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Saturday, April 27, 2019

संघवाद का इंद्रधनुष


भारत का जनमत अपनी इस ऐतिहासिक दुविधा के एक नए संस्करण से फिर मुखातिब है कि उसे बेहद शक्तिशाली केंद्र सरकार चाहिए या फिर ताकत का संतुलन बनाते राज्य! भारत को भीमकाय अखिल भारतीय दल की सरकार चाहिए या फिर क्षेत्रीय दलों का इंद्रधनुष, जो 1991 के बाद उगा था और 2014 में देश के अधिकांश भूगोल पर 'कमलोदय' के बाद अस्त हो गया.

यह प्रश्न 1991 के बाद से ही भारतीय राजनीति को मथने लगा था कि अब अखिल भारतीय राजनैतिक दल बनने के लिए किसी पार्टी को आखिर करना क्या होगा? एकमात्र अखिल भारतीय पार्टी कांग्रेस का क्षरण हो चुका था. उदारीकरण और निजीकरण के बाद केंद्र सरकार की आर्थिक शक्तियां सीमित हो गईं और राज्यों के अधिकार बढ़ते चले गए. इसके साथ ही खत्म हो गई थीं चुनावों में अखिल भारतीय लहर! फिर क्या बचा था किसी अखिल भारतीय दल के पास जिसे लेकर वह पूरे देश को संबोधित कर सके?

नरेंद्र मोदी के पास विकल्प सीमित थे. राष्ट्रीय सुरक्षा या पाकिस्तान का खौफ हीइकलौता विषय था जिस पर राज्य सरकारें क्या सवाल उठातीं. यह उनके अधिकार में ही नहीं है. भाजपा ने इसका इस्तेमाल राज्यों की अपेक्षाओं की धार कुंद करने में किया और सुरक्षा की खातिर ताकतवर केंद्र की जरूरत को गले से उतारने की कोशिश की है.

अखिल भारतीय पार्टी बनने के लिए किसी भी दल को शक्तिशाली केंद्र सरकार गढ़नी पड़ती है. मोदी को भी 2014 के बाद ऐसा सब कुछ करना पड़ा, मुख्यमंत्री के तौर पर जिससे वे शायद कभी इत्तेफाक नहीं रखते. राज्यों के नजरिये से मोदी राज, उत्तर नेहरू युग की इंदिरा कांग्रेस जैसा ही रहा. राज्यों को बार-बार डराया गया. सरकारें (उत्तराखंड, और अरुणाचल) बरखास्त हुईं जो सुप्रीम कोर्ट की मदद से वापस से लौटीं. केंद्रीय जांच एजेंसियों का इस कदर राजनैतिक इस्तेमाल हुआ कि तीन राज्य सरकारों ने सीबीआइ के खिलाफ बगावत कर दी. यही नहीं, पिछले साल अप्रैल में दक्षिणी राज्यों ने केंद्र पर संसाधनों के बंटवारे में भेदभाव का आरोप लगाया और वित्त आयोग पर सवाल उठाए.

दरअसल, ‌शक्तिशाली केंद्र बनाम संतुलित ताकत वाले राज्यों की उलझन संविधान जितनी पुरानी है. 1947 में बंटवारे के लिए माउंटबेटन प्लान की घोषणा के तीन दिन के भीतर ही संविधान सभा की उप समिति ने बेहदशक्तिशाली अधिकारों से लैस केंद्र वाली संवैधानिक व्यवस्था की सिफारिश की थी. यह आंबेडकर थे जिन्होंने ताकतवर केंद्र के प्रति संविधान सभा के आग्रह को संतुलित करते हुए ऐसे संविधान पर सहमति बनाई जो संकट के समय केंद्र को ताकत देता था लेकिन आम तौर पर संघीय (राज्यों को संतुलित अधिकार) सिद्धांत पर काम करता था.

शक्तिशाली केंद्र को लेकर अपने आग्रह के बावजूद, संविधान बनने के बाद नेहरू ने अधिकांश मामलों में राज्यों की सलाह ली. उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान राज्यों के 378 पत्र लिखे यानी प्रति 16वें दिन एक चिट्ठी. अचरज नहीं कि संविधान लागू होने के बाद बनने वाली पहली संस्था वित्त आयोग (1951) थी जिसने केंद्र पर राज्य के आर्थिक रिश्तों का स्वरूप तय किया. (संदर्भः बलवीर अरोरा, ग्रेनविल ऑस्टिन, बी.आर. नंदा की किताबें) 

2019 के चुनाव से पहले मोदी इस निष्कर्ष पर पहुंच गए थे कि उन्हें 2014 से बड़ी अखिल भारतीय लहर चाहिए. जो उस सत्ता विरोधी लहर को परास्त कर सके जिस पर सवारी करते हुए वे राज्य दर राज्य जीतते चले गए थे और जो अब गठबंधनों के नेतृत्व में पलट कर उन के खिलाफ खड़ी होने लगी थी. 

गठबंधन सरकारें नई नहीं हैं और न ही उनका प्रदर्शन बुरा रहा है. लेकिन पहली बार देश की सबसे बड़ी पार्टी, जो गठबंधनों के सहारे यहां तक आई है, वह क्षेत्रीय दलों को देश की सुरक्षा के लिए खतरा बताकर ताकतवर केंद्र के लिए वोट मांग रही है.

दरअसल, मोदी के आने तक अखिल भारतीय लहरें (2014 में भाजपा को केवल 31 फीसदी वोट मिले) इतिहास बन चुकी थीं. वित्तीय अधिकारों के बंटवारे से लेकर चुनावी प्रतिनिधित्व तक शक्तिशाली केंद्र की संकल्पना भी पिघल चुकी है. शुरुआती चुनावों में क्षेत्रीय दलों के पास संसद में लगभग 35 सीटें थीं जो पिछली लोकसभा में 160 हो गईं. इसी क्रम में लोकसभा चुनावों में उनके वोटों का हिस्सा 4 फीसदी से बढ़कर 34 फीसदी पर पहुंच गया.

देश में विकास में राज्यों की भूमिका केंद्र से ज्यादा केंद्रीय हो चुकी है. यही वजह है कि बहुमत की शक्तिशाली सरकार के मुकाबले, सिर्फ पांच साल के भीतर ही भारत का संघवाद उठ कर खड़ा हो रहा है. न चाहते हुए भी यह चुनाव राज्यों की राजनीति पर केंद्रित हो रहा है. भाजपा शासित राज्यों में विपक्ष की वापसी इसकी शुरुआत थी. 23 मई का नतीजा चाहे जो हो लेकिन भारतीय गणतंत्र की नई सरकार शायद उस केंद्र-राज्य संतुलन को वापस हासिल कर लेगी जो 2014 में लड़खड़ा गया था.

Sunday, October 28, 2018

ताकत देने के खतरे



''भी युद्ध अंततः खत्म हो जाते हैं, लेकिन सत्ता और सियासत जो ताकत हासिल कर लेती है वह हमेशा बनी रहती है.''    —फ्रैंक चोडोरोव

भारत की शीर्ष जांच एजेंसी (सीबीआइ) की छीछालेदर को देख रहा 71 साल का भारतीय लोकतंत्र अपने अस्तित्व की सबसे बड़ी दुविधा से मुकाबिल है. यह दुविधा पिछली सदी से हमारा पीछा कर रही है कि हमें ताकतवर लोकतांत्रिक संस्थाएं चाहिए या फिर ताकतवर सरकारें

दोनों एक साथ चल नहीं पा रही हैं. 

यदि हम ताकतवर यानी बहुमत से लैस सरकारें चुनते हैं तो वे लोकतंत्र की संस्थाओं की ताकत छीन लेती हैं.

भारतीय लोकतंत्र के 1991 से पहले के इतिहास में हमारे पास बहुमत से लैस ताकतवर सरकारों (इंदिरा-राजीव गांधी) की जो भी स्मृतियां हैं, उनमें लोकतांत्रिक संस्थाओं यानी अदालत, अभिव्यक्ति, जांच एजेंसियों, नियामकों के बुरे दिन शामिल हैं. 1991 के बाद बहुमत की पहली सरकार हमें मिली तो उसमें भी लोकतंत्र की संस्थाओं की स्‍वायत्तता और निरपेक्षता सूली पर टंगी है.

इस सरकार में भी लोकतंत्र का दम घोंटने का वही पुराना डिजाइन है. ताकतवर सरकार यह नहीं समझ पाती कि वह स्वयं भी लोकतंत्र की संस्था है और वह अन्य संस्थाओं की ताकत छीनकर कभी स्वीकार्य और सफल नहीं हो सकती.

क्या सीबीआइ ताकत दिखाने की इस आदत की अकेली शिकार है? 

- सरकार का कार्यकाल खत्म होने के करीब है लेकिन सुप्रीम कोर्ट की लताड़ के बावजूद लोकपाल नहीं बन पाया. पारदर्शिता तो बढ़ाने वाले व्हिसिलब्लोअर कानून ने संसद का मुंह नहीं देखा लेकिन सूचना के अधिकार को सीमित करने का प्रस्ताव संसद तक आ गया. 

- जजों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट को सरकार ने अपनी ताकत दिखाई और लोकतंत्र सहम गया. रिजर्व बैंक की स्वायत्तता में दखल हुआ तो पूरी दुनिया के वित्तीय बाजारों में थू-थू हुई.

- सूचना प्रसारण मंत्रालय ने गलत खबरों को रोकने के बहाने खबरों की आजादी पर पंजे गड़ा दिए. विरोध हुआ और प्रधानमंत्री ने भूल सुधार किया.

- याद रखना जरूरी है कि मिनिमम गवर्नमेंट का मंत्र जपने वाली एक सरकार ने पिछले चार साल में भारत में एक भी स्वतंत्र नियामक नहीं बनायाल उलटे यूजीसी, सीएजी (जीएसटीएन के ऑडिट पर रोक) जैसी संस्थाओं की आजादी सिकुड़ गई. चुनाव आयोग का राजनैतिक इस्तेमाल ताकतवर सरकार के खतरे की नई नुमाइश है.

- सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ा कि आखिर आधार का कानून पारित कराने के लिए लोकसभा में मनी बिल के इस्तेमाल की क्या जरूरत थी?

- ताकत के दंभ की बीमारी राज्यों तक फैली. राजस्थान सरकार चाहती थी कि अफसरों और न्यायाधीशों पर खबर लिखने से पहले उससे पूछा जाए. लोकतंत्र की बुनियाद बदलने की यह कोशिश अंततः खेत रही. मध्य प्रदेश सरकार ने विधानसभा में सवाल पूछने के अधिकार सीमित करने का प्रस्ताव रख दिया. माननीय बेफिक्र थे, पत्रकारों ने सवाल उठाए और पालकी को लौटना पड़ा.

यह कतई जरूरी नहीं है कि लोकतंत्र में सरकार का हर फैसला सही साबित हो. इतिहास सरकारी नीतियों की विफलता से भरा पड़ा है. लेकिन लोकतंत्र में फैसले लेने का तरीका सही होना चाहिए. ताकतवर सरकारों की ज्यादातर मुसीबतें उनके अलोकतांत्रिक तरीकों से उपजती हैं. नोटबंदी, राफेल, जीएसटी, आधार जैसे फैसले सरकार के गले में इसलिए फंसे हैं क्योंकि जिम्मेदार संस्थाओं की अनदेखी की गई. 

जब अदालतें सामूहिक आजादियों से आगे बढ़कर व्यक्तिगत स्वाधानताओं (निजता, संबंध, लिंग भेद) को संरक्षण दे रही हैं तब लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वयत्तता के दुर्दिन देखने लायक हैं.

क्या 1991 के बाद का समय भारत के लिए ज्यादा बेहतर था जब सरकारों ने खुद को सीमित किया और देश को नई नियामक संस्थाएं मिलीं?

क्या भारतीय लोकतंत्र अल्पमत सरकारों के हाथ में ज्यादा सुरक्षित है?

क्या कमजोर सरकारें बेहतर हैं जिनके तईं लोकतंत्र की संस्थाएं ताकतवर रह सकती हैं?

हम सिर्फ वोट दे सकते हैं. यह तय नहीं कर सकते कि सरकारें हमें कैसा लोकतंत्र देंगी इसलिए वोट देते हुए हमें लेखक एलन मूर की बात याद रखनी चाहिए कि सरकारों को जनता से डरना चाहिए, जनता को सरकारों से नहीं.


Tuesday, January 2, 2018

'इंसाफ' के सबक

नए साल की दस्तक बड़ी सनसनीखेज है. 2017 के ठीक अंत में एक अनोखे न्याय ने हमें उधेड़कर रख दिया है.

2जी घोटाले को लेकर अदालत को बिसूरने से क्या फायदाउसने तो हमें हमारी व्यवस्था की सड़न दिखा दी है. 2जी घोटाले में सभी को बरी करने का फैसला उसी कच्चे माल का उत्पाद है जो हमारी जांच एजेंसियों ने अदालत के सामने रखा था.

भारत घोटालों में कभी दरिद्र नहीं रहा लेकिन 2जी जैसे घोटाले दशकों में एक बार होते हैं. इस पर हजार बोफोर्स और सौ राष्ट्रमंडल घोटाले कुर्बान. इस घोटाले से राजनीति तो जो बदली सो बदलीइसने भारत में प्राकृतिक संसाधन आवंटन की नीतियां बदल दीं और 2जी का मारा दूरसंचार उद्योग अब तक उठ कर खड़ा नहीं हो पाया.

2जी पर अदालती फैसले के दो निष्कर्ष बड़े दो टूक हैं:

- जांच एजेंसियांआरोपों के पक्ष में सबूत और दस्तावेज पेश नहीं कर पाईं.
जांच एजेंसियां भ्रष्टाचार या वित्तीय लेनदेन साबित नहीं कर सकीं. 

'लेनदेन' के नए तरीकों मसलनफैसला लेने वालों व लाइसेंस लेने वालों के बीच कारोबारी रिश्तों पर अदालत किसी नतीजे पर नहीं पहुंची.

इन निष्कर्षों ने भ्रष्टाचार से लड़ाई के मौजूदा तरीकों की चूलें हिला दी हैं.

सबूतों और दस्तावेजों की सुरक्षाः सरकारों के बदलते ही फाइलों के जलने की खबरें बेसबब नहीं होतीं. वित्तीय घोटालों में सबूत खत्म करना एक बड़ा घोटाला बन चुका है. 2जी पर फैसला बताता है कि जिन फाइलों पर फैसले हुए थेउनको या तो सबूत के तौर पर पेश नहीं किया जा सका या फिर आदेशों को बुरी तरह बिखरा या उलझा दिया गया. इसलिए जांच एजेंसियां चार्जशीट दाखिल करने के बाद आरोपों की कडिय़ां जोड़ने के लिए सबूत नहीं ला पाईं. अधिकारियों की उलझी गवाही और अलग-अलग  व्‍याख्‍याओं ने भारत के सबसे बड़े और पेचीदा घोटाले में सबके बरी होने का रास्ता खोल दिया.

आर्थिक घोटाले वैसे भी पेचीदा होते हैं और जांच एजेंसियों के पहुंचने तक सबूत अक्सर आरोपियों के नियंत्रण में रहते हैं. सबूतों का खात्मा न्याय की उम्मीद को तोड़ देता है. बची-खुची कसर गवाहों को खरीद कर पूरी हो जाती है. यदि कानूनी बदलावों के जरिए या अदालतों की पहल पर सरकारें बदलने के बाद जरूरी दस्तावेजों की सुरक्षा नहीं की गई तो आगे किसी भी घोटाले में सजा देना असंभव हो जाएगा.

भ्रष्टाचार के नए तरीकेः 2जी घोटाले में अदालत ने कलैगनार टीवी को डीबी रियल्टी से मिले पैसे को भ्रष्टाचार नहीं माना. वे दिन अब लद गए जब रिश्वतें नकद में दी जाती थीं और नेताओं के बिस्तर के नीचे नोट बरामद होते थे. आर्थिक घोटालों में लेनदेन के असंख्य तरीके हैंजिनमें अंतर कंपनी निवेशकर्जशेयरों के आवंटन से लेकर राजनैतिक पार्टी को चंदा तक शामिल हो सकता है. प्रत्यक्ष‍ रूप से ये भी लेनदेन वैध हैं लेकिन भ्रष्टाचार के कानून के तहत इनकी स्पष्ट व्‍याख्‍या चाहिए. 

2जी पर फैसले ने दिखाया है कि हमारा मौजूदा कानूनी तंत्र और जांच एजेंसियां लगातार बढ़ रहे इन जटिल घोटालों के आगे कितने बौने हैं.

ध्यान रखना जरूरी है कि इस फैसले को उन बदलावों (सार्थक या नुक्सानदेह) की रोशनी में देखा जाएगा जो इस घोटाले के बाद पिछले पांच साल में हुए. 

2जी घोटाले के बाद...

- आरोपियों पर फैसला आने से पांच साल पहले पीड़ितों को (122 कंपनियों के लाइसेंस रद्द) सजा दे दी गई. अरबों का निवेश डूबाहजारों की नौकरियां गईं. भारत की छवि बुरी तरह आहत हुई. इसके बाद कोई बड़ी विदेशी कंपनी भारत में दूरसंचार में निवेश के लिए आगे नहीं आई.

- भारत की दूरसंचार क्रांति का चेहरा बदल गया. इसके बाद स्पेक्ट्रम की नीलामी शुरू हुई. पारदर्शिता तो आई लेकिन महंगी बोलियां लगीं. दूरसंचार सेवाओं की दरें बढ़ींकंपनियों ने कर्ज लिया. उद्योग में मंदी आई और अब महंगे स्पेक्ट्रम की मारी और 4.85 लाख करोड़ रु. के कर्ज में दबी कंपनियां मदद के लिए सरकार के दरवाजे पर खड़ी हैं. 

- इससे दूरसंचार उद्योग में प्रतिस्पर्धा खत्म हो गई. आज 135 करोड़ लोगों का बाजार केवल तीन या चार ऑपरेटरों के हाथ में है. 

यह बदलाव अच्छे थे या बुरेइसका दारोमदार सिर्फ इस पर होगा कि 2जी वास्तव में घोटाला था या नहीं. शुक्र है कि यह फैसला अभी निचली अदालत से आया है. ऊपर की मंजिलों से उम्मीद बाकी है. लेकिन बीता बरस जाते-जाते हमें झिझोड़ कर यह बता गया है कि राजनैतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई कितनी कठिन होती जा रही है.