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Friday, April 16, 2021

घुटती सांसों का ‘उत्सव’

 


भारत के लिए चुनाव, कुंभ और महामारी में क्या अंतर या समानता है? बात इन आयोजनों के सुपर स्प्रेडर बनने के खतरे की नहीं है. हमें तो इस बात पर अचरज होना चाहिए कि जो मुल्क दुनिया का सबसे बड़ा और लंबा चुनाव करा लेता है, भरपूर कोविड के बीच कुंभ जैसे मेले और आइपीएल जैसे भव्य महंगे तमाशे जुटा लेता है वह महामारी की नसीहतों के बावजूद अपने थोड़े से लोगों को अस्पताल, दवाएं और ऑक्सीजन नहीं दे पाता.

डारोन एसीमोग्लू और जेम्स जे राबिंसन ने दुनिया के इतिहास, राजनीति और सरकारों के फैसले खंगालकर अपनी मशहूर कि‍ताब व्हाइ नेशंस फेल में बताया है कि दुनिया के कुछ देशों में लोग हमेशा इसलिए गरीब और बदहाल रहते हैं क्योंकि वहां की राजनैतिक और आर्थिक संस्थाएं बुनियादी तौर पर शोषक हैं, इन्हें लोगों के कल्याण की जिम्मेदारी और संवेदनशीलता के मूल्यों पर बनाया ही नहीं जाता, इसलिए संकटों में व्यवस्थाएं ही सबसे बड़ी शोषक बन जाती हैं.

कोविड की दूसरी लहर ने हमें बताया कि एसीमोग्लू और राबिंसन क्यों सही हैं? क्या हमारे पास क्षमताएं नहीं थीं? क्या संसाधनों का टोटा था? नहीं. शायद हमारा दुर्भाग्य हमारी संवेदनहीन सियासत और उसकी संस्थाएं लिख रही हैं.

कोविड की पहली लहर के वक्त स्वास्थ्य क्षमताओं की कमी सबसे बड़ी चुनौती थी. अप्रैल 2020 में 15,000 करोड़ रु. का पैकेज आया. दावे हुए कि बहुत तेजी से विराट हेल्थ ढांचा बना लिया गया है तो फिर कहां गया वह सब?

बहुत-से सवाल हमें मथ रहे हैं जैसे कि

अप्रैल से अक्तूबर तक ऑक्सीजन वाले बि‍स्तरों की संख्या 58,000 से बढ़ाकर 2.65 लाख करने और आइसीयू और वेंटीलेटर बेड की संख्या तीन गुना करने का दावा हुआ था. कहा गया था कि ऑक्सीजन, बडे अस्थायी अस्पताल, पर्याप्त जांच क्षमताएं, क्वारंटीन सेंटर और कोविड सहायता केंद्र हमेशा तैयार हैं. लेकिन एक बार फिर अप्रैल में जांच में वही लंबा समय, बेड, ऑक्सीजन, दवा की कमी पहले से ज्यादा और ज्यादा बदहवास और भयावह!!

कोविड के बाद बाजार में नौ नई वेंटीलेटर कंपनियां आईं. उत्पादन क्षमता 4 लाख वेंटीलेटर तक बढ़ी लेकिन पता चला कि मांग तैयारी सब खो गई है. उद्योग बीमार हो गया.

 भारत में स्वास्थ्य क्षमताएं बनी भी थीं या सब कुछ कागजी था अथवा कुंभ के मेले की तरह तंबू उखड़ गए? सनद रहे कि दुनिया के सभी देशों ने कोविड के बाद स्वास्थ्य ढांचे को स्थानीय बना दिया क्योंकि खतरा गया नहीं है.

स्वास्थ्यकर्मियों की कमी (1,400 लोगों पर एक डॉक्टर, 1,000 लोगों पर 1.7 नर्स) सबसे बड़ी चुनौती थी, यह जहां की तहां रही और एक साल बाद पूरा तंत्र थक कर बैठ गया.

क्षमताओं का दूसरा पहलू और ज्यादा व्याकुल करने वाला है.

बीते अगस्त तक डॉ. रेड्डीज, साइजीन और जायडस कैडिला के बाजार में आने के बाद (कुल सात उत्पादक) प्रमुख दवा रेमिडि‍सविर की कमी खत्म हो चुकी थी. अप्रैले में फैवीफ्लू की कालाबाजारी होने लगी. इंजेक्शन न मिलने से लोग मरने लगे.

दुनिया की वैक्सीन फार्मेसी में किल्लत हो गई क्योंकि अन्य देशों की सरकारों ने जरूरतों का आकलन कर दवा, वैक्सीन की क्षमताएं देश के लिए सुरक्षित कर लीं. कंपनियों से अनुबंध कर लिए. और हमने वैक्सीन राष्ट्रवाद का प्रचार किया?

इतना तो अब सब जानते हैं कि कोविड को रोकने के लिए एजेंसि‍यों के बीच संवाद, संक्रमितों की जांच और उनके जरिए प्रसार (कांटैक्ट ट्रेसिंग) को परखने का मजबूत और निरंतर चलने वाला तंत्र चाहिए लेकिन बकौल प्रधानमंत्री सरकारें जांच घटाकर और जीत दिखाने की होड़ में लापरवाह हो गईं. यह आपराधि‍क है कि करीब 1.7 लाख मौतों के बावजूद संक्रमण जांच, कांटैक्ट ट्रेसिंग और सूचनाओं के आदान-प्रदान का कोई राष्ट्रव्यापी ढांचा या तंत्र नहीं बन सका.

दवा, ऑक्सीजन, बेड के लिए तड़पते लोग, गर्वीले शहरों में शवदाह गृहों पर कतारें...वि‍‍श्व गुरु, महाशक्ति, डिजिटल सुपरपावर या दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता का यह चेहरा खौफनाक है. यदि हम ऐसे निर्मम उत्सवप्रिय देश में बदल रहे हैं जहां सरकारें एक के बाद एक भव्य महाकुंभ, महाचुनाव और आइपीएल करा लेती हैं लेकिन महामारी के बीच भी अपने लोगों को अस्पताल, दवाएं, आक्सीजन यहां तक कि शांति से अंतिम यात्रा के लिए श्मशान भी नहीं दिला पातीं तो हमें बहुत ज्यादा चिंतित होने की जरूरत है.

भारत में किसी भी वक्त अधि‍कतम दो फीसदी (बीमार, स्वस्थ) से ज्यादा आबादी संक्रमण की चपेट में नहीं थी लेकिन एक साल गुजारने और भारी खर्च के बाद 28 राज्यों और विशाल केंद्र सरकार की अगुआई में कुछ नहीं बदला. भरपूर टैक्स चुकाने और हर नियम पालन के बावजूद यदि हम यह मानने पर मजबूर किए जा रहे हैं कि खोट हमारी किस्मत में नहीं, हम ही गए गुजरे हैं (जूलियस सीजर-शेक्सपियर) तो अब हमें अपने सवाल, निष्कर्ष और आकलन बदलने होंगे क्योंकि अब व्यवस्था ही जानलेवा बन गई है.

Monday, June 29, 2015

इकबाल का सवाल

मोदी सरकार के कई मिथक अचानक टूटने लगे हैं। बाहर से भव्‍य फिल्‍म सेट की तरह दिखती सरकार में पर्दे के पीछे यूपीए जैसी अपारदर्शिता और नीति शून्यता झांकने लगी है.
ई सरकार का मंत्रिमंडल बेदम है. उम्मीद है, सरकार आगे निराश नहीं करेगी.'' मोदी सरकार के शपथ ग्रहण के अगले ही दिन अंतरराष्ट्रीय निवेश फर्म क्रेडिट सुइस की यह टिप्पणी बहुतों को अखर गई थी. निष्कर्ष तथ्यसंगत था लेकिन टिप्पणी कुछ जल्दबाजी में की गई लगती थी. अलबत्ता बीते सप्ताह एक बड़े विदेशी निवेशक ने दो-टूक अंदाज में मुझसे पूछा कि मोदी सरकार का प्लान बी क्या है? तो मुझे अचरज नहीं हुआ क्योंकि सियासी से लेकर कॉर्पोरेट गलियारों तक यह प्रश्न कुलबुलाने लगा है कि क्या नरेंद्र मोदी के लिए अपनी सरकार की बड़ी सर्जरी करने का वक्त आ गया है. यह सवाल केवल सरकार के कमजोर प्रदर्शन से ही प्रेरित नहीं है. सुषमा-वसुंधरा के ललित प्रेम, स्मृति ईरानी की मूर्धन्यता के विवाद और सरकार व पार्टी पर मोदी-शाह के इकबाल को लेकर असमंजस की गूंज भी इस सवाल में सुनी जा सकती है.
मोदी सरकार का एक साल पूरा होने तक यह सच लगभग पच गया था कि अपेक्षाओं व मंशा के मुकाबले नतीजे कमजोर रहे हैं. लेकिन यह आशंका किसी को नहीं थी कि नई सरकार कोई ठोस बदलाव महसूस कराए बिना अपने शैशव में ही उन विवादों में उलझ जाएगी जो न केवल गवर्नेंस के उत्साह निगल सकते हैं, बल्कि जिनके चलते सरकार और बीजेपी में नरेंद्र मोदी व अमित शाह का दबदबा भी दांव पर लग जाएगा.
पिछले एक साल में मोदी सरकार के दो चेहरे दिखे हैं. एक चेहरा भव्य और शानदार आयोजनों व प्रभावी संवाद की रणनीतियों का है.  लेकिन इसके विपरीत दूसरा चेहरा गवर्नेंस में ठोस यथास्थिति का है जो पिघल नहीं सकी. यह ठहराव खुद प्रधानमंत्री को भी बेचैन कर रहा है. सरकार की इस बेचैनी को तथ्यों में बांधा जा सकता है. मसलन, नौकरशाही में फेरबदल को लीजिए. पिछले 12 माह में केंद्र की नौकरशाही में तीन बड़े फेरबदल हो चुके हैं. यह उठापटक, सरकार चलाने में असमंजस की नजीर है. मोदी सरकार ब्यूरोक्रेसी को स्थिर और स्वतंत्र बनाना चाहती है जबकि ताबड़तोड़ फेरबदल ने उलटा ही असर किया है. ठीक इसी तरह क्रियान्वयन की चुनौतियों के चलते, तमाम बड़ी घोषणाओं के लक्ष्य व प्रावधान बदल दिए गए हैं. अगर वन रैंक वन पेंशन, खाद्य महंगाई, उच्च पदों पर पारदर्शिता जैसे बड़े चुनावी वादों पर किरकिरी को इसमें जोड़ लिया जाए तो महसूस करना मुश्किल नहीं है कि ढलान सामने है और वापसी के लिए सरकार की सूरत व सीरत में साहसी बदलाव करने होंगे, क्योंकि अभी चार साल गुजारने हैं.
नरेंद्र मोदी अब अपनी सरकार की सर्जरी किए बिना आगे नहीं बढ़ सकते. मंत्रिमंडल के पहले पुनर्गठन तक यह बात साफ हो गई थी कि तजुर्बे व पेशेवर लोगों की कमी के कारण टीम मोदी अपेक्षाओं के मुकाबले बेहद लचर है. पिछले एक साल का रिपोर्ट कार्ड इस बात की ताकीद करता है कि ज्यादातर मंत्री कोई असर नहीं छोड़ सके हैं. वजह चाहे मंत्रियों की अक्षमता हो या उन्हें अधिकार न मिलना, लेकिन मोदी का मंत्रिमंडल उनकी मंशाओं को जमीन पर उतारने में नाकाम रहा है. महत्वपूर्ण संस्थाओं में खाली शीर्ष पद बताते हैं कि एक साल बाद भी सरकार का आकार पूरा नहीं हो सका है. अगर मोदी अगले तीन माह में अपने मंत्रिमंडल में अकर्मण्यता का बोझ कम नहीं करते तो नीति शून्यता और कमजोर गवर्नेंस की तोहमतें उनका इंतजार कर रही हैं.
मोदी भले ही सलाह न सुनने के लिए जाने जाते हों लेकिन अब उन्हें अर्थव्यवस्था, विदेश नीति से लेकर अपने भाषणों तक के लिए थिंक टैंक और सलाहकारों की जरूरत है जो सरकार को नीतियों, कार्यक्रमों और कानूनों की नई सूझ दे सकें. नई पैकेजिंग में यूपीए की स्कीमों के दोहराव के कारण बड़े-बड़े मिशन छोटे नतीजे भी नहीं दे पा रहे हैं और असफलताएं बढऩे लगी हैं. मोदी सरकार को क्रियान्वयन के ढांचे में भी सूझबूझ भरे बदलावों की जरूरत है जिसके लिए उसे पेशेवरों की समझ पर भरोसा करना होगा जैसा कि दुनिया के अन्य देशों में होता है.
नरेंद्र मोदी अपनी सरकार और पार्टी में नैतिकता व पारदर्शिता के ऊंचे मानदंडों से समझौते का जोखिम नहीं ले सकते, क्योंकि उनकी सरकार को मिले जनादेश की पृष्ठभूमि अलग है. वसुंधरा, सुषमा, स्मृति, पंकजा के मामले बीजेपी से ज्यादा मोदी की राजनीति के लिए निर्णायक हैं. इन मामलों ने मोदी को दोहरी चोट पहुंचाई है. एक तो उनकी साफ-सुथरी सरकार अब दागी हो गई है. दूसरा, पद न छोडऩे पर अड़े नेता मोदी-शाह के नियंत्रण को चुनौती दे रहे हैं. गवर्नेंस और पारदर्शिता के मामले में मोदी की चुनौतियां मनमोहन से ज्यादा बड़ी हैं. मनमोहन के दौर में भ्रष्टाचार व नीति शून्यता की तोहमतें गठबंधन की मजबूरियों पर मढ़ी जा सकती थीं. यही वजह थी कि यूपीए सरकार के कलंक का बड़ा हिस्सा कांग्रेस पार्टी के खाते में गया. अलबत्ता बीजेपी में तो सरकार और पार्टी दोनों मोदी में ही समाहित हैं और उनकी अपनी ही पार्टी के नेता दागी हो रहे हैं. इसलिए सभी तोहमतें सिर्फ मोदी के खाते में दर्ज होंगी.
मुसीबत यह है कि नई सरकार के कई मिथक अचानक एक साथ टूटने लगे हैं. मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों पर मोदी की सख्त पकड़ की दंतकथाओं के विपरीत वरिष्ठ मंत्री व मुख्यमंत्री दागी होते दिख रहे हैं, जबकि जन संवाद की जबरदस्त रणनीतियों के बावजूद ठोस नतीजों की अनुपस्थिति लोगों को निराश कर रही है. सरकार एक साल के भीतर ही फिल्म सेट की तरह दिखने लगी है जिसमें बाहर भव्यता है लेकिन पीछे यूपीए जैसी अपारदर्शिता और नीति शून्यता बजबजा रही है.

मोदी जिस तरीके से बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति में उभरे और चुनाव जीते हैं, उसमें उनकी राजनैतिक सफलता का सारा दारोमदार उनकी गवर्नेंस की कामयाबी पर है. यदि सरकार असफल या दागी हुई तो पार्टी पर उनके इकबाल का पानी भी टिकाऊ साबित नहीं होगा. सरकार को लेकर बेचैनी बढऩे लगी है लेकिन भरोसा अभी कायम है. नरेंद्र मोदी को कुछ दो टूक ही करना होगा, उनके लिए बीच का कोई रास्ता नहीं है. सरकार व पार्टी में साहसी बदलावों में अब अगर देरी हुई तो मोदी को अगले चार साल तक एक ऐसी रक्षात्मक सरकार चलाने पर मजबूर होना होगा जो विपक्ष के हमलों के सामने अपने तेवर गंवाती चली जाएगी. यकीनन, नरेंद्र मोदी एक कमजोर व लिजलिजी सरकार का नेतृत्व कभी नहीं करना चाहेंगे.

Tuesday, June 23, 2015

फिसलन की शुरुआत

मोदीसत्ता में आते हुए इस सच से वाकिफ थे कि हितों के टकरावकॉर्पोरेट और नेता गठजोड़क्रोनी कैपटिलिज्मग्रैंड करप्शनतरह-तरह की तरफदारियां और भ्रष्टाचार के तमाम तरीके पूरे तंत्र में गहराई से भिदे हैं. उनसे इसी की साफ-सफाई की अपेक्षा थी.
बात इसी अप्रैल की है. वित्त मंत्री अरुण जेटली सीबीआइ दिवस पर कह रहे थे कि देश की शीर्षस्थ जांच एजेंसी को फैसलों में गलती (ऑनेस्ट एरर) और भ्रष्टाचार में फर्क समझना होगा. इसके लिए सरकार भ्रष्टाचार निरोधक कानून को भी बदलेगी. वित्त मंत्री की बात अफसरों के कानों में शहद घोल रही थी क्योंकि भ्रष्टाचार की दुनिया तोवैसे भी बचने के विभिन्न रास्तों से भरी पड़ी है. इस बीच अगर सरकार का सबसे ताकतवर मंत्री ईमानदार गलती और भ्रष्टाचार के बीच फर्क करने की सलाह दे रहा है तो यह मुंहमांगी मुराद जैसा था. अलबत्ता यह अंदाजा किसी को नहीं था कि इस तर्क का सबसे पहला इस्तेमाल सरकार को अपनी वरिष्ठतम मंत्री सुषमा स्वराज के बचाव में करना पड़ेगासरकार में आते ही जिनकी कथित मानवीयता कानून की नजर में बड़े गुनाहगार के काम आई है. आइपीएल के पूर्व प्रमुख ललित मोदी के खिलाफ फरारी के नोटिस की पुष्टि करने के बादसुषमा के बचाव में वित्त मंत्री अरुण जेटली के पास साफ नीयत की दुहाई के अलावा और कुछ नहीं था. ऐसा लग रहा था कि मानो जेटलीसुषमा-ललित मोदी प्रकरण को ऑनेस्ट एरर कहना चाहते थे.  
इसी जगह हमने जून की शुरुआत में (http://goo.gl/cVAy8P) लिखा था कि मोदी सरकार ने पिछले एक साल में ऐसा कुछ भी नहीं किया है जिससे पारदर्शिता बढ़ना तो दूर, बने रहने का भी भरोसा जगता हो. इसलिए भ्रष्टाचार को लेकर मोदी सरकार की साख खतरे में है. अब जब कि सुषमा-ललित मोदी-वसुंधरा प्रकरण में सरकार बुरी तरह लिथड़ चुकी है तो यह समझना जरूरी है कि पारदर्शिता का परचम लहराने वाली एनडीए सरकार के लिए पहले ही साल में यह नौबत क्यों आ गई, यूपीए जिससे अपनी दूसरी पारी के अंत में दो चार हुई थी.
सवाल बेशक पूछा जाना चाहिए कि प्रवर्तन निदेशालय ने ललित मोदी को वह नोटिस पिछले एक साल में क्यों नहीं भेजे जो यह प्रकरण खुलने के बाद दागे गए हैं? मोदी सरकार ने पिछले एक साल में यूपीए के घोटालों की जांच को कोई गति नहीं दी. एयरसेल मैक्सिस, नेशनल हेराल्ड, सीडब्ल्यूजी, आदर्श, वाड्रा, महाराष्ट्र सिंचाई जैसे बड़े घोटालों में जांच जहां की तहां ठप पड़ी है. इनमें आइपीएल भी शामिल है, जिसकी जांच अगर गंभीरता से होती तो ललित मोदी वर्ल्ड टूर पर न होते. सरकार के देखते देखते व्यापम घोटाले के प्रमुख सूत्र मौत का शिकार होते चले गए. राष्ट्रमंडल घोटाले में जमानत पर रिहा सुरेश कलमाडी व उनके सहायक ललित भनोत एशियन एथलेटिक्स एसोसिएशन के पदाधिकारी बन गए और बीजेपी बेदाग सरकार का पोस्टर बांटती रही. नतीजा यह हुआ है कि राज्यों में भी भ्रष्टाचार के बड़े मामलों की जांच धीमी पड़ गई है. घोटालों की जांच से बचना सदाशयता नहीं है बल्कि यह साहस व संकल्प की कमी है जिसने पारदर्शिता को लेकर मोदी सरकार की बोहनी खराब कर दी है.
ईमानदार गलती व भ्रष्टाचार के बीच अंतर बताने के लिए भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा 13 को बदलने की कोशिशों पर सवाल इसलिए नहीं उठे थे क्योंकि फैसलों की रक्रतार बढ़ाने और अधिकारियों को दबाव से मुक्त करने पर विरोध था बल्कि अपेक्षा यह थी कि सरकार ऐसा करने से पहले लोकपाल गठित करेगी और सतर्कता ढांचे को मजबूत करेगी ताकि पारदर्शिता को लेकर भरोसा बन सके. सरकार ने नियामकों और निगहबानों को ताकत देना तो दूर पारदर्शिता की उपलब्ध खिड़कियों पर भी पर्दे टांग दिए. सूचना के अधिकार पर पहरे बढ़ा दिए गए. सरकार के फैसलों पर पूछताछ वर्जित हो गई और स्वयंसेवी संस्थाओं के हर कदम की निगहबानी होने लगी. पारदर्शिता के मौजूदा तंत्र पर रोक और नए ढांचे की अनुपस्थिति से कामकाज की गति तो तेज नहीं हुई अलबत्ता सरकार के इरादे जरूर गंभीर सवालों में घिर गए. 
सवाल तो बनता ही है कि क्रिकेट में 2008 से लेकर आज तक दर्जनों घोटाले हुए हैं और बीजेपी हर घोटाले के विरोध में आगे रही है तो सत्ता में आने के बाद क्रिकेट को साफ करने के कदम क्यों नहीं उठाए गए जबकि विपक्ष में रहते हुए यह पार्टी इसके लिए कानून की मांग कर रही थी. साफ-सुथरी सरकार का यह चेहरा समझ से परे था जिसमें बीजेपी के एक सांसद और प्रमुख बीड़ी निर्माता संसदीय समिति के सदस्य के तौर पर अपने ही उद्योग के लिए नियम बना रहे थे. इस संसदीय समिति लामबंदी के बाद सरकार ने खतरे की चेतावनी को प्रभावी बनाने का फैसला अंततः ठंडे बस्ते में डाल दिया. जनसेवाओं को पारदर्शी बनाने, छोटे और बड़े भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक संस्थागत ढांचा बनाने और नियामक संस्थाओं की मजबूती पर ध्यान न देने से पारदर्शिता को लेकर सरकार में यथास्थितिवाद पैठ गया है. इसकी वजह से पहले ही साल में एक बड़ी गफलत सामने आ गई है.
ललित मोदी-वसुंधरा-सुषमा प्रकरण भारत में उच्च पदों पर हितों के टकराव और फायदों के लेन-देन का बेहद ठोस उदाहरण है. राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा के बेटे की कंपनी में ललित मोदी का निवेश और सुषमा स्वराज परिवार से मोदी के प्रोफेशनल व निजी रिश्ते प्रामाणिक हैं. वित्तीय धांधली के आरोपी ललित मोदी को इन रिश्तों के बदले मिले फायदे भी दस्तावेजी हैं. बीजेपी इन मामलों पर बचाव के लिए कांग्रेस के धतकरमों को ढाल बना सकती है लेकिन बात भ्रष्टाचार में प्रतिस्पर्धा की नहीं है बल्कि पिछली सरकार से प्रामाणिक रूप से अलग होने की है.
अपनी ताजा यात्रा के दौरान नरेंद्र मोदी को चीन के स्वच्छता मिशन के बारे में जरूर पता चला होगा, जहां राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपनी ही पार्टी के 1.82 लाख पदाधिकारियों पर भ्रष्टाचार को लेकर कार्रवाई कर चुके हैं. भ्रष्टाचार पर मोदी सरकार से भी ऐसे ही साहस की अपेक्षा थी क्योंकि मोदी, सत्ता में आते हुए इस सच से वाकिफ थे कि हितों के टकराव, कॉर्पोरेट और नेता गठजोड़, क्रोनी कैपटिलिज्म, ग्रैंड करप्शन, तरह-तरह की तरफदारियां और भ्रष्टाचार के तमाम तरीके पूरे तंत्र में गहराई से भिदे हैं. उनसे इसी की साफ-सफाई की अपेक्षा थी. मोदी को समझना होगा कि उच्च पदों पर पारदर्शिता तय करना उनको मिले जनादेश का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है और इस मामले में उनकी सरकार की फिसलन शुरू हो चुकी है.

Monday, April 26, 2010

झूठ के पांव

आईपीएल, ग्रीस, गोल्डमैन सैक्श और आइसलैंड में क्या समानता है? यह सभी बड़े, चमकदार, जटिल और विशाल झूठ व फर्जीवाड़े की ताजी नजीरें हैं जो भारत से लेकर यूरोप व अमेरिका तक फैली हैं। यकीनन इन्हें शानदार कुशलता से गढ़ा गया था, लेकिन मंजिल तक ये भी नहीं पहुंच पाए।.. रास्ते में ही बिखर गए। झूठ का सबसे बड़ा सच यही है कि यह किसी तरह से नहीं छिपता। न राष्ट्रीय झंडे और सरकारी मोहर की ओट में, न बड़े नाम और ऊंची साख की छाया में और न लोकप्रियता और सितारों की चमक में। यहां तक कि आंकड़ों की भूल भुलैया भी झूठ को ढक नहीं पाती। ग्रीस की सरकार ने अपने कर्ज को छिपाने के लिए जो झूठ बोला था, उसने देश को आर्थिक त्रासदी में झोंक दिया है। दुनिया के सबसे बड़े निवेश बैंक गोल्डमैन सैक्श का झूठ वित्तीय बाजारों को नए सिरे से हिला रहा है। आइसलैंड झूठ बोलकर बर्बाद हो चुका है और आईपीएल का झूठ भारत के क्रिकेट धर्म को पाप के पंक में डुबो रहा है। यकीनन यह धतकरम चुनिंदा लोगों ने खातों में खेल, कंपनियों के फर्जीवाड़े, वित्तीय अपारदर्शिता, आंकड़ों के जंजाल के जरिए किया था, लेकिन अब इनके झूठ की कीमत बहुत बड़ी और नतीजा बड़ा शर्मनाक होने वाला है।
सरकारी झूठ की ग्रीकगाथा
सरकारें जब सच छिपाती हैं तो कयामत आती है। ग्रीस के दीवालियेपन और बदहाली की संकट कथा का निचोड़ यही है। ग्रीस को यूरोमुद्रा अपनाने वाले देशों के संगठन में इस शर्त पर प्रवेश मिला था कि वह घाटे और कर्ज को निर्धारित स्तर पर रखने की शर्ते (ग्रोथ एंड स्टेबिलिटी पैक्ट) पूरी करेगा। ग्रीसने यह सब शर्ते पूरी करने के लिए सच पर पर्दा डाल दिया। ताजा आर्थिक संकट आने के बाद दुनिया को पता चला कि ग्रीस ने खातों में खेल किया था। 2009 में देश का घाटा जीडीपी के अनुपात में 12.5 फीसदी पाया गया, जबकि सरकार ने अपने पहले आकलन में इसे 3.7 फीसदी माना था। यूरोपीय समुदाय के आधिकारिक आंकड़ा संगठन (यूरोस्टैट) ने ग्रीस के इस फरेब को प्रमाणित कर दिया कि वहां की सरकार ने कई तरह के ब्याज भुगतान, कर्जो की माफी, स्वास्थ्य सब्सिडी आदि को अपने नियमित खातों से छिपाया और सब घाटे को नियंत्रित दिखाते हुए बाजार से कर्ज उठाया। यह झूठ बहुत बड़ा था, इसलिए अब ग्रीस की साख खत्म हो गई है। देश पूरी तरह दीवालिया है और यूरोजोन के नियामकों का सर शर्म से झुक गया है। ग्रीस की जनता इस झूठ की कीमत नए टैक्स, गरीबी, महंगाई और संकट से ठीक उसी तरह चुकाएगी जैसा कि आइसलैंड में हुआ है। बैंकों के झूठ के कारण दुनिया के सबसे समृद्ध देशों में एक आइसलैंड देखते-देखते राहत का भिखारी हो गया। पूरे संकट की जांच करने वाले आइसलैंड के ट्रुथ कमीशन की हाल में आई रिपोर्ट बताती है कि केंद्रीय बैंक के पास केवल 1.2 अरब डालर का विदेशी मुद्रा भंडार था, लेकिन बैंकों ने 14 अरब डालर का विदेशी कर्ज ले डाला। हकीकत खुली तो वित्तीय बाजारों में बैंकों और देश की साख कचरा और प्रतिभूतियां मिट्टी हो गई। इस बर्बादी का बिल देश की जनता टैक्स देकर चुका रही है।
खातों में खेल की ललित कला
क्रिएटिव अकाउंटिंग ???... ग्रीस से लेकर अमेरिका तक इस शब्द का अब एक ही अर्थ है- खातों में खेल और सच पर पर्दा। यूरोप में चर्चा है कि ग्रीस की सरकार को खातों में स्याह सफेद करने की ललित कला गोल्डमैन सैक्श ने सिखाई थी। पता नहीं कि इस प्रतिष्ठित निवेश बैंक ने दुनिया को और क्या-क्या सिखाया है? गोल्डमैन पिछले साल आए वित्तीय संकट पर अपने झूठ को लेकर कठघरे में है। अमेरिकी सरकार और गोल्डमैन सैक्श में ठन चुकी है। अमेरिका में सेबीनुमा और बेहद ताकतवर सरकारी नियामक सिक्योरिटी एक्सचेंज कमीशन ने हाल में गोल्डमैन पर निवेशकों को आने वाले संकट से धोखे में रखकर प्रतिभूतियां बेचने का आरोप लगाया है। ब्रिटेन व जर्मनी के वित्तीय नियामक और अमेरिका की सरकारी बीमा कंपनी एआईजी भी गोल्डमैन को कठघरे में खड़ा करने की तैयारी कर रही है। यह निवेश बैंकिंग उद्योग लिए नए संकट की शुरुआत है। निवेश बैंकों पर उनका झूठ अब भारी पड़ने लगा है। लेकिन निवेश बैंक ही क्यों खातों में खेल निजी कंपनियों का भी पुराना शगल रहा है, बीसीसीआई बैंक, जेराक्स, एनरान, सीआरबी से लेकर सत्यम तक खातों में खेल की कलाओं के तमाम उदारहण हमारे इर्द-गिर्द हैं। आईपीएल भी इसी वित्तीय झूठ का नमूना है, जिसमें क्रिकेट का खेल मैदान में हो रहा था मगर असली खेल पेंचदार कंपनियों, बेनामी निवेश, विदेश में लेन-देन और काले धन के निवेश का था।
पहरेदारों की लंबी नींद
अपनी बेईमानी को स्वाभाविक (बकौल मैकियावेली) मानते हुए आदमी ने ही तमाम नियामक बनाए हैं कि ताकि वे उसकी बेइमानी पकड़ें और पारदर्शिता तय करें, लेकिन इन नियामकों में भी भी तो मैकियावेली वाले आदमी ही हैं न? सो इनकी नींद ही नहीं टूटती। दुनिया में ज्यादातर वित्तीय घोटाले, खातों में गफलत और हिसाब किताब में हेरफेर या तो किसी संकट के बाद सामने आया है या फिर उस खेल और घोटाले में शामिल किसी खिलाड़ी ने ही पर्दा उठाया है। अमेरिका के नियामक ऊंघते रहे और मेरिल लिंच जैसे बैंकर झूठ बेचकर पैसा कूटते रहे। ग्रीस व आइसलैंड जब अपने खाते स्याह सफेद कर रहे थे, तब यूरोपीय नियामक सपनों में तैर रहे थे। वित्तीय फरेब की एनरान व सत्यम जैसी कथाएं प्राइस वाटर हाउस, आर्थर एंडरसन जैसे आडिटरों की निगहबानी में लिखी गई हैं। आयकर विभाग, कंपनी मामलों के मंत्रालय व तमाम नियामकों के सामने आईपीएल ने एक विराट झूठ का संसार रच दिया, जो अब ढह रहा है और वित्तीय धोखेबाजी का हर दांव इसमें चमकता दिख रहा है।
पूरी दुनिया में इस समय बड़े बडे़ झूठ खुलने का मौसम है, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। इस समय भी जब आप यह पढ़ रहे हैं, तब भी दुनिया में कहीं न कहीं कोई वित्तीय बाजीगरी, खातों में कोई खेल चल रहा होगा और झूठ अपने पांव जमाने की कोशिश कर रहा होगा। झूठ रचने वाले हमेशा हिटलर का यह मंत्र साधते हैं कि झूठ बड़ा हो और बार बार कहा जाए तो लोग विश्वास कर लेते हैं। ..हिटलर सच था .. आम लोगों ने बड़े झूठ पर हमेशा भरोसा किया है और बाद में उसकी कीमत भी चुकाई है। .जब ग्रीस चमक रहा था, आइसलैंड अमीरी दिखा रहा था, गोल्डमैन गरज रहा था और आईपीएल झूम रहा था तब लोग कैसे जान पाते कि यह सब वित्तीय झूठ के करिश्मे हैं। ..दरअसल फरेब का फैशन बड़ा मायावी है और आम लोग बहुत भोले हैं। ..वह झूठ बोल रहा था इस कदर करीने से, कि मैं एतबार न करता तो और क्या करता?
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http://jagranjunction.com/ (बिजनेस कोच, सातोरी)