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Monday, March 16, 2015

कूटनीति का निजीकरण


चीन ने छोटे मुल्कों में जो काम अपनी विशाल सरकारी कंपनियों के जरिए किया, भारत उसे निजी कंपनियों के साथ करना चाहता है.

टैक्स व महंगाई की खिच-खिच के बीच कम ही लोगों का ध्यान बजट की इस घोषणा पर गया होगा कि सरकार एक नई प्रोजेक्ट डेवलपमेंट कंपनी बनाने वाली है जो दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों कंबोडिया, म्यांमार, लाओस और विएतनाम (सीएमएलवी) में भारतीय निजी कंपनियों के निवेश का रास्ता तैयार करेगी. बजट का यह प्रस्ताव संकेत है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी घरेलू मोर्चे पर भले ही उलझ रहे हों लेकिन ग्लोबल महत्वाकांक्षाओं को लेकर उनकी तैयारियां चाक-चौबंद हैं. निजी निवेश की पीठ पर विदेश नीति को बिठाना और इस मकसद से एक सार्वजनिक कंपनी का गठन, दरअसल कूटनीति का पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मॉडल है, जो भारतीय अंतरराष्ट्रीय संबंधों को नया आयाम दे सकता है. कूटनीति की यह नई करवट हिंद महासागर के द्वीपीय देशों में प्रधानमंत्री की ताजा यात्रा की रोशनी में खासी महत्वपूर्ण हो गई है.
भारत की कूटनीतिक रणनीति का नया स्वरूप मोदी के ताजा ग्लोबल अभियानों की नसीहतों से निकला है. प्रधानमंत्री को भावुक भारतीयता और भारतवंशियों से जुड़ाव की सीमाओं का एहसास होने लगा है. ग्लोबल सुरक्षा और एकजुटता के रणनीतिक विमर्श बड़े देशों को जोड़ सकते हैं लेकिन छोटे देशों से रिश्तों में महाशक्तियों से संबंधों जैसी भव्यता नहीं भरी जा सकती. इन्हें तो ठोस आर्थिक लेन-देन की जमीन पर टिकाना होता है जिसका कोई मजबूत मॉडल भारत के पास नहीं है. मोदी विदेश नीति में बड़े और छोटे देशों से रिश्तों का अलग-अलग प्रारूप तय करना चाहते हैं ताकि ग्लोबल महत्वाकांक्षाओं को समग्र रूप से साधा जा सके. सेशेल्स, मॉरिशस और श्रीलंका जैसे छोटे देशों से उनके पहले संवाद के नतीजे इस रणनीति के लिए काफी अहम होंगे. 
ग्लोबल बिसात पर प्रशांत व अटलांटिक महासागरीय क्षेत्रों के दबदबे के कारण हिंद महासागर, न केवल चर्चाओं से लगभग बाहर है बल्कि यह क्षेत्र पिछले 25 वर्ष में निष्क्रिय कूटनीतिक प्रयोगों का अजायबघर भी बन गया  है. करीब 1.5 अरब लोगों की आबादी को जोडऩे वाला दक्षेस, 1985 से अब तक दो दर्जन से अधिक शिखर बैठकों के बावजूद बड़ी संधियां तो दूर, संवाद का एक गतिमान ढांचा तक नहीं बना पाया. 1997 में थाईलैंड की अगुआई में बना सात देशों का बिक्वसटेक-ईसी (बे ऑफ बंगाल इनीशिएटिव फॉर मल्टी सेक्टोरल टेक्निकल ऐंड इकोनॉमिक कोऑपरेशन) को एक सचिवालय बनाने में 17 साल लग गए. 2000 में बना मेकांग गंगा कोऑपरेशन भी 15 साल में कुछ बयानों से आगे नहीं बढ़ा. ऑस्ट्रेलिया, भारत, दक्षिण अफ्रीका व ईरान सहित 20 देशों की सदस्यता वाला इंडियन ओशन रिम एसोसिएशन (1995) इस क्षेत्र का सबसे महत्वाकांक्षी अभियान था लेकिन यह भी जहां का तहां खड़ा है.
नरेंद्र मोदी जब इस क्षेत्र में नई शुरुआत कर रहे हैं तो उनकी पीठ पर इन बड़े कूटनीतिक प्रयोगों की असफलता भी लदी है. ये विफलताएं भारत के खाते में सिर्फ इसलिए नहीं चमकती हैं कि वह हिंद महासागर के किनारे मौजूद सबसे बड़ा मुल्क है बल्कि इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि हिंद महासागर व शेष विश्व में छोटे मुल्कों से संबंधों का कोई ठोस प्रारूप भारत के पास नहीं है. भारतीय कूटनीति इन छोटे देशों से रिश्तों में छात्रों को वजीफे, पर्यटन और लाइन ऑफ क्रेडिट से आगे नहीं बढ़ पाई. सांस्कृतिक संबंधों की दुहाई भी एक सीमा तक काम आती है.
छोटे मुल्कों के लिए दोस्ती का मतलब उनकी तरक्की में सीधी भागीदारी है. यही वजह थी कि चीन की  कूटनीति निवेश की पीठ पर बैठ कर आगे बढ़ी. चीन ने विदेशी मुद्रा भंडार व भीमकाय सरकारी कंपनियों के जरिए हिंद महासागर से लेकर अफ्रीका व यूरोप तक कई छोटे देशों के आर्थिक हितों को सीधे तौर पर प्रभावित किया है. भारत के पास विदेशी मुद्रा भंडार की ताकत नहीं है जिसके जरिए छोटे देशों में निवेश किया जा सके. सरकारें कारोबार में सीमित हिस्सा रखती हैं, इसलिए हिंद महासागर क्षेत्र में सरकारों के बीच सहयोग की कोशिशें बहुत परवान नहीं चढ़ीं. यही वजह है कि मोदी अपनी कूटनीतिक सफलता के लिए भारत की निजी कंपनियों की तरफ मुखातिब हैं.
हिंद महासागर की यात्रा से पहले पूर्वी एशिया में निवेश का रास्ता बनाने वाली नई कंपनी का ऐलान यह बताने की कोशिश है कि चीन ने छोटे मुल्कों में जो काम अपनी विशाल सरकारी कंपनियों के जरिए किया, भारत उसे निजी कंपनियों के साथ करना चाहता है. नरेंद्र मोदी ने सेशेल्स, मॉरिशस व श्रीलंका की बैठकों में इस नई पहल का जिक्र जरूर किया होगा, क्योंकि प्रधानमंत्री के श्रीलंका पहुंचने से पहले ही भारतीय उद्योग के कप्तानों की एक टीम कोलंबो पहुंच गई थी.हाल के वर्षों में किसी छोटे देश में भारतीय कंपनियों के अधिकारियों का यह सबसे बड़ा जमावड़ा था. निजी निवेश को कूटनीति से जोडऩे का यह प्रयोग केवल पूर्वी एशिया तक सीमित नहीं रहेगा. मोदी यही प्रयोग हिंद महासागर के लिए करेंगे और उनकी अफ्रीका यात्रा में भी ऐसी कोशिश नजर आएगी.
भारत की निजी कंपनियां और विदेश में बसे भारतवंशी, मोदी के ग्लोबल अभियान का आधार बनते दिख रहे हैं. चुनौती यह है कि भारत की निजी कंपनियां ग्लोबल पैमाने पर बहुत छोटी हैं. मोदी की कूटनीतिक योजनाओं में मदद के लिए उन्हें ग्लोबल साख, ताकत, पारदर्शिता और बड़ा आकार चाहिए, ताकि लाओस, कंबोडिया से लेकर मॉरिशस और सेशेल्स तक कारोबारी जोखिम लिये जा सकें. दूसरी तरफ अनिवासी भारतीय केवल चमकते भारत को और चमका सकते हैं, विदेश में बसे समृद्ध चीनियों जैसा निवेश नहीं कर सकते.
प्रधानमंत्री विदेशी मंचों से चाहे जितने भावुक आह्वान करें लेकिन हिंद महासागर भ्रमण के बाद उन्हें इस हकीकत का एहसास भी हो जाएगा कि उनकी ग्लोबल महत्वाकांक्षाओं को भारत में अच्छी गवर्नेंस और तेज ग्रोथ की बुनियाद चाहिए. इसके बिना न निजी कंपनियां सक्रिय होंगी और न उनके मुरीद भारतवंशी सक्रिय रह पाएंगे. विदेशी मंच से भारत को संबोधन बहुत हुआ, अब मोदी को देश की जमीन से विदेश को संबोधित करना होगा.



Monday, March 2, 2015

29 बजटों की ताकत


राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सूझ-बूझ और आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया तो राज्यों में भ्रष्टाचार और सरकारी संसाधनों की लूट की विराट कथाएं बनते देर नहीं लगेगी।
बीते सप्ताह जब उद्योग और सियासत मोदी सरकार के पहले पूर्ण बजट के इंतजार में नाखून चबा रहे थे, तब देश में कई और बजट भी पेश हो रहे थे. भारत एक बजट का नहीं बल्कि 29 बजटों का देश है और राज्यों के इन 29 बजटों को बेहद गंभीरता से लेने का वक्त आ गया है. अगले एक साल में भारत के राज्य उस वित्तीय ताकत से लैस हो चुके होंगे, जो देश में आर्थिक नीतियों का ही नहीं बल्कि राजनीति का चेहरा भी बदल देगी. फ्रांसीसी लेखक विक्टर ह्यूगो कहते थे, उस विचार को कोई नहीं रोक सकता जिसका समय आ गया हो. राज्यों को आर्थिक फैसलों की आजादी और संसाधन देने का समय आ गया था इसलिए इसे रोका नहीं जा सका. इसे आप भारत का सबसे दूरगामी आर्थिक सुधार कह सकते हैं जो पिछले एक दशक की सियासी चिल्लपों के बीच चुपचाप आ जमा है. नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से पहले वित्त आयोग ने राज्यों के वित्तीय अधिकार बढ़ाने का सफर शुरू कर दिया था, मोदी ने योजना आयोग को खत्म करते हुए इसे मंजिल तक पहुंचा दिया. मोदी सरकार के पहले पूर्ण बजट के साथ भारत में संघवाद का एक नया खाका उभर रहा है, जिसमें शक्ति संपन्न केंद्र अब कमजोर होगा जबकि राज्य वित्तीय मामलों में नई ताकत बनेंगे और विकास का तकाजा अब केवल दिल्ली से नहीं बल्कि जयपुर, भोपाल, लखनऊ, चेन्नै, बेंगलुरू, कोलकाता से भी होगा, जिन्हें इस नई वित्तीय ताकत व आजादी को संभालने की क्षमताएं विकसित करनी हैं.
योजना आयोग को खत्म करते हुए नरेंद्र मोदी विकेंद्रीकृत आर्थिक नीति नियोजन का नया खाका भले ही स्पष्ट न कर पाए हों लेकिन उन्होंने आर्थिक संसाधनों के बंटवारे में केंद्र के दबदबे को जरूर खत्म कर दिया. बचा हुआ काम चौदहवें वित्त आयोग ने कर दिया है. बजट से पहले इसकी जो रिपोर्ट सरकार ने स्वीकार की है वह केंद्र व राज्यों के वित्तीय रिश्तों का नक्शा बदलने जा रही है. राज्यों को केंद्रीय करों में अब 42 फीसदी हिस्सा मिलेगा यानी पिछले फॉर्मूले से 10 फीसदी ज्यादा. केंद्र सरकार उन्हें शर्तों में लपेटे बिना फंड देगी और यही नहीं, केंद्र राज्य के संसाधनों के हिस्से बांटने का नया फॉर्मूला भी लागू होगा जो आधुनिक जरूरतों को देखकर बना है. केंद्रीय करों में मिलने वाला हिस्सा 2016 के बाद करीब 1.76 खरब रु. बढ़ जाएगा. कोयला खदानों के आवंटन से राज्यों  को एक लाख करोड़ रु. मिल रहे हैं. योजना आयोग से मिलने वाले अनुदान व फंड भी बढ़ेंगे और जीएसटी भी राज्यों की कमाई में इजाफा करेगा.
बात सिर्फ वित्तीय संसाधनों की सप्लाई की नहीं है. योजना आयोग की विदाई और वित्त आयोग की सिफारिशों की रोशनी में राज्यों को इन संसाधनों को खर्च करने की पर्याप्त आजादी भी मिल रही है, जो एक बड़ी चुनौती भी है. अधिकांश राज्यों का वित्तीय प्रबंधन बदहाल और प्रागैतिहासिक है. बजटों की प्रक्रिया कामचलाऊ है. कर्ज, नकदी और वित्तीय लेन-देन प्रबंधन की आधुनिक क्षमताएं नहीं हैं. टैक्स मशीनरी जंग खा रही है. राज्यों को योजना, नीति निर्माण और मॉनिटरिंग के उन सभी तरीकों की शायद ज्यादा जरूरत है जो उदार बाजार के बाद केंद्र सरकार के लिए बेमानी हो गए थे. राज्यों को अब पारदर्शी व आधुनिक वित्तीय ढांचा बनाना होगा, जो संसाधनों की इस आपूर्ति को संभाल सके. वित्त आयोग की सिफारिश, मोदी सरकार के पहले पूर्ण बजट और निवेश के माहौल को देखते हुए जो तस्वीर बन रही है, उसमें विकास का बड़ा खर्च राज्यों के माध्यम से होगा अर्थात् बड़े आर्थिक निर्माणों से लेकर सामाजिक ढांचा बनाने तक केंद्र की भूमिका सीमित हो जाएगी. राज्यों का प्रशासानिक ढांचा अक्षमताओं का पुराना रोगी है. निर्माण गतिविधियां कॉन्ट्रेक्टर राज के हवाले हैं. यदि राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने सूझ-बूझ और आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया तो राज्यों में भ्रष्टाचार और सरकारी संसाधनों की लूट की विराट कथाएं बनते देर नहीं लगेगी, क्योंकि राज्यों को वित्तीय ही नहीं बल्कि जमीन अधिग्रहण से लेकर रिटेल में विदेशी निवेश तक कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर कानूनी ताकत भी मिल रही है.
राजनैतिक उठा-पटक के बावजूद भारत में गवर्नेंस का एक नया ढांचा उभरने लगा है. इसमें एक तरफ राज्य सरकारें होंगी जो विकास की राजनीति में केंद्र की भूमिका सीमित करेंगी तो दूसरी तरफ होंगे स्वतंत्र नियामक यानी रेगुलेटर, जो दूरसंचार, बिजली, बीमा, पेंशन, पेट्रोलियम, बंदरगाह, एयरपोर्ट, कमॉडिटी, फार्मास्यूटिकल व पर्यावरण क्षेत्रों में केंद्रीय मंत्रालयों के अधिकार ले चुके हैं. रेलवे व सड़क नियामक कतार में हैं. सेबी, प्रतिस्पर्धा आयोग, राज्य बिजली नियामक आयोगों को शामिल करने के बाद यह नया शासक वर्ग राजनैतिक प्रभुओं से ज्यादा ताकतवर दिखता है. अगर राज्यों में पानी और सड़क परिवहन के लिए नियामक बनाने की सिफारिशें भी अमल में आर्इं तो अगले कुछ वर्षों में देश की आर्थिक किस्मत नेताओं से लैस मंत्रिमंडल नहीं बल्कि विशेषज्ञ नियामक लिखेंगे.

इतिहास हर व्यक्ति के लिए अपनी तरह से जगह निर्धारित करता है. इतिहास नरेंद्र मोदी का मूल्याकंन कैसे करेगा अभी यह तय करना जल्दी है लेकिन उन्होंने जान-बूझकर या अनजाने ही इतिहास की एक बड़ी इबारत अपने नाम जरूर कर ली है. उनकी अगुआई में केंद्र और राज्य के रिश्तों का ढांचा बदल गया है. नरेंद्र मोदी भारत में ताकतवर केंद्र सरकार का नेतृत्व करने वाले शायद आखिरी प्रधानमंत्री होंगे. उनके रहते ही सत्ता की ताकत नए सुल्तानों यानी स्वतंत्र नियामकों के पास पहुंच जाएगी और विकास के खर्च की ताकत राज्यों के हाथ में सिमट जाएगी. यह किसी भी तरह से 91 या ’95 के सुधारों से कम नहीं है. इस बदलाव के बाद भारत की राजनीति का रासायनिक संतुलन भी सिरे से तब्दील हो सकता है.

Monday, December 29, 2014

लोकलुभावनवाद की ‘घर वापसी’

आक्रामक हिंदुत्व का प्रेत और सुधारों की नई क्रांतिकारी सूझ की कमी सरकार को सहज व सुरक्षित गवर्नेंस विकल्पों की तरफ ढकेल रही है मोदी सरकार भी संसाधनों की बर्बादी वाली इन्क्लूसिव ग्रोथ की ओट में छिप जाना चाहती है.
र्म बदल करने वालों का तो पता नहीं लेकिन मोदी सरकार के आर्थिक प्रबंधन की घर वापसी का ऐलान जरूर हो गया है. भारी सरकारी खर्च, केंद्रीय स्कीमों का राज, सरकार का जनलुभावन शृंगार और भारी घाटे के साथ, मोदी सरकार का आर्थिक दर्शन उसी घर में बसने वाला है जिस पर कांग्रेस ने इन्क्लूसिव ग्रोथ का बोर्ड लगा रखा था. मोदी सरकार इसकी जगह सबका साथ, सबका विकास का पोस्टर लगा देगी. नई सरकार का पहला बजट जल्दबाजी में बना था, जो टीम मोदी के वित्तीय और आर्थिक दर्शन को स्पष्ट नहीं करता था लेकिन धर्मांतरण के हड़बोंग के बीच जारी हुई तिमाही आर्थिक समीक्षा ने मोदी सरकार की आर्थिक रणनीति से परदा हटा दिया है. मोदी सरकार दकियानूसी और लोकलुभावन आर्थिक प्रबंधन की तरफ बढ़ रही है, जिसकी एक बड़ी झलक आने वाले बजट में मिल सकती है.
विकास के लिए सरकारी खर्च का पाइप खोलने की सूझ जिस इलहाम के साथ आई है वह और भी ज्यादा चिंताजनक है. समीक्षा ने स्वीकार किया है कि निजी कंपनियां निवेश को तैयार नहीं हैं. नई सरकार आने के बाद निजी निवेश शुरू होना चाहिए था लेकिन हकीकत यह है कि सरकारी उपक्रम दो लाख करोड़ रु. की नकदी पर बैठे हैं जबकि निजी कंपनियां करीब 4.6 लाख करोड़ रु. की नकदी पर. इसके बाद निजी निवेश न होना दरअसल मेक इन इंडिया की शुरुआती असफलता पर वित्त मंत्रालय की मुहर जैसा है. केंद्र में सरकार बदलने के बाद सारा दारोमदार निजी कंपनियों के निवेश पर था, जिससे रोजगार और ग्रोथ लौटने की उम्मीद बनती थी. लेकिन सरकार को पहले छह माह में ही यह एहसास हो गया है कि निजी निवेश को बढ़ावा देने की ज्यादा कवायद करने की बजाए सरकारी खर्च के पुराने मॉडल की शरण में जाना बेहतर होगा.
भारी सरकारी खर्च की वापसी उत्साहित नहीं करती बल्कि डराती है क्योंकि केंद्र सरकार के भारी खर्च से उभरी विसंगतियों का दर्दनाक अतीत हमारे पास मौजूद है. सरकार के पास उद्योग, पुल, सड़क, बंदरगाह बनाने लायक न तो संसाधन हैं और न मौके. यह काम तो निजी कंपनियों को ही करना है. आम तौर पर सरकारें जब अच्छी गुणवत्ता की ग्रोथ और रोजगार पैदा नहीं कर पातीं तो अपने खर्च को सब्सिडी और लोकलुभावन स्कीमों में बढ़ाती हैं, जैसा कि हमने यूपीए राज के पहले चरण की कथित इन्क्लूसिव ग्रोथ में देखा था, जो बाद में बजट, ग्रोथ और निवेश को ले डूबी. मोदी सरकार का खर्च रथ भी उसी पथ पर चलेगा. नई-नई स्कीमों को लेकर मोदी का प्रेम जाहिर हो चुका है. योजना आयोग के पुनर्गठन में पुरानी केंद्रीय स्कीमों को बंद करना फिलहाल एजेंडे पर नहीं है इसलिए एनडीए की नई स्कीमों से सजे इस मोदी के रथ पर कांग्रेस सरकार की स्कीमें पहले से सवार होंगी.
केंद्र सरकार का खर्च अभियान एक कांटेदार गोला है जो अपनी कई नुकीली बर्छियों से जगह-जगह छेद करता है. सरकार का राजस्व सीमित है और औद्योगिक मंदी खत्म होने तक राजस्व में तेज बढ़ोतरी की उम्मीद भी नहीं है. सरकार के सामने भारी खर्च का बिल आने वाला है जिसमें सब्सिडी, वित्त आयोग की सिफारिशों के तहत राज्यों के करों में ज्यादा हिस्सा, केंद्रीय बिक्री कर में हिस्सेदारी का राज्यों का भुगतान और सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर अंतरिम राहत शामिल होंगे. इसलिए अगले बजट में घाटे की ऊंचाई देखने लायक होगी. ब्याज दरों में कमी के लिए रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को कोसने से फायदा नहीं है. अब सरकार जमकर कर्ज लेगी, जिससे ब्याज दरों में कमी के विकल्प बेहद सीमित हो सकते हैं. 
मोदी सरकार के सामने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए दो विकल्प थे. एक है सस्ता कर्ज. महंगाई में कमी से इसकी जमीन तैयार हो गई है. बैंकिंग सुधार का साहस और बजट घाटे पर नियंत्रण दो और जरूरतें थीं जो अगर पूरी हो जातीं तो अगले साल से ब्याज दरों में तेज कटौती की शुरुआत हो सकती थी. दूसरा था सरकार का भारी खर्च, जो ऊंचे घाटे, कर्ज व महंगे ब्याज की कीमत पर होगा. अर्थव्यवस्था को मंदी से निकालने के लिए सस्ता कर्ज, सरकार के खर्च से बेहतर विकल्प होता है क्योंकि वह निजी उद्यमिता को बढ़ावा देता है, लेकिन मोदी सरकार ने दूसरा विकल्प यानी भारी खर्च का रास्ता चुना है. इससे सरकार का लोकलुभावन मेकअप तो ठीक रहेगा लेकिन घाटे में बढ़ोत्तरी और भ्रष्टाचार व घोटालों का खतरा कई गुना बढ़ जाएगा. 
मोदी सरकार, वाजपेयी की तरह भगवा ब्रिगेड को आक्रामक सुधारों से जवाब नहीं देना चाहती बल्कि यूपीए की तरह संसाधनों की बर्बादी वाली इन्क्लूसिव ग्रोथ की ओट में छिप जाना चाहती है. आक्रामक हिंदुत्व का प्रेत, संसद में गतिरोध और सुधारों की नई क्रांतिकारी सूझ की कमी मोदी सरकार को सहज और सुरक्षित गवर्नेंस विकल्पों की तरफ ढकेल रही है. आर्थिक समीक्षा इशारा कर रही है कि आने वाला बजट स्कीमों से भरपूर होगा, जो घाटे को नियंत्रित करने का संकल्प नहीं दिखाएगा. उम्मीदों से रची-बुनी, बहुमत की सरकार का इतनी जल्दी ठिठक कर लोकलुभावन हो जाना यकीनन, निराश करता है लेकिन हकीकत यह है कि मोदी सरकार को अपने साहस की सीमाओं का एहसास हो गया है.

अगले साल भारत को 6 फीसदी के आसपास की विकास दर पर मुतमईन होना पड़ सकता है, जो आज की आबादी और विश्व बाजार से एकीकरण की रोशनी में, सत्तर-अस्सी के दशक की 3.5 फीसद ग्रोथ रेट के बराबर ही है, जिसे हिंदू ग्रोथ रेट कहा जाता था. गवर्नेंस बनाम उग्र हिंदुत्व के विराट असमंजस में बलि तो आर्थिक ग्रोथ की ही चढ़ेगी.