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Thursday, March 10, 2022

वो सदी आ गई !

 


यह फरवरी 2022 का पहला हफ्ता था.  रुसी राष्‍ट्रपति ब्‍लादीम‍िर पुत‍िन
, बेलारुस के साथ सैन्‍य अभ्‍यास के बहाने यूक्रेन पर यलग़ार की तैयार‍ियां परख रहे थे. ठीक उसी वक्‍त सुदूर पूर्व के  दक्ष‍िण कोर‍िया में आरसीईपी (रीजनल कंप्रहेसिव कोऑपरेटिव पार्टन‍रशि‍प) प्रभावी हो गई, यानी की द‍ुन‍िया की दसवीं अर्थव्‍यवस्‍था विश्‍व के सबसे बड़े व्‍यापार समूह को लागू कर चुकी थी. 2022 की शुरुआत में महामारी का मारा यूरोप खून खच्‍चर और महंगाई के  डर से अधमरा हुआ जा रहा था तब   एश‍िया की नई तस्‍वीर फलक पर उभरने लगी थी.

कोरोना वायरस के नए संस्‍करण ऑम‍िक्रॉन के हल्‍ले के बावजूद, चीन की अगुआई वाली इस व्‍यापार संध‍ि का उद्घाटन इतना तेज तर्रार रहा कि  अमेरिकी राष्‍ट्रपत‍ि जो बाइडेन को कहना पड़ा कि वह भी एक नए व्‍यापार गठजोड़ की कोशि‍श शुरु कर रहे हैं. पिछले अमेरिकी मुखि‍या डोनल्‍ड ट्रंप ने  टीपीपी यानी ट्रांस पैस‍िफि‍क पार्टनरशि‍प के प्रयासों को कचरे के डब्‍बे में फेंक दिया था जो आरसीईपी के लिए चुनौती बन सकती थी.

याद रहे क‍ि इसी भारत इसी आरसीईपी  से बाहर निकल आया था . यह दोनों बड़ी अर्थव्‍यवस्‍थायें इस समझौते का हिस्‍सा नहीं हैं. चाहे न चाहे लेकि‍न चीन इस कारवां सबसे अगले रथ पर सवार हो गया है .

आरसईपी के आंकड़ों की रोशनी में एश‍िया एक नया परिभाषा के साथ उभर आया है आस‍ियान के दस देश (ब्रुनेई, कंबोड‍िया, इंडोनेश‍िया, थाईलैंड, लाओस, मलेश‍िया, म्‍यान्‍मार, फिलीपींस, सिंगापुर, वियतनाम) इसका हिस्‍सा हैं जबकि आस्‍ट्रेल‍िया, चीन, जापान, न्‍यूजीलैंड और दक्ष‍िण कोर‍िया इसके एफटीए पार्टनर हैं. यह चीन का पहला बहुतक्षीय व्‍यापार समझौता है.

दुनिया की करीब 30 फीसदी आबादी, 30 फीसदी जीडीपी और 28 फीसदी व्‍यापार इस समझौते के प्रभाव क्षेत्र में है.  विश्‍व व्‍यापार में हिस्‍सेदारी के पैमाने  इसके करीब पहुंचने वाले व्‍यापार समझौते में अमेरिका कनाडा मैक्‍स‍िको (28%) और यूरोपीय समुदाय (17.9%) हैं

आरसीईपी के 15 सदस्‍य देशों ने अंतर समूह व्‍यापार के लिए 90 फीसदी उत्‍पादों पर सीमा शुल्‍क शून्‍य कर दि‍या है..यानी  कोई कस्‍टम ड्यूटी नहीं. संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के व्‍यापार संगठन अंकटाड ने बताया है कि इस समझौते से 2030 तक आरसीईपी क्षेत्र में निर्यात में करीब 42 अरब डॉलर की बढ़ोत्‍तरी होगी. यह समझौता अगले आठ वर्ष में ग्‍लोबल अर्थव्‍यवस्‍था में 200 अरब डॉलर का सालाना योगदान करने लगेगा. क्‍या यूरोप यह सुन पा रहा है कि बकौल अंकटाड,  अपने आकार और व्‍यापार वैव‍िध्‍य के कारण आरसीईपी  दुन‍िया में व्‍यापार का नया केंद्र होने वाला है. 

आप इसे चीन की दबंगई कहें, अमेरिका की जिद या  भारत का  स्‍वनिर्मित भ्रम लेकिन आरसीईपी और एशि‍या की सदी का उदय एक साथ हो रहा है. वही सदी जिसका जिक्र हम दशकों से नेताओं भाषणों में सुनते आए हैं.  एश‍िया की वह सदी यकीनन अब आ पहुंची है  

यह है नया एश‍िया

एश‍िया की आर्थिक ताकत बढ़ने की गणना 2010 से शुरु हो गई थी, गरीबी पिछड़पेन और आय व‍िि‍वधता के बावजूद एश‍िया ने यूरोप और अमेरिका की जगह दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍था में केंद्रीय स्‍थान लेना शुरु कर दिया था. महामारी के बाद जो आंकडे आए हैं, दुन‍िया की आर्थ‍िक धुरी बदलने की तरफ इशारा करते हैं.

कोविड के इस तूफान का सबसे मजबूती से सामना एश‍ियाई अर्थव्‍यवस्‍थाओं ने कि‍या. आईएमफ का आकलन बताता है कि महामारी के दौरान 2020 में दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍थायें करीब 3.2 फीसदी सि‍कुड़ी लेक‍िन एशि‍या की ढलान  केवल 1.5 फीसदी थी. एश‍ियाई अर्थव्‍यवस्‍थाओं की वापसी भी तेज थी जुलाई में 2021 में आईएमएफ ने बताया क‍ि 2021 में  एश‍िया  7.5 फीसदी की दर से और 2022 में 6.4 फीसदी की दर से विकास कर करेगा जबकि‍ दुनिया की विकास दर 6 और 4.9 फीसदी रहेगी.

2020 में महामारी के दौरान दुनिया का व्‍यापार 5 फीसदी सिकुड़ गया लेक‍िन ग्‍लोबल व्‍यापार में एश‍िया का हिस्‍सा 60 फीसदी पर कायम रहा यानी नुकसान यूरोप अमेरिका को ज्‍यादा हुआ. 

2021 में आस‍ियान  चीन का सबसे बड़ा कारोबारी भागीदार बन गया है. इस भागीदारी की ताकत  2019 में मेकेंजी की एक रिपोर्ट से समझी जा सकती  है. एश‍िया का 60 फीसदी व्‍यापार  और 59 फीसदी विदेशी निवेश अंतरक्षेत्रीय  है. चीन से कंपन‍ियों के पलायन के दावों की गर्द अब बैठ चुकी है. 2021 में यूरोपीय  और अमेरिकी चैम्‍बर ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि 80-90 फीसदी कंपन‍ियां चीन छोड़ कर नहीं जाना चाहती. आरसीईपी ने इस पलायन का अध्‍याय बंद कर दिया है क्‍यों कि अध‍िकांश बाजार शुल्‍क मुक्‍त या डयूटी फ्री हो गए  हैं. इन कंपनियों  ज्‍यादातर उत्‍पादन अंतरक्षेत्रीय बाजार में बिकता  है

बात पुरानी है

एशिया की यह नई ताकत एक दशक पहले बनना शुरु हुई थी. मेकेंजी सह‍ित कई अलग अलग सर्वे  2018 में ही बता चुके थे  कि ग्‍लोबल टेक्‍नोलॉजी व्‍यापार के पैमानेां पर  एश‍िया  सबसे तेज दौड़ रहा है.  टेक्‍नोलॉजी राजस्‍व की अंतरराष्‍ट्रीय विकास दर में 52 फीसदी, स्‍टार्ट अफ फंड‍िंग में 43 फीसदी, शोध विकास फंड‍िंग में 51 फीसदी और पेटेंट में 87 फीसदी ह‍िस्‍सा अब एश‍िया का है.

ब्‍लूमबर्ग इन्‍नोवेशन इंडेक्‍स 2021  के तहत कोरिया दुनिया के 60 सबसे इन्‍नोवेटिव देशों की सूची में पहले स्‍थान पर है. अमेरिका शीर्ष दस से बाहर हो गया है. यही वजह है कि   महामारी के बाद न्‍यू इकोनॉमी में एश‍िया के दांव बड़े हो रहे हैं. शोध और विज्ञान का पुराना गुरु जापान जाग रहा है. मार्च 2022 तक जापान में एक विशाल यून‍िवर्स‍िटी इनडाउमेंट फंड काम करने लगेगा  जो करीब 90 अरब डॉलर की शोध पर‍ियोजनाओं को वित्‍तीय मदद देगा. चीन में अब शोध व विकास की क्षमतायें विश्‍व स्‍तर पर पहुंचने के आकलन लगातार आ रहे हैं.

अलबत्‍ता एश‍िया की सदी का सबसे कीमती  आंकड़ा यहां है. अगले एक दशक दुनिया की आधी खपत मांग एश‍िया के उपभोक्‍ताओं से आएगी. मेंकेंजी सहित कई संस्‍थाओं के अध्‍ययन बताते हैं क‍ि यह उपभोक्‍ता बाजार कंपनियों के लिए करीब 10 अरब डॉलर का अवसर है.  क्‍यों क‍ि 2030 तक एश‍िया की करीब 70 फीसदी आबादी उपभोक्‍ता समूह का हिस्‍सा होगी यानी कि वे 11 डॉलर ( 900 रुपये) प्रति द‍िन खर्च कर रहे होंगे. सन 2000 यह प्रतिशित 15 पर था. अगले एक दशक में 80 फीसदी मांग मध्‍यम व उच्‍च आय वर्ग की खपत से निकलेगी. 2030 तक करी 40 फीसदी मांग ड‍िजटिल नैटिव तैयार करेंगे.

दुनिया की कंपनियां इस बदलाव को करीब से पढ़ती रही हैं . कोवडि  से पहले एक दशक में प्रति दो डॉलर के नए विश्‍व निवेश में एक डॉलर एश‍िया में गया था और प्रत्‍येक तीन डॉलर में से एक चीन में लगाया गया. 2020 में दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में  एशि‍या से आए राजस्‍व का हि‍स्‍सा करीब 43 फीसदी था अलबत्‍ता इस मुकाल पर  एश‍िया का सबसे बड़ी कमजोरी भी उभर आती है

सबसे बड़ी दरार  

एश‍िया की कंपन‍ियों के मुनाफे पश्‍च‍ित की कंपनी से  कम हैं. 2005 से 2017 के बीच दुन‍िया में कारपोरेट घाटों में एश‍िया की कंपनियों का हिस्‍सा सबसे बड़ा था. यही हाल संकट में फंसी कंपनियों के सूचकांकों का है एश‍िया की करीब 24 फीसदी कंपन‍ियां ग्‍लोबल कंपन‍ियों के इकनॉमिक प्रॉफि‍ट सूचकांक में सबसे नीचे हैं. शीर्ष में केवल 14 फीसदी कंपन‍ियां एश‍िया से आती हैं. एश‍िया के पास एप्‍पल, जीएम, बॉश, गूगल, यूनीलीवर, नेस्‍ले, फाइजर जैसे चैम्‍पियन नहीं हैं.

शायद यही वजह थी  एश‍िया के मुल्‍कों की कंपन‍ियों ने सरकारों की ह‍िम्मत बढ़ाई और वे आरसीईपी के जहाज पर सवार  हो गए.  अगली सदी अगर एश‍िया की है तो कंपन‍ियों को इसकी अगुआई करनी है. मुक्‍त  व्‍यापार की विटामिन से लागत घटेगी, बाजार बढ़ेगा और शायद अगले एक दशक में एश‍िया में पास भी ग्‍लोबल चैम्‍प‍ियन होंगे.

आपसी रिश्‍ते तय और अपने लोगों के भव‍िष्‍य को सुरक्ष‍ित के करने के मामलों में यूरोप के सनकी और दंभ भरे नेताओं की तुलना में में एश‍िया के छोटे देशों ने ज्‍यादा समझदारी दि‍खाई है यही वजह है कि आरसीईपी के तहत  चीन जापान व कोरिया एक साथ आए हैं यह इन तीनों प्रत‍िस्‍पि‍र्ध‍ियों का यह पहला कूटनीतिक, व्‍यापार‍िक गठजोड़ है. यूरोप जब जंग के मैदान से लौटेगा तब उसे मंदी के अंधेरे को दूर करने के लिए बाजार की  एश‍िया से रोशनी मांगनी  पड़ेगी.

भारतीय राजनीति दक‍ियानूसी बहसों का नशा किये हुए है जबकि  इस नई उड़ान की पायलट की सीट चीन ने संभाल ली है. भारत के नेताओं को पता चले क‍ि, वह एश‍िया की जिस सदी के नेतृत्‍व का गाल बजाते रहते हैं. वह सदी  शुरु होती है अब ...  

Monday, February 7, 2022

क्‍या से क्‍या हो गया !

 




महंगाई का आंकड़ा चाहे जो कलाबाजी दिखाये लेकिन क्‍या आपने ध्‍यान दिया है कि बीते छह सात सालों से इलेक्‍ट्रानिक्‍स, बिजली के सामान,आटो पुर्जों और भी कई तरह जरुरी चीजें लगातार महंगी होती जा रही हैं.

यह महंगाई पूरी तरह  प्रायोज‍ित है और नीतिगत है. भारत की सरकार जिद के साथ महंगाई का आयात कर रही है यानी इंपोर्टेड महंगाई हमें बुरी तरह कुचल रही है. आने वाले बजट में एक बार फिर कई चीजों पर कस्‍टम ड्यूटी बढाये जाने के संकेत हैं. इनमें स्‍टील और इलेक्‍ट्रानिक्‍स यानी पूरी की पूरी सप्‍लाई चेन महंगी हो सकती है.

यह चाबुक हम पर क्‍यों चल रहा है ,बजट से पहले इसे समझना बहुत जरुरी है.

नई  पहचान

भारत की यह नई पहचान परेशान करने वाली है.  भारत को व्‍यापार‍िक दरवाजे बंद करने वाले, आयात शुल्‍क बढ़ाने वाले और संरंक्षणवादी देश के तौर पर संबोध‍ित कि‍या जा रहा है. देशी उद्योगों के संरंक्षण के नाम पर भारत की सरकार ने 2014 से कस्‍टम ड्यूटी बढ़ाने का अभि‍यान शुरु कर दिया था. इस कवायद से कितनी आत्‍मनिर्भरता आई इसका कोई हिसाब सरकार ने नहीं दिया अलबत्‍ता भारत सरकार की इस  कच्‍छप मुद्रा, छोटे  उद्येागों का कमर तोड़ दी और अब उपभोक्‍ताओं का जीना मुहाल कर रही है

2022 के बजट दस्‍तावेज के मुताबिक एनडीए सरकार ने बीते छह बरस में भारत के करीब एक तिहाई आयातों यानी टैरिफ लाइन्‍स पर बेसिक कस्‍टम ड्यूटी बढ़ाई . यानी करीब 4000 टैरिफ लाइंस पर सीमा शुल्‍क बढ़ा या उन्‍हें महंगा किया गया. टैरिफ लाइन का मतलब वह सीमा शुल्‍क दर जो किसी एक या अध‍िक सामानों पर लागू होती है.

इस बढ़ोत्‍तरी का नतीजा था कि उन देशों से आयात बढ़ने लगा जिनके साथ भारत का मुक्‍त व्‍यापार समझौता है या फिर व्‍यापार वरीयता की संध‍ियां है. सरकार ने और सख्‍ती की ताकि संध‍ि वाले इन देशों के रास्‍ते अन्‍य देशों का सामान  न आने लगे. करीब 80 सामानों पर कस्‍टम ड्यूटी रियायत खत्‍म की गई और 400 से अध‍िक अन्‍य सीमा शुल्‍क प्रोत्‍साहन रद कर दिये गए.

डब्लूटीओ की रिपोर्ट के अनुसार 2019 तक भारत में औसत सीमा शुल्‍क या कस्‍टम ड्यूटी दर 17.6 फीसदी हो गई थी जो कि 2014 में 13.5 फीसदी थी. जब ट्रेड वेटेड एवरेज सीमा शुल्‍क जो 2014 में केवल 7 फीसदी था वह 2018 में बढ़कर 10.3 फीसदी हो गया. ट्रेड वेटेड औसत सीमा शुल्‍क की गणना के ल‍िए क‍िसी देश के कुल सीमा शुल्‍क राजस्‍व से उसके कुल आयात से घटा दिया जाता है.

भारत के महंगा आयात अभ‍ियान का पूरा असर समझने के लिए कुछ और भीतरी उतरना होगा. डब्‍लूटीओ के तहत सीमा शुल्‍क दरों के दो बड़े वर्ग हैं एक है एमएफएन टैरिफ यानी वह रियायती दर जो डब्लूटीओ के सदस्‍य देश एक दूसरे से व्‍यापार पर लागू करते हैं. यही बुनियादी डब्‍लूटीओ समझौता था. दूसरी दर है बाउंड टैरिफ जिसमें किसी देश अपने आयातों को अध‍िकतम आयात शुल्‍क लगाने की छूट मिलती है, चाहे वह आयात कहीं से हो रहा है. भारत के बाउंड टैरिफ सीमा शुल्‍क दर बढ़ते बढ़ते 2018 में  48.5 फीसदी की ऊंचाई पर पहुंच गई  जबकि एमएफएन सीमा शुल्‍क दरें औसत 13.5 फीसदी हैं. इसके अलावा कृष‍ि उत्‍पादों आदि पर सीमा शुल्‍क तो 112 फीसदी से ज्‍यादा है.

यही वजह थी कि बीते बरसों में मोदी ट्रंप दोस्‍ती के दावों बाद बावजूद व्‍यापार को लेकर अमेरिका और भारत के रिश्‍तों में खटास बढ़ती गई जो अब तक बनी हुई है. इसी संरंक्षणवाद के कारण प्रधानमंत्री मोदी के तमाम ग्‍लोबल अभ‍ियानों के बावजूद भारत सात वर्षों में एक नई व्‍यापार संध‍ि नहीं कर सका.

किसका नुकसान

आयातों की कीमत बढ़ाने की यह पूरी परियोजना इस बोदे और दकियानूसी तर्क के साथ गढ़ी गई कि यद‍ि आयात महंगे तो होंगे  देश में माल बनेगा. पर दरअसल एसा हुआ नहीं क्‍यों कि एकीकृत दुनिया में. उत्‍पादन की चेन को पूरा करने के लिए भारत को इलेक्‍ट्रानिक्‍स, पुर्जे, स्‍टील, मशीनें, रसायन आदि कई जरुरी चीजें आयात ही करनी हैं.

उदाहरण के लिए इलेक्‍ट्रानिक्‍स को लें जहां सबसे ज्‍यादा आयात शुल्‍क बढ़ा. बीते तीन साल में इलेक्‍ट्रानिक पुर्जों जैसे पीसीबी आदि का एक तिहाई आयात तो अकेले चीन से हुआ 2019-20 ज‍िसकी कीमत करीब 1.15 लाख करोड़ रुपये थी. शेष जरुरत ताईवान फिलीपींस आद‍ि से पूरी हुई.

स्‍वदेशीवाद की इस नीति ने भारत छोटे उद्योागें के पैर काट दिये हैं जिनकी सबसे बड़ी निर्भरता आयात‍ित कच्‍चे माल पर है. इंपोर्टेड महंगाई इन्‍हें सबसे ज्‍यादा भारी पड़ रही है. स्‍टील तांबा अल्‍युम‍िन‍ियम जैसे उत्‍पादों और मशीनरी पर आयात शुल्‍क बढ़ने से भारत के बड़े मेटल उत्‍पादकों ने दाम बढ़ा दि‍ये. गाज गिरी छोटे उद्योगों पर, यह धातुएं जिनका कच्‍चा माल हैं. इधर  सीधे आयात होने वाले पुर्जें व अन्‍य सामान पर सीमा शुल्‍क बढ़ने से पूरी उत्‍पादन चेन को महंगी हो गई.

भारत में अध‍िकांश छोटे उद्योगों के 2017 से कच्‍चे माल की महंगाई से जूझना शुरु कर दिया था. अब तो इस महंगाई का विकराल रुप उन के सर पर नाच रहा है. कुछ छोटे उद्योग बढ़ी कीमत पर कम कारोबार को मजबूर हैं जब कई दुकाने बंद हो रही हैं

ताजा खबर यह है कि इंपोर्टेड महंगाई का अपशकुन सरकार की बहुप्रचार‍ित मैन्‍युफैक्‍चरिंग प्रोत्‍साहन योजना (पीएलआई) का दरवाजा घेर कर बैठ गया है. चीन वियमनाम थाईलैंड और मैक्‍सिकों के टैरिफ लाइन और भारत की तुलना पर आधार‍ित, आईसीईए और इकध्‍वज एडवाइजर्स की एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि भारत इलेक्‍ट्रान‍िक्‍स पुर्जों के आयात के मामले में सबसे ज्‍यादा महंगा है. यानी भारत की तुलना में इन देशों दोगुने और तीन गुना उत्‍पादों पुर्जों का सस्‍ता आयात संभव है. इसलिए उत्‍पादन के ल‍िए नकद प्रोत्‍साहन के बावजूद कंपनियों की निर्यात प्रतिस्‍पर्धात्‍मकता टूट रही है.

निर्यात के लिए व्‍यापार संध‍ियां करने  और बाजारों का लेन देन करने की जरुरत होती है आयात महंगा करने से आत्‍मनिर्भरता तो खैर क्‍या ही बढ़ती महंगाई को नए दांत मिल गए. उदाहरण के लिए भारत के ज्‍यादातर उद्येाग जहां पीएलआई में निवेश का दावा किया गया वहां उत्‍पादों की कीमतें कम नहीं हुई बल्‍क‍ि बढ़ी हैं. मोबाइल फोन इसका सबसे बड़ा नमूना है जहां सेमीकंडक्‍टर की कमी से पहले ही महंगाई आ गई थी.

जो इतिहास से नहीं सीखते

बात 15 वीं सदी की है. क्रिस्टोफर कोलम्बस की अटलांटिक पार यात्रा में अभी 62 साल बाकी थेमहान चीनी कप्तान झेंग हे अपने विराट जहाजी बेडे के साथ अफ्रीका तक की छह ऐतिहासिक यात्राओं के बाद चीन वापस लौट रहा था.  झेंग हे का बेड़ा कोलम्बस के जहाजी कारवां यानी सांता मारिया से पांच गुना बड़ा था. झेंग हे की वापसी तक मिंग सम्राट योंगल का निधन हो चुका थाचीन के भीतर खासी उथल पुथल थी. इस योंगल के उत्‍तराध‍िकारों ने एक अनोखा काम क‍िया. उन्‍होंने समुद्री यात्राओं पर पाबंदी लगाते हुए दो मस्तूल से अधिक बड़े जहाज बनाने पर मौत की सजा का ऐलान कर दिया

इसके बाद चीन का विदेश व्यापार अंधेरे में गुम गया. उधर स्पेन, पुर्तगाल, ब्रिटेन, डच बंदरगाहों पर जहाजी  बेड़े सजने लगे जिन्‍होंने अगले 500 साल में दुनिया को मथ डाला और व्‍यापार का तारीख बदल दी.

चीन को यह बात समझने में पांच शताब्‍द‍ियां लग गईं क‍ि कि जहाज बंदरगाह पर खड़े होने के लिए नहीं बनाए जातेदूसरी तरफ अमेर‍िका अपनी स्‍थापना के वक्‍त पर ही यानी 18 वीं सदी की शुरुआत ग्‍लोबल व्‍यापार की अहम‍ियत समझ गया था तभी तो अमेरिका के संस्‍थापन पुरखे बेंजामिन फ्रैंकलिन ने कहा था कि व्यापार से दुनिया का कोई देश कभी बर्बाद नहीं हुआ है 

अलबत्‍ता चीन ने जब एक बार ग्लोबलाइजेशन का जहाज छोड़ा तो फ‍िर दुन‍िया को अपना कारोबारी उपन‍िवेश बना ल‍िया लेक‍िन बीते 2500 साल में मुक्त व्यापार के फायदों से बार बार अमीर होने वाले भारत ने बीते छह साल में उलटी ही राह पकड़ ली.

एक पुराने व्‍यापार कूटनीतिकार ने कभी मुझसे कहा था कि सरकारें कुछ भी करें लेक‍िन उन्‍हें महंगाई का आयात नहीं करना चाहिए. वे हमेशा इस पर झुंझलाये रहते थे कि कोई भी समझदार सरकार जानबूझकर अपना उत्‍पादन महंगा क्‍यों करेगी. लेकि‍न सरकारें कब सीखती हैं, नसीहतें तो जनता को मिलती है, इंपोर्टेड महंगाई हमारी सबसे ताजी नसीहत है.   

ये डर है क़ाफ़िले वालो कहीं गुम कर दे

मिरा ही अपना उठाया हुआ ग़ुबार मुझे 



 

Friday, November 8, 2019

डर के नक्कारखाने


 

डर के नक्कारखाने सबसे बड़ी सफलताओं को भी गहरी कायरता से भर देते हैं. भारत चुनिंदा देशों में है जिसने सबसे कम समय में सबसे तेजी से खुद को दुनिया से जोड़कर विदेशी निवेश और तकनीक, का सबसे ज्यादा फायदा उठाया है. लेकिन खौफ का असर कि दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था विदेश नीति के मामले में सबसे प्रशंसित सरकार के नेतृत्व में 16 एशियाई देशों के व्यापार समूह आरसीईपी (रीजनल कॉम्प्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप) को पीठ दिखाकर बाहर निकल आई.

दुनिया से जुड़कर भारत को क्या मिला, यह जानने के लिए नरेंद्र मोदी के नीति आयोग के मुखिया रहे अरविंद पानगड़िया से मिला जा सकता है जो यह लिखते (ताजा किताबफ्री ट्रेड ऐंड प्रॉस्पेरिटी) हैं कि मुक्त व्यापार और ग्लोबलाइजेशन के चलते दो दशक में भारत की ग्रोथ में 4.6 फीसद का इजाफा हुआ है. इसीचमत्कारसे भारत में गरीबी घटी है.

व्यापार वार्ताओं की जटिल सौदेबाजी एक पहलू है और देश को डराना दूसरा पहलू. सौदेबाजी में चूक पर चर्चा से पहले हमें यह समझना होगा कि बंद दरवाजों से किसे फायदा होने वाला है? डब्ल्यूटीओ, व्यापार समझौतों और विदेशी निवेश के उदारीकरण का तजुर्बा हमें बताता है कि संरक्षणवाद के जुलूसों के आगे किसान या छोटे कारोबारी होते हैं और पीछे होती हैं बड़े देशी उद्योगों की लामबंदी क्योंकि प्रतिस्पर्धा उनके एकाधिकार पर सबसे बड़ा खतरा है.

आरसीईपी से जुडे़ डर को तथ्यों के आईने में उतारना जरूरी हैः

·       डब्ल्यूटीओ से लेकर आरसीईपी तक उदारीकरण का विरोध किसानों के कंधे पर बैठकर हुआ है लेकिन 1995 से 2016 के बीच (डब्ल्यूटीओ, कृषि मंत्रालय, रिजर्व बैंक के आंकड़े) दुनिया के कृषि निर्यात में भारत का हिस्सा 0.49 फीसद (डब्ल्यूटीओ से पहले) से बढ़कर 2.2 फीसद हो गया

·       आसियान, दक्षिण कोरिया और जापान भारत के सबसे सफल एफटीए (आर्थिक समीक्षा 2015-16) हैं. इन समझौतों के बाद, इन देशों से व्यापार 50 फीसद बढ़ा. निर्यात में 25 फीसद से ज्यादा इजाफा हुआ. यह गैर एफटीए देशों के साथ निर्यात वृद्धि का दोगुना है

·       विश्व व्यापार में सामान के निर्यात के साथ पूंजी (निवेश) और तकनीक की आवाजाही भी शामिल है. पिछले दो दशक में इसका (विदेशी निवेश) सबसे ज्यादा फायदा भारत को हुआ है

·       आरसीईपी से डराने वाले लोग जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग के गिरते हिस्से की नजीर देते हैं. लेकिन ढाई दशक का तजुर्बा बताता है कि जहां विदेशी पूंजी या प्रतिस्पर्धा आई वहीं से निर्यात बढ़ा और मैन्युफैक्चरिंग (ऑटोमोबाइल, केमिकल्स, फार्मा, इलेक्ट्रॉनिक्स, इलेक्ट्रिक मशीनरी) आधुनिक हुई है. उदारीकण से उद्योग प्रतिस्पर्धात्मक हुए हैं कि उसे रोकने से. छोटे मझोले उद्योगों में कमजोरी नितांत स्वेदशी कारणों से है.

फिर भी हम आरसीईपी के कूचे से बाहर इसलिए निकले क्योंकि

एक, एकाधिकारवादी उद्योग, हमेशा विदेशी प्रतिस्पर्धा का विरोध करते हैं. इसको लेकर वही उद्योग (तांबा, एल्युमिनियम, डेयरी) डरे थे जो या तो आधुनिक नहीं हैं या जहां कुछ कंपनियों का एकाधिकार है. भारत की इस पीठ दिखाऊ कूटनीति का फायदा उन्हें होने वाला है.

जैसे कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक है लेकिन एक बड़ी आबादी कुपोषण की शि‍कार है. . भारत में दूध की खपत (2012 से 16 के बीच) सालाना केवल 1.6 फीसदी की रफ्तार से बढ़ी.  दूध की महंगाई रिकार्ड तोड़ती है. कोआपरेटिव संस्थाओं का एकाधि‍कार में संचालित भारत का डेयरी उद्योग पिछड़ा है. यदि दूध की कीमतें कम होती हैं तो हर्ज क्या ? सनद रहे कि उपभोक्ताओं के लिए दूध की बढ़ी कीमत का फायदा किसानों को नहीं मिलता. उन्हें दूध फेंक कर आंदोलन करना पड़ता है.

दो, व्यापार वार्ताएं गहरी कूटनीतिक सौदेबाजी मांगती हैं. दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अपनी पूरी ताकत के साथ इसमें उतरी ही नहीं. मोदी सरकार की विदेश व्यापार नीति शुरू से संरक्षणवाद (अरविंद सुब्रह्मण्यम और पानगड़िया के चर्चित बयान) की जकड़ में है.  आरसीईपी पर सरकार के भीतर गहरे अंतरविरोध थे.

बीते दिसंबर के अंत में सरकार ने संसद को (वाणिज्य मंत्रालय की विज्ञप्ति- 1 जनवरी, 2019) आरसीईपी की खूबियां गिनाते हुए बताया था कि इससे देश के छोटे और मंझोले कारोबारियों को फायदा होगा. लेकिन बाद में घरेलू लामबंदी काम कर गई. वाजपेयी सरकार ने डब्ल्यूटीओ वार्ताओं के दौरान देशी उद्योगों और स्वदेशी की दकियानूसी जुगलबंदी को साहस और सूझबूझ के साथ आईना दिखाया था. यकीनन, आरसीईपी डब्ल्यूटीओ से कठिन सौदेबाजी नहीं थी जिसके तहत भारत ने पूरी दुनिया के लिए अपना बाजार खोला है.

आरसीईपी में शामिल हर अर्थव्यवस्था को चीन से उतना ही डर लग रहा है जितना कि डब्ल्यूटीओ में यूरोप और अमेरिका से विकासशील देशों को था. भारत छोटी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं का नेतृत्व कर चीन का प्रभुत्व रोक सकता था लेकिन पिछले छह साल के कथित विश्व विजयी कूटनीतिक अभियानों के बाद हमने पड़ोस का फलता-फूलता बाजार चीन के हवाले कर दिया.

नए व्यापार समझौते अपने पूर्वजों से सबक लेते हैं. आरसीईपी में कमजोरी यूरोपीय समुदाय कनाडा से एफटीए वार्ताओं में भारत के पक्ष को कमजोर करेगी.

चीन जब अपनी घरेलू अर्थव्यवस्था को संभाल रहा है तो भारत के लिए उड़ान भरने का मौका है. बड़ा निर्यातक बने बिना दुनिया का कोई भी देश लंबे समय तक 8 फीसद की विकास दर हासिल नहीं कर सका. सतत ग्लोबलाइजेशन के बिना 9 फीसद की विकास दर असंभव है. और इसके बिना पांच ट्रिलियन डॉलर का ख्वाब भूल जाना चाहिए.

व्यापार समझौतों से निकलने के नुक्सान ठोस होते हैं और फायदे अमूर्त. मुक्त व्यापार से फायदों का पूरा इतिहास हमारे सामने है संरक्षणवाद से नुक्सानों की गिनती शुरू होती है अब....