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Sunday, March 19, 2023

सबसे बड़ी स्‍कीम का रिपोर्ट कार्ड


यद‍ि आप से पूछा जाए कि आग की खोज और पहिये यानी व्‍हील के आव‍िष्‍कार के बाद दुनिया की सबसे क्रांतिकारी घटना कौन सी थी

आसानी से जवाब नहीं मिलेगा आपको

क्‍यों कि गुफाओं से निकले मानव के करीब बारह हजार साल के इति‍हास में क्‍या कुछ नहीं घटा है

अबलत्‍ता अगर किसी आर्थिक इतिहासकार से पूछें तो वह कहेगा कि आग की खोज और पहिये आवि‍ष्‍कार के बाद ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति दुनिया की सबसे बड़ी क्रांति थी

इससे पहले तक दुनिया की आबादी कृष‍ि पर निर्भर थी, आबादी बढ़ती थी तो खाना कम फिर आबादी कम होती थी और फिर अनाज उत्‍पादन के साथ बढ़ती थी. इस चक्‍कर को माल्‍थेस‍ियन ट्रैप कहगा गया जिसे  पहले पहले जनसंख्‍याविद और अर्थशास्‍त्री थॉमस माल्‍थस ने समझाया था.

ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति के बाद 1760 से खेती से लोग बाहर निकले, प्रति व्‍यक्‍त‍ि आय बढ़ी,जीवन स्‍तर बेहतर हुआ और आबादी संतुलित हुई. यहीं से राजनीतिक संस्‍थायें बनना शुरु होती हैं.

आप कहेंगे कि इस यह सब याद दिलाने का मकसद क्‍या है

मकसद है जनाब क्‍यों कि इसके बाद औद्योगिक तरक्‍की के लिहाज से दुनिया की से चमत्‍कारिक क्रांति कौन सी थी?

चीन का चमत्‍कार  

यह था चीन का औद्योगीकरण जो ब्रिटेन में मशीनों की खटर पटर शुरु होने के करीब 250 साल बाद आया.

2017 में विकास दर में पहली गिरावट और कोविड के साथ दूसरी बडी गिरावट तक 35 साल में चीन ने दुनिया की करीब 20 फीसदी आबादी को औद्योगीकरण के दायरे में पहुंचा दिया. यह करिश्‍मा पहली बार हुआ.

ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति को दोहराने की कोश‍िशें

उत्‍तरी यूरोप से लेकर अमेरिका और पूर्वी एश‍िया कोरिया व ताइवान तक हुईं. कुछ जगह कामयाबी मिली कुछ जगह नहीं. प्रति व्‍यक्‍ति‍ आय  बढ़ोत्‍तरी उतनी नहीं दिखी जितनी कि अमेरिका में थी, ठीक इसी तरह चीन की क्रांति से सीखने की कोश‍िश कई जगह चल रही है.

 

चीन का मॉडल

भारत ने इसी क्रांति से सबक मैन्‍युफैक्‍चर‍िंग में निवेश बढ़ाने की मुहिम शुरु की. क्‍यों कि फैक्‍ट्र‍ियां लगेंगी तो उत्‍पादन और रोजगार बढेगा. निर्यात बढेगे और मिलेगा तेज आर्थ‍िक विकास. बात शुरु हुई थी विदेशी निवेश खोलने से, फिर दी गई तमाम उद्योग को र‍ियायतें मगर बात बनी नहीं.

विकास होना था मैन्‍युफैक्‍चर‍िंग था जिससे रोजगार आने थे लेक‍िन सेवा क्षेत्र में ज्‍यादा तेज बढ़त हुई. चीन की तर्ज पर उद्योगों केा बुलाने और निर्यातोन्‍मुख उत्‍पादन करने की मुहिक मेक इन इंडिया से होते हुए अब उस नई स्‍कीम पर आ टिकी जिसे पीएलआई या प्रोडक्‍शन लिंक्‍ड इंसेटिव कहते हैं.

यह भारत के इतिहास सबसे बड़ी एक मुश्‍त औद्योग‍िग प्रोत्‍साहन योजना है, जिसमें 15 अलग अलग उद्योगों में  कंपनियों को उत्‍पादन के लिए सरकार के बजट से अगले पांच साल में करीब 1.93 लाख करोड़ की सीधी नकद मदद दी जाएगी है. यह प्रोत्‍साहन अलग अलग उद्योगों के लिए उत्‍पादन और निर्यात की शर्तों को पूरा करने के बदले मिलेगा. सनद रहे कि यह रियायतें अन्‍य टैक्‍स, निवेश  आदि की रियायतों के अलावा है जो सभी उद्येागों को मिलते हैं. 

इन रियायतों की पहली किश्‍त के तहत करीब 400 करोड़ रुपये ताइवान की कंपनी फॉक्‍सकॉन और भारत की कंपनी डिक्‍सन टेक्‍नोलॉजीज  को दिये गए हैं. फॉक्‍सकॉन भारत में एप्‍पल फोन बनाती है. इस कंपनी ने  एक अगस्‍त 2021 से 31 मार्च 2022 के बीच 15000 करोड़ का उत्‍पादन किया.  ड‍ि‍क्‍सन समूह की कंपनी करीब 58 करोड़ का प्रोत्‍साहन भुगतान हुआ है. यह कंपनी भी इलेक्‍ट्रानिक्‍स उत्‍पाद बनाती है.

पंद्रह अलग अलग उद्योगों में उत्‍पादन के लिए सीधी नकद मदद देनी वाली इस स्‍कीम को अब 32 महीने पूरे हो रहे हैं.

बजट से पहले देखना च‍ाहि‍ए कि कहां तक पहुंची चीन के मॉडल को आजमाने  की यह मुहिम

प्रोत्‍साहनों सबसे बडा मेला

उदारीकरण यानी 1991 के बाद भारत की सबसे बड़ी प्रत्‍यक्ष निवेश और निर्यात प्रोत्‍साहन स्‍कीम यानी पीएलाआई का आव‍िष्‍कार बडे अजीबोगरीब ढंग से हुआ. 

बात नवंबर 2019 की है. जब भारत डब्‍लूटीओ की अदालत में एक बड़ी लड़ाई हार गया. अचरज होगा कि इस वक्‍त भारत और अमेरिका यानी मोदी और ट्रंप के रिश्‍तों की बड़ी गूंज थी लेक‍िन अमेरिका ने भारत को डब्‍लूटीओ में धर रगड़ा और मोदी सरकार भारत की सभी निर्यात प्रोत्‍साहन स्‍कीमें चार माह के भीतर बंद करनी पड़ीं. 

उस वक्‍त तक मर्चेंडाइज एक्‍सपोर्ट्स ऑफ इंड‍िया (एमईआईएस) भारत की सबसे बड़ी निर्यात प्रोत्‍साहन स्‍कीम थी जिसमें निर्यात योग्‍य उत्‍पादन पर लगने वाले कच्‍चे माल और सेवाओं पर टैक्‍स की वापसी की जाती थी. इस स्‍कीम के तहत 2019-20 में बजट  करीब 40000 करोड़ रुपये टैक्‍स के वापसी की गई.

मोदी सरकार ने 2015 में पांच निर्यात प्रोत्‍साहन स्‍कीमें मिलाकर इसे बनाया था. अगले दो साल में निर्यात को इससे कोई बड़ा फायदा नहीं हुआ. 2019 में एक और स्‍कीम लाई गई जिसका नाम भी रेमिशन ऑफ ड्यूटीज एंड टैक्‍सेस ऑन एक्‍सपोर्ट प्रोडक्‍टर (आरओडीटीपी). इसके बाद भी निर्यात नहीं बढ़े. निर्यात में जो बढ़त दिखी वह  कोविड के दौरान ही थी.  

 

इस बीच 2019 में निर्यात प्रोत्‍साहन बंद करने पड़े. जिसके बाद सरकार ने एमईआएस की जगह यह स्‍कीम शुरु की. जिसमें उत्‍पादन और निर्यात की शर्तों पर चुनिंदा उद्योगों को बजट से सीधा प्रोत्‍साहन मिलेगा. इसमें करीब 15 उद्योगों शामिल किया गया.

लेन देन का हिसाब किताब

अब तक पंद्रह उद्योगों के लिए उपलब्‍ध  इस स्‍कीम से 2027 तक करीब 2.5 से 3 लाख करोड़ का पूंजी निवेश लाने का लक्ष्‍य रखा गया है. स्‍कीम के नियामक मानते हैं कि प्रमुख उद्योगों का करीब 13 से 15 फीसदी निवेश इस स्‍कीम के जरिये आएगा और पांच साल में करीब 37-38 लाख करोड़ का अत‍िरिक्‍त उत्‍पादन होगा. सरकार मान रही है कि पीएलआई भारत के नॉम‍िनल जीडीपी में हर साल करीब 1.1 फीसदी की बढोत्‍तरी करेगी.

लक्ष्‍यों का क्‍या है, सुहाने ही होते हैं 

पीएलआई स्‍कीम में लगभग 11 उद्योगों में 60 फीसदी पूंजी निवेश के प्रस्‍ताव भी मंजूर हो चुके हैं मगर नतीजों को लेकर तस्‍वीर साफ नहीं हैं. पूरे परिदृश्‍य को आंकड़ों को मदद से धुंध रहित करना होगा.  क्रेडिट सुइसी, क्रि‍स‍िल और केयर रेटिंग्‍स ने हाल में पीएलआई स्‍कीम पर कुछ कीमती विश्‍लेषण पेश किये हैं जो मैन्‍युफैक्‍चरिंग को लेकर भारत के इस सबसे बडे और महंगे दांव की चुनौतियों सफलताओं को समझने में हमारी मदद करते हैं क्‍यों अंतत: सफलता इस बात से तय होगी कि क‍ितना निवेश हुआ और आए क‍ितने रोजगार?

पीएलआई स्‍कीम में आए प्रस्‍ताव तीन वर्गों में है.

पहला हिस्‍सा असेम्‍बलिंग में निवेश का है. यानी पुर्जे आयात कर उन्‍हें जोड़ने की फैक्‍ट्र‍ियां. मोबाइल, कंप्‍यूटर और टेलीकॉम हार्डवेयर में आया और संभावित न‍िवेश इसी वर्ग का है. इस वर्ग के तहत 2027 तक करीब 2108 मिलियन डॉलर के पूंजी निवेश पर सरकार सरकार करीब 8000 मिल‍ियन डॉलर के प्रोत्‍साहन देने का प्रस्‍ताव किया है. इस वर्ग के उत्‍पादन से सालाना  कुल 38000 मिल‍ियन डॉलर के बिक्री (निर्यात और घरेलू बाजार में बिक्री) टर्नओवर की उम्‍मीद है.

दूसरा हिस्‍सा ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है जिसमें नई मैन्‍युफैक्‍चरिंग शुरु की जानी है. सोलर, बैटरी, बल्‍क ड्रग, चिक‍ित्‍सा उत्‍पाद इस वर्ग में आते हैं. इस निवेश से नई तकनीक आने का उम्‍मीद लगाई गई है. इन्‍हीं के जरिये आयात पर निर्भरता भी कम होगी.

तीसरा और सबसे बडा हिस्‍सा कंपनियों के नियम‍ित पूंजी निवेश का है. जिसमें आटोमोबाइल, फूड, कपड़ा, फार्मा, उपभोक्‍ता इलेक्‍ट्रानिक्‍स जैसे  टीवी फ्र‍िज और स्‍टील आद‍ि शामिल हैं. इनमें कुछ कंपनियों ने स्‍कीम की शर्तों को स्‍वीकारते हुए निवेश का प्रस्‍ताव मंजूर कराया है.

पीएलआई का रिपोर्ट कार्ड

इस स्‍कीम की अब तक की कामयाबी का पहला पैमाना पूंजी निवेश है, जिस पर सारा दारोमदार है. बीते दो बरस में अध‍िकांश पूंजी उन उद्योगों में आई है जहां कंपनियां पहले परियोजनायें चला रही हैं जैसे कि आटोमोबाइल और स्‍टील. नए उत्‍पादन में पीवी माड्यूल और  बैटरी प्रमुख है जहां ज्‍यादा संभावनायें बनती दिख रही हैं. यहां रिलायंस, एलंडटी और ओला जैसी बड़ी कंपनियों ने भी प्रस्‍ताव मंजूर कराये हैं. अगर यहां निवेश के नतीजे आए तो भारत में बैटरी की बडी क्षमतायें बन सकती हैं. अब तक मंजूर हुए कुल निवेश प्रस्‍तावों का 48 फीसदी हिस्‍सा जो क्रियान्‍वयन में है वह स्‍टील आटो, बैटरी और सोलर मॉड्यूल में केंद्रित है

अब दूसरा पैमाना जहां नतीजे मिले जुले है. नई इकाइयों को लेकर  दुनिया की बडी तकनीकी कंपनियों में निवेश में रुच‍ि नहीं ली है. बैटरी और सोलर पैनल में कोई बडी ग्‍लोबल कंपनी अब तक नहीं आई है इसलिए तकनीकी हस्‍तांतरण में पीएलआई का फायदा मिलता नहीं दिख रहा. अलबत्‍ता मोबाइल असेम्‍बली, कंप्‍यूटर हार्डवेयर और उपभोक्‍ता इलेक्‍ट्रानिक्‍स में विदेशी बहुराष्‍ट्रीय कंपन‍ियों ने निवेश में रुच‍ि ली है. इनमें से कई कंपनियां पहले से भारत में हैं.

अब तीसरा पैमाना है उत्‍पादन में वैल्‍यू एडीशन का यानी मौजूदा उत्‍पादन को बेहतर करना. बैटरी स्‍टील फार्मा आदि क्षेत्रों में उत्‍पादों में वैल्‍यू एडीशन की गुंजाइश है मगर क्रेडिट सुइसी का मानना है कि इसके लिए स्‍कीम में और जयादा प्रोत्‍साहन और स्‍पष्‍टता जरुरी है.  यदि एसा होता है तो 2027 तक करीब 18 अरब डॉलर का वैल्‍यू एडीशन मिल सकता है. of GDP.

क्रेडिट सुइसी का मानना है कि मौजूदा हालात में यह स्‍कीम 2025 तक 70 अरब डॉलर के कुल कारोबार के साथ जीडीपी में करीब 0.7 फीसदी का अतिरिक्‍त योगदान कर सकती है. जबक‍ि क्रिसिल का आकलन है कि 2025 तक देश के प्रमुख उद्योगों में 13 से 15 फीसदी पूंजी निवेश इस स्‍कीम के जरिये आ सकता है.

भारत के लिए यह स्‍कीम बड़ा और शायद आख‍िरी मौका है. दुनिया में घटती विकास दर और लंबी चलने वाली महंगाई की रोशनी में उत्‍पादन का ढांचा बदल रहा है. कई देश अपने यहां जरुरी सामानों की उत्‍पादन क्षमतायें तैयार कर रहे हैं जिनके लिए वह आयात पर निर्भर थे. भारत में इस स्‍कीम की सफलता के लिए केवल दो वर्ष हैं और यह इस बात से तय होगा कि चीन की तुलना में कितने बडे ब्रांड और बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां भारत आते हैं. क्‍यों कि उनके जरिये ही भारत ग्‍लोबल सप्‍लाई चेन का हिस्‍सा बन सकता है.

सबसे कठिन पहेली

हम वापस ब्रिटेन और चीन की औद्योगिक क्रांति की तरफ लौटते हैं. क्‍यों इनकी रोशनी में यह समझना आसान है कि औद्योगिक क्रांत‍ियां इतनी कठिन क्‍यों होती हैं और क्‍यों हर देश में ब्रिटेन या चीन दोहराया नहीं जा पाता. औद्योगिक निवेश को लेकर बीते कुछ वर्षों में नए संदर्भों में अध्‍ययन हुए हैं. जिनसे पता चला है कि ब्रिटेन, अमेरिका, जापान और चीन में औद्योगिक विकास का मॉडल लगभग एक जैसा था. इस चारों ही अर्थव्‍यवस्‍थाओं में प्रोटो इंडस्‍ट्रि‍यलाइजेशन का अतीत था यानी व्‍यापक शुरुआती ग्रामीण और कुटीर उद्योग. ब्रिटेन में 1600 से 1760 के बीच अमीर व्‍यापार‍ियों ने छोटे उद्योग में निवेश किया था. इसने औदयोगिक क्रांति को आधार दिया. यही समय था जब जापान में इडो और प्रारंभिक मेइजी युग (1600 से 1800) में ग्रामीण उद्योग फल फूल रहे थे. अमेरिका में 1820 में  प्रोटो इंडस्‍ट्रि‍यलाइजेशन गांवों कस्‍बों में उभर आया था जो 19 वीं सदी के अंत में रेल रोड के विकास से औद्योगिक क्रांति का हिससा बन गया. और अंत में चीन जहां 1978 से 1988 के बीच गांवों में लाखो छोटे उद्योग थे जो देंग श्‍याओ पेंग की औद्योगिक क्रांति‍ का आधार बने

दुनिया के अन्‍य देश जहां मैन्‍युफैक्‍चरिंग क्रांति की कोशिश परवान नहीं चढ़ी वहां शायद ब्रिटेन अमेरिका जापान या चीन जैसा ग्रामीण कुटीर उद्योग अतीत नहीं था. मगर भारत के पास व्‍यापार का पुराना अतीत रहा है और

आजादी के बाद बढती खपत के साथ भारत में छोटे उद्योग बड़े पैमाने पर उभरे थे. अबलत्‍ता औद्योगीकरण की ताजा कोशि‍शों में  इनकी कोई भूमिका नहीं दिखती. यह पूरी क्रांति कहीं पीछे छूट गई.  

 पीएलआई यानी अब तक की सबसे बड़ी निवेश प्रोत्‍साहन योजना अगर भारत के औद्योगिक परिदृश्‍य में नए छोटे निर्माता, सप्‍लायर और सेवा प्रदाता जोड़ सकी तो क्रांति हो पाएगी नहीं तो सरकारी मदद के सहोर चुनिंदा कंपनियों के एकाध‍िकार और बढ़ते जाने का खतरा ज्‍यादा बड़ा है 

Sunday, January 23, 2022

भविष्‍य की नापजोख

 



बात अक्‍टूबर 2021 की है कोविड का नया अवतार यानी ऑम‍िक्रॉन दुनिया के फलक पर नमूदार नहीं हुआ था, उस दौरान एक बेहद जरुरी खबर उभरी और भारत के नीति न‍िर्माताओं को थरथरा गई.

अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत के आर्थ‍िक विकास दर की अध‍िकतम रफ्तार का अनुमान घटा द‍िया था. यह छमाही या सालाना वाला आईएमएफ का आकलन नहीं था बल्‍क‍ि मुद्रा कोष ने भारत का पोटेंश‍ियल जीडीपी 6.25 फीसदी से घटाकर 6 फीसदी कर द‍िया यानी एक तरह से यह तय कर दिया था कि अगले कुछ वर्षों में भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में 6 फीसदी से ज्‍यादा की दर से नहीं दौड़ सकती.

हर छोटी बड़ी घटना पर लपककर प्रत‍िक्रिया देने वाली सरकार में पत्‍ता तक नहीं खड़का. सरकारी और निजी प्रवक्‍ता सन्‍नाटा खींच गए, केवल वित्‍त आयोग के अध्‍यक्ष एन के सिंह, आईएमएफ के इस आकलन पर अचरज जाह‍िर करते नजर आए.

अलबत्‍ता खतरे की घंट‍ियां बज चुकी थीं. इसलिए जनवरी में जब केंद्रीय सांख्‍य‍िकी संगठन वित्‍त वर्ष 2022 के  पहले आर्थिक अनुमान में बताया कि विकास दर केवल 9.2 फीसदी रहेगी तो बात कुछ साफ होने लगी.  यह आकलन आईएमएफ और रिजर्व बैंक के अनुमान (9.5%) से नीचे था. सनद रहे कि इसमें ऑमिक्रान का असर जोड़ा नहीं गया था यानी कि 2021-22 के मंदी और 21-22 की रिकवरी को मिलाकर चौबीस महीनों में भारत की शुद्ध  विकास  दर शून्‍य या अध‍िकतम एक फीसदी रहेगी.

इस आंकड़े की भीतरी पड़ताल ने हमें बताया कि आईएमएफ के आकलन पर सरकार को सांप क्‍यों सूंघ गया. पोटेंश‍ियल यानी अध‍िकतम संभावित जीडीपी दर, किसी देश की क्षमताओं के आकलन का विवाद‍ित लेक‍िन सबसे  दो टूक पैमाना है.  सनद रहे कि जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्‍पादन  किसी एक समय अवधि‍ में किसी अर्थव्‍यवस्‍था हुए कुल उत्‍पादन का मूल्‍य  जिसमें उत्‍पाद व सेवायें दोनों शाम‍िल हैं.

पोंटेश‍ियल जीडीपी का मतलब है कि एक संतुल‍ित महंगाई दर पर कोई अर्थव्‍यवस्‍था की अपनी पूरी ताकत झोंककर अध‍िकतम कितनी तेजी से दौड़ सकती है. मसलन  यूरोप की किसी कंपनी को भारत में निवेश करना हो तो वह भारत के  मौजूदा तिमाही व सालाना जीडीपी को बल्‍क‍ि उस भारत की अध‍िकतम जीडीपी वृद्ध‍ि क्षमता (पोटेंश‍ियल जीडीपी) को देखेगी क्‍यों कि सभी आर्थि‍क फैसले भविष्‍य पर केंद्रित होते हैं

यद‍ि जीडीपी इससे ज्‍यादा तेज  दौड़ेगा तो महंगाई तय है और अगर इससे नीचे है तो अर्थव्‍यवस्‍था सुस्‍त पड़ रही है. आईएमएफ मान रहा है कि मंदी के बाद अब भारत की अर्थव्‍यवस्‍था, महंगाई या अन्‍य समस्‍याओं को आमंत्रित किये बगैर,  अध‍िकतम छह फीसदी की दर से ज्‍यादा तेज नहीं  दौड़ सकती .  

मुद्रा कोष जैसी कई एजेंस‍ियों को क्‍यों लग रहा है कि भारत की विकास दर अब लंबी सुस्‍ती की गर्त में चली गई है. दहाई के अंक की ग्रोथ तो दूर की बात है भारत के लिए अगले पांच छह साल में औसत सात फीसदी की‍विकास दर भी मुश्‍क‍िल है ? कोविड की मंदी से एसा क्‍या टूट गया है जिससे कि भारत की आर्थिक क्षमता ही कमजोर पड़ रही है.

इन  सवालों के कुछ ताजा आंकडों में मिलते हैं बजट से पहला जिनका सेवन हमारे लिए बेहद जरुरी है

-         भारत की जीडीपी की विकास दर अर्थव्‍यवस्‍था में आय बढ़ने के बजाय महंगाई बढ़ने के कारण आई है . वर्तमान मूल्‍यों पर रिकवरी तेज है जबकि स्‍थायी मूल्‍यों पर कमजोर. यही वजह है कि खपत ने बढ़ने के बावजूद  सरकार का टैक्‍स संग्रह बढ़ा है

-         बीते दो साल में भारत के निर्यात वृद्धि दर घरेलू खपत से तेज रही है. इसमें कमी आएगी क्‍यों कि दुनिया में मंदी के बाद उभरी तात्‍कालिक मांग थमने की संभावना है. ग्‍लोबल महंगाई इस मांग को और कम कर रही है.

-         सितंबर 2021 तक जीएसटी के संग्रह के आंकडे बताते हैं कि बीते दो साल की रिकवरी के दौरान टैक्‍स संग्रह में भागीदारी में छोटे उद्योग बहुत पीछे रह गए हैं जबक‍ि 2017 में यह लगभग एक समान थे. यह तस्‍वीर सबूत है कि बड़ी कंपनियां मंदी से उबर गई हैं लेकिन छोटों की हालत बुरी है. इन पर ही सबसे भयानक असर भी हुआ था और इन्‍हीं में सबसे ज्‍यादा रोजगार निहित हैं.

-         यही वजह है कि गैर कृष‍ि रोजगारों की हाल अभी बुरा है. नए रोजगारों की बात तो दूर सीएमआई के आंकड़ों के अनुसान अभी कोविड वाली बेरोजगारी की भरपाई भी नहीं हुई है.  सनद रहे कह श्रम मंत्रालय के आंकड़े के अनुसार भारत में 92 फीसदी कंपनियों में कर्मचारियों की संख्‍या  100 से कम है और जबकि 70 फीसदी कंपनियों में 40 से कम कर्मचारी हैं.

भारतीय अर्थव्‍यस्‍था की यह तीन नई ढांचागत चुनौतियां का नतीजा है तक जीडीपी में तेज रिकवरी के आंकड़े बरक्‍स भारत में निजी खपत आठ साल के न्‍यूनतम स्‍तर पर यानी जीडीपी का 57.5 फीसदी है. दुनिया की एजेंसियां भारत की विकास की क्षमताओं के आकलन इसलिए घटा रही हैं.

पहली – खपत को खाने और लागत को बढ़ाने वाली महंगाई जड़ें जमा चुकी हैं. इसे रोकना सरकार के वश में नहीं है इसलिए मांग बढ़ने की संभावना सीमत है

दूसरा- महंगाई के साथ ब्‍याज दरें बढ़ने का दौर शुरु हेा चुका है. महंगे कर्ज और टूटती मांग के बीच कंपन‍ियों से नए निवेश की उम्‍मीद बेमानी है. सरकार बीते तीन बरस में अध‍िकतम टैक्‍स रियायत दे चुकी है

तीसरा- राष्‍ट्रीय अर्थव्‍यवस्‍था में केंद्र सरकार के खर्च का हिस्‍सा केवल 15 फीसदी है. बीते दो बरस में इसी खर्च की बदौलत अर्थव्‍यवस्‍था में थोड़ी हलचल दिखी  है लेकिन इस खर्च नतीजे के तौर सरकार का कर्ज जीडीपी के 90 फीसदी के करीब पहुंच रहा. इसलिए अब अगले बजटों में बहुत कुछ ज्‍यादा खर्च की गुंजायश नहीं हैं

 

इस बजट से पूरी द‍ुनिया बस  एक सवाल का जवाब मांगेगी वह सवाल यह है कि मंदी के गड्ढे से उबरने के बाद भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में दौड़ने की कितनी ताकत बचेगी. यानी भारत का पोटेंशि‍यल जीडीपी कि‍तना होगा. व्‍यावहारिक पैमानों पर भी  पोटेंश‍ियल जीडीपी की पैमाइश खासी कीमती है क्‍यों कि यही पैमाना  मांग, खपत, निवेश मुनाफों, रोजगार आदि के मध्‍यवाध‍ि आकलनों का आधार होता है.

यूं समझें कि भारत में न‍िवेश करने की तैयारी करने वाली किसी कंपनी से लेकर स्‍कूलों में पढ़ने वाले युवाओं का भविष्‍य अगली दो ति‍माही की विकास दर या चुनावों के नतीजों पर नहीं बल्‍क‍ि अगल तीन साल में  तेज विकास की तर्कसंगत क्षमताओं पर निर्भर होगा.

नोटबंदी और कई दूसरी ढांचागत चुनौत‍ियों के कारण  भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था में चीन दोहराये जाने यानी दोहरे अंकों के विकास दर की उम्‍मीद तो 2016 में ही चुक गई थी. अब कोविड वाली मंदी से उबरने में भारत की काफी ताकत छीज चुकी है इसलिए अगर सरकार के पास कोई ठोस तैयारी नहीं दिखी तो भारत के लिए वक्‍त मुश्‍क‍िल होने वाला है. सनद रहे यद‍ि अगले अगले एक दशक में  भारत ने कम से  8-9 फीसदी की औसत विकास दर हासिल नहीं की तो मध्‍य वर्ग आकार  दोगुना करना बेहद मुश्‍कि‍ल  हो जाएगा. यानी कि भारत की एक तिहाई आबादी का जीवन स्‍तर बेहतर करना उनकी खपत की गुणवत्‍ता सुधार कभी नहीं हो सकेगा.

चुनावी नशे में डूबी राजनीति शायद इस भव‍िष्‍य को नहीं समझ पा रही है लेकिन भारत पर दांव लगाने वाली कंपन‍ियां मंदी की जली हैं, वे सरकारी दावों का छाछ भी फूंक फूंक कर पिएंगी.

 

Thursday, September 9, 2021

ये दाग़ दाग़ उजाला

दिसंबर 2019 में संदीप के पास तीन टैक्सी थीं, दो पर ड्राइवर रखे थे, एक खुद चलाते थे. लॉकडाउन के बाद जून 2020 में तीनों कारें कर्जदारों ने उठा ली. अब वे दिहाड़ी पर कार चलाने के लिए अपना मोबाइल नंबर बताते हुए मिल जाते हैं. स्कूल टीचर सुधा की नौकरी गई और दो महीने की तनख्वाह भी. कोविड के डर से ट्यूशन भी मुश्किल हो गया. सुमित की फाइनेंस कंपनी ने तो हिसाब भी नहीं किया, बस नौकरी से निकाल दिया. गुड़गांव की बड़ी मॉल के सामने पार्किंग चलाने वाला रवि अब मध्य प्रदेश के दतिया में रिक्शा चला रहा है.

क्या भारत में कोविड पूर्व के दिन लौट आए हैं? क्या जीडीपी का ताजे आंकड़े (अप्रैल-जून 2021 में 20.1 फीसद की विकास दर बनाम -24.4 फीसद की सिकुड़न) की बधाई में संदीप, सुधा, सुमित और रवि के चेहरे नजर आते हैं? 

मंदी होती ही है ऐसी. डूबते सब एक साथ हैं लेकिन एक साथ उबरते नहीं हैं. मंदी आंकड़ों की समझ को सिकोड़ देती है. इसलिए  प्रतिशत ग्रोथ के बजाए उत्पादन की ठोस कीमत को पढ़ना चाहिए. कोविड से पहले अप्रैल-जून 2019 में अर्थव्यवस्था उत्पादन 35.85 लाख करोड़ रुपए था जो 2020 में इसी दौरान टूट रु. 26.95 लाख करोड़ रुपए रह गया. इस साल यह 32.38 लाख करोड़ रुपए रहा है. 2019-20 की पहली तिमाही में छह साल की सबसे कमजोर विकास दर दर्ज हुई थी. यानी कि कोविड से पहले का स्तर अभी नहीं आया जो तब छह साल की सबसे खराब विकास दर दर्ज हुई थी.

तो सुमित, सुधा या रवि जैसे लाखों लोगों की मंदी का अपडेट कहां मिलेगी?  इन्हें तलाशने के लिए कुछ दूसरी संख्याएं खंगालनी होंगी.

अप्रैल-जून 2021 की 'शानदारतिमाही में मन्नपूरम फाइनेंस ने 1,500 करोड़ रुपए के जेवरात नीलाम किए जो इसके पास गिरवी रखे थे. इससे पहले के तीन माह में 404 करोड़ रुपए के गहने बिके थे. 2020 के पहले नौ माह में यह नीलामी केवल 8 करोड़ रुपए रही थी. देश की प्रमुख गोल्ड लोन मन्नपुरम फाइनेंस के पास गिरवी यह संपत्ति निम्न आय वालों की थी, कारोबार-रोजगार टूटने की वजह से वे कर्ज नहीं चुका सके.

 सोना ही नहीं बैंकों ने लोन के बदले गिरवी रखे मकानों की भी नीलामी की. तिमाही के नतीजों के दौरान स्टेट बैंक ने करीब 5 लाख करोड़ रुपए के कर्ज बकाया होने और डिफॉल्ट बढ़ने की सूचना दी थी. नेशनल पेमेंट कॉर्पोरेशन के मुताबिक, बैंकों में ऑटो डेबिट अस्वीकृत होने का औसत वित्त वर्ष 2021 में 39 फीसद हो गया जो 2019 में 23.3 फीसद था. 

जीडीपी की छलांग के साये में छिपा एक आंकड़ा सच के करीब ले जाता है. अप्रैल-जून 2021 में निजी उपभोग खपत केवल 18 लाख करोड़ रुपए रही. यह स्तर 2019 की इसी तिमाही से लगभग 12 फीसद कम है. भारत की 60 फीसद जीडीपी इसी से बनती है. इसके डूबने का मतलब निवेश और रोजगार की उम्मीद टूटना.

रिजर्व बैंक के ओबिकस सर्वे (2020-21) ने बताया कि मैन्युफैक्चरिंग कंपनियां अभी उत्पादन क्षमता का 70 फीसद प्रयोग भी नहीं कर पाई हैं. तो नया निवेश कहां से होगा? तभी तो जब अगस्त के महीने में मंदी दूर होने का जश्न मन रहा था, उसी महीने में करीब 15 लाख रोजगार गंवाए गए. अगस्त में बेकारी दर 8.32 फीसद हो गई जो जुलाई में 6.95 फीसद थी.

ऑटो उद्योग की मंदी खासतौर पर दुपहिया वाहनों की बिक्री दर और रिजर्व बैंक सीएमआइई के उपभोक्ता विश्वास उम्मीद के सूचकांक भी, कोविड से पहले का माहौल लौटने की गवाही नहीं दे रहे हैं.

अगर कोविड वाली मंदी आई होती और अर्थव्यवस्था केवल पांच फीसद की दर से बढ़ रही होती तो वित्त वर्ष 2022 में अर्थव्यवस्था का आकार 160.59 लाख करोड़ रुपए होता. अब इसे हासिल करने के लिए इस पूरे 2022  में करीब 20 फीसद की विकास दर चाहिए, केवल एक तिमाही में नहीं.

अक्सर आंकड़े सब कुछ नहीं समेट पाते. रॉबर्ट मैकनमारा (वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिका के रक्षा मंत्री) संख्याओं के महारथी थे, उद्योगपति हेनरी फोर्ड द्वितीय के साथ काम कर चुके थे. मैकनमारा ने वियतनाम युद्ध में अमेरिका की जीत की संभावनाओं का आकलन चार्ट एडवर्ड लैंसडेल को दिखाया, जो पेंटागन के स्पेशल ऑपरेशंस प्रमुख थे.

लैंसडेल ने कहा कि इसमें कुछ कमी है.

मैकनमारा ने पूछा, क्या?

लैंसडेल ने कहा कि वियतनाम के लोगों के भावनाएं कहां हैं, उन्हें आंकड़ों में कैसे बांधेंगे.

युद्ध का नतीजा सबको पता है.

भारत में जीडीपी सच बताता नहीं, छिपाता है. यहां ग्रोथ की पैमाइश उत्पादन बढ़ने से होती है, लोगों की कमाई में बढ़त से नहीं, इसलिए मंदी ने भारत को दो हिस्सों में बांट दिया है. बड़ी कंपनियां पहले वर्ग में हैं, जिनके वित्तीय नतीजे बताते हैं कि वे टैक्स कटौती, रोजगारों की छंटनी या कीमत बढ़ाकर अपने नुक्सान वसूल रही हैं जबकि दूसरी तरफ सुधा, रवि, सुमित जैसों लाखों लोगों के लिए जीडीपी टूटा नहीं, डूब गया है. मंदी से जीतने के इनका उबरना जरूरी है.