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Friday, July 26, 2019

डर के आगे जीत है


ऐसा अक्सर नहीं होता जब प्रत्येक उदारीकरण और विदेशी मेलजोल पर बिदकने वाले स्वदेशी और अर्थव्यवस्था को खोलने के परम पैरोकार उदारवादी एक ही घाट पर डुबकी लगाते नजर आएं.

मोदी सरकार का फैसला है कि भारत अब बॉन्ड के जरिए विदेशी बाजारों से कर्ज लेगा. ये बॉन्ड भारत की संप्रभु साख (सॉवरिन रेटिंग) पर आधारित होंगे. इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था. सरकार के विचार परिवार वाले रूढ़िवादी स्वदेशियों को लगता है कि इससे आसमान फट पड़ेगा और उदारवादियों को लगता है कि सुर्खियां बटोरने के शौक में मोदी सरकार एक गैर-जरूरी कोशिश कर रही है जो मुश्किल में डालेगी.

दोनों ही बेमतलब डरा रहे हैं. जबकि इस डर के आगे जीत है. यहां से एक बड़े सुधार की शुरुआत हो सकती है.

विदेशी कर्ज भारत के लिए नया नहीं है. सरकार को बहुपक्षीय संस्थाओं (विश्व बैंक, एडीबी) और देशों (जैसे बुलेट ट्रेन के लिए जापान) से कर्ज मिलता रहा है. यह कर्ज देशों या संस्था और देश के बीच होता है. कर्ज बाजार का इस पर कोई असर नहीं होता. भारतीय  कंपनियां अपनी साख के बदले दुनिया भर से कर्ज लेती हैं, जो सरकार के खाते में दर्ज नहीं होता.
सरकार के अधिकांश कर्ज देश के भीतर से आते हैं और रुपए में होते हैं. यह कर्ज डॉलर में होगा और डॉलर में ही चुकाना होगा. डॉलर महंगा होने से यह कर्ज बढ़ेगा.

दुनिया के अन्य देशों की तरह, जो विश्व के बाजारों से कर्ज लेते हैं, भारत की साख की रेटिंग होगी. भारत के बॉन्ड दुनिया के बाजारों में सूचीबद्ध होंगे.

भारत शुरुआत में केवल कुल दस अरब डॉलर जुटाना चाहता है. फायदा यह कि यह कर्ज घरेलू बाजार की तुलना में लगभग आधी लागत पर मिलेगा. इस बॉन्ड के बाद देशी बाजार से सरकार कुछ कम कर्ज लेगी.

इस पहल से भारत को तत्काल कोई खतरा नहीं है. इस तरह के विदेशी कर्ज, जोखिम के जिन पैमानों पर मापे जाते हैं, उनमें भारत की स्थिति बेहतर है. जीडीपी के अनुपात में भारत का कुल संप्रभु विदेशी कर्ज केवल 3.8 फीसद है. विदेशी मुद्रा (428 अरब डॉलर) कर्ज अनुपात भी 75 फीसद के बेहतर स्तर पर है.

इस तरह के बॉन्ड के मामले में भारत की तुलना ब्राजील, चीन, इंडोनेशिया, मेक्सिको, फिलीपींस और थाईलैंड से होनी चाहिए. भारत की कुल आय के अनुपात में विदेशी कर्ज 19.8 फीसद (इंडोनेशिया, मेक्सिको 35 फीसद से ज्यादा) है. इसमें संप्रभु गांरटी पर लिया गया विदेशी कर्ज तो चीन व थाईलैंड की तुलना में बहुत कम है.

स्वदेशी और वामपंथी तो 1991 और 95 में भी डरा रहे थे लेकिन भारत अगर उदारीकरण न करता तो ज्यादा बड़ा नुक्सान होता. डराने वालों को खबर हो कि भारत में भरपूर विदेशी पूंजी पहले से है. शेयर बाजारों में विदेशी निवेश (433 अरब डॉलर) और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआइ (325 अरब डॉलर), दरअसल सरकार (309 अरब डॉलर) और कंपनियों पर कुल विदेशी कर्ज (104 अरब डॉलर)  से भी ज्यादा है.

इसलिए दस अरब डॉलर के सॉवरिन कर्ज से प्रलय नहीं आ जाएगी, बल्कि अगर मोदी सरकार इस फैसले पर आगे बढ़ती है तो एक बड़ी आर्थिक पारदर्शिता उभरेगी. भारत को पहली बार ग्लोबल डॉलर सूचकांक का हिस्सा बनना होगा. इस दर्जे की बड़ी कीमत है और जोखिम भी.

भारत सरकार को अपने सभी वित्तीय आंकड़े पारदर्शी करने होंगे और घाटा या कर्ज छिपाने की आदत छोड़नी होगी. सरकार हमें केंद्र और राज्यों के कर्ज व घाटे की आधी अधूरी तस्वीर दिखाती है. बैंकों के एनपीए, एनबीएफसी का कर्ज, बजट से बाहर रखे जाने वाले कर्ज जैसे छोटी बचत स्कीमें या सरकारी कंपनियों पर लदा कर्ज, क्रेडिट कार्ड आदि के कर्ज, सरकारी कंपनियों का घाटा...दुनिया के निवेशकों अब आर्थिक सेहत की कोई भी जानकारी छिपाना महंगा पड़ेगा.

इस बॉन्ड से मिलने वाली राशि नहीं बल्कि यह महत्वपूर्ण होगा कि भारत अपने जोखिम का प्रबंधन कैसे करता है अब पूरी दुनिया को वित्तीय पारदर्शिता का विश्वास दिलाना होगा जिसके आधार पर भारत की संप्रभु साख तय होगी जो बताएगी कि दुनिया के बाजार में हम कहां खड़े हैं. जो रेटिंग हमें विदेश में मिलेगी, देश का बाजार भी उसी हिसाब से कर्ज देगा.
ग्रीस, तुर्की, अर्जेंटीना, थाईलैंड, ब्राजील के जले निवेशक अब किसी को बख्शते नहीं हैं. बदहाल आर्थिक प्रबंधन के कारण इन मुल्कों को बॉन्ड बाजार में बड़ी सजा झेलनी पड़ी. सनद रहे कि ग्रीस इसलिए डूबा क्योंकि उसने अपना घाटा छिपाया था. बॉन्ड बाजार झूठ से सबसे ज्यादा बिदकता है.

अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के सलाहकार जेम्स कारविल कहते थे कि अगर मुझे दोबारा अवतार मिले तो मैं राष्ट्रपति या पोप नहीं बल्कि बॉन्ड मार्केट बनूंगा, जो हर किसी को डरा सकता है.

बॉन्ड आने दीजिए, दुनिया का डर ही भारत सरकार को अपने तौर-तरीके बदलने में मदद करेगा.

Sunday, July 21, 2019

अभिशप्त समृद्धि


भारत दुनिया के सोने-चांदी की भट्टी बन गया हैसारी रोमन संपत्ति खिंच कर वहां जा रही है.’’—प्लिनी द एल्डर (77 ईस्वीयह लिखने से पहले मुजरिस (कोचीन के निकटमें भारतीय समृद्धि का जलवा देखकर लौटा थाअगले दशकों में रोम की इतनी संपत्ति भारत आ गई कि शक सम्राट कनिष्क ने रोमन सिक्कों को ढाल कर अपनी मुद्राएं चला दींअंततरोमन सम्राट सेप्टिमस (193-211 .) ने अपने सिक्कों में सोने की मात्रा कम कर दीयह इतिहास में मुद्रा के आधार मूल्य में कमी (डिबेसमेंटका पहला उदाहरण था.

प्लिनी जैसी ही शिकायत 16वीं सदी में पुर्तगालियों को और 17वीं सदी में अंग्रेजों को हुई थी कि भारत दुनिया भर की समृद्धि खींच लेता है.

अलबत्ता प्लिनी के 2000 साल बादभारत में संपत्ति की आवाजाही का ताजा इतिहास लिखने वाला यह बताने को मजबूर होगा कि 21वीं सदी में भारत की समृद्धि खिंच कर अमेरिकायूरोप और ऑस्ट्रेलिया जाने लगीयह काला धन नहीं था जो अवैध रास्तों से विदेश जाता थायह तो उद्यमियों की जायज संपत्ति या मुनाफा था जो उन्होंने भारत में कारोबार से कमाया था लेकिन वे इसका संग्रह दुनिया के दूसरे देशों में कर रहे थे.

इस बजट में सुपर रिच यानी दो करोड़ से पांच करोड़ रुपए से अधिक ऊपर की आय वालों पर 42.7 फीसद टैक्स के बाद हमारे वामपंथी कलेजों पर भले ही ठंडक पड़ गई होहम यह कह सकते हों कि चीनजापानकनाडाफ्रांसयूके की तरह हम भी अपने अमीरों पर भरपूर टैक्स लगा रहे हैंदरअसलहमने अपने पैर पर ‘बजट’ मार लिया है.

हमारी टैक्स नीति का दकियानूसीपन अमीरों पर ज्यादा टैक्स वाले देशों से काफी फर्क रखता हैइस टैक्स से सरकार को एक साल में बमुश्किल 8,000 करोड़ रुपए मिलेंगे लेकिन कहीं ज्यादा संपत्ति इसके कारण उन देशों में चली जाएगी जहां टैक्स की दर कम है यानी औसतन 20 फीसदइस अहम फैसले से संपत्ति को वैध ढंग से भी भारत से बाहर ले जाने की होड़ बढ़ेगीअवैध रास्ते तो पहले से ही खुले थे.

एफ्रेशिया बैंक के ग्लोबल माइग्रेशन रिव्यू  2018 के मुताबिकबीते बरस दुनिया में करीब 1.08 लाख अमीरों ने अपने पते बदले यानी कि वह जिन देशों में थेउन्हें छोड़ गए. 2017 की तुलना में यह संख्या 14 फीसदी ज्यादा हैकरीब 12,000 अमीरों ने ऑस्ट्रेलिया और 10,000 ने अमेरिका को ठिकाना बनाया. 4,000 के करीब कनाडा मेंदो हजार स्विट‍्जरलैंड और अमीरात (प्रत्येकऔर एक हजारन्यूजीलैंडग्रीसइज्राएलपुर्तगाल और स्पेन (प्रत्येकमें बस गए. 

समृद्धि गंवाने वाले मुल्कों में भारत तीसरे नंबर पर हैकरीब 5,000 धनाड्य बीते बरस भारत छोड़ गए. 15,000 चीनियों और 12,000 रूसियों ने अपने वतन को अलविदा कहा. 2018 में तुर्कीफ्रांसयूके और ब्राजील से 2,000 से 4,000 सुपर रिच बोरिया-बिस्तर बांधकर उड़ गए.

इससे पहले 2017 में करीब 7,000 भारतीय सुपर रिच विदेश में बस गए थेमोर्गन स्टेनले ने बीते बरस अपने एक अध्ययन में बताया था कि 2014 के बाद करीब 23,000 समृद्ध लोग या परिवार भारत छोड़कर विदेश में जा बसे.

यानी कि ताजा बजट में नए टैक्स का कहर टूटने से पहले ही औसतन 7,000-8,000 सुपर रिच हर साल भारत छोड़ रहे थे.

यह नीरव मोदीविजय माल्या या मेहुल चोकसी जैसा आपराधिक पलायन नहीं है बल्कि वैध समृद्धि का सुविचारित प्रवास हैअमीरी के प्रति पूर्वाग्रह छोड़कर इसे समझना जरूरी है.

  भारत छोड़कर जाने वाले सुपर रिच अपना कारोबार बंद नहीं कर रहे हैंवे यहीं से संपत्ति कमाएंगेअपने कारोबार पर टैक्स भी देंगे लेकिन निजी संपत्ति को किसी ऐसे देश में एकत्र करेंगे जहां टैक्स कम है या संपत्ति के निवेश के वैध रास्ते उपलब्ध हैं.

कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी भी ऐसा ही करती हैजैसे कि अमेजन का भारतीय कारोबार करीब 16 अरब डॉलर का है लेकिन इसके मालिक और दुनिया के सबसे अमीर उद्यमीजेफ बेजोस की संपत्ति से भारत को कुछ नहीं मिलता.

  भारत के सुपर रिच आमतौर पर अपने कारोबार से खूब कमाते हैं क्योंकि रिटर्न काफी अच्छे हैंअजीम प्रेम जी जैसे कुछ एक को छोड़कर कोई बहुत बड़ा जन कल्याण नहीं करतेउन्हें लोककल्याण में लगाने के लिए सरकार को कानूनी और प्रोत्साहनपरक उपाय करने होते हैं.

 टैक्स की मार के कारण इनका देश छोड़ना नीतिगत विफलता हैसरकार इनकी संपत्ति को संजोनेनिवेश करने या उपभोग के अवसर ही नहीं बना पाती ताकि भारत से कमाया पैसा भारत में ही रहे. 

भारत की संस्कृति समृद्धि को अभिशाप नहीं मानती बल्कि इसकी आराधना करती हैचाणक्य बताकर गए हैं कि संपत्ति के बिना संपत्ति प्राप्त करना असंभव हैचाहे जितना प्रयास कर लिया जाएजैसे हाथी को खींचने के लिए हाथी की जरूरत होती है ठीक उसी तरह संपत्ति अर्जित करने के लिए संपत्ति चाहिए.

क्या हम समृद्धि गंवाकर समृद्ध होना चाहते हैं?  


Saturday, July 13, 2019

जिएं तो जिएं कैसे


प्रत्‍येक बड़ा कारोबार कभी न कभी छोटा ही होता है. इस ग्लोबल सुभाषित की भारतीय व्याख्या कुछ इस तरह होगी कि भारत में हर छोटा कारोबार छोटे रहने को अभिशप्तहोता है. आमतौर पर या तो वह घिसट रहा होता है, या फिर मरने के करीब होता है. यहां बड़ा कारोबारी होना अपवाद है और छोटे-मझोले बने रहना नियम. कारोबार बंद होने की संभावनाएं जीवित रहने की संभावनाओं की दोगुनी होती हैं.

भारत में 45 साल की रिकॉर्ड बेकारी की वजहें तलाशते हुए सरकारी आर्थिक समीक्षा को उस सच का सामना करना पड़ा है जिससे ताजा बजट ने आंखें चुरा लीं. यह बात अलग है कि बजट उसी टकसाल में बना है जिसमें आर्थिक समीक्षा गढ़ी जाती है.

सरकार का एक हाथ मान रहा है कि भारत की बेरोजगारी अर्थव्यवस्था के केंद्र या मध्य पर छाए संकट की देन है. कमोबेश स्व-रोजगार पर आधारित खेती और छोटे व्यवसाय अर्थव्यवस्था की बुनियाद हैं जो किसी तरह चलते रहते हैं जबकि बड़ी कंपनियां अर्थव्यवस्था का शिखर हैं जिनके पास संसाधनों और अवसरों का भंडार है. इन्हें कोई खतरा नहीं होता. रोजगारों और उत्पादकता का सबसे बड़ा स्रोत मझोली कंपनियां या व्यवसाय हैं जिनमें 25 से 100 लोग काम करते हैं. बड़े होने की गुंजाइश इन्हीं के पास है. इनके लगातार सिकुड़ने या दम तोड़ने के कारण ही बेरोजगारी गहरा रही है.

मध्यम आकार की कंपनियों का ताजा हाल दरअसल संख्याएं नहीं बल्कि बड़े सवाल हैं, बजट जिनके जवाबों से कन्नी काट गया.

         संगठित मैन्युफैक्चरिंग के पूरे परिवेश में 100 से कम कर्मचारियों वाली कंपनियों का हिस्सा 85 फीसद है लेकिन मैन्युफैक्चरिंग से आने वाले रोजगारों में ये केवल 14 फीसद का योगदान करती हैं. उत्पादकता में भी यह केवल 8 फीसद की हिस्सेदार हैं यानी 92 फीसद उत्पादकता केवल 15 फीसद बड़ी कंपनियों के पास है.

         दस साल की उम्र वाली कंपनियों का रोजगारों में हिस्सा 60 फीसद है जबकि 40 साल वालों का केवल 40 फीसद. अमेरिका में 40 साल से ज्यादा चलने वाली कंपनियां भारत से सात गुना ज्यादा रोजगार बनाती हैं. इसका मतलब यह कि भारत में मझोली कंपनियां लंबे समय तक नहीं चलतीं इसलिए इनमें रोजगार खत्म होने की रफ्तार बहुत तेज है. अचरज नहीं कि नोटबंदी और जीएसटी या सस्ते आयात इन्हीं कंपनियों पर भारी पड़े.

निवेश मेलों में नेताओं के साथ मुस्कराते एक-दो दर्जन बड़े उद्यमी अर्थव्यवस्था का शिखर तो हो सकते हैं लेकिन भारत को असंख्य मझोली कंपनियां चाहिए जो इस विशाल बाजार में स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं की रीढ़ बन सकें. ऐसा न होने से बेकारी के साथ दो बड़ी असंगतियां पैदा हो रही हैं:

एकहर जगह बड़ी कंपनियां नहीं हो सकतीं. विशाल कंपनियों के बिजनेस मॉडल क्रमश: उनका विस्तार रोकते हैं. भारत की स्थानीय अर्थव्यवस्था में (पुणे, कानपुर, जालंधर, कोयंबत्तूर, भुवनेश्वर आदि) इसके विकास में संतुलन का आधार हैं. मझोली कंपनियां इन लोकल बाजारों में रोजगार और खपत दोनों को बढ़ाने का जरिया हैं.

दोमध्यम आकार की ज्यादातर कंपनियां स्थानीय बाजारों में खपत का सामान या सेवाएं देती हैं और आयात का विकल्प बनती हैं. यह बाजार पर एकाधिकार को रोकती हैं. मझोली कंपनियों के प्रवर्तक अब आयातित सामग्री के विक्रेता या बड़ी कंपनियों के डीलर बन रहे हैं जिससे खपत के बड़े हिस्से पर चुनिंदा कंपनियों का नियंत्रण हो रहा है जो कीमतों को अपने तरह से तय करती हैं.

पिछले एक दशक में सरकारें प्रोत्साहन और सुविधाओं के बंटवारे में स्थानीय और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के बीच संतुलन नहीं बना पाईं. रियायतें, सस्ता कर्ज और तकनीक उनके पास पहुंची जो पहले से बड़े थे या प्राकृतिक संसाधनों (जमीन, स्पेक्ट्रम, खनन) को पाकर बड़े हो गए. उन्होंने बाजार में प्रतिस्पर्धा सीमित कर दी. दूसरी तरफ, टैक्स नियम-कानून, महंगी सेवाओं और महंगे कर्ज की मारी मझोली कंपनियां सस्ते आयात की मार खाकर प्रतिस्पर्धा से बाहर हो गईं और उनके प्रवर्तक बड़ी कंपनियों के एजेंट बन गए.

यह देखना दिलचस्प है कि प्रत्यक्ष अनुभव, आंकड़े और सरकारी आर्थिक समीक्षा वही उपदेश दे रहे हैं जो एक चतुर और कामयाब उद्यमी अपनी अगली पीढ़ी से कहता है कि या तो घास बने रहो या फिर जल्द से जल्द बरगद बन जाओ. घास बार-बार हरी हो सकती है और बरगदों को कोई खतरा नहीं है. हर मौसम में मुसीबत सिर्फ उनके लिए है जो बीच में हैं यानी न जिनके पास गहरी जड़ें हैं और न ही मजबूत तने.

चुनावी चंदे बरसाने वाली बड़ी कंपनियों के आभा मंडल के बीच, सरकार नई औद्योगिक नीति पर काम कर रही है. क्या इसे बनाने वालों को याद रहेगा कि गुलाबी बजट की सहोदर आर्थिक समीक्षा अगले दशक में बेकारी का विस्फोट होते देख रही है. जब कामगार आयु वाली आबादी में हर माह 8 लाख लोग (97 लाख सालाना) जुड़ेंगे. इनमें अगर 60 फीसद लोग भी रोजगार के बाजार में आते हैं तो हर महीने पांच लाख (60 लाख सालाना) नए रोजगारों की जरूरत होगी.


Saturday, July 6, 2019

परजीवियों की पालकी


यह वाकया बीते बरस सितंबर का है जब सरकारी कंपनी भारत इलेक्ट्रॉनिक्स (बीईएलका शेयर बाजार में टूटने लगामिसाइल मेकर के नाम से मशहूरबीईएल को हाल में ही 9,200 करोड़ रुपए का मिसाइल ऑर्डर मिला थारक्षा इलेक्ट्रॉनिक्सईवीएम मशीन सहित कई उपकरण बनाने वाली इस कंपनी की ऑर्डर बुक 50,000 करोड़ रुपए के ऑर्डर से जगमगा रही थी लेकिन इसका शेयर दस दिन में 22 फीसदी टूट गया.

कोई निजी कंपनी होती तो इस कदर कारोबार मिलने पर उसके शेयर मिसाइल बन गए होते लेकिन बदकिस्मत बीईएल में निवेशकों की पूंजी उड़ गई क्योंकि सरकार ने इस कंपनी को बिक्री पर मिलने वाले मार्जिन को मनमाने ढंग से घटा दियाइस आदेश के दायरे में कंपनी का लगभग आधा कारोबार आता हैइसलिए भारत की मिसाइल मेकर के शेयर फुस्स हो गए

यह पहली नजीर नहीं थी कि सरकार अपनी कंपनियां कैसे चलाती है

सरकार की सबसे बड़ी टेलकॉम कंपनियां यानी भारत संचार निगम (बीएसएनएलऔर महानगर टेलीफोन निगम (एमटीएनएलठीक उस दौरान बीमार हो गईं जब (2001 से  2016) भारत के दूरसंचार बाजार का स्वर्ण युग चल रहा थाइन्हें विशाल नेटवर्कबाजार और साख विरासत में मिली थीनई कंपनियों ने अपने पहले टावर इनके सामने लगाए थेएयर इंडिया भी विमानन बाजार में चौतरफा तरक्की के साथ डूब गई.

सरकारी कंपनियां आर्थिक सेहत का सबसे पुराना नासूर हैंबीएसएनएल और एयर इंडिया की बीमारी के साथ इस घाव पर फिर नजरें गई हैंउम्मीद रखने वाले मानते हैं कि अब शायद नश्तर चलेगा क्योंकि बजट का हाल बुरा है लेकिन कुछ लोग भारतीय अर्थव्यवस्था की पीठ पर इन परजीवियों को बिठाए रखना चाहते हैं.

पिछले वित्त वर्ष के अंत तक सरकार की 188 कंपनियों का कुल घाटा 1,23,194 करोड़ रुपए थाइनमें 71 कंपनियों का साझा घाटा 31,000 करोड़ रुपए दर्ज किया गया. 52 कंपनियां तो पिछले पांच या अधिक साल से घाटे में हैंसनद रहे कि इस सूची में सरकारी बैंक शामिल नहीं हैंकई कंपनियों के घाटे तो उनकी पूंजी भी खत्म कर चुके हैं.

जिन्हें सरकारी कंपनियों को बंद करने या निजीकरण की सलाह नागवार लगती है उन्हें इन तथ्यों पर गौर करना चाहिए कि...

सरकारी कंपनियों का आधे से अधिक (52 फीसदघाटा बीएससएनएलएमटीएनएल और एयर इंडिया के नाम . अगर 15,000 करोड़ रुपए के घाटे वाले डाक विभाग को इसमें जोड़ लें तो सिर्फ इनसे निजात पाकर सरकार कई जल और स्वच्छता मिशन या डायरेक्ट इनकम ट्रांसफर चला सकती हैयह घाटा उत्पादन कंपनियां जिन उद्योगों में काम कर रही हैंवहां निजी क्षेत्र फल-फूल रहा है.

मुनाफे वाली सरकारी कंपनियां भी शानदार कामकाज की मिसाल नहीं हैंफायदा कमाने वाली दस शीर्ष कंपनियां तेलकोयलाबिजली और गैस क्षेत्र की हैं जहां सरकार का एकाधिकार हैप्रतिस्पर्धा शुरू होते ही वे एयर इंडिया बन जाएंगी.
बीएसएनएल-एमटीएनएल की बदहाली की खबर आने के बाद सरकार को यह मानना पड़ा कि इन कंपनियों की 75 से 85 फीसद कमाई केवल कर्मचारियों पर खर्च होती हैजबकि निजी कंपनियों के लिए यह लागत उनकी कमाई का केवल 2.9 से 5 फीसद हैहैरत नहीं कि केवल सरकारी कंपनियां ही हैं जिनमें 2012-17 के दौरान तनख्वाहें 11 फीसद बढ़ी और पूंजी पर रिटर्न केवल 5.4 फीसद.

- लोहास्टीलतेलएल्यूमिनियमकिसी भी क्षेत्र में सरकारी कंपनियों की उत्पादन वृद्धि दर निजी कंपनियों से ज्यादा नहीं है.

-पिछले दो दशक में सबसे ज्यादा नए रोजगार टेलीकॉमसूचना तकनीकबैंकिंग में आए हैं जहां सरकार ने निजीकरण किया है.

करदाताओं के पैसे या कर्ज से घाटा पैदा करने का यह खेल तब एक संगठित लूट की शक्ल लेता दिखता है जब हमें पता चलता है कि सरकार बुरी तरह बीमार कंपनियां (कुल 19) बंद करने को भी राजी नहीं हैनीति आयोग की राय के बावजूद मोदी सरकार पिछले पांच साल में बमुश्किल दो छोटी कंपनियां बंद कर सकी.

कुछ रणनीतिक परियोजनाओं को छोड़कर रेलवे के लिए निजीकरण के अलावा कोई रास्ता नहीं हैबीएसएनएल केवल सीमावर्ती इलाकों में बजट सब्सिडी पर नेटवर्क चला सकता हैईमेलमोबाइल मैसेजिंग के दौर में पूरी दुनिया में डाक विभाग का कोई भविष्य नहीं हैयहां तक कि पोस्टल बैंकिंग को प्रतिस्पर्धात्मक बनाए रखना भी मुश्किल है.

सरकारी कंपनियों को चलाए रखने के पैरोकार केवल वामपंथी नहीं हैंयह वकालत अब सर्वदलीय हो चुकी हैआर्थिक उदारीकरण के प्रेरक नरसिंह राव भी निजीकरण से उतना ही चिढ़ते थे जितने के कम्युनिस्टस्वदेशी के पैरोकार भी कम्युनिस्टों की तरह (एयर इंडिया को बेचने का विरोधइन घाटा फैक्ट्रियों को चलाए रखना चाहते हैं.

ढाई दशक के उदारीकरण में केवल अटल बिहारी वाजपेयी ने 28 सरकारी कंपनियां बेचकर पहले व्यापक निजीकरण का साहस दिखाया थानया बजट बताएगा कि भारी बहुमत पर बैठे नरेंद्र मोदी भारत के करदाताओं को कब तक इन सफेद हाथियों की सेवा में लगाए रखना चाहेंगे?