकल गई. (अर्थात्इंडिया टुडे16 मई2018)

यही हुआ न! कर्नाटक में लोगों ने कांग्रेस को नकार दिया और मध्य प्रदेशराजस्थानछत्तीसगढ़ में भाजपा को. कर्नाटक में कांग्रेस सत्ता विरोधी वोट पर जीते जद (एस) की पूंछ पकड़ कर वापस लौटी है.

कुछ सवाल उभर रहे हैं

- विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस ने ऐसा क्या कर दिया कि वह हिंदी पट्टी की नूरे-नजर बन गईयही राज्य तो हैंकेंद्र में दस साल तक शासन के बाद जहां (मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) वह जीत के लिए तरस गई और जीता हुआ गढ़ (राजस्थान) गंवा बैठी थी.

- भाजपा का सूर्य तप रहा है लेकिन मोदी और उनके सूबेदार मिलकर एक और एक ग्यारह क्यों नहीं हो सकेपार्टी उन राज्यों में भी हार गई जहां उसकी सरकारें भाजपा के बुरे दिनों में भी चमकती रही थीं और उनका कामकाज भी कमोबेश ठीक ही था.

- छत्तीसगढ़ में मोबाइल फोन मुफ्त बंट रहे थे राजस्थानमध्य प्रदेश बिजली के बिल माफ कर रहे थे लेकिन कुछ भी काम क्यों नहीं आया?

- क्या एक नई सत्ता विरोधी लहर शुरू हो रही है जो किसी को नहीं बख्शेगी?

मोदी-शाह को भी नहीं!

2014 के बाद से देश अलग ढंग से वोट देने लगा है. पिछले दशकों तक मतदाता राज्यों में सरकारों को लगातार दो या तीन तक मौके दे देते थे लेकिन केंद्र में हर पांच साल पर सरकारें पलटती रहीं. 25 वर्षों में केवल यूपीए की पहली सरकार ऐसी थी जिसे लगातार दूसरा मौका मिलाजिसके कारण राजनैतिक की जगह आर्थिक थे. 1991 के बाद भारत में शायद पहली ऐसी सरकार थी जिसके पूरे पांच साल आर्थिक पैमाने पर सामन्यतः निरापद थे. 2009 की जीत में शहरी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की शानदार ग्रोथ बड़ी वजह थी.

अब लोगों पर सरकार बदलने का जुनून तारी है. अपवाद नियम नहीं होते इसलिए बिहारबंगालतेलंगाना (सीमित संदर्भों में गुजरात भी) के जनादेश अस्वाभाविक हैं. इनके अलावापिछले पांच साल में केंद्रराज्यों और यहां तक कि पंचायत- नगरपालिकाओं में भी लोगों ने सत्ता पलट दी.

भाजपा ने इस जुनून पर सवारी की और लगभग हर प्रमुख चुनाव में राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दलों को रौंद दिया. वह कर्नाटक में भी कांग्रेस को हार तक धकेलने में सफल रही. लेकिन सरकार पलटने वाली दूसरी लहर बनते ही गुजरात में लोहा दांत के नीचे आ गया और मध्य व पश्चिम के गढ़वह कांग्रेस ले उड़ी जो कल तक किसी गिनती में नहीं थी.

अगर सत्ता विरोधी मत ही पिछले चार साल का राजनैतिक स्थायी भाव है तो फिर मोदी-शाह भाजपा भारत के ताजा इतिहास की सबसे बड़ी सत्ता विरोधी लहर से मुकाबिल हो रहे हैं.

मोदी-शाह के लिए सरकारों से नाराजगी किसी पिरामिड या पहाड़ की तरह हैजिसके चार स्तर हैं.

देश का मिजाज भांपने वाले तमाम सर्वेक्षणों से इसका अंदाज होता है. इस पिरामिड के शिखर पर बैठे नरेंद्र मोदी सबसे सुरक्षित हैं. 100 में 49 लोग (इंडिया टुडे-देश का मिज़ाजजुलाई 2018 ) उनको प्रधानमंत्री पद के लिए सर्वश्रेष्ठ मानते हैं लेकिन केंद्र में उनकी सरकार से खुश नहीं हैं. सरकार की स्वीकार्यता उनकी अपनी लोकप्रियता की एक-तिहाई है. भाजपा की राज्य सरकारों की स्वीकार्यता तो नगण्य है और पिरामिड की तली पर यानी सबसे नीचेजहां सांसद और विधायक आते हैं वहां तो गुस्सा खदबदा रहा है.

केंद्र व 20 राज्यों और करीब 60 फीसदी जीडीपी पर शासन कर रही भाजपा के लिए सरकार विरोधी लहर एक दुष्चक्र बनाती दिख रही है. लोकसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्रियों व चुनावी नुमाइंदों को बदलने से भितरघात के खतरे हैं. सरकार की साख बनाए रखने के लिए कर्ज माफी जैसे खजाना लुटाऊ दांवजीत की गारंटी हरगिज नहीं हैंअलबत्ता अर्थव्यवस्था की तबाही जरूर तय है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी साख झोंक कर भीसत्ता विरोधी लहर से अपनी सरकारों की हिफाजत नहीं कर पाए हैं. सरकारें पलटते मतदाता केवल 2019 के बड़े चुनाव में ही नहीं बल्कि 2022 तक हर प्रमुख चुनाव में भाजपा से बार-बार यह पूछेंगे कि उसे ही दोबारा क्यों चुना जाएभाजपा के लिए उन्नीस का पहाड़ अब और ऊंचा हो गया है.

Sunday, May 13, 2018

दूसरी लहर


कुछ लड़ाइयां युद्ध बंद होने के बाद शुरू होती हैं. यूं कह लें कि कुछ सफलताएं चुनौतियों की शुरुआत होती हैं जैसे कर्नाटक को ही लें. यकीननकर्नाटक ऊंटों के लिए मशहूर नहीं है लेकिन चुनावी ऊंट तो कहीं भी करवट ले सकते हैं. इसलिए अगर... 
·       लोगों ने कर्नाटक में कांग्रेस को पलट दिया तो क्या गारंटी कि लोग मध्य प्रदेशराजस्थानछत्तीसगढ़ में भाजपा को नहीं पलटेंगे. अगर लोग सरकारें बदलना चाहते हैं तो कहीं भी बदलेंगे. गुजरात में गोली कान के पास से निकल गई.
·      और अगर कांग्रेस बनी रह गई तो पता नहीं कौन-कौन-सी लहरों को कर्नाटक के तट पर सिर पटक कर खत्म हुआ मानना होगा क्योंकि अन्य चुनावों की तरह कर्नाटक का चुनाव प्रधानमंत्री मोदी ही लड़ रहे हैं.

कर्नाटक के बाद नरेंद्र मोदी-अमित शाह की चक्रवर्ती भाजपा उसी चुनौती से रू-ब-रू होने वाली है जिसकी मदद से भाजपा ने सिर्फ पांच साल में भारत के वृहद भूगोल को कमल-कांति से जगमगा दिया. भारत में 2013 से लोगों पर सरकार बदलने का जुनून तारी है. अपवाद नियम नहीं होते इसलिए बिहारगुजरातबंगाल और दिल्ली के जनादेश अस्वाभाविक माने जाते हैं. इनके अलावापिछले पांच साल में केंद्र से लेकर राज्यों और यहां तक कि पंचायत नगरपालिकाओं तक हर जगह लोगों ने सरकारें पलट दीं.

भाजपा ने इस जुनून पर सवारी की और राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दलों को रौंदते हुए वह कर्नाटक के मोर्चे पर आ डटी. अलबत्ता सरकारें पलटने वाले इस ताजा सफर का टिकटकर्नाटक में खत्म हो जाएगा क्योंकि पूरे देश में पिछले पांच साल से चल रही सत्ता विरोधी लहर का आखिरी पड़ाव है कर्नाटक.

मोदी-शाह की जोड़ी ने सरकारों को पलटने की चाह को इतना उग्र और घनीभूत कर दिया कि देश में चुनाव लडऩे का तौर-तरीका बदल गया. लेकिन अब उन्हें सरकार पलटने की दूसरी लहर से आए दिन और जगह-जगह निबटना होगा जो सीधे उनसे मुकाबिल होगी. 

सूबेदारों की बदली

बीते महीने कर्नाटक में चुनावी आतिशबाजी के बीचदिल्ली के बंद कमरों में सत्ता विरोधी लहर को थामने की कोशिश शुरू की गई. राजस्थान के मोर्चे पर सेनापति बदलने की तैयारी है. मुख्यमंत्री को रुखसत करने के शुरुआती प्रयास परवान नहीं चढ़े तो पार्टी अध्यक्ष अपने पद से हट गए. मुख्यमंत्रियों को बदलना यानी चुनाव से पहले नया चेहरा देनासरकारों के खिलाफ विरोध के तेवर कम करने का पुराना तरीका है. गुजरात में इसे आजमाया गया था.

सरकार से गुस्से की लहर में राज्य पहला निशाना होंगे. राज्य सरकारों की नाकामी केंद्र के खाते में भी जुड़ेगी. मुखिया बदल कर गुस्सा थामा जा सकता है लेकिन बदले गए मुखिया नुक्सान नहीं करेंगेइसकी कोई गारंटी नहीं है. 

नुमाइंदों से चिढ़
भाजपा के आलाकमान को अपने नुमाइंदों (सांसदों) से बढ़ती नाराजगी का एहसास गुजरात चुनाव के पहले ही हो गया था. पार्टी को सरकारी कार्यक्रमों के जमीनी क्रियान्वयन की हकीकत पता चल रही है. असंख्य सांसद व विधायक उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे हैं. सत्ता विरोधी लहर काटने के लिए नए चेहरे चुनाव में उतारे जाते हैं. भाजपा को यह काम बड़े पैमाने पर करना होगा ताकि स्थानीय मोहभंग को कम किया जा सके. लेकिन यह बदलाव निरापद नहीं होगा. विरोध और भितरघात इसके साथ चलते हैं.

परिवर्तन का चक्र 
नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे पिछले चार साल में यथास्थिति के प्रति समग्र इनकार का प्रतीक बनकर उभरे हैं. 2014 के जनादेश के बाद पूरे देश में सत्ता विरोधी मत और परिवर्तन के तेवर उन्हें देखकर परवान चढ़े हैं. यह सरकारों को पलटने का जुनून ही था जिसने भाजपा को सफलता से सराबोर कर दिया. लेकिन चुनाव तो पांच साल पर होने ही हैं. गुजरात में भाजपा को पहली बार एहसास हुआ कि सरकार के खिलाफ लहर का रुख बदल सकता है और उत्तर प्रदेश में गोरखपुर व फूलपुर तक आते-आते यह रुख बदल भी गया.

बेचैन मतदाता परिपक्व होते लोकतंत्र की पहचान हैं. शिक्षा और सूचना जितना बढ़ती हैसरकारों से मोहभंग उतने ही प्रखर होते जाते हैं. प्रचार वीर सरकारें ज्यादा सशक्‍त  मोहभंग आमंत्रित करती हैं.



कर्नाटक के चुनाव का नतीजा चाहे जो निकले लेकिन इसके बाद सत्ता विरोधी जुनून का ग्रह गोचर बदलेगा. कर्नाटक के बाद भाजपा की जद्दोजहद (अपवादों के अलावा)सरकारें पलटने के जुनून को थामने की होगी. केवल 2019 का बड़ा चुनाव ही नहीं बल्कि 2022 तक हर प्रमुख चुनाव में भाजपा को बार-बार यह हिसाब देना होगा कि उसे ही दोबारा क्यों चुना जाए?

Sunday, December 24, 2017

हार की जीत

लोकतंत्र में परम प्रतापी मतदाता ऐसा भी जनादेश दे सकते हैं जो हारने वाले को खुश कर दे और जीतने वाले को डरा दे! गुजरात के लोग हमारी राजनै‍तिक समझ से कहीं ज्यादा समझदार निकले. सरकार से नाराज लोगों ने ठीक वैसे ही वोट दिया है जैसे किसी विपक्ष विहीन राज्य में दिया जाता है. गुजरात के मतदाताओं ने भाजपा को झिंझोड़ दिया है और कांग्रेस को गर्त से निकाल कर मैदान में खड़ा कर दिया है.

गुजरात ने हमें बताया है कि

- सत्ता विरोधी उबाल केवल गैर-भाजपा सरकारों तक सीमित नहीं है.
- लोकतंत्र में कोई अपराजेय नहीं है. दिग्गज अपने गढ़ों में भी लडख़ड़ा सकते हैं.
- भावनाओं के उबाल पर, रोजी, कमाई की आर्थिक चिंताएं भारी पड़ सकती हैं.
- लोग विपक्ष मुक्त राजनीति के पक्ष में हरगिज नहीं हैं.

2019 की तरफ बढ़ते हुए भारत का बदला हुआ सियासी परिदृश्य सत्ता पक्ष और विपक्ष के लिए रोमांचक होने वाला है. गुजरात ने हमें भारतीय राजनीति में नए बदलावों से मुखातिब किया है.

अतीत बनाम भविष्य
जातीय व धार्मिक पहचानें और उनकी राजनीति कहीं जाने वाली नहीं है लेकिन भारत का सबसे बड़ा औद्योगिक राज्य गुजरात दिखाता है कि सामाजिक-आर्थिक वर्गों में नया विभाजन आकार ले रहा हैमुख्यतः भविष्योन्मुख और अतीतोन्मुख वर्ग. इसे उम्मीदों और संतोष की प्रतिस्पर्धा भी कह सकते हैं. इसमें एक तरफ युवा हैं और दूसरी तरफ प्रौढ़. 2014 में दोनों ने मिलकर कांग्रेस को हराया था.
गुजरात में प्रौढ़ महानगरीय मध्य वर्ग ने भाजपा को चुना है. आर्थिक रूप से कमोबेश सुरक्षित प्रौढ़ मध्य वर्ग सांस्कृतिक, धार्मिक, भावनात्मक पहचान वाली भाजपा की राजनीति से संतुष्ट है लेकिन अपने आर्थिक भविष्य (रोजगार) को लेकर सशंकित युवा भाजपा के अर्थशास्त्र से असहज हो रहे हैं.
लगभग इसी तरह का बंटवारा ग्रामीण व नगरीय अर्थव्यवस्थाओं में है. ग्रामीण भारत में पिछले तीन साल के दौरान आर्थिक भविष्य को लेकर असुरक्षा बुरी तरह बढ़ी है. दूसरी ओर, नगरीय आर्थिक तंत्र अपनी  एकजुटता से नीतियों को बदलने में कामयाब रहा है. गुजरात बचाने के लिए जीएसटी की कुर्बानी इसका उदाहरण है. लेकिन किसान अपनी फसल की कीमत देने के लिए सरकार को उस तरह नहीं झुका सके. अपेक्षाओं का यह अंतरविरोध भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती होने वाला है.

बीस सरकारों की जवाबदेही
भाजपा भारत के 75 फीसदी भूगोल, 68 फीसदी आबादी और 54 फीसदी अर्थव्यवस्था पर राज कर रही है. पिछले 25 वर्षों में ऐसा कभी नहीं हुआ. नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने पिछले तीन साल में जिस तरह की चुनावी राजनी‍ति गढ़ी है, उसमें भाजपा के हर अभियान के केंद्र में सिर्फ मोदी रहे हैं. 2019 में उन्हें केंद्र के साथ 19 राज्य सरकारों के कामकाज पर भी जवाब देने होंगे.
क्या भाजपा की राज्य सरकारें मोदी की सबसे कमजोर कड़ी हैं? पिछले तीन साल में मोदी के ज्या‍दातर मिशन जमीन पर बड़ा असर नहीं दिखा सके तो इसके लिए उनकी राज्य सरकारें जिम्मेदार हैं. गुजरात इसकी बानगी है, जहां प्रधानमंत्री मोदी के मिशन विधानसभा चुनाव में भाजपा के झंडाबरदार नहीं थे. '19 की लड़ाई से पहले इन 19 सरकारों को बड़े करिश्मे कर दिखाने होंगे. गुजरात ने बताया है कि लोग माफ नहीं करते बल्कि बेहद कठोर इम्तिहान लेते हैं.

भाजपा जैसा विपक्ष
वोटर का इंसाफ लासानी है. अगर सत्ता से सवाल पूछता, लोगों की बात सुनता और गंभीरता से सड़क पर लड़ता विपक्ष दिखे तो लोग मोदी के गुजरात में भी राहुल गांधी के पीछे खड़े हो सकते हैं. वे राहुल जो उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कहीं कुछ भी नहीं कर सके, उन्हें मोदी-शाह के गढ़ में लोगों ने सिर आंखों पर बिठा लिया. भाजपा जैसा प्रभावी, प्रखर और निर्णायक प्रतिपक्ष देश को कभी नहीं मिला. विपक्ष को बस वही करना होगा जो भाजपा विपक्ष में रहते हुए करती थी. गुजरात ने बताया है कि लोग यह भली प्रकार समझते हैं कि अच्छी सरकारें सौभाग्य हैं लेकिन ताकतवर विपक्ष हजार नियामत है.
चुनाव के संदर्भ में डेविड-गोलिएथ के मिथक को याद रखना जरूरी है. लोकतंत्र में शक्ति के संचय के साथ सत्तास्वाभाविक रूप से गोलिएथ (बलवान) होती जाती है. वह वैसी ही भूलें भी करती है जो महाकाय गोलिएथ ने की थीं. लोकतंत्र हमेशा डेविड को ताकत देता है ताकि संतुलन बना रह सके.
गुजरात ने गोलिएथ को उसकी सीमाएं दिखा दी हैं और डेविड को उसकी संभावनाएं.
मुकाबला तो अब शुरू हुआ है.