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Friday, January 8, 2021

एक और अवसर

 


यह जो आपदा में अवसर नाम का मुहावरा है न, इसका मुलम्मा चाहे बिल्कुल उतर चुका हो लेकिन फिर भी आपदाओं को सलाम कि वे अवसर बनाने की ड‍्यूटी से नहीं चूकतीं.

आपको वैक्सीन कब तक मिलेगी और किस कीमत पर यह इस पर निर्भर होगा कि भारत का कल्याणकारी राज्य कितना कामयाब है? वेलफेयर स्टेट के लिए यह दूसरा मौका है. पहला अवसर बुरी तरह गंवाया गया था जब लाखों प्रवासी मजदूर पैदल गिरते-पड़ते घर पहुंचे थे और स्कीमों-संसाधनों से लंदी-फंदी सरकार इस त्रासदी को केवल ताकती रह गई थी.

विज्ञान और फार्मा उद्योग अपना काम कर चुके हैं. ताजा इतिहास में दुनिया का सबसे बड़ा सामूहिक वैक्सिनेशन या स्वास्थ्य परियोजना शुरू हो रही है. सवाल दो हैं कि एक, अधिकांश लोगों को आसानी से वैक्सीन कब तक मिलेगी और दूसरा, किस कीमत पर?

इनके जवाब के लिए हमें वैक्सीन राष्ट्रवाद से बाहर निकल कर वास्तविकता को समझना जरूरी है, ताकि वैक्सीन पाने की बेताबी को संभालते हुए हम यह जान सकें कि भारत कब तक सुरक्षित होकर आर्थिक मुख्यधारा में लौट सकेगा.

क्रेडिट सुइस के अध्ययन के मुताबिक, भारत को करीब 1.66 अरब खुराकों की जरूरत है.

विज्ञान और उद्योग ने वैक्सीन प्रोजेक्ट पूरा कर लिया है. भारत में करीब 2.4 अरब खुराकें बनाने की क्षमता है. इसके अलावा सिरिंज, वॉयल, गॉज आदि की क्षमता भी पर्याप्त है. पांच कंपनियां (अरबिंदो फार्मा, भारत बायोटेक, सीरम इंस्टीट्यूट, कैडिला और बायोलॉजिकल ई) इसका उत्पादन शुरू कर चुकी हैं. भारत के पास उत्पादन की क्षमता मांग से ज्यादा है. अतिरिक्त उत्पादन निर्यात के लिए है.

जब पर्याप्त वैक्सीन है तो समस्या क्या? सबसे बड़ी चुनौती वितरण तंत्र की है. जिन वैक्सीनों का प्रयोग भारत में होना है उन्हें 2 से -8 डिग्री पर सुरक्षित किया जाना है. चार कंपनियां, स्नोमैन, गतिकौसर, टीसीआइएल और फ्यूचर सप्लाइ चेन के पास यह कोल्ड स्टोरेज और परिहवन की क्षमता है. लेकिन वे अधिकतम 55 करोड़ खुराकों का वितरण संभाल सकती हैं जो भारत की कुल मांग के आधे से कम है.

यह कंपनियां टीकाकरण के अन्य कार्यक्रमों को सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं. वितरण की क्षमता बढ़ाए जाने की गुंजाइश कम है क्योंकि कोविड के बाद यह क्षमता बेकार हो जाएगी. अगर सब कुछ ठीक चला तो भी इस साल भारत में 40 से 50 करोड़ लोगों तक वैक्सीन पहुंचना मुश्किल होगा.

सरकारी और निजी आकलन बतात है कि वैक्सीन देने (दो खुराक) के लिए सरकारी व निजी स्वास्थ्य नेटवर्क के करीब एक करोड़ कर्मचारियों की जरूरत होगी. यानी नियमित स्वास्थ्य सेवाओं के बीच वैक्सीन के लिए लंबी कतारों की तैयारी कर लीजिए.

टीका लगने के बाद बात खत्म नहीं होती. उसके बाद ऐंटीबॉडी की जांच कोरोना वैक्सीन के शास्त्र का हिस्सा है. यानी फिर पैथोलॉजिकल क्षमताओं की चुनौती से रू--रू होना पड़ेगा.

भारत के मौजूदा वैक्सीन कार्यक्रम बच्चों के लिए हैं और सीमित व क्रमबद्ध ढंग से चलते हैं. यह पहला सामूहिक एडल्ट वैक्सीन कार्यक्रम है जिसमें कीमत और वितरण की चुनौती एक-दूसरे से गुंथी हुई हैं. यदि सरकार बड़े पैमाने पर खुद सस्ती वैक्सीन बांटती है तो वितरण की लागत उसे उठानी होगी. भारी बजट चाहिए यानी सबको वैक्सीन मिलने में लंबा वक्त लगेगा. सब्सिडी के बगैर वितरण लागत सहित दो खुराकों की कीमत करीब 5,000 रुपए तक होगी, हालांकि वितरण तंत्र पर्याप्त नहीं है. यानी कोरोना की संजीवनी उतनी नजदीक नहीं है जितना बताया जा रहा है. 

स्वास्थ्यकर्मियों के बाद वैक्सीन पाने के लिए 50 साल से अधिक उम्र के लोगों के चुनने के पैमाने में पारदर्शिता जरूरी है. वैक्सीन वितरण को भारत केवीआइपी पहलेसे बचाना आसान नहीं होगा. 

 मुमकिन है कि क्षमताओं व संसाधनों की कमी से मुकाबिल सरकार यह कहती सुनी जाए कि सबको वैक्सीन की जरूरत ही नहीं है लेकिन उस दावे पर भरोसा करने से पहले यह जान लीजिएगा कि भारत में कोविड पॉजिटिव का आंकड़ा संक्रमण की सही तस्वीर नहीं दिखाता है. अगस्त से सितंबर के बीच 21 राज्यों के 70 जिलों में हुए सीरो सर्वे के मुताबिक, कोविड संक्रमण, घोषित मामलों से 25 गुना ज्यादा हो सकता है. यानी वैक्सीन की सुरक्षा का कोई विकल्प नहीं है.

भारत की वैक्सीन वितरण योजना को अतिअपेक्षा, राजनीति और लोकलुभावनवाद से बचना होगा. यह कार्यक्रम लंबा और कठिन है. सनद रहे कि केवल 27 करोड़ की आबादी वाला इंडोनेशिया अगले साल मार्च तक अपने 50 फीसद लोगों को टीका लगा पाएगा.

हमें याद रखना चाहिए कि भारत अनोखी व्यवस्थाओं वाला देश है जो कुंभ मेले जैसे बड़े आयोजन तो सफलता से कर लेता है लेकिन लाखों प्रवासी श्रमिकों को घर नहीं पहुंचा पाता या सबको साफ पानी या दवा नहीं दे पाता. इसलिए वैक्सीन मिलने तक 2020 को याद रखने में ही भलाई है.

Friday, April 17, 2020

असंभव के विरुद्ध




कोरोना के कहर से निजात कब मिलेगी? इसे तो डोनाल्ड ट्रंप या शी जिनपिंग तय कर सकते हैं और नरेंद्र मोदी. हमारी जिंदगी कब सहज और स्वतंत्र हो सकेगी, यह तय करने वाले तो कोई दूसरे ही हैं जो कैमरे की चमक और खबरों की उठापटक से दूर ऐसे अनोखे मिशन पर लगे हैं जो दुनिया ने इससे पहले कभी नहीं देखा.
कोरोना से हमारी लड़ाई में जीत का दारोमदार टीवी पर धमक पड़ने वाले नेताओं पर नहीं बल्कि दुनिया के दवा उद्योग पर है जो यकीनन ज्ञान और क्षमताओं के शिखर पर बैठा है. लेकिन इस समय जो काम इसे मिला है उसमें अगर सफलता मिली तो बीमारियों से हमारी जंग का तरीका बदल जाएगा.
11 जनवरी नॉवेल (नए) कोरोना वायरस का जेनेटिक (अनुवांशि) क्रम जारी (चीन से) होने के बाद, विश्व की दवा कंपनियां मिशन इम्पॉसिबिल पर लग गई हैं.

उनके दो लक्ष्य हैं

एक, कम से कम समय में कोरोना की दवा विकसित करना ताकि पीडि़तों का इलाज हो सके.

और दूसरा, कोरोना की वैक्सीन तैयार करना.

दवाएं और वैक्सीन बनाना चुनावी नारे उछालने जैसा नहीं है इसलिए कोरोना से ताल ठोंकता फार्मास्यूटिकल उद्योग किसी फंतासी फिल्म में बदल गया है. वह समय के विरुद्ध भागते हुए दुनिया को प्रलय से बचाने की जुगत में लगा है.

दवाएं तैयार करने की होड़ पेचीदा और दिलचस्प है. वायरल बीमारी का इलाज आसान नहीं है. वायरस (विषाणु) मानव कोशिका का इस्तेमाल कर अपनी संख्या बढ़ाते हैं. वायरस से प्रभावित कोशिकाओं को बचाते हुए दवा बनाना टेढ़ी खीर है. कुछ वायरल रोगों (एचआइवी, हरपीज, हेपेटाइटिस बी, इन्फ्लुएंजा, हेपेटाइटिस-सी) की दवाएं उपलब्ध हैं. लेकिन वायरस अपने जेनेटिक स्वरूप को जल्द ही बदल लेते हैं इसलिए दवाओं के असर जल्द ही खत्म हो जाते हैं.

आमतौर पर दवाएं विकसित करने में कई वर्ष लगते हैं लेकिन केवल दो माह के भीतर दुनिया भर में कोविड-19 की करीब 55 दवाएं विकास और परीक्षण के अलग-अलग चरणों में पहुंच गईं है. यह इसलिए मुमकिन हुआ क्योंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने 20 मार्च को भारत समेत 15 देशों में दवाओं के परीक्षण की इजाजत दे दी. 28 मार्च को नॉर्वे और स्पेन में मरीजों को परीक्षण के लिए चुन भी लिया गया.

कोविड के मुकाबले में दवा उद्योग ने नई दवाओं पर वक्त लगाने की बजाए मौजूदा दवाओं कीरिपरपजिंग’ (पुरानी दवा का नया प्रयोग) को चुना. अब ऐंटीवायरल, प्रतिरोधक क्षमता में बढ़ोतरी और ऐंटीबॉडी उपचार, इन तीन वर्गों में दवाएं बन रही हैं. निवेश बैंक स्पार्क कैपिटल की एक रिसर्च बताती है कि अगर सब कुछ ठीक रहा तो सितंबर तक पहली खेप बाजार में जाएगी.

दवाओं के विकास में तेजी के बावजूद अंतिम इलाज तो वैक्सीन यानी टीका ही है, हालांकि वैक्सीन की सफलताओं का पिछला रिकॉर्ड कुछ असंतुलित है. करीब पंद्रह बीमारियों की वैक्सीन उपलब्ध हैं, जिनमें छोटी चेचक और पोलियो पर जीत वैक्सीन से ही मिली है. लेकिन एचआइवी, निपाह, हरपीज, सार्स, जीका जैसी बीमारियों पर वैक्सीन ने बहुत असर नहीं किया. वायरस जल्द ही अपनी चरित्र बदल (म्यूटेट) लेते हैं इसलिए वैक्सीन निष्प्रभावी हो जाती है.

अलबत्ता दवा उद्योग अभूतपूर्व ढंग से कोविड की वैक्सीन बनाने में जुटा है. डब्ल्यूएचओ की सूची के अनुसार दुनिया में 44 वैक्सीन एक साथ बन रही हैं. ब्लूमबर्ग के मुताबिक, अमेरिका की एक कंपनी ने तो जनवरी में कोरोना का जेनेटिक कोड मिलने के बाद मार्च में एक मरीज पर पहला परीक्षण भी कर लिया.

तेज विकास के लिए मॉडर्न और फाइजर सहित कई कंपनियां आरएनए तकनीक का इस्तेमाल कर रही हैं. यह तकनीक जोखि भरी है. बीमारी बढ़ा भी सकती है. दूसरे, वैक्सीन सफल ही हो, इसकी कोई गारंटी नहीं है लेकिन दवा कंपनियां जीत के प्रति आश्वस्त हैं. कोविड की वैक्सीन बनने में कम से कम डेढ़ साल का वक्त लगेगा. 

मुश्किल दवा या वैक्सीन बनाने तक सीमित नहीं है. बहुत बड़े पैमाने पर बहुत तेज उत्पादन भी चाहिए. पहली खुराकें डॉक्टरों, नर्सों को, दूसरी बच्चों महिलाओं को, फिर ज्यादा जोखि वाले लोगों को और सबको मिलेंगी. पूरी दुनिया को करोड़ों खुराकें चाहिए.

कोविड-19 अपने पूर्वजों (सार्स, एमईआरएस) की तुलना में कहीं ज्यादा संक्रामक है इसलिए वैक्सीन के अलावा विकल्प भी नहीं है. हर्ड इम्यूनाइजेशन यानी अधिकांश लोगों को वैक्सीन लगाकर ही इसे रोका जा सकता है. तीन महीने की तबाही के बाद यह तय हो चुका है जब तक वैक्सीन नहीं आएगी दुनिया की आवाजाही सामान्य नहीं होगी और ही विश्व को कोरोना मुक्त घोषि किया जा सकेगा. 

इसलिए दवा बनने तक बच कर रहिए और दम साध कर कोविड से फार्मास्यूटिकल उद्योग का यह रोमांचक मुकाबला देखिए. जीत के अलावा हमारे सामने कोई दूसरा विकल्प नहीं है.