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Wednesday, July 27, 2022

आह रुपया वाह रुपया

 

 रुपये की गिरावट को लेकर तैर रहे मीम्‍स और चुटकुलों पर जमकर ठहाके लगाइये.  आपका हक बनता है यह.. क्‍यों कि रुपये की  कीमत पर भारतीय राजनीति की प्रतिक्रियायें दरअसल   च‍िरंतन लॉफ्टर चैलेंज है. इस तरफ वालों के लिए रुपये की कमजोरी ही उसकी ताकत है और उस तरफ वालों के लिए कमजोर रुपया देश की साख का कचरा हो जाना है. कांग्रेस और भाजपा को अलग अलग भूमिकाओं को यह प्रहसन रचाते हुए बार बार देखा गया है  

अलबत्‍ता इस बार  मामला जरा ज्‍यादा ही  टेढ़ा हो गया है. डॉलर अब 80 रुपये के करीब है. इतना कभी नहीं टूटा. यानी एक बैरल तेल (115-120 डॉलर ) करीब 10000 रुपये का. या कि एक टन आयात‍ित कोयला करीब 30000 रुपये का. 

रुपये की ढलान पर खीझने और खीसें न‍िपोरने वाले दोनों को इस सवाल का जवाब चाहिए कि आख‍िर रुपया कितना और गिर सकता है? शायद वह यह भी जानना चाहेंगे कि क्‍या सरकार और रिजर्व बैंक रुपये की गिरावट रोक सकते हैं?

 

रुपया मजबूत या कमजोर 

रिजर्व बैंक के पैमानों पर रुपया अभी भी महंगा है यानी ओवरवैल्‍यूड है !!

स्‍टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक का रुपी रियल इफेक्‍ट‍िव रेट इंडेक्‍स यानी रीर जून के दूसरे सप्‍ताह में 123.4 पर था एक साल पहले यह  117 अंक पर था. इस इंडेक्‍स की बढ़त बताती है कि हमें कमजोर दिख रहा रुपया दरअसल प्रतिस्‍पर्धी मुद्राओं के मुकाबले मजबूत है.. 

रिजर्व बैंक अमेरिकी डॉलर सहित 40 मुद्राओं की एक पूरी टोकरी के आधार पर  रुपये की विन‍िमय दर तय करता है. यह मुद्रायें भारत के व्‍यापार भागीदारों की हैं. यही है रीर, जो बताता है कि न‍िर्यात बाजार में भारत की मुद्रा कितनी प्रतिस्‍पर्धात्‍मक है रीर  से  पहले नीर भी है. यानी नॉमिनल इफक्‍ट‍िव एक्‍सचेंज रेट.  जो दुतरफा कारोबार में रुपये की प्रतिस्‍पर्धी ताकत का पैमाना  है. अलग अलग मुद्राओं के नीर का औसत रीर है.

रीर सूचकांक पर रुपया डॉलर के मुकाबले तो टूटा है लेक‍िन इस टोकरी की 39 मुद्रायें भारत की तुलना में कहीं ज्‍यादा कमजोर हुई हैं. खासतौर पर यूरो बुरी तरह घायल है.  इसलिए रीर पर रुपया मजबूत है.

आप रुपये की कमजोरी को रोते रहिये, सरकार और रिजर्व बैंक के रीर पर रुपया ताकत से फूल रहा है.

रिजर्व बैंक को एक और राहत है क‍ि 2008 के वित्‍तीय संकट और 2013 में अमेरिकी ब्‍याज दरें बढ़ने के दौर में लगातार गिरावट के दौर में रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 20 फीसदी तक टूटा था. अभी दिसंबर से जून तक यह ग‍िरावट छह फीसदी से कम है.  हालांकि 2008 से 2022 के बीच भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले 48 से 80 के करीब आ गया है.  

रीर और नीर जैसे पैमाने  निर्यात के पक्ष में हैं. लेक‍िन जैसे ही हम निर्यात वाला चश्‍मा उतार देते हैं रुपये की गिरावट खौफ से भर देती है. क्‍यों कि कमजोर रुपया आयात की लागत बढ़ाकर हमें दोहरी महंगाई में भून रहा है. भारत की थोक महंगाई में 60 फीसदी हिस्‍सा इंपोर्टेड इन्‍फलेशन का है. सनद रहे कि  2022 के वित्‍त वर्ष 192 अरब डॉलर रिकार्ड व्‍यापार घाटा (आयात और न‍िर्यात का अंतर) दर्ज किया.

रिजर्व बैंक की दुविधा

अगर रिजर्व बैंक बाजार में डॉलर छोडता रहे तो रुपये की गिरावट रुक जाएगी लेक‍िन वक्‍त रिजर्व बैंक के माफ‍िक नहीं है. वह तीन वजहों से कीमती विदेशी मुद्रा का हवन नहीं करना चाहता.

एक -   2018 तक भारतीय बाजारों से औसत एक अरब डॉलर हर माह बाहर जाते थे निकल रहे थे लेक‍िन इस जनवरी के बाद यह निकासी पांच अरब डॉलर मास‍िक हो गई है.  विदेशी निवेशकों को भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में फिलहाल उम्‍मीद नहीं दिख रही है. बाजार में डॉलर झोंककर भी यह उड़ान नहीं रोकी जा सकती.

दो -  डॉलर इंडेक्‍स अपनी ताकत के शि‍खर पर है. अमेरिका में ब्‍याज दरों जि‍तनी बढ़ेंगी,  डॉलर मजबूत हो जाएगा और रुपये की कमजोरी बढ़ती रहेगी.

तीन -  महंगाई पूरी दुनिया में है. भारतीय आयात में 60 फीसदी हिस्‍सा खाड़ी देशों, चीन, आस‍ियान, यूरोपीय समुदाय और अमेरिका से आने वाले सामानों व सेवाओं का है. जहां  2021 में निर्यात महंगाई 10 से  33 फीसदी तक बढ़ी है. महंगाई का आयात रोकना मुश्‍क‍िल है. आयात‍ित सामान महंगा होने से  सरकार को ज्‍यादा इंपोर्ट ड्यूटी मिलती है तो इसलिए यहां भी कुछ खास नहीं हो सकता.

 

कहां तक गिरेगा रुपया ?

 

रिजर्व बैंक की कोशि‍श  रुपये को नहीं विदेशी मुद्रा भंडार को बचाने की है. पिछली गिरावटों की तुलना में डॉलर के मुकाबले रुपया  उस कदर नहीं टूटा है जितनी कि कमी विदेशी मुद्रा में भंडार दिख रही है. मई से फरवरी 2008-09 के बीच रुपये की निरंतर गिरावट के दौरान विदेशी मुद्रा भंडार करीब 65 अरब डॉलर की कमी आई थी उसके बाद सबसे बड़ी गिरावट बीते नौ माह में यानी 21 अक्‍टूबर से 22 जून के बीच आई जिसमें जिसमें करीब 51 अरब डॉलर विदेशी मुद्रा भंडार से न‍िकल गए हैं

विदेशी मुद्रा भंडार अभी जीडीपी का करीब 20 फीसदी है. अगर यह गिरकर 15 फीसदी यानी 450 अरब डॉलर तक चला गया तो बड़ी घबराहट फैलेगी.

 

विदेशी मुद्रा भंडार इस समय 593 अरब डॉलर है. रिजर्व बैंक का इंटरनेशनल इन्‍वेस्‍टमेंट पोजीशन (आईआईपी) इस भंडार की ताकत का  हिसाब बताता है.  दिसंबर 2021 के  आईआईपी आंकड़ों के अनुसार   छोटी अवध‍ि के कर्ज और शेयर बाजार में पोर्टफोलियो निवेश की देनदारी निकालने के बाद भंडार में करीब 200 अरब डॉलर बचते हैं जो  60-63 अरब डॉलर (जून 2022) के मासिक इंपोर्ट बिल के हिसाब से केवल तीन चार माह के लिए पर्याप्‍त है. यही वजह है कि रिजर्व बैंक ने डॉलर की आवक बढ़ाने के लिए अन‍िवासी भारतीयों ,कंपन‍ियों और  विदेशी निवेशकों  के लिए रियायतों का नया पैकेज जारी किया है.

सरकार और रिजर्व बैंक को 80 के पार रुपये पर भी कोई दिक्‍कत नहीं है. बस एक मुश्‍त तेज गिरावट रोकी जाएगी. रुपया रोज गिरने के नए रिकार्ड बनायेगा. आप  बस  किस्‍म किस्‍म की आयात‍ित महंगाई झेलने के लिए अपनी पीठ मजबूत रख‍िये.

Thursday, December 30, 2021

बेरोजागारी की गारंटी


 फरीदाबाद की फैक्‍ट्री में लेबर सुपरवाइजर था व‍िनोदओवर टाइम आदि मिलाकर 500-600 रुपये की द‍िहाड़ी बन जाती थी. कोविड लॉकडाउन के बाद से गांव में मनरेगा मजदूर हो गया.  अब तो सरपंच या मुखि‍या के दरवाजे पर ही लेबर चौक बन गया है, वि‍नोद वहीं हाज‍िरी लगाता है. मनरेगा वैसे भी केवल साल 180 दि‍न का काम देती थी लेक‍िन बीते दो बरस से विनोद के पर‍िवार को  साल में 50 द‍िन का  का काम भी मुश्‍क‍िल से मिला है.

आप विनोद को बेरोजगार कहेंगे या कामगार ?  

गौतम  को बेरोजगार कर गया लॉकडाउन. उधार के सहारे कटा वक्‍त. पुराना वाला रिटेल स्‍टोर तो नहीं खुला लेक‍िन खासी मशक्‍कत के बाद एक मॉल में काम म‍िल गया. वेतन पहले से 25 फीसदी कम है और काम के घंटे 8 की जगह दस हो गए हैं, अलबत्‍ता शहर की महंगाई उनकी जान निकाल रही है.

क्‍या गौतम मंदी से उबर गया है ?   

महामारी ने भारत में रोजगारों की तस्‍वीर ही नहीं आर्थ‍िक समझ भी बदल दी है. महंगाई और बेकारी के र‍िश्‍ते को बताने वाला फिल‍िप्‍स कर्व सिर के बल खड़ा हो कर नृत्‍य कर रहा है यहां बेकारी और महंगाई दोनों की नई ऊंचाई पर हैं इधर मनरेगा में कामगारों की भीड़ को सरकारी रोजगार योजनाओं की सफलता का गारंटी कार्ड बता द‍िया गया है. सब कुछ गड्ड मड्ड हो गया है .


यद‍ि हम यह कहें क‍ि मनरेगा यानी महात्‍मा गांधी ग्रामीण रोजगार योजना भारत में बेकारी का सबसे मूल्‍यवान सूचकांक हो गई है तो शायद आपको व्‍यंग्‍य की खनक सुनाई देगी लगेगा. लेकनि महामार‍ियां और महायुद्ध हमारी पुरानी समझ का ताना बाना तोड़ देते हैं इसलिए मनरेगा में अब भारत के वेलफेयर स्‍टेट  की सफलता नहीं भीषण नाकामी दिखती है

आइये आपको  भारत में बेरोजगारी के सबसे विकराल और विदारक सच से मिलवाते हैं. मनरेगा श्रम की मांग पर आधार‍ित योजना है इसल‍िए यह बाजार में रोजगार की मांग घटने या बढ़ने का सबसे उपयुक्‍त पैमाना है. दूसरा तथ्‍य यह कि  मनरेगा  अस्‍थायी रोजगार कार्यक्रम है इसलिए इसके जरिये बाजार में स्‍थायी रोजगारों की हालात का तर्कसंगत आकलन हो सकता है.

वित्‍त वर्ष 2021 के दौरान मनरेगा में लगभग 11.2 करोड़ लोगों यानी लगभग 93 लाख लोगों को प्रति माह काम मिला. 2020-21 का साल शहरों की गरीबी के गांवों में वापस लौटने का था, इसल‍िए मनरेगा में काम हास‍िल करने वालों की तादाद करीब 42 फीसदी बढ़ गई.  इस साल यानी वित्‍त वर्ष 2022 के पहले आठ माह (अप्रैल नवंबर 2021)  में प्रति माह करीब 1.12 करोड़ लोगों मनरेगा की शरण में पहुंचे,यानी पर मनरेगा पर निर्भरता में करीब 20 फीसदी की बढ़ोत्‍तरी.  

अब उतरते हैं इस आंकडे के और भीतर जो यह बताता है क‍ि अर्थव्‍यवस्‍था में कामकाज शुरु होने और रिकवरी के ढोल वादन के बावजूद श्रम बाजार की हालात बदतर बनी हुई है. श्रमिक शहरों में नहीं लौटे इसल‍िए मनरेगा ही गांवो में एक मात्र रोजगार शरण बनी हुई है.

मनरेगा के काम का हिसाब दो श्रेणि‍यों में मापा जाता है एक काम की मांग यानी वर्क डिमांडेड और एक काम की आपू‍र्ति अर्थात वर्क प्रोवाइडेड‍. नवंबर 2021 में मनरेगा के तहत काम की मांग (वर्क डिमांडेड) नवंबर 20 की तुलना में 90 फीसदी ज्यादा थी. मतलब यह क‍ि  रिकार्ड जीडीपी रिकवरी के बावजूद मनरेगा में काम की मांग कम नहीं हुई. इस बेरोजगारी का नतीजा यह हुआ क‍ि मनरेगा में दिये गए काम का प्रतिशत मांगे गए काम का केवल 61.5% फीसदी रह गया. यानी 100 में केवल 61 लोगों को काम मिला. यह औसत पहले 85 का था. यही वजह थी कि इस वित्‍त वर्ष में सरकार को मनरेगा को 220 अरब रुपये का अत‍िर‍िक्‍त आवंटन करना पड़ा.

मनरेगा एक और विद्रूप चेहरा है जो हमें रोजगार बाजार के बदलती तस्‍वीर बता रहा है. मनरेगा में काम मांगने वालों में युवाओं की प्रतिशत आठ साल के सबसे ऊंचे स्‍तर पर है. मनरेगा के मजदूरों में करीब 12 फीसदी लोग 18 से 30 साल की आयु वर्ग के हैं. 2019 में यह प्रतिशत 7.3 था. मनरेगा जो कभी गांव में प्रौढ़ आबादी के लिए मौसमी मजदूरी का जर‍िया थी वह अब बेरोजगार युवाओं की आखि‍री उम्‍मीद है.

तीसरा और सबसे चिंताजनक पहलू है मनरेगा की सबसे बड़ी विफलता. मनरेगा कानून के तहत प्रति परिवार कम से कम 100 दिन का काम या रोजगार की गारंटी है. लेक‍िन अब प्रति‍ परिवार साल में 46 दिन यानी महीने में औसत चार द‍िहाड़ी मिल पाती है. कोव‍िड से पहले यह औसत करीब 50 दिन का था. इस पैमाने पर उत्‍तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, कर्नाटक, तम‍िलनाडु जैसे राज्‍य हैं जहां साल में 39-40 द‍िन का रोजगार भी मुश्‍क‍िल है

सनद रहे क‍ि मनरेगा अस्‍थायी रोजगार का साधन है और दैन‍िक मजदूरी है केवल 210 रुपये. यदि एक परिवार को माह में केवल चार दिहाड़ी मिल पा रही है तो यह महीने में 1000 रुपये से भी कम है. यानी क‍ि विनोद जिसका जिक्र हमने शुरुआत में किया वह  गांव में गरीबी के टाइम बम पर बैठकर महंगाई की बीड़ी  जला रहा है. यही वजह है कि गांवों से साबुन तेल मंजन की मांग नहीं निकल रही है.  

अब बारी गौतम वाली बेरोजगारी की.  

वैसे महंगाई और बेरोजगारी से याद आया क‍ि एक थे अल्‍बन विल‍ियम हाउसगो फ‍िल‍िप्‍स वही फ‍िल‍िप्‍स कर्व वाले. बड़ा ही रोमांचक जीवन था फ‍िलि‍प्‍स का. न्‍यूजीलैंड किसान पर‍िवार में पैदा हुए. पढ़ ल‍िख नहीं पाए तो 1937 में  23 साल की उम्र में दुन‍िया घूमने न‍िकल पड़े लेक‍िन जा रहे थे चीन पहुंच गए जापान यानी युद्ध छिड़ गया तो जहाज ने शंघाई की जगह योकोहामा ले जा पटका. वहां से कोरिया मंचूर‍िया रुस होते हुए लंदन पहुंचे और बिजली के इंजीन‍ियर हो गए.

फिलि‍प्‍स दूसरे वि‍श्‍व युद्ध में रायल ब्रिटिश फोर्स का हिस्‍सा बन कर पहुंच गए स‍िंगापुर. 1942 में जब जापान ने जब स‍िंगापुर पर कब्‍जा कर लिया तो  आखि‍री जहाज पर सवार हो कर भाग रहे थे कि जापान ने हवाई हमला कर दिया.  जहाज ने जावा पहुंचा दिया जहां तीन साल जेल में रहे और फिर वापस न्‍यूजीलैंड पहुंचे. तंबाकू के लती और अवसादग्रस्‍त फि‍ि‍लप्‍स ने अंतत: वापस लंदन लौटे और लंदन स्‍कूल ऑफ इकोनॉमिक्‍स में भर्ती हो गए. जहां उन्‍होंने 1958 में महंगाई और बेकारी को रि‍श्‍ते के समझाने वाला स‍िद्धांत यानी फि‍ल‍िप्‍स कर्व प्रत‍िपाद‍ित कि‍या.

फ‍िल‍िप्‍स कर्व के आधार पर तो गौतम को पहले से ज्‍यादा वेतन म‍िलना चाहिए क्‍यों क‍ि यह सिद्धांत कहता है कि उत्‍पादन बढ़ाने के लिए वेतन बढ़ाने होते हैं जिससे महंगाई बढ़ती है जबक‍ि यदि उत्‍पादन कम है वेतन कम हैं तो महंगाई भी कम रहेगी.

महामारी के बाद भारत की अर्थव्‍यवस्‍था अजीब तरह से बदल रही है. यहां मंदी के बाद उत्‍पादन बढ़ाने की जद्दोहजहद तो दि‍ख रही है लेकनि गौतम जैसे लोग पहले से कम वेतन काम कर रहे हैं. जबक‍ि और हजार वजहों से महंगाई भड़क रही है बस कमाई नहीं बढ़ रही है.

भारत की ग्रामीण और नगरीय अर्थव्‍यवस्‍थाओं में   कम वेतन की लंबी खौफनाक ठंड शुरु हो रही है. सरकारी रोजगार योजनाओं में बेंचमार्क मजदूरी इतनी कम है कि अब इसके असर पूरा रोजगार बाजार बुरी तरह मंदी में आ गया है. मुसीबत यह है कि कम पगार की इस सर्दी के बीच महंगाई की शीत लहर चल रही है यानी कि अगर अर्थव्‍यवस्‍था में मांग बढ़ती
भी है और वेतन में कुछ बढ़त होती है तो वह पहले से मौजूदा भयानक महंगाई को और ज्‍यादा ताकत देगी या लोगों की मौजूदा कमाई में बढ़ोत्‍तरी चाट जाएगी.

क्‍या बजटोन्‍मुख सरकार के पास कोई इलाज है इसका ? अब या तो महंगाई घटानी होगी या कमाई बढ़ानी होगी, इससे कम पर भारत की आर्थि‍क पीड़ा कम होने वाली नहीं है.

  

Thursday, December 16, 2021

आइने में आइना



ज‍िसका डर था बेदर्दी वही बात हो गईवारेन बफे के ओव‍ेर‍ियन लॉटरी वाले स‍िद्धांत को भारतीय नीति आयोग की मदद मिल गई है. यह फर्क अब कीमती है क‍ि आप भारत के किस राज्य में रहते हैं और तरक्‍की के कौन राज्‍य में शरण चाहिए. 

जन्म स्थान का सौभाग्य यानी ओवेरियन लॉटरी (वारेन बफे-जीवनी द स्नोबॉल) का स‍िद्धांत न‍िर्मम मगर व्‍यावहार‍िक है. इसक फलित यह है क‍ि अध‍िकांश लोगों की सफलता में (अपवादों को छोड़कर) बहुत कुछ इस बात पर निर्भर होता है क‍ि वह कहां पैदा हुआ है यानी अमेरिका में या अर्जेंटीना में !

अर्जेंटीना से याद आया क‍ि क‍ि वहां के लोग अब उत्‍तर प्रदेश या बिहार से सहानुभूति रख सकते हैं. मध्‍य प्रदेश झारखंड वाले, लैटिन अमेर‍िका या कैरेब‍ियाई देशों के साथ भी अपना गम बांट सकते हैं. गरीबी की पैमाइश के नए फार्मूले के बाद भारत की सीमा के भीतर आपको स्‍वीडन या जापान तो नहीं लेक‍िन अफ्रीकी गिन‍िया बिसाऊ और केन्‍या (प्रति‍ व्‍यक्‍ति‍ आय) से लेकर पुर्तगाल व अर्जेंटीना तक जरुर मिल जाएंगे.

बफे ने बज़ा फरमाते हैं क‍ि सफलता केवल प्रतिभा या क्षमता से ही तय नहीं होती है, जन्‍म स्‍थान के सौभाग्‍य से तय होती है. जैसे क‍ि  अर्जेंटीना की एक पूरी पीढ़ी दशकों से खुद पूछ रही है क‍ि यद‍ि यहां न पैदा न हुए होते तो क्‍या बेहतर होता?

अर्जेंटीना जो 19 वीं सदी में दुन‍िया के अमीर देशों में शुमार था उसका संकट इतनी बड़ी पहेली बन गया गया कि आर्थ‍िक गैर बराबरी की पैमाइश का फार्मूला (कुजनेत्‍स कर्व) देने वाले, जीडीपी के प‍ितामह सिमोन कुजनेत्‍स ने कहा था क‍ि दुनिया को चार हिस्‍सों - व‍िकस‍ित, अव‍िकस‍ित, जापान और अर्जेंटीना में बांटा जा सकता है.

Image – Kujnets Curve and Simon Kujnets

कुजनेत्‍स होते तो, भारत भी एसा ही पहेलीनुमा दर्जा देते. जहां भारत की उभरती अर्थव्‍यवस्‍था वाली तस्‍वीर भीतरी तस्‍वीर की बिल्‍कुल उलटी है. भारत में गरीबी की नई नापजोख बताती है क‍ि तेज ग्रोथ के ढाई दशकों, अकूत सरकारी खर्च, डबल इंजन की सरकारों के बावजूद अध‍िकांश राज्‍यों 10 में 2.5 से 5 पांच लोग बहुआयामी गरीबी के शिकार हैं. यह हाल तब है कि नीति‍ आयोग की पैमाइश में कई झोल हैं.

गरीबी की बहुआयामी नापजोख नया तरीका है जो संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के जर‍िये दुन‍िया को मिला है. इसमें गरीबी को केवल कमाई के आधार पर नहीं बल्‍क‍ि सामाजिक आर्थ‍िक विकास के 12 पैमानों पर मापा जाता है. इनमें पोषण, बाल और किशोर मृत्यु दर, गर्भावस्‍था के दौरान देखभाल, स्कूली शिक्षा, स्कूल में उपस्थिति और खाना पकाने का साफ ईंधन, स्वच्छता, पीने के पानी की उपलब्धता, बिजली, आवास और बैंक या पोस्ट ऑफ़िस में खाते को शाम‍िल किया गया है

इस नापजोख में पेंच हैं. जैसे क‍ि इसके तहत मोबाइल फ़ोन, रेडियो, टेलीफ़ोन, कम्प्यूटर, बैलगाड़ी, साइकिल, मोटर साइकिल, फ़्रिज  में से कोई दो उपकरण (जैसे साइकिल और रेडियो) रखने वाले परिवार गरीब नहीं है घर मिट्टी, गोबर से नहीं बना है, तो गरीब नहीं. बिजली कनेक्‍शन, केरोस‍िन या एलपीजी के इस्‍तेमाल और परिवार में किसी भी सदस्य के पास बैंक या पोस्ट ऑफ़िस में अकाउंट होने पर उसे गरीब नहीं माना गया है. इसल‍िए अधि‍कांश शहरी गरीब को सरकार के ल‍ि‍ए गरीब नहीं हैं. तभी तो दिल्‍ली में गरीबी 5 फीसदी से कम बताई गई.

सरकारें आमतौर पर गरीबी छि‍पाती हैं, नतीजतन इस रिपोर्ट की राजनीत‍िक चीरफाड़ स्‍वाभाविक हैं, फिर भी हमें इस आधुन‍िक पैमाइश से जो निष्‍कर्ष मिलते हैं वे कोई तमगे नहीं है जिन पर गर्व किया जाए.

-    इस फेहर‍िस्‍त में जो पांच राज्‍य समृद्ध की श्रेणी में है पंजाब श्रीलंका या ग्‍वाटेमाला जैसी और तमि‍लनाडु अर्जेंटीना या पुर्तगाल जैसी अर्थव्‍यवस्‍थायें (उनमें जीडीपी महंगाई सहि‍त और पीपीपी) हैं. इसी कतार में आने वाले  केरल को अधिकतम जॉर्डन या चेक गणराज्‍य, सि‍क्‍क‍िम को बेलारुस और गोवा को एंटीगा के बराबर रख सकते हैं.

-    यद‍ि विश्‍व बैंक के डॉलर क्रय शक्‍ति‍ पैमाने से देखें को उत्‍तर प्रदेश, पश्‍च‍िम अफ्रीकी देश बेन‍िन और बिहार गिन‍िया बिसाऊ होगा. जीडीपी के पैमानों पर उत्‍तर प्रदेश पेरु और बिहार ओमान जैसी अर्थव्‍यवस्‍था हो सकती है. महाराष्‍ट्र, पश्‍च‍िम बंगाल, कर्नाटक, राजस्‍थान, आंध्र, मध्‍य प्रदेश तेलंगाना जैसे मझोले राज्‍य भी सर्बिया, थाइलैंड, ईराक, कजाकस्‍तान या यूक्रेन जैसी अर्थव्‍यवस्‍थायें हैं. इनमें कोई भी किसी विकस‍ित देश जैसा नहीं है.

धीमी पड़ती विकास दर, बढ़ते बजट घाटों और ढांचागत चुनौ‍त‍ियों की रोशनी में यह पैमाइश हमें कुछ बेहद तल्‍ख नतीजों की तरफ ले जाती है जैसे क‍ि

-    बीते दो दशकों में भारत की औसत विकास दर छह फीसदी रही, जो इससे पहले के तीन दशकों के करीब दोगुनी है. अलबत्‍ता सुधारों के 25 सालों में तरक्‍की की सुगंध सभी राज्‍यों तक नहीं पहुंची. सीएमआईई और रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक बीते बीस सालों में सबसे अगड़े और पिछड़े राज्‍यों में आय असमानता करीब 337 फीसदी बढ गई यानी क‍ि उत्‍तर प्रदेश आय के मामले में कभी भी स‍िक्‍कि‍म या पंजाब नहीं हो सकेगा.

-    औसत से बेहतर प्रदर्शन करने वाले ज्‍यादातर राज्‍य व केंद्रशास‍ित प्रदेश छोटे हैं यानी क‍ि उनके पास प्रवासि‍यों को काम देने की बड़ी क्षमता नहीं हैं. उदाहरण के ल‍िए अकेले बिहार या उत्‍तर प्रदेश में गरीबों की तादाद, नीति आयोग की गणना में ऊपर के पायदान पर खड़े नौ राज्‍यों में संयुक्‍त तौर पर कुल गरीबों की संख्‍या से ज्‍यादा है. यानी क‍ि बिहार यूपी के लोग जन्‍म स्‍थान दुर्भाग्‍य का चि‍रंतन सामना करेंगे.   

-    समृद्ध राज्‍यों की तुलना में पि‍छड़े राज्‍य श‍िक्षा स्‍वास्‍थ्‍य पर कम खर्च करते हैं लेक‍िन अगर सभी राज्‍यों पर कुल बकाया कर्ज का पैमाना लगाया जाए तो सबसे आगे और सबसे पीछे के राज्‍यों पर बकायेदारी लगभग बराबर ही है.

आर्थ‍िक राजनीत‍िक और सामाज‍िक तौर पर चुनौती अब शुरु हो रही है. भारत के विकास के सबसे अच्‍छे वर्षों में जब असमानता नहीं भर पाई तो तो आगे इसे भरना और मुश्‍क‍िल होता जाएगा. गरीबी नापने के नए पैमाने और वित्‍त आयोग की सि‍फार‍िशें बेहतर राज्‍यों को ईनाम देने की व्‍यवस्‍था दते हैं है जबक‍ि केंद्रीय सहायता में बड़ा हिस्‍सा गरीब राज्‍यों को जाता है.

अगड़े राज्‍य अपने बेहतर प्रदर्शन के लिए इनाम मांगेगे, संसाधनों में कटौती नहीं. यह झगड़ा जीएसटी पर भी भारी पड़ सकता है क्‍यों क‍ि निवेश को आकर्षि‍त करने ‍के लिए राज्‍यों को टैक्‍स र‍ियायत देने की आजादी चाहिए.

सरकारों को नीतियों का पूरा खाका ही बदलना होगा. स्‍थानीय अर्थव्‍यवस्‍थाओं के क्‍लस्‍टर बनाने होंगे और छोटों के ल‍िए बड़े प्रोत्‍साहन बढ़ाने होंगे, नहीं तो रोजगारों के ल‍िए अंतरदेशीय प्रवास पर राजनीति शुरु होने वाली है. हरियाणा और झारखंड एलान कर चुके हैं क‍ि रोजगार पर पहला हक राज्य के निवासियों का है.

यह असमानतायें भारत को एक दुष्‍चक्र में खींच लाई हैं जिसका खतरा गुन्‍नार मृदाल ने हमें 1944 ( क्‍युम्‍युलेटिव कैजुएशन) में ही बता दिया था.

मृदाल के मुताबिक अगर वक्‍त पर सही संस्‍थायें आगे न आएं तो शुरुआती तेज विकास बाद में बड़ी असमानताओं में बदल जाता  है. भारत में यही हुआ है, सुधारों के शुरुआती सुहाने नतीजे अब गहरी असमानताओं में बदलकर सुधारो के लि‍ए ही खतरा बन रहे हैं. ठीक एसा ही लैटि‍न अमेर‍िका के देशों के साथ हुआ है.  

भारतीय राजनीत‍ि अपनी पूरी ताकत लगाकर भी यह असमानतायें नहीं पाट सकती. वह एक बड़ी आबादी को ओवेर‍ियन लॉटरी की सुवि‍धा नहीं दे सकती. अलबत्‍ता इन अंतराराज्‍यीय असमानताओं बढ़ने से रोक द‍िया जाए क्‍यों क‍ि यह दरार बहुत चौड़ी है. नीति आयोग की रिपोर्ट को घोंटने पर पता चलता है क‍ि 1.31 अरब की कुल आबादी 28.8 करोड़ गरीब गांव में रहते हैं और केवल 3.8 करोड़ शहरों में.

यानी क‍ि गाजीपुर बनाम गाजियाबाद या चंडीगढ़ बनाम मेवात वाली स्‍थानीय असमानताओं की बात तो अभी शुरु भी नहीं हुई है.

 


Saturday, October 9, 2021

सबके बिन सब अधूरे

 


अमेरिका और यूरोप में उत्सवी सामान (थैंक्सगिविंग-क्रिसमस) की कमी पड़ने वाली है. चीन में कोयला कम है, बत्ती गुल है, कारखाने बंद हैं. यूरोप में गैस की कीमतें उबल रही हैं. ब्रिटेन में कामगारों की किल्लत है. रूस में मीट नहीं मिल रहा. यूरोप की कार इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनियों के पास पुर्जे नहीं हैं.

दुनिया में तो मंदी है, मांग का कोई विस्फोट नहीं हुआ है फिर यह क्या माजरा है?

कहते हैं, अगर अमेरिकी राज्य न्यू मेक्सिको में कोई तितली अपने पंख फड़फड़ाए तो चीन में तूफान सकता है. यानी दुनिया इतनी पेचीदा है कि छोटी-सी घटना से बड़ी उथल-पुथल (बटरफ्लाइ इफेक्ट या केऑस थ्योरी) हो सकती है.

हवा पानी के बाद अगर कोई चीज हमें चला रही है तो वह सप्लाइ चेन है जो करीबी दुकान से लेकर भीतरी चीन, या दक्षिण अमेरिका के सुदूर इलाकों तक फैली हो सकती है. सामान, सेवाओं, श्रमिकों, ईंधन, खनिज आदि की ग्लोबल आपूर्ति का यह पर्तदार और जटिल तंत्र इस कदर बहुदेशीय और बहुआयामी है कि वर्ल्ड इज फ्लैट वाले थॉमस फ्रीडमैन कहते रहे हैं कि अब दुनिया में युद्ध नहीं होंगे क्योंकि एक ही सप्लाइ चेन में शामिल दो देश एक-दूसरे से जंग नहीं कर सकते. इसे डेल (कंप्यूटर) थ्योरी ऑफ कन्फलिक्ट प्रिवेंशन कहते हैं.

दुनिया में लगभग सभी जरूरी चीजों की उत्पादन क्षमताएं पर्याप्त हैं फिर भी कारोबारी धमनियों में उतनी सप्लाइ नहीं है लंबी बाजार बंदी के बाद जितनी जरूरत थी.

विश्व की पांच बड़ी अर्थव्यवस्थाएंअमेरिका, चीन, जर्मनी, यूके, रूस और ऑस्ट्रेलिया लड़खड़ा गई हैं. यही पांच देश दुनिया की सप्लाइ चेन में बड़े ग्राहक भी हैं और आपूर्तिकर्ता भी. इनके संकट पूरी तरह न्यू मेक्सिको की तितली जैसे हैं यानी स्थानीय. लेकिन सामूहिक असर पूरी दुनिया की मुसीबत बन गया है. किल्लत अब लाखों सामान की है लेकिन वह चार बड़ी आपूर्तियां टूटने का नतीजा है, जो ग्लोबल सप्लाइ चेन की बुनियाद हैं.

ऊर्जा या ईंधन में चौतरफा आग लगी है. कोविड से पहले 2020 और ’21 की भीषण सर्दियों में यूरोप ने अपने ऊर्जा भंडारों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल कर लिया. उत्पादन बढ़ता इससे पहले कोविड गया. एक साल में यूरोप में नेचुरल गैस 300 फीसद महंगी (स्पॉट प्राइस) हो गई. बिजली करीब 250 फीसद महंगी हुई हालांकि उपभोक्ता बिल नहीं बढ़े. भंडार क्षमताएं बीते बरस से 19 फीसद कम हैं.

चीन दुनिया में सबसे ज्यादा कोयला इस्तेमाल करता है. सरकार ने ऑस्ट्रेलिया से आयात रोक दिया था. चीन में कोयला महंगा है लेकिन सरकार बिजली सस्ती रखती है. नुक्सान बढ़ने से कोयले का खनन कम हुआ. बिजली की कटौती से कारखाने रुके तो अमेरिका-यूरोप भारत में जरूरी आपूर्ति टूटने लगी.

इधर, पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन, ओपेक कच्चे तेल का उत्पादन बढ़ाने के लिए इंतजार करना चाहता है इसलिए पूरा ऊर्जा बाजार ही महंगाई से तपने लगा है.

महामारी वाली मंदी से उबर रहे विश्व को यह अंदाज नहीं था कि अब तक की सबसे जटिल शिपिंग किल्लत उनका इंतजार कर रही है. बीते एक साल में कई बंदरगाहों पर जहाज फंस गए. इस बीच कंटेनर बनाने वाली कंपनियों (तीनों चीन की) ने उत्पादन घटा दिया. अब मांग है तो कंटेनर और जहाज नहीं. नतीजतन, किराए चार साल की ऊंचाई पर हैं. यह संकट दूर होते एक साल बीत जाएगा. लेकिन तब अमेरिका में क्रिसमस गिफ्ट, रूस में खाने का सामान, ऑस्ट्रेलिया को स्टील की कमी रहेगी. भारतीय निर्यातक महंगे भाड़े से सांसत में हैं.

मध्य और पूर्वी यूरोप के मुल्कों में कामगारों की कमी हो गई है. अमेरिका और यूरोप में बेरोजगारी सहायता स्कीमें बंद होने वाली हैं. कई जगह लोग वर्क फ्रॉम होम से वापस नहीं आना चाहते. कमी है तो मजदूरी महंगी हो रही है जो कंपनियों की लागत बढ़ा रही है. ब्रिटेन में पेट्रोल, खाद्य और दूसरी जरूरी सेवाओं के लिए कामगारों की कमी हो गई है. ब्रेग्जिट के बाद प्रवासियों को आने से रोकना अब महंगा पड़ रहा है.

कहते हैं कि अगर ट्रंप की अगुआई में चीन-अमेरिका व्यापार युद्ध के दौरान सेमीकंडक्टर या चिप ग्राहकों ने दोगुनी खरीद के ऑर्डर दिए होते तो आज यह नौबत नहीं आती. चिप नया क्रूड आयल है. कोविड के कारण कारों का उत्पादन प्रभावित हुआ तो चीन ताइवान की कंपनियों ने स्मार्ट फोन, कंप्यूटर वाले चिप का उत्पादन बढ़ा दिया. ऑटोमोबाइल की मांग लौटी तो उत्पादन क्रम में फिर बदलाव हुआ. अब सभी के लिए चिप की किल्लत है.

ईंधन, परिवहन, चिप और श्रमिक के बिना आधुनिक मैन्युफैक्चरिंग मुश्किल है. इनकी कमी स्टैगफ्लेशन को न्योता दे रही है. यानी महंगाई और आर्थिक सुस्ती एक साथ. दुनिया के देशों को सबसे पहले सप्लाइ चेन यानी आपूर्ति की धमनियों को दुरुस्त करना होगा. सस्ता कर्ज मंदी से उबरने का शर्तिया इलाज रहा है लेकिन महंगाई के सामने यह दवा बेकार है. कर्ज महंगे होने लगे हैं. 

नेपोलियन बज़ा फरमाते थे: नौसिखुए कमांडर जंग में टैक्टिक्स (रणनीति) की बात करते हैं जबकि पेशेवर लड़ाके लॉजिस्टिक्स (साधनों) की. सनद रहे कि जंग अब महामारी और मंदी के साथ महंगाई से भी है.