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Monday, July 11, 2016

... तो फिर मत लाइये जीएसटी

जीएसटी का ड्राफ्ट कानून न आधुनिक है और न दूरदर्शी। यह निराश ही नहीं आशंकित भी करता है। 

यदि आप भी मानते हैं कि जीएसटी (गुड्स ऐंड सर्विसेज टैक्स) के लागू होने के बाद कारोबार करना सांस लेने जितना आसान हो जाएगा और परतदार टैक्सों के जरिए बढऩे वाली महंगाई से मुक्ति मिल जाएगीतो आप को एक बार केंद्र सरकार के मॉडल जीएसटी कानून (http://goo.gl/cxDWtx) को जरूर पढऩा चाहिएजो जीएसटी का आधार बनेगा और जिसे संसद के आगामी सत्र में मंजूर कराने की कोशिश की जाएगी.

हम जानते हैं कि सरकार के कानून कतई पठनीय नहीं होते. लेकिन कठिनता और पेच-परतों के बावजूद इस कानून को पढऩा जरूरी है. इसे पढ़कर ही यह पता चल सकेगा कि इस कानून से निकलने वाला जीएसटी भारत का सबसे बड़ा टैक्स सुधार नहीं बल्कि बड़ी मुसीबत बनने के खतरों से लैस है. 

जीएसटी कानून के मकडज़ाल में उतरते हुए यह याद रखना जरूरी है कि इस कर सुधार के तीन मकसद हैं: पहलापूरे देश में दर्जनों टैक्स हैं जो भारत को एक कॉमन मार्केट बनाने में सबसे बड़ी बाधा हैं. जीएसटी से पूरे देश में उत्पादनबिक्री और सेवाओं पर समान दर से एक टैक्स लगेगा और भारत एक निर्बाध बाजार में बदल जाएगा.

दूसराभांति-भांति के टैक्स महंगाई बढ़ाते हैंजीएसटी के तहतकस्टम ड्यूटी के अलावा केंद्र और राज्यों के सभी इनडाइरेक्ट टैक्स (एक्साइजसर्विसवैटचुंगी आदि) एक साथ मिलाए जाएंगे जिससे टैक्स की प्रभावी दर कम होगी. इसके तहत निर्माता और सेवा प्रदाताओं कोउत्पादन और सेवा के अलग स्तरों पर लगने वाले टैक्स वापस होंगे जिससे अंतिम उत्पाद या सेवा पर सिर्फ एक टैक्स लगेगा और महंगाई कम होगी.

तीसराजीएसटी एक सहज टैक्स प्रशासन लेकर आएगा जिसमें कारोबार करना बेहद आसान हो जाएगा.

इन्हीं तीन वजहों से जीएसटी को लेकर उम्मीदों का सूचकांक हमेशा आसमान पर चढ़ा रहा. लेकिन इन उम्मीदों से प्रभावित कोई व्यक्ति अगर जीएसटी कानून को पढ़े तो वह इसमें आधुनिक टैक्स सिस्टम और कारोबार की सहजता तलाशता रह जाएगा.
जीएसटी सबूत है कि सरकार जो कह रही हैंकानून उसका ठीक उलटा करने वाला है. इसमें एक नहीं बल्कि कई ऐसे प्रावधान हैं जो भविष्योन्मुखी और आधुनिक टैक्स ढांचा देने के बजाए मौजूदा टैक्स प्रणाली को ही कई साल पीछे धकेल सकते हैं.

बानगी के लिए टैक्स पंजीकरण को ही लें जो कि टैक्सेशन का बुनियादी पहलू है और कारोबारियों की सबसे बड़ी सांसत है. यह कानून लागू हुआ तो दर्जनों टैक्स रजिस्ट्रेशन कराने होंगे. जीएसटी के प्रस्तावित तीन स्तरीय टैक्स (सेंट्रलस्टेटइंटीग्रेटेड) ढांचे के तहत पूरे देश में माल बेचने या सप्लाई करने वालों को हर राज्य में तीन अलग-अलग पंजीकरण कराने होंगे और अलग-अलग रिटर्न भरते हुए टैक्स का हिसाब रखना होगा.

यही नहींअगर कोई कंपनी कई तरह के कारोबार करती है तो सभी कारोबारों का अलग-अलग पंजीकरण होगा. अब यह सरकार ही बता सकती है कि असंख्य रजिस्ट्रेशनों और रिटर्न की व्यवस्था के बाद जीएसटी कारोबार को कैसे आसान करेगाहकीकत यह है कि जीएसटी में पंजीकरण का यही अकेला प्रावधान इस पूरे सुधार को पटरी से उतार देगा क्योंकि भारत में कर नियमों के पालन की लागत (कंप्लायंस कॉस्ट) पहले ही काफी ऊंची हैजो जीएसटी के बाद कई गुना बढ़ सकती है.

एक और प्रावधान काबिलेगौर है जो देश में अलग-अलग राज्यों में संचालन करने वाली कंपनियों या प्रतिष्ठानों पर भारी पड़ेगा. जीएसटी ऐक्ट के तहत अगर कोई कंपनी अपनी ही किसी शाखा या इकाई को माल या सेवा भेजती है तो इस पर टैक्स लगेगा. माल या सेवा पाने वाली इकाई इस टैक्स की वापसी के लिए बाद में दावा करेगी. यह प्रावधान जीएसटी से देश में कॉमन मार्केट बनने की उम्मीदों को भावभीनी श्रद्धांजलि है.

इनपुट टैक्स क्रेडिट जीएसटी की जान हैजिसके तहत उत्पादन या आपूर्ति के दौरान कच्चे माल या सेवा पर चुकाए गए टैक्स की वापसी होती है. यही व्यवस्था एक उत्पादन या सेवा पर बार-बार टैक्स का असर खत्म करती है पर इससे जुड़ा प्रावधान अनोखा है. जीएसटी ऐक्ट कहता है कि सप्लायर ने सरकार को टैक्स नहीं चुकाया है तो उस सेवा या कच्चे माल का इस्तेमाल करने वाला निर्माता टैक्स क्रेडिट का दावा नहीं कर सकेगा. यह प्रावधान जीएसटी के मिलने वाले फायदों की राह में सबसे बड़ा रोड़ा होगा.

एक्साइज और सर्विस टैक्स कानूनों में जटिल परिभाषाओं और प्रावधानों के कारण सुप्रीम कोर्टहाइकोर्टट्रिब्यूनलों और अपील कमिशनरों के पास 1.20 लाख से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं. जीएसटी कानून में भी असंगतियों और पेचदार परिभाषाओं की बहुतायत है जो कानूनी जटिलताएं बढ़ाएंगी और मनमाने नोटिस भेजने का मौका देंगी.

जीएसटी के मॉडल ऐक्ट को पढ़ते हुए यह समझना मुश्किल नहीं कि अधिकारियों ने जीएसटी कानून को पुराने कस्टमएक्साइजसर्विसेज और वैट कानूनों की असंगतियों का पुलिंदा बना दिया है. उम्मीद यह थी कि जीएसटी के जरिए आधुनिकसहज और दूरदर्शी टैक्स सिस्टम मिलेगा. अगर यह मॉडल कानून है और इसके आधार पर राज्‍यों के एसजीएसटी (स्‍टेट जीएसटी) कानून बनेंगे तो फिर कारोबारी सहजता की उम्‍मीदों का ऊपर वाला ही मालिक है। 

इस कानून को देखने के बाद जीएसटी में कारोबारी सहजता की उम्मीदें किनारे लग गई हैं. रही बात समेकित कर ढांचे की तो तीन स्तरीय जीएसटी में न स्टांप ड्यूटी शामिल होगीन मोटर वेहिकल टैक्स और कुछ राज्यों में तो चुंगी शामिल होने पर भी शक है. पेट्रोल-डीजल पर लगने वाला टैक्स जीएसटी के अतिरिक्त होगा. मंदीराज्यों के राजस्व में गिरावट और वेतन आयोग के कारण बढ़े खर्चों की वजह से जीएसटी की दर ऊंची ही रहनी है. इनडाइरेक्ट टैक्स की औसत दर इस समय 24 फीसदी हैइसे देखते हुए जीएसटी रेट 18 से 20 फीसदी के बीच रह सकता है जिसका मतलब है कि सर्विस टैक्स की दर में चार से छह फीसदी का इजाफा होगा और कई स्तरों पर उत्पाद शुल्क वैट भी बढ़ेगा.


जीएसटी की राजनीति नहीं बल्कि इसका अर्थशास्त्रक्रियान्वयन और प्रशासन महत्वपूर्ण है. क्रांतिकारी सुधार दिखाने को बेचैन सरकार को इससे चाहे जो राजनैतिक उम्मीदें हों लेकिन जीएसटी जिस तरह आकार ले रहा हैवह आर्थिक अवसरों के बजाए पूरे टैक्स सिस्टम में असंगतियों और अराजकता के रास्ते खोल सकता है. उम्मीद है कि हमारे नेता इतने संवेदनशील सुधार को लेकर 'आ बैल मुझे मारनहीं करेंगे.

Monday, February 23, 2015

टैक्स इन इंडिया

टैक्स बढ़ाकर उसे सुधार और संरक्षण की पैकेजिंग में पेश करने का अवसर कभी-कभी ही आता है, वित्त मंत्री अरुण जेटली इस बजट में शायद यह मौका चूकना नहीं चाहेंगे

टैक्स से चिढ़ने वालों के बीच यह कहावत मशहूर है कि आप टैक्स चुकाते नहीं, वे टैक्स वसूलते हैं. टैक्स को पसंद भी कौन करता है? लेकिन टैक्स ही वह पहलू है जिसके चलते बजट नाम की कवायद एक बड़ी आबादी के लिए दिलचस्प हो जाती है. इसके अलावा बजट में जो भी होता है, उससे भारत के आधा फीसदी लोगों की जिंदगी प्रभावित नहीं होती. मोदी सरकार के पहले वास्तविक बजट (जुलाई का बजट सिर्फ आठ माह का था) का इंतजार भले ही बड़ी स्कीमों सुधारों के लिए किया जा रहा हो लेकिन बजट की बुनियाद, आर्थिक हालात और भविष्य की तैयारियां बताती हैं कि बजट की असली इबारत इसके टैक्स प्रस्तावों में छिपी हो सकती है. टैक्स से हमारा मतलब इनकम टैक्स से हरगिज नहीं है जो केवल मुट्ठी भर लोगों की चिंता है. हम तो सबसे बड़े टैक्स परिवार की बात कर रहे हैं जो खपत उत्पादन पर (एक्साइज, कस्टम्स और सर्विस टैक्स) लगता है और सबको प्रभावित करता है. टैक्स बुरे हैं लेकिन टैक्स बढ़ाकर उसे सुधार और संरक्षण की पैकेजिंग में पेश करने का अवसर कभी-कभी ही आता है, वित्त मंत्री अरुण जेटली शायद यह मौका चूकना नहीं चाहेंगे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब मेक इन इंडिया का बिगुल बजाया था तब उन्हें यह पता नहीं था कि सस्ते आयात के चलते भारत में उत्पादन किस कदर गैर-प्रतिस्पर्धात्मक है. मेक इन इंडिया पर दो तीन बैठकों के बाद ही सरकार को इलहाम हो गया कि आयात महंगा किए बिना मैन्युफैक्चरिंग को प्रतिस्पर्धात्मक बनाना असंभव है, क्योंकि ब्याज दरें, जमीन और बिजली सस्ती करना या श्रम कानूनों में बदलाव दूर की कौड़ी हैं. अगर यह बजट मेक इन इंडिया को हकीकत की जमीन देना चाहेगा तो तमाम उत्पादों पर कस्टम ड्यूटी में अच्छी-खासी बढ़ोतरी हो सकती है. कई आयात ऐसे हैं जिन पर कस्टम ड्यूटी की दर डब्ल्यूटीओ में निर्धारित दरों से कम है, इसलिए वित्त मंत्री के पास विकल्प मौजूद हैं. वे कस्टम ड्यूटी बढ़ाकर स्वदेशी पैराकारों को भी खुश करेंगे अलबत्ता आयातकों की मजबूत लॉबी उन्हें रोकने की कोशिश करेगी.
भारत का सबसे बड़ा कर सुधार भी अब टैक्स की दर बढ़ाए बिना परवान नहीं चढ़ेगा. जीएसटी की तैयारियां शुरू हो गई हैं. केंद्र राज्य कर ढांचों को मिलाकर भारत में जीएसटी की दर  25 से 30 फीसद तक हो सकती है. जीएसटी को यदि, अगले साल अमल में लाना है तो केंद्रीय एक्साइज ड्यूटी और सर्विस टैक्स की दरों में एक या दो फीसद (12 से 13 या 14) की बढ़ोतरी करनी होगी ताकि एकीकृत टैक्स प्रणाली (जीएसटी) की तरफ बढ़ने का रास्ता बन सके. वित्त मंत्री लगे हाथ, लग्जरी उत्पादों पर टैक्स बढ़ाने के मौके का इस्तेमाल भी करना चाहेंगे. महंगाई काबू में है, मांग वैसे भी कम है इसलिए अगर ड्यूटी बढ़ने से कुछ चीजें महंगी होती हैं तो देसी उद्योगों में निवेश रोजगार बढ़ने और जीएसटी लाने का तर्क वित्त मंत्री की मदद करेगा.
बजट की दूरगामी आर्थिक सूझ भी टैक्स से निकलने की संभावना है. भारत में जीडीपी के अनुपात में टैक्स संग्रह का कम होना एक महत्वपूर्ण पहलू है. कमजोर टैक्स जीडीपी रेशियो बताता है कि अर्थव्यवस्था बढ़ रही है लेकिन टैक्स संग्रह नहीं. भारत में यह अनुपात दो दशकों से 8 से 12 फीसदी के बीच झूल रहा है जो ब्राजील, रूस, दक्षिण अफ्रीका जैसे ब्रिक्स देशों के मुकाबले भी कम है. वित्त मंत्री कर ढांचे में बदलाव के जरिए इस अनुपात में इजाफे की कोशिश करते नजर आएंगे जो ग्लोबल एजेंसियों की अपेक्षाओं के माफिक है. भारत में सकल घरेलू उत्पादन (खेती, उद्योग, सेवा) की गणना का फॉर्मूला भी बदल गया है. पुरानी गणना बुनियादी लागत (बेसिक कॉस्ट) पर होती थी यानी जो कीमत निर्माता या उत्पादक को मिलती है. लेकिन अब उत्पादन लागत का हिसाब लगाने में बेसिक कॉस्ट के साथ अप्रत्यक्ष कर भी शामिल होगा इसलिए कर बढ़ाकर जीडीपी की सूरत भी चमकाई जा सकती है.
भारत के बजट हमेशा खर्च से भरपूर होते रहे हैं. सरकार भी यही चाहती है कि बजट को इनकम टैक्स रियायतों के झरोखे से देखा जाए, जो एक छोटी वेतनजीवी या उद्यमी आबादी के लिए होती हैं या फिर बजट में खर्च के आंकड़ों पर लोगों को रिझाया जाए. सस्ते कच्चे तेल और सब्सिडी में कमी के कारण सरकार के पास अच्छी बचत है जो खर्च के लिए जगह बना रही है. यह खर्च बुनियादी ढांचे में हुआ तो कुछ असर करेगा लेकिन अगर राजनैतिक चिंताएं सिर चढ़कर बोलीं तो केंद्रीय स्कीम राज और सब्सिडी बढ़ेगी. वैसे खर्च को बजट के साथ नहीं बल्कि साल के अंत मेें देखना बेहतर होता है क्योंकि बजट भाषण के दौरान बड़ी-बड़ी संख्याओं पर तालियां बजती हैं और छह माह बीतने के बाद खर्च काटकर वित्त मंत्री बचतबहादुर हो जाते हैं.
भारत की टैक्स नीति निर्णायक मोड़ पर है. कस्टम ड्यूटी में कटौती, सर्विस टैक्स और राज्यों में वैट, टैक्स सुधारों के पहलेचरण का हिस्सा थे जिनका मकसद भारतीय बाजार को दुनिया के लिए उदार करना और करदाताओं की संख्या बढ़ाना था. कर सुधारों का अगला चरण टैक्सों की संख्या सीमित करना, लागत घटाने चोरी रोकने पर केंद्रित है ताकि उद्योगों व्यापार को प्रतिस्पर्धात्मक बनाया जा सके. जीएसटी का यही मकसद है. बजट में खर्च के आंकड़े राजनैतिक होते हैं जो बजट पेश होते ही हवा हो जाते हैं. जेटली के खर्च आंकड़े भी टिकाऊ नहीं होंगे. निगाह तो उनके टैक्स प्रस्तावों पर होगी. टैक्स शाश्वत सत्य हैं जो पूरे साल मौजूदगी का एहसास कराते हैं. मोदी-जेटली की टैक्स नीति ही भारत में निवेश का भविष्य तय करेगी