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Monday, March 6, 2017

ठगे जाने का एहसास


अगर चुनाव लोकतंत्र का सबसे बड़ा सालाना प्रोजेक्ट है तो कम से कम इन्हें तो ठीक कर ही लिया जाना चाहिए. 

उल्हासनगरपुणे और नासिक सहित महाराष्ट्र के विभिन्न शहरों के लोगों ने ताजा नगर निकाय चुनावों के बाद जो महसूस किया हैवैसा ही कुछ एहसास, 11 मार्च को उत्तर प्रदेश या उत्तराखंड में लोगों को होगा. चुनाव अब एक किस्म का पूर्वानुभव लेकर आते हैं. पांच साल बाद लोग अपने नुमाइंदे बदलना चाहते हैं लेकिन चालाक नुमाइंदे अपनी पार्टियां बदल कर फिर चिढ़ाने आ जाते हैं.

नासिक से लेकर उत्तरकाशी और गोवा से गोरखपुर तक लोकतंत्र बुरी तरह गड्डमड्ड हो गया है. प्रतिनिधित्व आधारित लोकशाही सिर के बल खड़ी है. पुणे नगरपालिका चुनाव में भाजपा के आधे से अधिक पार्षदों को कांग्रेसएनसीपीशिवसेना से आयात किया गया. नासिक में पूरी की पूरी मनसे भाजपा में समा गई और भाजपा जीत गई. उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में बसपासपाकांग्रेस और रालोद के कई नुमाइंदे दूसरे दलों का लेबल माथे पर चिपका कर चुनाव मैदान में हाजिर हैं. दुनिया के किसी बड़े बहुदलीय लोकतंत्र में इस कदर दलबदल नहीं होताजितना कि भारत में है.

भारत में चुनाव पूरे साल होते हैं. यही एक काम है जिसे राजनैतिक दल पूरी गंभीरता के साथ करते हैंगवर्नेंस तो बचे हुए समय का इस्तेमाल है. मुंबई में जब नगर निकायों के चुनाव के नतीजे आ रहे थेतब दिल्ली में निकाय चुनावों के प्रत्याशियों की सूची जारी हो रही थी. उत्तर प्रदेश में वोट करते हुए लोग ओडिशा में पंचायत चुनावों के नतीजे देख रहे थे. छोटे-छोटे चुनावों के दांव इतने बड़े हो चले हैं कि ओडिशा में पंचायत चुनावों के प्रचार में भाजपा ने छत्तीसगढ़ और झारखंड के मुख्यमंत्रियों को उतार दिया जबकि बीजू जनता दल (बीजेडी) फिल्मी सितारों को ले आया. सनद रहे कि पंचायत चुनावों के बड़े हिस्से में प्रत्यक्ष रूप से दलीय राजनीति का दखल नहीं होता.

अगर चुनाव लोकतंत्र का सबसे बड़ा सालाना प्रोजेक्ट है तो कम से कम इन्हें तो ठीक कर ही लिया जाना चाहिए. इसी में सबका भला है.

काला धनदबंगों का दबदबावोटों की खरीद तो चुनावों की बाहरी सडऩ हैभीतरी इससे ज्यादा गहरी है. राजनैतिक दल और चुने हुए प्रतिनिधि (प्रत्याशी),  संसदीय लोकतंत्र की बुनियादी संस्थाएं हैं. दोनों ने मिलकर चुनावों को इस हालत में पहुंचा दिया है जहां लोकतंत्र के महापर्व जैसा कोई धन्य भाव नहीं बचा है.

प्रत्याशी पहले सुधरें या राजनैतिक दलबहसपहले मुर्गी या अंडा जैसी है.

प्रतिनिधित्व आधारित लोकतंत्र का शायद यह, सबसे बुरा दौर है. राजनीति में अपराधीकरण को खत्म करने के प्रधानमंत्री के 2014 के चुनावी वादे का तो पता नहीं उलटे अब दलबदल कानून निढाल पड़ा है. पार्टियां बदलने की आदत चुनावों से लेकर सरकारों तक फैल गई. अरुणाचल और उत्तराखंड को गिनिए या फिर महाराष्ट्र के निकाय चुनावों से लेकर ताजा विधानसभा चुनावों तक दलबदलुओं का हिसाब लगाइएचुनाव जीतने और सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी किया जा सकता है. चुनिंदा लोगों को ही वोट देना अगर मजबूरी बन गई तो मतदान का मकसद खत्म हो जाएगा.

संसद या विधानसभाएं नहीं बल्कि राजनैतिक दल लोकतंत्र की बुनियादी संस्था हैं जो लोकशाही की बीमारियों का कारखाना हैं. सियासी दलों पर एक छोटी पार्टनरशिप फर्म जितने नियम भी लागू नहीं होते. खराब प्रत्याशीदलबदलअलोकतांत्रिक ढर्रे और चंदे तक लगभग सभी धतकरम सियासी दलों से निकलकर व्यापक लोकतंत्र में फैलते हैं. गवर्नेंस को राजनैतिक दलों से अलग करना मुश्किल हैक्योंकि सरकारी नीतियों के ब्लू प्रिंट राज करने वाली पार्टी की सियासी फैक्ट्री में बनते हैं

लोकतंत्र की नींव में इस दरार के कारण 

- राजनीति का अपना एक बिजनेस मॉडल बन गया है जिसमें किसी न किसी तरह से जीतना पहली जरूरत है.

- सियासी वंशवाद संसद से पंचायतों तक पसर गया है. हर राज्य  में नए राजनैतिक परिवार उभरे हैंजिन्हें पहचानना मुश्किल नहीं है. उत्तर प्रदेश में 50 से अधिक सियासी कुनबे इस चुनाव में खुलकर सक्रिय हुए. छोटे कुनबों ने निचले स्तर के चुनावों पर कब्जा कर रखा है.

- जीत की गारंटी के लिए ये परिवार हर चुनाव में बड़ी सहजता से दलों के बीच आवाजाही करते हैं और अच्छे प्रत्याशियों का विचार उभरने से पहले ही मर जाता है.

दिलचस्प है कि चुनावों के नजरिए से दो प्रस्ताव चर्चा में हैंएक लोकतंत्र की जड़ के लिए और दूसरा शिखर के लिए.

पहलादलीय राजनीति को प्रत्यक्ष रूप से पंचायतों चुनाव तक लागू कर दिया जाए.
दूसरासंसद-विधानसभा के चुनाव साथ कराए जाएं.

क्या इन दोनों से पहले यह जरूरी नहीं है कि लोकतंत्र की बुनियादी संस्था यानी विभिन्न राजनैतिक दलों को ठीक किया जाए?


आखिर कब तक हम लोकतंत्र के प्रति दायित्व की कसम खाकर उन्हें  वोट डालते रहेंगे जो लोकतंत्र को सड़ाने के नए कीर्तिमान बनाना चाहते हैं

Monday, October 26, 2015

यह हार है बड़ी





देश के सबसे बड़े राजनैतिक दल और उसकी सरकार ने न केवल चुनावों को ठीक करने का बड़ा मौका गंवा दिया बल्कि चुनावों को दूषित करने वाले तरीकों को नए तरह से प्रामाणिक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. 


ह निष्कर्ष निकालने में कोई हर्ज नहीं है कि अगले साल बंगाल के चुनाव में आपराधिक छवि वाले प्रत्याशियों के बीच होड़ होने वाली है. चुनावी वादे अब लैपटॉप, साइकिल से होते हुए स्कूटी, पेट्रोल, मकान, जमीन देने तक पहुंच चुके हैं, अगले वर्ष के विधानसभा चुनावों में इसकी नई सीमाएं नजर आ सकती हैं. अगले साल तक चुनावों में काला धन बहाने के नए तरीके नजर आएंगे और वंशवाद की राजनीति का नया परचम लहराने लगेगा जो उत्तर प्रदेश की पंचायतों के चुनावों तक आ गया है. इन नतीजों पर पहुंचना इसलिए आसान है कयों कि बिहार के चुनाव में देश के सबसे बड़े राजनैतिक दल और उसकी सरकार ने न केवल चुनावों को ठीक करने का बड़ा मौका गंवा दिया बल्कि चुनावों को दूषित करने वाले तरीकों को नए तरह से प्रामाणिक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. 
नरेंद्र मोदी और बीजेपी से अपेक्षा तो यह थी कि सत्ता में आने के बाद यह पार्टी ऐलानिया तौर पर चुनाव सुधार शुरू करेगी, क्योंकि विपक्ष में रहकर न केवल बीजेपी ने भारतीय लोकतंत्र में चुनावों की गंदगी को समझा है बल्कि इसे साफ करने की आवाजों में सुर भी मिलाया है. आदर्श तौर पर यह काम महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड के चुनावों से शुरू हो जाना चाहिए था लेकिन अगर ये चुनाव जल्दी हुए तो बिहार से इसकी शुरुआत हो ही जानी चाहिए थी.
एक आम भारतीय मतदाता चुनावों में यही तो चाहता है कि उसे अपराधियों को अपना प्रतिनिधि चुनने पर मजबूर न किया जाए. याद कीजिए पिछले साल मई में मोदी की इलाहाबाद परेड ग्राउंड की जनसभा जिसमें उन्होंने कहा था कि ''सत्ता में आते ही राजनीति से अपराधीकरण खत्म करने की मुहिम शुरू होगी. सरकार सभी प्रत्याशियों के हलफनामे सुप्रीम कोर्ट के सामने रखकर मामलों की सुनवाई करने और फैसले सुनाने के लिए कहेगी. जो अपराधी पाए जाएंगे, उनकी सदस्यता जाएगी और उपचुनाव के जरिए सीटे भरी जाएंगी. यही काम विधानसभा में होगा." मोदी ने जोश में यह भी कहा था कि यदि दोषी होंगे तो वह खुद भी मुकदमे का सामना करेंगे लेकिन अगली संसद साफ-सुथरी होगी. पता नहीं, वह कौन-सी बहुमत की कमी है जिसने मोदी को यह प्रक्रिया शुरू करने से रोक रखा है. अलबत्ता देश को यह जरूर मालूम है कि बिहार के चुनाव के पहले चरण में आपराधिक छवि वाले सर्वाधिक लोग बीजेपी का टिकट लेकर चुनाव मैदान में हैं और बीजेपी में अपराधियों को टिकट बेचने का खुलासा करने के बाद पार्टी के सांसद आर.के. सिंह ने हाइकमान की डांट खाई है. चुनावों की निगहबानी करने वाली संस्था एडीआर का आंकड़ा बताता है कि पहले चरण के चुनाव में बीजेपी के 27 प्रत्याशियों में 14 पर आपराधिक मामले हैं. हमें मालूम है कि बीजेपी भी अब मुलायम, मायावती या लालू की तरह आपराधिक मामलों के राजनीति प्रेरित होने का तर्क देगी लेकिन अपेक्षा तो यही थी कि वह साफ -सुथरे प्रत्याशियों की परंपरा शुरू करने के साथ इस तर्क को गलत साबित करेगी.
लैपटॉप, साइकिलें, बेरोजगारी भत्ता आदि बांटने के चुनावी वादों पर भारत में बहस लोकसभा चुनाव से पहले ही शुरू हो गई थी और बीजेपी इस बहस का सक्रिय हिस्सा थी. जुलाई, 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को चुनावी वादों को लेकर दिशानिर्देश तय करने का आदेश देते हुए कहा था कि चुनाव से पहले घोषित की जाने वाली खैरात साफ-सुथरे चुनावों की जड़ें खोद देती है. बीजेपी को सत्ता में आने के बाद इस सुधार की अगुआई करनी थी, लेकिन बिहार के चुनाव में पार्टी ने स्कूटर, मकान, पेट्रोल और जमीन देने के वादे करते हुए इस बड़ी उक्वमीद को दफन कर दिया है कि भारत के चुनाव इस 'रिश्वतखोरी'  से कभी मुक्त हो सकेंगे. दिलचस्प है कि चुनावों में लोकलुभावन घोषणाओं पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश तमिलनाडु में टीवी, मिक्सर-ग्राइंडर बांटने जैसे चुनावी वादों पर आया था. अगले साल तमिलनाडु में फिर चुनाव होने हैं इस बार वहां लोकलुभावन घोषणाओं का नया तेवर नजर आ सकता है.
इस अगस्त में जब बिहार चुनाव की तैयारियां पूरे शबाब पर थीं तब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर राजनैतिक दलों को सूचना कानून के दायरे में लाने का विरोध किया. यह एक ऐसा सुधार था जो चुनावों में खर्च को सीमित करने और पार्टियों का हिसाब साफ-सुथरा करने की राह खोल सकता था. यहां से आगे बढ़ते हुए चुनावी चंदों में पारदर्शिता और काले धन के इस्तेमाल पर रोक के कदम उठाए जा सकते थे. बीजेपी सत्ता में आने से पहले इसके पक्ष में थी लेकिन बिहार की तरफ  बढ़ते हुए उसने खुद को उन दलों की जमात में खड़ा कर दिया जो भारतीय चुनावों को काले धन का दलदल बनाए रखना चाहते हैं. बिहार में जगह-जगह नकदी पकड़ी गई है और चुनाव आयेाग मान रहा है कि 25 फीसदी सीटें काले धन के इस्तेमाल के हिसाब से संवेदनशील हैं. अब जबकि राजनैतिक शुचिता पर बौद्धिक नसीहतें देने वाली पार्टी ही इस कालिख की पैरोकार है तो अचरज नहीं कि काले धन की नदी पंचायत से लेकर संसद तक बेरोक बहेगी.
राजनैतिक सुधारों को लेकर बीजेपी की कलाबाजी इसलिए निराश करती है कि सुधार तो दूर, पार्टी ने राजनीति के धतकर्मों को नई परिभाषाएं व प्रामाणिकता देना शुरू कर दिया है. मसलन इंडिया टुडे के पिछले अंक में अमित शाह ने देश को परिवारवाद की भाजपाई परिभाषा से परिचित कराया. 
यदि हम इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि चुनावों में हार जीत ही सब कुछ होती है तो हमें यह मानना पड़ेगा कि बिहार के चुनाव के जरिए सभी दलों ने राजनैतिक सुधारों की उम्मीद को सामूहिक श्रद्धांजलि दी है. बिहार चुनाव का नतीजा कुछ भी हो लेकिन भारतीय लोकतंत्र खुद को ठीक करने का एक बड़ा मौका चूक गया है.

Monday, November 25, 2013

चीन का चोला बदल

दुनिया का सबसे बड़ा अधिनायक मुल्‍क तीसरी क्रांति का बटन दबाकर व्‍यवस्‍था को रिफ्रेश कर रहा है।
देंग श्‍याओं पेंग ने कहा था आर्थिक सुधार चीन की दूसरी क्रांति हैं लेकिन यह बात चीन को सिर्फ 35 साल में ही समझ आ गई कि हर क्रांति की अपनी एक एक्‍सपायरी डेट भी होती है और घिसते घिसते सुधारों का मुलम्‍मा छूट जाता है। तभी तो शी चिनफिंग को सत्‍ता में बैठते यह अहसास हो गया कि चमकदार ग्रो‍थ के बावजूद एक व्‍यापक चोला बदल चीन की मजबूरी है। चीनी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के तीसरे प्‍लेनम से बीते सप्‍ताह, सुधारों का जो एजेंडा निकला है उसमें विदेशी निवेशकों को चमत्‍कृत करने वाला खुलापन या निजीकरण की नई आतिशबाजी नहीं है बल्कि चीन तो अपना आर्थिक राजनीतिक डीएनए बदलने जा रहा है। दिलचस्‍प्‍ा है कि जब दुनिया का सबसे ताकतवर लोकतंत्र अमेरिका अपने राजनीतिक वैर में फंस कर थम गया है और विश्‍व की सबसे बड़ी लोकशाही यानी भारत अपनी विभाजक व दकियानूसी सियासत में दीवाना है तब दुनिया का सबसे बड़ा अधिनायक मुल्‍क तीसरी क्रांति का बटन दबाकर व्‍यवसथा को रिफ्रेश कर रहा है।
चीन की ग्रोथ अब मेड इन चाइना की ग्‍लोबल धमक पर नहीं बल्कि देश की भीतरी तरक्‍की पर केंद्रित होंगी। दो दशक की सबसे कमजोर विकास दर के बावजूद चीन अपनी ग्रोथ के इंजन में सस्‍ते युआन व भारी निर्यात का ईंधन नहीं डालेगा। वह अब देशी मांग का ईंधन चाहता है और धीमी विकास दर से उसे कोई तकलीफ