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Tuesday, March 27, 2018

कमजोर करने वाली 'ताकत'


सरकार
नवंबर 2014: ''सरकार नियामकों की व्यवस्था को सुदृढ़ करेगी. वित्तीय क्षेत्र कानूनी सुधार आयोग (एफएसएलआरसी) की महत्वपूर्ण सिफारिशें सरकार के पास हैंइनमें कई सुझावों को हम लागू करेंगे.''—वित्त मंत्री अरुण जेटलीमुंबई स्टॉक एक्सचेंज
फरवरी 2018: ''रेगुलेटरों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है. भारत में नेताओं की जवाबदेही है लेकिन नियामकों की नहीं.''—अरुण जेटलीपीएनबी घोटाले के बाद

नियामक
मार्च 2018: ''घाटालों से हम भी क्षुब्ध हैं लेकिन बैंकों की मालिक सरकार हैहमारे पास अधिकार सीमित हैं. '' उर्जित पटेल गवर्नररिजर्व बैंक
''बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो और वित्त मंत्रालय के बीच संवाद ही नहीं हुआ. हम वित्त मंत्री के साथ बैठक का इंतजार करते रहे''—विनोद रायबैंकिंग बोर्ड ब्यूरो के अध्यक्ष. (यह ब्यूरो बैंकों में प्रशासनिक सुधारों की राय देने के लिए बना था जो सिफारिशें सरकार को सौंप कर खत्म हो गया है.)

किसकी गफलत   

घोटालों के बाद सरकारें नियामकों या नौकरशाहों के पीछे ही छिप जाती हैं. लेकिन गौर कीजिए कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि पटेल की नियुक्ति या बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो का गठन इसी सरकार ने किया था. वे नियामक हैं इसलिए उन्होंने सरकार के सामने आईना रख दिया.

बैंकों में घोटालों के प्रेत को नियामकों की गफलत ने दावत नहीं दी. 2014 में वित्तीय क्षेत्र में सुधारों का एक मुकम्मल एजेंडा सरकार की मेज पर मौजूद था. कांग्रेस के हाथ-पैर कीचड़ में भले ही लिथड़े थे लेकिन 2011 में उसे इस बात का एहसास हो गया था कि वित्तीय सेवाओं को नए नियामकों व कानूनों की जरूरत है. जस्टिस बी.एन. श्रीकृष्णा के नेतृत्व में एक आयोग (एफएसएलआरसी) बनाया गया. उसकी रिपोर्ट 22 मार्च, 2103 को सरकार के पास पहुंच गई. 2014 में नई सरकार को इसे लागू करना था. वित्त मंत्री ने 2014 में मुंबई स्टॉक एक्सचेंज के कार्यक्रम में इसी को लागू करने की कसम खाई थी.

एफएसएलआरसी ने सुझाया कि
- एक चूक से पूरे सिस्टम में संकट को रोकने (नीरव मोदी प्रकरण में पीएनबी के फ्रॉड से कई बैंक चपेट में आ गए) के लिए फाइनेंशियल स्टेबिलिटी ऐंड डेवलपमेंट काउंसिल का गठन
- वित्तीय उपभोक्ताओं को न्याय देने के लिए फाइनेंशियल रेड्रेसल एजेंसी
वित्तीय अनुबंधोंसंपत्तिमूल्यांकन और बाजारों के लिए नए कानून
- जमाकर्ताओं की सुरक्षा के लिए नया ढांचा 

विभिन्न वित्तीय पेशेवरों के लिए नियामक बनाने के लिए प्रस्ताव भी सरकार के पास थे. पिछले चार साल में केवल बैंकिंग बोर्ड ब्यूरो बना जिसके लिए वित्त मंत्री के पास समय नहीं था. इसलिए वह बगैर कुछ किए रुखसत हो गया. चार्टर्ड अकाउंटेंट्स नियामक की सुध नीरव मोदी घोटाले के बाद आई. अगर यह बन पाया तो भी एक साल लग जाएगा.

दकियानूस गवर्नेंस

हम भले राजनेताओं को गजब का चालाक समझते हों लेकिन दरअसल वे आज भी 'मेरा वचन ही है मेरा शासन' वाली गवर्नेंस के शिकार हैंयानी कि पूरी ताकत कुछ हाथों में. आज जटिल और वैविध्यवपूर्ण अर्थव्यवस्थाओं में इस तरह की सरकार बेहद जोखिम भरी है. अब सुरक्षित गवर्नेंस के लिए स्वंतत्र नियामकों की पूरी फौज चाहिए. इन्हें नकारने वाली सरकार राजनैतिक नुक्सान के साथ अर्थव्यवस्था में मुसीबत को भी न्योता देती हैं. 

मोदी सरकार किसी क्रांतिकारी सुधार को जमीन पर नहीं उतार सकी तो इसकी बड़ी वजह यह है कि निवेशक उस कारोबार में कभी नहीं उतरना चाहते जहां सरकार भी धंधे का हिस्सा है. इसीलिए रेलवेकोयला जैसे प्रमुख क्षेत्रों में स्वतंत्र नियामक नहीं बने. वहां सरकार नियामक भी है और कारोबारी भी.

पिछले चार साल में न नए नियामक बनाए गए और न ही पुराने नियामकों को ताकत मिलीइसलिए घोटालों ने घर कर लिया. हालत यह है कि लोकपाल बनाने पर सुप्रीम कोर्ट की ताजा लताड़ और अवमानना के खतरे के बावजूद सरकार इस पर दाएं-बाएं कर रही है.

राजनेता ताकत बटोरने की आदत के शिकार हैं. पिछले चार साल में केंद्र और राज्यदोनों जगह शीर्ष नेतृत्व ने अधिकतर शक्तियां समेट लीं और सिर्फ चुनावी जीत को सब कुछ ठीक होने की गारंटी मान लिया गया. ताकतवर नेता अक्सर यह भूल जाते हैं कि स्वतंत्र नियामक सरकार का सुरक्षा चक्र हैं. उन्हें रोककर या तोड़कर वे सिर्फ अपने और अर्थव्यवस्था के लिए जोखिम बढ़ा सकते हैं. पिछले चार साल में यह जोखिम कई गुना बढ़ गया है.

घोटाले कहीं गए नहीं थे वे तो नए रहनुमाओं इंतजार कर रहे थे.

Tuesday, May 10, 2016

कुछ करते क्यों नहीं !


भ्रष्टाचार से निर्णायक मुक्ति की उम्मीद लगाए, एक मुल्क को राजनैतिक कुश्तियों का तमाशबीन बनाकर रख दिया गया है.

भ्रष्टाचार को लेकर एक और आतिशबाजी शुरू हो चुकी है. पिछले पांच-छह साल में घोटालों पर यह छठी-सातवीं राजनैतिक कुश्ती है, जो हर बार पूरे तेवर-तुर्शी और गोला-बारूद के साथ लड़ी जाती है और राजनीतिजीवी जमात को अपनी आस्थाएं तर करने का मौका देती है. लेकिन हकीकत यह है कि भ्रष्टाचार को लेकर हम एक छलावे के दौर में प्रवेश कर चुके हैं, जिसमें भ्रष्टाचार से निर्णायक मुक्ति की उम्मीद लगाए, एक मुल्क को राजनैतिक कुश्तियों का तमाशबीन बनाकर रख दिया गया है.

भारत भ्रष्टाचार के सभी पैमानों पर सबसे ऊपर है, लेकिन इससे निबटने की व्यवस्था करने, संस्थाएं और पारदर्शी ढांचा बनाने में हम उन 175 देशों में सबसे पीछे हैं, जिन्होंने 2003 में संयुक्त राष्ट्र की भ्रष्टाचार रोधी संधि पर दस्तखत किए थे. हमसे तो आगे पाकिस्तान, मलेशिया, इंडोनेशिया, भूटान और वियतनाम जैसे देश हैं जिनके प्रयास, सफलताएं-विफलताएं भ्रष्टाचार पर ग्लोबल चर्चाओं में जगह पाते हैं.

चॉपरगेट के बहाने हम उन आंदोलनों और बेचैनियों को श्रद्धांजलि दे सकते हैं, जिन्होंने 2011 से 2013 के बीच देश को मथ दिया था. लगता था कि जैसे भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ इंकलाब आ गया है. कोई बता सकता है कि इस बेहद उथल-पुथल भरे दौर से निकला लोकपाल आज कहां है, जिसका कानून तकनीकी तौर पर जनवरी, 2014 से लागू है, लेकिन लोकपाल महोदय प्रकट नहीं हुए.

यह खबर किसी अखबार या टीवी के मतलब की नहीं थी कि दिसंबर, 2014 में मोदी सरकार ने लोकपाल कानून को पुनःविचार और संशोधनों के लिए कानून मंत्रालय की संसदीय समिति को सौंप दिया. एक साल बाद दिसंबर, 2015 में इस समिति ने केंद्रीय सतर्कता आयोग और सीबीआइ के भ्रष्टाचार रोधी विंग को लोकपाल के दायरे में लाने की सिफारिश के साथ अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी.

भ्रष्टाचार को लेकर यह कैसी वचनबद्धता है कि तकनीकी तौर पर लोकपाल कानून बने ढाई साल हो चुके हैं, लेकिन मोदी सरकार लोकपाल पर कुछ नहीं बोली. संयुक्त राष्ट्र की संधि के मुताबिक, भारत को पांच दूसरे कानून भी बनाने हैं. इनमें एक व्हिसलब्लोअर बिल भी है. इस कानून के तहत भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले की सुरक्षा के प्रावधान ढीले करते हुए सरकार अपनी मंशा को दागी करा चुकी है.

यह विधेयक राज्यसभा में अटका है. अदालतों में पारदर्शिता के लिए जुडीशियल अकाउंटेबिलटी बिल, नागरिक सेवाओं से जुड़े अधिकारों के लिए सिटीजन चार्टर ऐंड ग्रीवांस रिड्रेसल बिल, सरकारी सेवाओं में भ्रष्टाचार रोकने के लिए भ्रष्टाचार निरोधक कानून में संशोधन का विधेयक और विदेशी अधिकारियों व अंतरराष्ट्रीय संगठनों में रिश्वतखोरी रोकने के विधेयकों को लेकर पिछले दो साल में सरकार में कहीं कोई सक्रियता नहीं दिखी.

किसी को यह मुगालता नहीं है कि लोकपाल या इन पांच कानूनों के जरिए हम भारत की सियासत और कार्यसंस्कृति में भिदे भ्रष्टाचार को रोक सकेंगे. यह तो सिर्फ भ्रष्टाचार पर रोक, जांच और पारदर्शिता का शुरुआती ढांचा बनाने की कोशिश है, वह भी अभी शुरू नहीं हो सकी है. 2003 में भ्रष्टाचार पर अंतरराष्ट्रीय संधि (2005 से लागू) के बाद लगभग प्रत्येक देश ने अपनी परिस्थिति के आधार पर भ्रष्टाचार से निबटने के लिए रणनीतियां, संस्थाएं, नियम, कानून और एजेंसियां बनाई हैं, जिन्हें लगातार संशोधित कर प्रभावी बनाया जा रहा है.

पिछले कुछ वर्षों में यूएनडीपी और ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने भ्रष्टाचार निरोधक रणनीतियों का अध्ययन किया है, जो इस जटिल जंग में हार-जीत, दोनों की कहानियां सामने लाते हैं. मसलन, रोमानिया ने अपनी पुरानी भूलों से सीखकर एक कामयाब व्यवस्था बनाने की कोशिश की. इंडोनेशिया ने अपनी ऐंटी करप्शन रणनीतियों को गवर्नेंस सुधारों से जोड़कर ग्लोबल स्तर पर सराहना हासिल की है. ऑस्ट्रेलिया ने नेशनल ऐंटी करप्शन रणनीति बनाने की बजाए पारदर्शिता को व्यापक गवर्नेंस और न्यायिक सुधारों से जोड़कर पूरे सिस्टम को पारदर्शी बनाने की राह चुनी, जबकि मलेशिया ने भ्रष्टाचार खत्म करने की रणनीति को गवर्नेंस ट्रांसफॉर्मेशन प्रोग्राम से जोड़ा, जो इस विकासशील देश को 2020 तक विकसित मुल्क में बदलने का लक्ष्य रखता है. चीन तो दुनिया का सबसे कठोर भ्रष्टाचार निरोधक अभियान चला रहा है, जिसमें 2013 से अब तक दो लाख से अधिक अधिकारियों और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों की जांच हो चुकी है और अभियोजन की दर 99 फीसदी है.

भ्रष्टाचार रोकने की रणनीतियां चार बुनियादी आधारों पर टिकी हैं. सबसे पहला है, मजबूत और स्वतंत्र मॉनिटरिंग एजेंसी, दूसरा, भ्रष्टाचार की नियमित और पारदर्शी नापजोख जबकि तीसरा पहलू है, जांच के लिए पर्याप्त संसाधन और विस्तृत तकनीकी क्षमताएं और चौथा है, स्पष्ट कानून व भ्रष्टाचार पर तेज फैसले देने वाली सक्रिय अदालतें.

भारत की तरफ देखिए. हमारे पास इन चारों में से कुछ भी नहीं है. भारत की एक ताकतवर स्वतंत्र एजेंसी बनाने (लोकपाल) की जद्दोजहद अब तक जारी है. केंद्रीय सतर्कता आयोग को गठन के 39 साल बाद 2003 में वैधानिक दर्जा मिला लेकिन जांच का अधिकार नहीं. जांच करने वाली सीबीआइ सरकारों के पिंजरे का तोता है. भ्रष्टाचार की नापजोख का कोई तंत्र कभी बना ही नहीं और अदालतें उन कानूनों से लैस नहीं हैं, जो जटिल भ्रष्टाचार को बांध सकें.

कीचड़ सनी कांग्रेस से तो इस सबकी उम्मीद भी नहीं थी, लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ जनादेश पर बैठकर सत्ता में आई मोदी सरकार से यह अपेक्षा जरूर थी कि वह पुराने घोटालों की तेज जांच करेगी और भारत को भ्रष्टाचार से निबटने के लिए दूरगामी व स्थायी रणनीति और संस्थाएं देगी.

अगस्तावेस्टलैंड के दलाल जानते हैं कि दुनिया के विभिन्न देशों में फैले रिश्वतखोरी के तार जोड़ते-जोड़ते एक दशक निकल जाएगा. सियासत को भी पता है कि जांच में कुछ न होने का, क्योंकि उन्होंने भ्रष्टाचार से निबटने को लेकर संस्थागत तौर पर कुछ किया ही नहीं है. वे तो बस राजनीति के कीचड़ में लिथड़ने के शौकीन हैं, जिसका सीजन कुछ वक्त बाद खत्म हो जाता है.


Monday, August 22, 2011

बड़ी जिद्दी लड़ाई

रकारें क्या ऐसे मान जाती हैं ? किस राजनीतिक दल के चुनाव घोषणापत्र में आपने भ्रष्टाचार मिटाने की रणनीति पढ़ी है?  कब कहां किस सरकार ने अपनी तरफ पारदर्शिता की ठोस पहल की है? पारदर्शिता राजनीतिक व प्रशासनिक विशेषाधिकारों का स्वर्ग उजाड़ देती है, तो यह आ बैल मुझे मार कौन करेगा? लोकतंत्र में भ्रष्टाचार से जंग तो सर पटक कर पत्थर तोड़ने की कोशिश जैसी है क्योंक कि यहां चुनी हुई ही सरकारें पारदर्शिता रोकती हैं और सत्ता् पर निगाह जमाये विपक्ष सिर्फ पहलू बदलता है। मगर लोकतंत्र ही इस लड़ाई के सबसे मुफीद माहौल भी देता है। दुनिया गवाह है कि भ्रषटाचार के खिलाफ लड़ाई हमेशा स्वरयंसेवी संगठनों व जनता ने ही शुरु की है। विश्व् बैंक, ओईसीडी जैसे अंतरराष्‍ट्रीय वित्तीय मंचों और संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्थाओं ने जब इस लड़ाई का परचम संभाला है , तब जाकर सरकारें कुछ दबाव में आई हैं। हमें किसी गफलत में नहीं रहना चाहिए। हम बड़ी ही जिद्दी किस्म की लड़ाई में कूद पडे है।
कठिन मोर्चा नए सिपाही
भ्रष्टाचार से अंतरराष्ट्रीय जंग केवल बीस साल पुरानी है। अंतरराष्ट्रीय आर्थिक उदारीकरण व पूर्व-पश्चिम यूरोप के एकीकरण की पृष्ठभूमि में स्वयंसेवी संगठनों 1990 की शुरुआत में यह झंडा उठाया था। मुहिम स्थापित राजनीतिक मंचों के बाहर से शुरु हुई थी। 2001 में पोर्तो अलेग्री (ब्राजील) में वलर्ड सोशल फोरम मंच पर जुटे दुनिया भर के स्वयंसेवी संगठन अगले एक दशक में पारदर्शिता के सबसे बड़े पहरुए बन गए। भारतीय सिपाही भी इसी जमात के हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल भ्रष्टाचार को लेकर विश्व बैंक की उपेक्षा पर गुस्से से उपजा (1993) था। जो अब भ्रष्ट देशों की अपनी सूची, रिश्वनतखोरी सूचकांक और नीतियों की समीक्षा के जरिये सरकारों को दबाव में रखता है। इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ प्रॉसीक्यूटर्स और इंटरनेशनल चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स ने मुहिम को तेज किया। तब जाकर 1997 में विश्व बैंक ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की कमान संभाली, संयुक्तब राष्ट्रन संघ ने भ्रष्टाचार विरोधी अंतरराष्ट्रीय संधि (2003) लागू की और यूएन एंटी करप्शन कांपैक्ट बनाया जिससे तहत सैकड़ा से अधिक एनजीओ दुनिया भर में भ्रष्टा चार के खिलाफ लड़ रहे हैं। बर्न डिक्लेयरेशन (स्विस सवयंसेवी संगठन समूह) ने नाइजीरिया और अंगोला के भ्रष्ट शासकों की लूट को वापस उनके देशों तक पहुंचाकर इस लड़ाई को दूसरा ही अर्थ दे दिया। ठीक ऐसी ही लड़ाई अफ्रीकी एनजीओ शेरपा ने लड़ी थी और कांगों, सिएरा लियोन, गैबन ( अफ्रीकी देशों) की लूट को फ्रांस के बैंकों से निकलवाया था। दुनिया में हर जनांदोलन का पट्टा राजनीति के नाम नहीं लिखा है। राजनीति इस लड़ाई को कैसी लड़ेगी, वह तो इसी व्यनवस्थाी को पोसती है।
ताकत के पुराने तरीके
पारदर्शिता की कोशिशों पर सरकारों की चिढ़ नई नहीं है। यह नेताओं व अफसरों के उस खास दर्जे और विशेषाधिकारों को निगल लेती है, जिसके सहारे ही भ्रष्टाचार पनपता है इसलिए दुनिया के प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देशों में भी इस तरह की कोशिशों के खिलाफ राजनीति हमेशा से आक्रामक रही है। दक्षिण अफीका में चर्चित स्कोर्पियन कमीशन को दो साल पहले खत्म कर दिया गया। कई बड़े राजनेताओं के खिलाफ जांच करने वाले स्कोर्पियन कमीशन की जांच के दायरे में वर्तमान राष्ट्रंपति जैकब जुमा भी आए थे। यह काम जुमा के राष्ट्रपति बनने से एक साल पहले हुआ और वह भी संसद के वोट से। इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोननी खर्च घटाने के लिए एंटी करप्शन कमीशन को खत्मव करने की पेश कर चुके हैं। यहां तक कि ब्रिटेन की सरकार ने राष्ट्रीय य सुरक्षा आड़ लेकर ब्रिटेश रक्षा कंपनी बीएई की जांच रोक दी। सऊदी अरब के अधिकारियों को बीएई से मिली रिश्वत कारपोरेट घूसखोरी का सबसे चर्चित प्रसंग है। यही वजह है कि भ्रष्टाचार की लड़ाई में राजनीति पर भरोसा नहीं जमता। सरकारों ने जबर्दस्त दबाव के बाद ही भ्रष्टाचार की जांच के लिए व्यवस्थायें की हैं। जैसे जिम्बावे के विवादित राष्ट्पाति राबर्ट मुगाबे ने हाल में भ्रष्टाचार निरोधक समिति बनाई है। जिन देशों में एंटी करप्शन कमीशन काम कर भी रहे हैं, वहां भी जनदबाव और स्‍वयंसेवी संगठनों की मॉनीटरिंग ही उन्हें स्वतंत्र व ताकतवर बनाती है। सरकारें तो उन्हें चलने भी न दें।
आगे और लड़ाई है
हम अभी भ्रष्टाचार से लड़ाई का ककहरा ही पढ़ रहे है और हजार आफत हैं। भ्रष्टाचार में देने वाले हाथों को बांधना भी जरुरी होता है। विकासशील देशों में कंपनियां 20 से 40 अरब डॉलर की रिश्वतें हर साल देती हैं जो नेताओं व अधिकारियों की जेब में जाती हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने दुनिया की निजी कंपनियों के 2700 अधिकारियों के बीच एक सर्वे में पाया था कि भारत, पाकिस्तान, इजिप्ट, नाइजीरिया में करीब 60 फीसदी कंपनियों को रिश्‍वत देनी होती है। बहुरराष्ट्री य कंपनियों के अधिकारी मानते हैं कि भ्रष्टाचार परियोजनाओं की लागत 10 से 25 फीसदी तक बढ़ा देता है। इथिस्फियर संगठन, दुनिया में सबसे साफ सुथरी कंपनियों की पड़ताल करता है, इसकी सूची में एक भी भारतीय कंपनी नहीं है। यहां तक दुनिया के तमाम नामचीन ब्रांडों व कंपनियों को कारोबारी पारदर्शिता की रेटिंग में जगह नहीं मिली है। इथिस्फियर ने निष्कर्ष दिया था कि पारदर्शी कंपनियों ने 2007 से 2011 तक  शेयर बाजार में अन्य कंपनियों के मुकाबले ज्यादा बेहतर प्रदर्शन किया। यानी बाजार पारदर्शिता की कद्र करता है। जब भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम निजी क्षेत्र की दिशा में बढ़ेगी तो पेचीदगी और चुनौतियां नए किस्म की होंगी। यूरोप व अमेरिका इन देने वाले हाथों की मुश्कें भी कसने लगे हैं।
 भ्रष्टाचार से लड़ाई, गुलामी से जंग के मुकाबले ज्यादा कठिन है क्यों कि इसमें अपनी व्यवस्था के खिलाफ अपने ही लोग लड़ते हैं। सरकारें विशाल मशीन हैं। राजनीति जिन्हें चलाती हैं। लोकतंत्रों में पांच साल के लिए मिला जनसमर्थन अक्समर संविधान के मनमाने इसतेमाल की गारंटी बन जाता है। पारदर्शिता को रोकने के लिए सरकारों ने अपनी इस संवैधानिक ताकत अक्सर बेजा इस्तेमाल किया है। फिर भी दुनिया भ्रष्टाचार से लड़ रही है क्यों कि भ्रष्टाचार सबसे संगठित किस्म का मानवाधिकार उल्लंघन है। यह वित्तीय पारदर्शिता को समाप्त करता है और विकास को रोकता है। दुनिया के बहुतेरे देश हमारे साहस पर रश्क कर रहे हैं। हमें फख्र होना चाहिए कि हम दुनिया में बहुतों से पहले जग गए हैं। और जब जग गए तो हैं तो अब सोने का कोई मतलब नहीं है।
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Monday, August 8, 2011

घोटालों की रोशनी


घोटालों के कीचड़ के बीच भी क्या हम उम्मीद के कुछ अंखुए तलाश सकते हैं? भ्रष्टाचार के कलंक की आंधी के बीच भी क्या कुछ बनता हुआ मिल सकता है? यह मुमकिन है। जरा गौर से देखिये घोटालों के धुंध के बीच हमारी संवैधानिक संस्थाओं की ताकत लौट रही है। कानूनों की जंग छूट रही है और आजादी के नए पहरुए नए ढंग से अलख जगा रहे हैं। घोटालों के अंधेरे के किनारों से झांकती यह रोशनी बहुत भली लगती है। यह रोशनी सिर्फ लोकतंत्र का सौभाग्य है।
संविधान की सत्ता
डा. अंबेडकर ने संविधान बनाते समय कैग (नियंत्रक व महालेखा परीक्षक) को देश के वित्तीय अनुशासन की रीढ़ कहा था मगर व्यावहारिक सच यही है कि पिछले छह दशक के इतिहास में, कैग एक उबाऊ, आंकड़ाबाज और हिसाबी किताबी संस्थान के तौर पर दर्ज था। ऑडिट रिपोर्ट बोरिंग औपचारिकता थीं और कैग की लंबी ऑडिट टिप्पणियों पर सरकारी विभाग उबासी लेते थे। कारगिल युद्ध के दौरान ताबूत खरीद, विनिवेश पर समीक्षा के कुछ फुटकर उदाहरण छोड़ दिये जाएं तो देश को यह पता भी नहीं था कि कैग के पास इतने पैने दांत हैं। एक ऑडिट एजेंसी को, मंत्रियों को हटवाते (राजा व देवड़ा), प्रधानमंत्री की कुर्सी हिलाते और मुख्यमंत्रियों (सीडब्लूजी) के लिए सांसत बनते हमने कभी नहीं देखा था। कैग अब भ्रष्टाचारियों को सीबीआई

Monday, June 27, 2011

पारदर्शिता का खौफ

र सबको लगता है.. सरकारों को भी। पारदर्शिता के खौफ से सर्वशक्तिमान सरकारें भी ठंडा पसीना छोड़ जाती हैं। पारदर्शिता की एक मुहिम ताकत की तलवारों से लैस और कानूनों के कवच में घिरे सत्ता प्रतिष्ठानों को चूजा बना देती है। भारत में इस समय पारदर्शिता से डरे चेहरों की परेड चल रही है। हमारे पास एक बेचैन सरकार है जो पारदर्शिता के आग्रहों से घबरा कर जंग लगे तर्कों के खोल में घुस गई है और युवा, खुलते व उदार होते देश पर अपनी जिद लाद रही है। पारदर्शिता से मुंह चुराता हुआ एक विपक्ष भी हमें मिला है जो अजीबोगरीब तर्कों की कला‍बाजियों से देश का मन बहला रहा है। यकीनन, पारदर्शिता का खौफ बड़ा विकट है। यह डर लोकपाल का है ही नहीं, राजनेताओं का कुनबा तो दरअसल अपने विशेषाधिकारों, विवेकाधिकारों व कानून से परे दर्जे को बचाने के लिए कांप रहा है जो पारदर्शिता की ताजी कोशिशों के कारण खतरे में हैं। पूरी सियासत सत्ता के शिखरों (प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट आदि आदि) लेकर नीचे तक सब कुछ ढंका छिपा रखना चाहती है। नेताओं पर पारदर्शिता का यह आतंक भूमंडलीय किस्म का है। भ्रष्टाचार विरोधी कोशिशें पूरी दुनिया में, भारत जैसी ही जिदों से टकरा रही हैं। भारत तो विशेषाधिकारों का जंगल है। इसलिए पारदर्शिता की हांक लगते ही छिपने-छिपाने के आग्रह हमलावर हो गए हैं। गौर से देखिये विरोध करने वालों या जवाब से बचने वालों की दाढी में बहुत से तिनके हैं।
सीजर की बीबियां
पॉम्पेयी को तलाक देते हुए जूलियस सीजर ने यूं ही नहीं कहा था कि सम्राट की पत्नी को संदेह से परे (सीजर्स वाइफ मस्ट बी अबव सस्पिशन) होना चाहिए। सार्वजनिक जीवन में शुचिता के इस महामंत्र को सीजर की तमाम आधुनिक बीबियां यानी राजनेता (अपने प्रधानमंत्री भी) उवाचते रहे हैं। मगर पारदर्शिता का कत्ल इन बड़ों के दफ्तर में ही होता है। दुनिया राजनीतिक भ्रष्टाचार पर देर से जागी है। आठवें दशक के अंत में कुछ बड़े जन आंदोलनों ( चीन, ब्राजील, बंगलादेश, फिलीपींस) के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रीय व बहुपक्षीय मुहिम ( इंटर अमेरिकन कन्वेशन अगेंस्ट करप्‍शन 1996, ओईसीडी कन्वेशन अगेंस्ट ब्राइबरी 1997, यूएन कोड ऑफ कंडक्ट फॉर पब्लिक आफिशियल्‍स 1996 ) शुरु हुईं जो दिसंबर 2003 में भ्रष्टाचार पर संयुक्त राष्ट्र की सहमति तक पहुंची। मगर इसके बाद की राह

Monday, April 11, 2011

जीत के जोखिम

मोटी खालों में जुंबिश मुबारक ! कानों पर जूं रेंगना मुबारक ! सन्नाटे का टूटना मुबारक! सबसे ज्यांदा मुबारक हो वह मौका जो बड़ी मुश्किल से बना है। भ्रष्टाचार के खिलाफ बनते माहौल और घुटनों के बल सरकार को देखना अनोखा है। मगर ठहरिये, इस जीत में  एक जोखिम है!!! व्य वस्था बदलने की यह बहस व्यक्तियों को चुनने की बहस में सिमट सकती है। हमें किसी छोटे से बदलाव से भरमाया भी जा सकता है क्यों कि भ्रष्टाचार हद दर्जे का चालाक, पेचीदा और पैंतरेबाज दुश्मन है। भ्रष्टा चार से लड़ाई ही का शास्त्र् ही उलटा है, यहां व्यवस्था के खिलाफ खड़े कुछ लोग नहीं बल्कि कुछ भ्रष्ट व्यक्तियों से निरंतर लड़ने वाली एक व्यवस्था की दरकार है जिसमें लोकपाल बस छोटी सी एक कड़ी मात्र है। लोहा गरम है... भ्रष्टाचार के खिलाफ रणनीति की बहस राजनीति, सरकार, उद्योग, कंपनी, स्वयंसेवियों सभी में पारदर्शिता को समेटती हुए होनी चाहिए ताकि मजबूत व्यवस्था बन सकें। इस लड़ाई में हम दुनिया में अकेले नहीं हैं। विश्‍व के देश जतन के साथ सिस्टम गढ़ कर भ्रष्टाचार से जूझ रहे है क्यों कि भ्रष्टाचार एक दिन का आंदोलन या एक मुश्त आजादी नहीं बल्कि रोजाना की लड़ाई है।
मोर्चे और रणनीतियां
आइये भ्रष्टा चार के खिलाफ रणनीति की बहस को दूर तक ले चलें। भ्रष्टा‍चार से लड़ती दुनिया लगातार नई तैयारियों के साथ इस दुश्मन को घेर रही है। तजुर्बे बताते हैं कि जीत की गारंटी के लिए राजनीति, कानून, अदालत, जन पहरुए, तरह तरह की आजादी, खुलापन सबका सक्रिय होना जरुरी है। मगर भारत तो इस लड़ाई में नीतिगत और रणनीतिक तौर पर सिरे से दरिद्र है। लिथुआनिया, रोमानिया जैसों के पास भी