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Saturday, September 14, 2019

मंदी के प्रायोजक



केंद्र और राज्य सरकारें हमें इस मंदी से निकाल सकती हैं ? जवाब इस सवाल में छिपा है कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और कई दूसरे राज्यों ने बिजली क्यों महंगी कर दी? जबकि मंदी के समय बिजली महंगी करने से न उत्‍पादन बढता है और न खपत.  
लेकिन राज्य करें क्या ? एनटीपीसी अब उन्हें उधार बिजली नहीं देगी. बकाया हुआ तो राज्यों की बैंक गारंटी भुना ली जाएगी. यहां तक कि केंद्र सरकार राज्यों को बिजली बकाये चुकाने के लिए कर्ज लेने से भी रोकने वाली है.

जॉन मेनार्ड केंज के दशकों पुराने मंतर के मुताबिक मंदी के दौरान सरकारों को घाटे की चिंता छोड़ कर खर्च बढ़ाना चाहिए. सरकार के खर्च की पूंछ पकड़ कर मांग बढ़ेगी और निजी निवेश आएगा.  लेकिन केंद्र और राज्यों के बजटों के जो ताजा आंकडे हमें मिले हैं वह बताते हैं कि इस मंदी से उबरने लंबा वक्त लग सकता है.

बीते  सप्ताह वित्त राज्‍य मंत्री अनुराग ठाकुर यह कहते सुने गए कि मांग बढ़े इसके लिए राज्यों को टैक्स कम करना चाहिए. तो क्या राज्य मंदी से लड़़ सकते हैं क्‍या प्रधानमंत्री मोदी की टीम इंडिया इस मंदी में उनकी मदद कर सकती है.

राज्य सरकारों के कुल खर्च और राजस्व में करीब 18 राज्य 91 फीसदी का हिस्सा रखते हैं. इस वित्‍तीय साल की पहली तिमाही जिसमें विकास दर ढह कर पांच  फीसदी पर  गई है उसके ढहने में सरकारी खजानों  की बदहाली की बड़ी भूमिका है.

- खर्च के आंकड़े खंगालने पर मंदी बढ़ने की वजह हाथ लगती है. इस तिमाही में राज्यों का खर्च पिछले तीन साल के औसत से भी कम बढ़ा. हर साल एक तिमाही में राज्यों का कुल व्यय करीब 15 फीसदी बढ़ रहा था. इसमें पूंजी या विकास खर्च मांग पैदा करता है लेकिन पांच फीसदी की ढलान वाली तिमाही में राज्यों का विकास खर्च 19 फीसदी कम हुआ. केवल चार फीसदी की बढ़त 2012 के बाद सबसे कमजोर है.

- केंद्र का विकास या पूंजी खर्च 2018-19 में जीडीपी के अनुपात में सात साल के न्यूनतम स्तर पर था मतलब यह  कि जब अर्थव्यवस्था को मदद चाहिए तब केंद्र और राज्यों ने हाथ सिकोड़ लिए. टैक्स तो बढ़े, पेट्रोल डीजल भी महंगा हुआ लेकिन मांग बढ़ाने वाला खर्च नहीं बढ़ा. तो फिर मंदी क्यों न आती.

- राज्यों के राजस्व में बढ़ोत्तरी की दर इस तिमाही में तेजी से गिरी. राज्यों का कुल राजस्व 2012 के बाद न्यूनतम स्तर पर हैं लेकिन नौ सालों में पहली बार किसी साल की पहली तिमाही में राज्यों का राजस्व संग्रह इस कदर गिरा है. केंद्र ने जीएसटी से नुकसान की भरपाई की गारंटी न दी होती तो मुसीबत हो जाती. 18 राज्यों में केवल झारखंड और कश्मीर का राजस्व बढ़ा है

केंद्र सरकार का राजस्व तो पहली तिमाही में केवल 4 फीसदी की दर से बढ़ा है जो 2015 से 2019 के बीच इसी दौरान 25 फीसदी की दर से बढ़ता था.

- खर्च पर कैंची के बावजूद इन राज्यों का घाटा तीन साल के सबसे ऊंचे स्तर पर है. आंकड़ो पर करीबी नजर से  पता चलता है कि 13 राज्यों के खजाने तो बेहद बुरी हालत में हैं. छत्तीसगढ़ और केरल की हालत ज्यादा ही पतली है. 18 में सात राज्य ऐसे हैं जिनके घाटे पिछले साल से ज्यादा हैं. इनमें गुजरात, आंध्र, कर्नाटक, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य हैं. इनके खर्च में कमी से मंदी और गहराई है.

केंद्र और राज्यों की हालत एक साथ देखने पर कुछ ऐसा होता दिख रहा है जो पिछले कई दशक में नहीं हुआ. साल की पहली तिमाही में केंद्र व राज्यों की कमाई एक फीसदी से भी कम रफ्तार से बढ़ी. जो पिछले तीन साल में 14 फीसदी की गति से बढ़ रही थी. इसलिए खर्च में रिकार्ड कमी हुई है.  

खजानों के आंकड़े बताते हैं कि मंदी 18 माह से है लेकिन सरकारों ने अपने कामकाज को बदल कर खर्च की दिशा ठीक नहीं की. विकास के नाम पर विकास का खर्च हुआ ही नहीं और मंदी आ धमकी. अब राजस्व में गिरावट और खर्च में कटौती का दुष्चक्र शुरु हो गया.  यही वजह है कि केंद्र सरकार को रिजर्व बैंक के रिजर्व में सेंध लगानी पड़ी. तमाम लानत मलामत के बावजूद सरकारें टैक्स कम करने या खर्च बढ़ाने की हालत में नहीं है.

तो क्या मंदी की एक बड़ी वजह सरकारी बजटों का कुप्रबंध है ! चुनावी झोंक में उड़ाया गया बजट अर्थव्यवस्था के किसी काम नहीं आया ! सरकारें पता नहीं कहां कहां खर्च करती रहीं और आय, बचत व खपत गिरती चली गई !

अब विकल्प सीमित हैं. प्रधानमंत्रीको मुख्यमंत्रियों के साथ मंदी पर साझा रणनीति बनानी चाहिए. खर्च के सही संयोजन के साथ प्रत्येक राज्य में कम से कम दो बड़ी परियोजनाओं पर काम शुरु कर के मांग का पहिया घुमाया जा सकता है 

लेकिन क्या सरकारें अपनी गलतियों से कभी सबक लेंगी ! या सारे सबक सिर्फ आम लोगों की किस्मत में लिखे गए हैं  !



Tuesday, February 10, 2015

अच्‍छे दिन 'दिखाने' की कला

पिछले दो-तीन वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था सचमुच गहरी मंदी का शिकार थी या हमारी पैमाइश ही गलत थीअथवा नई सरकार ने सत्ता में आने के बाद पैमाइश का तरीका बदल दिया ताकि तस्वीर को बेहतर दिखाया जा सके?
नीमत है कि भारत में आम लोग आंकड़ों को नहीं समझते. राजनीति में कुछ भी कह कर बच निकलना संभव है और झूठ व सच को आंकड़ों में कसना टीवी बहसों का हिस्सा नहीं बना है वरना, आर्थिक विकास दर (जीडीपी) की गणना के नए फॉर्मूले और उससे निकले आंकड़ों के बाद देश का राजनैतिक विमर्श ही बदल गया होता. प्रधानमंत्री अपनी रैलियों में यूपीए के दस साल को कोसते नहीं दिखते. सरकार, यह कहते ही सवालों में घिर जाती कि पंद्रह साल में कुछ नहीं बदला है. सरकार ने जीडीपी गणना के नए पैमाने से देश की इकोनॉमी का ताजा अतीत ही बदल दिया है. इन आंकड़ों के मुताबिक, भारत में पिछले दो साल मंदी व बेकारी के नहीं बल्कि शानदार ग्रोथ के थे. पिछले साल की विकास दर पांच फीसद से कम नहीं बल्कि सात फीसद के करीब थी. यानी कि मंदी और बेकारी के जिस माहौल ने लोकसभा चुनाव में बीजेपी की अभूतपूर्व जीत में केंद्रीय भूमिका निभाई थी वह, इन आंकड़ों के मुताबिक मौजूद ही नहीं था.
पिछले दो-तीन वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था सचमुच गहरी मंदी का शिकार थी या हमारी पैमाइश ही गलत थी? अथवा नई सरकार ने सत्ता में आने के बाद पैमाइश का तरीका बदल दिया ताकि तस्वीर को बेहतर दिखाया जा सके? दोनों ही सवाल दूरगामी हैं और आर्थिक व राजनैतिक रूप से दोहरे नुक्सान-फायदों से लैस हैं. आर्थिक हलकों में इन पर बहस शुरू हो चुकी है, जो दिल्ली चुनाव के बाद सियासत तक पहुंच जाएगी. जीडीपी की ग्रोथ किसी देश की तरक्की का बुनियादी पैमाना है जो निवेश के फैसले और सरकार की नीतियों की दिशा तय करता है. अगर जीडीपी के नए आकंड़े स्वीकृत होते हैं तो आने वाले बजट का परिप्रेक्ष्य ही बदल जाएगा.
भारत में सकल घरेलू उत्पादन (खेती, उद्योग, सेवा) की गणना फिलहाल बुनियादी लागत (बेसिक कॉस्ट) पर होती है यानी जो कीमत निर्माता या उत्पादक को मिलती है. नए फॉर्मूले में उत्पादन लागत का हिसाब लगाने में बेसिक कॉस्ट के साथ अप्रत्यक्ष कर भी शामिल होगा. सरकार ने यह आंकड़ा लागू करने के लिए 2011-12 की कीमतों को आधार बनाया और पांच लाख कंपनियों (पहले सिर्फ 2,500 कंपनियों का सैम्पल) से आंकड़े जुटाए, जिनके बाद 2013-14 में देश की इकोनॉमी 6.9 फीसदी की ऊंचाई पर चढ़ गई, जो पिछले आंकड़ों में 4.7 फीसद थी. वित्तीय वर्ष के बीचोबीच इस तरह के परिवर्तन ने गहरे राजनैतिक व आर्थिक असमंजस पैदा कर दिए हैं. 
भारत में पिछले तीन साल महंगाई, मंदी, बेकारी, ऊंची ब्याज दर, घटते उत्पादन और कंपनियों के खराब प्रदर्शन के थे. इन हालात में तेज ग्रोथ का कोई ताजा उदाहरण दुनिया में नहीं मिलता. नई सरकार का पहला पूर्ण बजट मंदी से जंग पर केंद्रित होने वाला था ताकि रोजगार बढ़ सकें. ब्याज दर घटाने की उम्मीदें भी इसी आकलन पर आधारित थीं. अलबत्ता जीडीपी के नए आंकड़ों के मुताबिक, ग्रोथ, रोजगार और कमाई पहले से बढ़ रही है इसलिए मोदी सरकार का पहला पूर्ण बजट सख्त वित्तीय अनुशासन और दस फीसदी ग्रोथ की तैयारी पर आधारित होना चाहिए न कि मंदी से उबरने के लिए उद्योगों को प्रोत्साहन और कमाई में कमी से परेशान आम लोगों को कर राहत देने पर. ऊहापोह इस कदर है कि रिजर्व बैंक ने इस नए पैमाने को ताजा मौद्रिक समीक्षा में शामिल नहीं किया. वित्त मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम भी अचरज में हैं.   
बीजेपी की लोकसभा विजय में कांग्रेसी राज की मंदी और बेकारी से उपजी निराशा की अहम भूमिका थी. बीजेपी को यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि इन आंकड़ों से यूपीए के दौर में आर्थिक प्रबंधन की बेहतर तस्वीर ही सामने नहीं आती है बल्कि यूपीए के पूरे शासनकाल में आर्थिक ग्रोथ का चेहरा खासा चमकदार हो जाता है, जिसे लेकर कांग्रेस खुद बेहद शर्मिंदा रही थी. इसके बावजूद पैमाने में बदलाव इसलिए स्वीकार किया गया है  क्योंकि ताजा आंकड़ों  में मोदी सरकार के नौ महीने भी शामिल हो जाते हैं, जिनमें चमकती ग्रोथ दिखाई जा सकती है. 
यदि वित्त मंत्री अरुण जेटली को अपनी सरकार के नौ माह को शानदार बताना है तो उन्हें अपने बजट भाषण की शुरुआत कुछ इसी तरह से करनी होगी कि, ''सभापति महोदय, मुझे बेहद प्रसन्नता है कि तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था ने पिछले साल यानी 2013-14 में शानदार ग्रोथ दर्ज की. दुनियाभर में छाई मंदी, भारी महंगाई, देश में ऊंची ब्याज दरों और मांग में कमी के बावजूद पिछले साल कमाई भी बढ़ी और रोजगार भी. इससे एक साल पहले भी स्थिति बहुत खराब नहीं रही थी.'' जाहिर है, इस भाषण में यूपीए के आर्थिक प्रबंधन की तारीफ भी छिपी होगी. और वित्त मंत्री यदि 'पिछले दस वर्षों में सब बर्बाद' की धारणा पर कायम रहते हैं तो फिर जीडीपी की गणना का नया फॉर्मूला ही खारिज हो जाएगा. आंकड़ों की बिल्ली थैले से बाहर आ चुकी है. एक बड़े ग्लोबल निवेशक का कहना था कि सरकार को बुनियादी आंकड़ों को लेकर साफ-सुथरा होना चाहिए. मंदी की जगह ग्रोथ के आंकड़ों के पीछे चाहे जो राजनीति हो लेकिन इससे अब चौतरफा भ्रम फैलेगा. हम अब तक इस बात पर मुतमईन थे कि भारत को मंदी से उबरने की कोशिश करनी है लेकिन अब तो यह भी तय नहीं है कि अर्थव्यवस्था मंदी में है या ग्रोथ दौड़ रही है. नए पैमाने के आधार पर जीडीपी का सबसे ताजा आंकड़ा दिल्ली चुनाव के नतीजे से ठीक एक दिन पहले आएगा जो भारत में आंकड़ों की गुणवत्ता व इनके राजनैतिक इस्तेमाल पर चीन जैसी बहस शुरू कर सकता है जो मोदी सरकार को असहज करेगी.

Monday, August 26, 2013

भरोसे का अवमूल्‍यन


 भारत की आर्थिक साख तो भारतीयों की निगाह में ही ढह रही है जो विदेशी मुद्रा बाजार में अफरा तफरी की अगुआई कर रहे हैं।

यह कमाई का सुनहरा मौका है। बचत को डॉलर में बदलकर बाहर लाइये। रुपये के और गिरने का इंतजार करिये। 70 रुपये का डॉलर होने पर मुनाफा कमाइये  भारत के नौदौलतियों के बीच विदेशी बैंकरों, ब्रोकरों और वेल्‍थ मैनेजरों के ऐसे ई मेल पिछले कुछ महीनों से तैर रहे हैं। भारतीय कंपनियां भी डॉलर देश से बाहर ले जाने ले जाने के हर संभव मौके का इस्‍तेमाल कर रही हैं। यकीनन भारत लै‍टिन अमेरिकी मुल्‍कों की तरह बनाना रिपब्लिक नहीं है लेकिन इस भगदड़ ने एक विशाल मुल्‍क को बेहद बोदा साबित कर दिया है। यह एक अनोखी असंगति है कि किस्‍म किस्‍म के आर्थिक दुष्चक्रों के बावजूद ग्‍लोबल रे‍टिंग एजेंसियों की निगाह में भारत की साख नहीं गिरी है। भारत की आर्थिक साख तो भारतीयों की निगाह में ही ढह रही है जो विदेशी मुद्रा बाजार में अफरा तफरी की अगुआई कर रहे हैं। इन्‍हे रोकने के लिए ही डॉलरों को विदेश ले जाने पर पाबंदियां लगाई गईं, जो मुसीबत को बढाने वाली साबित हुईं। इस बेचैनी ने भारत का एक ऐसा चेहरा उघाड़ दिया हैजिस पर अविश्‍वासअवसरवाद व आशंकाओं की छाया तैर रही है।
बहुतों को यह पचाने में मुश्किल हो रही है कि सात माह के विदेशी मुद्रा भंडार, ठीक ठाक सोना रिजर्व और अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष से मदद की संभावनाएं रहते हुए भारत को कैपिटल कंट्रोल क्‍यों लागू करने पड़े, जो बाजार के मनोविज्ञान पर खासे भारी पड़े। अभी तो विदेश में बांड जारी करने या अनिवासियों को डॉलर लाने के लिए प्रोत्‍साहन देने के कदम भी नहीं उठाये गए और डॉलर बाहर ले जाने पर पाबंदियां बढ़ा दी गईं,  जो अंतिम विकल्‍प होना चाहिए था। दरअसल भारत से  नए किस्‍म का पूंजी पलायन

Monday, September 24, 2012

सुधार, समय और सियासत


भारत में एक राजनेता था। आर्थिक नब्‍ज पर उसकी उंगलियां चुस्‍त थीं मगर सियासत और वक्‍त की नब्‍ज से हाथ अक्‍सर फिसल जाता था। 1991 में उसके पहले आर्थिक सुधारों को लेकर देश बहुत आगे निकल गया मगर उस की पार्टी कहीं पीछे छूट गई। बहुत कुछ गंवाने के बाद 2012 में जब दूसरे सुधारो का कौल लिया तो उसकी राजनीतिक ताकत छीज चुकी थी और जनता को इनके फायदे दिखाने का वकत नहीं बचा था। अफसोस! उस राजनेता के साहसी सुधार उसकी पार्टी की सियासत के काम कभी नहीं आए।... आज से एक दशक बाद जब इतिहास में आप यह पढ़ें तो समझियेगा कि डा. मनमोहन सिंह और कांग्रेस का जिक्र हो रहा है। आर्थिक सुधारों के डॉक्‍टर के  समय और सियासत के साथ सुधारों की केमिस्‍ट्री नहीं बना पाते। उनके सुधारों का लाभ उनके राजनीतिक विपक्ष को ही मिलता है।
संकट के सूत्रधार 
पैसों के पेड़ पर लगने का सवाल बड़ा मजेदार है। लेकिन इसे तो सरकार के राजनीतिक नेतृत्‍व से पूछा जाना चाहिए। यूपीए के नए राजनीतिक अर्थशास्‍त्र ने पिछले सात साल में राजकोषीय संतुलन का श्राद्ध कर दिया। इक्‍कीसवीं सदी का भारत जब तरक्‍की के शिखर पर था तब कांग्रेस का आर्थिक चिंतन आठवें दशक की कोठरी में घुस गया। देश की आर्थिक किस्‍मत साझा कार्यक्रमों और राष्ट्रीय सलाहकार परिषदों जैसी सुपर सरकारों ने तय की जिन्‍हें ग्रोथ और सुधार के नाम पर मानो ग्‍लानि महसूस

Monday, February 27, 2012

सूझ कोषीय घाटा

धाई! हमने अपने बजट की पुरानी मुसीबतों को फिर खोज लिया है। सब्सिडी का वही स्यापा, सरकारी स्कीमों के असफल होने का खानदानी मर्ज, खर्च बेहाथ होने का बहुदशकीय रोना और बेकाबू घाटे का ऐतिहासिक दुष्चक्र। लगता हैं कि हम घूम घाम कर वहीं आ गए हैं करीब बीस साल पहले जहां से चले थे। उदारीकरण के पूर्वज समाजवादी बजटों का दुखदायी अतीत जीवंत हो उठा है। हमें नास्टेल्जिक (अतीतजीवी) होकर इस पर गर्व करना चाहिए। इसके अलावा हम कर भी क्या कर सकते हैं। बजट के पास जब अच्छा राजस्व, राजनीतिक स्थिरता, आम लोगों की बचत, आर्थिक उत्पादन में निजी निवेश आदि सब कुछ था तब हमारे रहनुमा बजट की पुरानी बीमारियों से गाफिल हो गए इसलिए असंतुलित खर्च जस का तस रहा और जड़ो से कटीं व नतीजो में फेल सरकार स्कीमों में कोई नई सूझ नहीं आई । दरअसल हमने तो अपनी ग्रोथ के सबसे अच्छे वर्ष बर्बाद कर दिये और बजट का ढांचा बदलने के लिए कुछ भी नया नहीं किया। हमारे बजट का सूझ-कोषीय घाटा, इसके राजकोषीय घाटे से ज्यादा बड़ा है।
बजट स्कीम फैक्ट्री
बजट में हमेशा से कुछ बड़े और नायाब टैंक रहे हैं। हर नई सरकार इन टैंकों पर अपने राजनीतिक पुरखों के नाम का लेबल लगा कर ताजा पानी भर देती है। यह देखने की फुर्सत किसे है इन टैंकों की तली नदारद है। इन टंकियों को सरकार की स्कीमें कह सकते हैं। बजट में ग्रामीण गरीबी उन्मूलन व रोजगार, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल और ग्रामीण आवास को मिलाकर कुल पांच बड़ी टंकियों, माफ कीजिये, स्कीमों का कुनबा है। देश में जन कल्याण की हर स्कीम की तीन पीढिय़ा बदल गईं हैं मगर हर स्कीम असफलता व घोटाले में समाप्त हुई। गरीब उन्‍मूलन और ग्रामीण रोजगार स्कीमें तो असफल प्रयोगों का अद्भुत इतिहास

Monday, May 23, 2011

अब तो ग्रोथ पर बन आई

मुंबई में रिजर्व बैंक की छत से एक कौए ने ब्याज दरें बढ़ने के ऐलान के साथ महंगाई से डराने वाली प्रभाती सुनाई, तो दिल्ली में वित्त मंत्रालय की मुंडेर पर बैठे दूसरे कौए ने पेट्रो कीमतों में बढ़ोत्तडरी की हांक लगाते हुए कहा कि यह कैसी रही भाई? ... यह सुनकर स्टॉक एक्सचेंज की छत पर बैठा एक दिलजला कौआ चीखा, चुप करो अब तो ग्रोथ पर बन आई। यकीनन, अब भारत के तेज आर्थिक विकास पर बन आई है। महंगाई ने सात साल में कमाई गई सबसे कीमती पूंजी पर दांत गड़ा दिये हैं। तमाम संकटों के बावजूद टिकी रही हमारी चहेती ग्रोथ अब खतरे में है। रिजर्व बैंक कह चुका है कि महंगाई अब विकास को खायेगी। सरकार भी ग्रोथ बचाने के बजाय महंगाई बढ़ाने (पेट्रो मूल्य वृद्धि) में मुब्तिला है। ग्रोथ, बढ़ती कमाई और रोजगार के  सहारे ही पिछले तीन साल से महंगाई को झेल रहे थे लेकिन मगर हम महंगाई को अपनी तरक्की खाते देखेंगे। दहाई की (दस फीसदी) की विकास दर का ख्वाब चूर होने के करीब है।
हारने की रणनीति
हम दुनिया की सबसे ज्यादा महंगाई वाली अर्थव्यवस्थाओं में एक है और यह हाल के इतिहास का सबसे लंबी और जिद्दी महंगाई है। महंगाई के इन वर्षों में चुनाव न आते तो शायद सरकारें महंगाई से निचुडते आम लोगों को ठेंगे पर ही रखतीं। क्यों कि महंगाई से मुकाबला सियासत की गणित के तहत हुआ है। तभी तो बंगाल में वोट पड़ते पेट्रोल पांच रुपये बढ़ गया। बढ़ोत्तंरी अगर क्रमश: होती तो शायद दर्द कुछ कम रहता। पिछले तीन साल की महंगाई ने केंद्र के आर्थिक प्रबंधकों की दरिद्र दूरदर्शिता को उघाड़ दिया है। ताजा महंगाई ने हमें 2008-09 में पकड़ा था। याद कीजिये कि तब से प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, योजना आयोग के मुखिया, रिजर्व बैंक गवर्नर आदि ने कितनी बार यह नहीं कहा कि तीन माह में महंगाई काबू में होगी मगर तीन माह खत्म होने से पहले ही इन्हों ने अपनी बात वापस चबा कर निगल

Monday, December 27, 2010

भूल-चूक, लेनी-देनी

अर्थार्थ
शुक्र है कि हम सुर्खियों से दूर रहे। आर्थिक दुनिया ने दस के बरस में जैसी डरावनी सुर्खियां गढ़ी उनमें न आने का सुकून बहुत गहरा है। करम हमारे भी कोई बहुत अच्छेह नहीं थे। हमने इस साल सर ऊंचा करने वाली सुर्खियां नहीं बटोरीं लेकिन ग्रीस, आयरलैंड, अमेरिका के मुकाबले हम, घाव की तुलना में चिकोटी जैसे हैं। अलबत्ता इसमें इतराने जैसा भी कुछ नहीं है। वक्त, बड़ा काइयां महाजन है। उसके खाते कलेंडर बदलने से बंद नही हो जाते हैं बल्कि कभी कभी तो उसके परवाने सुकून की पुडि़या में बंध कर आते हैं। मंदी व संकटों से बचाते हुए वक्त हमें आज ऐसी हालत में ले आया है जहां गफलत में कुछ बड़ी नसीहतें नजरअंदाज हो सकती हैं। दस के बरस बरस का खाता बंद करते हुए अपनी भूल चूक के अंधेरों पर कुछ रोशनी डाल ली जाए क्यो कि वक्त की लेनी देनी कभी भी आ सकती है।
लागत का सूद
सबसे पहले प्योर इकोनॉमी की बात करें। भारत अब एक बढती लागत वाला मुल्क हो गया है। पिछले कुछ वर्षों की तेज आर्थिक विकास दर ने हमें श्रम (लेबर कॉस्ट) लागत को ऊपर ले जाने वाली लिफ्ट में चढ़ा दिया है। सस्ता श्रम ही तो भारत की सबसे बड़ी बढ़त थी। वैसे इसमें कुछ अचरज नहीं है क्यों कि विकसित होने वाली अर्थव्यरवस्थाओं में श्रम का मूल्यं बढ़ना लाजिमी है। अचरज तो यह है कि हमारे यहां लागत हर तरफ से बढ़

Monday, November 15, 2010

संकटों के नए संस्करण

अर्थार्थ
दुनिया की आर्थिक फैक्ट्रियों से संकटों के नए संस्करण फिर निकलने लगे हैं। ग्रीस के साथ ही यूरोप की कष्ट कथा का समापन नहीं हुआ था, अब आयरलैंड दीवालिया होने को बेताब है और इधर मदद करने वाले यूरोपीय तंत्र का धैर्य चुक रहा है। बैंकिंग संकट से दुनिया को निकालने के लिए हाथ मिलाने वाले विश्व के 20 दिग्गज संरक्षणवाद को लेकर एक दूसरे पर गुर्राने लगे हैं यानी कि बीस बड़ों की (जी-20) बैठक असफल होने के बाद करेंसी वार और पूंजी की आवाजाही पर पाबंदियों का नगाड़ा बज उठा है। सिर्फ यही नहीं, मंदी में दुनिया की भारी गाड़ी खींच रहे भारत, चीन, ब्राजील आदि का दम भी फूल रहा है। यहां वृद्धि की रफ्तार थमने लगी है और महंगाई के कांटे पैने हो रहे हैं। दुनिया के लिए यह समस्याओं की नई खेप है और चुनौतियों का यह नया दौर पिछले बुरे दिनों से ज्यादा जटिल, जिद्दी और बहुआयामी दिख रहा है। समाधानों का घोर टोटा तो पहले से ही है, तभी तो पिछले दो साल की मुश्किलों का कचरा आज भी दुनिया के आंगन में जमा है।

ट्रेजडी पार्ट टू
यूरोप के पिग्स (पुर्तगाल, आयरलैंड, ग्रीस, स्पेन) में दूसरा यानी आयरलैंड ढहने के करीब है। 1990 के दशक की तेज विकास दर वाला सेल्टिक टाइगर बूढ़ा होकर बैठ गया है और यूरोपीय समुदाय से लेकर आईएमएफ तक सब जगह उद्धार की गुहार लगा रहा है। डबलिन, दुबई जैसे रास्ते से गुजरते हुए यहां तक पहुंचा है। जमीन जायदाद के धंधे को कर्ज देकर सबसे बड़े आयरिश बैंक एंग्लो आयरिश और एलाइड आयरिश तबाह हो गए, जिसे बजट से 50 बिलियन यूरो की मदद देकर बचाया जा रहा है। आयरलैंड का घाटा जीडीपी का 32 फीसदी हो रहा है, सरकार के पास पैसा नहीं है और बाजार में साख रद्दी हो गई है। इसलिए बांडों को बेचने का इरादा छोड़ दिया गया है। आयरलैंड के लिए बैंकों को खड़ा करने की लागत 80 बिलियन यूरो तक जा सकती है। करदाताओं को निचोड़कर (भारी टैक्स और खर्च कटौती वाला बजट) यह लागत नहीं निकाली जा सकती। इसलिए ग्रीस की तर्ज पर यूरोपीय समुदाय की सहायता संस्था (यूरोपियन फाइनेंशियल स्टेबिलिटी फैसिलिटी) या आईएमएफ से मदद मिलने की उम्मीद है। लेकिन यह मदद उसे दीवालिया देशों की कतार में पहुंचा देगी। यूरोपीय समुदाय की दिक्कत यह है कि

Monday, August 2, 2010

मेहरबानी आपकी !

अर्थार्थ
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दस फीसदी की धार से छीलती महंगाई, महंगा होता कर्ज, अस्थिर खेती, सुस्त निवेश, चरमराता बुनियादी ढांचा और सौ जोखिम भरी वित्तीय दुनिया!!!! फिर भी अर्थव्यवस्था में आठ फीसदी से ऊपर की कुलांचें? ..कुछ भी तो माफिक नहीं है, मगर गाड़ी बेधड़क दौड़े चली जा रही है। किसे श्रेय देंगे आप इस करिश्मे का? ..कहीं दूर मत जाइए, अपना हाथ पीछे ले जाकर अपनी पीठ थपथपाइए!! यह सब आपकी मेहरबानी है। आप यानी भारतीय उपभोक्ता देश की अर्थव्यवस्था को पूरी दुनिया में सबसे पहले मंदी के गर्त से बाहर खींच लाए हैं। दाद देनी होगी हिम्मत की कि इतनी महंगाई के बावजूद हम खर्च कर रहे हैं और उद्योग चहक रहे हैं। यह बात दीगर है कि इस वीरता की कीमत कहीं और वसूल हो रही है। कमाई, उत्पादन और खर्च तीनों बढ़े हैं, लेकिन आम लोगों की बचत में वृद्धि पिछले तीन-चार साल से थम सी गई है। दरअसल खर्च नही, बल्कि शायद आपकी बचत महंगाई का शिकार बनी है।
खर्च का जादू
मंदी से दूभर दुनिया में भारत की अर्थव्यवस्था इतनी जल्दी पटरी पर लौटना हैरतअंगेज है। मांग का यह मौसम कौन लाया है? भारत तो चीन की तरह कोई बड़ा निर्यातक भी नहीं है। यहां तो निर्यात हमेशा से नकारात्मक अर्थात आयात से कम रहा है। दरअसल बाजार में ताजी मांग खालिस स्वदेशी है। माहौल बदलते ही भारत के उपभोक्ताओं ने अपने बटुए व क्रेडिट कार्ड निकाल लिये और आर्थिक विकास दर थिरकने लगी। इस साल जनवरी से मार्च के दौरान भारत में उपभोग फिर 4 से 4.5 फीसदी की गति दिखाने लगा है। खासतौर पर निजी उपभोग खर्च तो मार्च में 10.4 फीसदी पर आ गया है। इसी के बूते रिजर्व बैंक नौ फीसदी की आर्थिक विकास दर की उम्मीद बांध रहा है। करीब 36 फीसदी निर्धन आबादी के बावजूद भारत का 55-60 करोड़ आबादी वाला मध्य वर्ग इतना खर्च कर रहा है कि अर्थव्यवस्था आराम से दौड़ जाए। भारत के बाजार में 60 फीसदी मांग अब विशुद्ध रूप से खपत से निकलती है। पिछले कुछ वर्षो में आय व खर्च में वृद्धि तकरीबन बराबर हो गई है। बल्कि आर्थिक सर्वेक्षण तो बताता है कि हाल की मंदी से पहले के वर्ष (2008-09) में तो प्रति व्यक्ति खर्च, प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि से ज्यादा तेज दौड़ रहा था। अर्थातलोगों ने कर्ज के सहारे खर्च किया। वह दौर भी भारत में उपभोक्ता कर्जो में रिकार्ड वृद्घि का था। मैकेंजी ने एक ताजा अध्ययन में माना है कि अगले एक दशक में भारत का निजी उपभोग खर्च 1500 बिलियन डॉलर तक हो जाएगा। अर्थात खर्च का जादू जारी रहेगा।
खर्च से खुशहाल
पिछले कुछ महीनों के दौरान आए औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े दिलचस्प सूचनाएं बांट रहे हैं। भारत में उपभोक्ता उत्पादों के उत्पादन की वृद्धि दर जनवरी के तीन फीसदी से बढ़कर अप्रैल में 14.3 फीसदी हो गई। इसमें भी कंज्यूमर ड्यूरेबल्स यानी तमाम तरह के इलेक्ट्रानिक सामान आदि का उत्पादन 37 फीसदी की अचंभित करने वाली गति दिखा रहा है और सबूत दे रहा है कि बाजार में नई ग्राहकी आ पहुंची है। भारत में उपभोक्ता खर्च के कुछ हालिया (आर्थिक समीक्षा 2009-10) आंकड़े प्रमाण हैं कि उद्योग क्यों झूम रहे हैं। उपभोक्ताओं के कुल खर्च में परिवहन व संचार पर खर्च का हिस्सा पिछले कुछ वर्षो में 20 फीसदी पर पहुंच गया है। इसे आप सीधे आटोमोबाइल व संचार कंपनियों के यहां चल रहे त्यौहार से जोड़ सकते हैं। यात्रा करने पर खर्च बढ़ने की रफ्तार बीते चार वर्षो में पांच फीसदी से बढ़कर 12.3 फीसदी हो गई है। आटोमोबाइल बढ़ा तो ईधन पर खर्च भी उछल गया। मनोरंजन, चिकित्सा, शिक्षा और यहां तक कि फर्निशिंग जैसे उद्योग उपभोक्ताओं की कृपा से बाग-बाग हुए जा रहे हैं। खाने पर खर्च की वृद्धि दर घट गई है। मार्च में कुल निजी उपभोग खर्च 35.71 लाख करोड़ रुपये रहा है, लेकिन यह भारत मंं उपभोक्ता खर्च की आधी तस्वीर है। भारत के उपभोक्ताओं का बहुत बड़ा खर्च असंगठित खुदरा बाजार में होता है। देश के पूर्व सांख्यिकी प्रमुख प्रनब सेन ने हाल में कहा था कि देश के कुल कारोबार में संगठित खुदरा कारोबार का हिस्सा पांच-छह फीसदी ही है, इसलिए भारत में खपत को सही तरह से आंकना मुश्किल है।
खर्च का शिकार
भयानक महंगाई और फिर भी बढ़ता खर्च? ..उलटबांसी ही तो है, क्योंकि महंगाई तो खर्च को सिकोड़ देती है। भारत में इस संदर्भ में पूरा परिदृश्य बड़ा रोचक है। यहां महंगाई ने खर्च को नहीं बचत को सिकोड़ा है। भारत में उपभोक्तावाद का ताजा दौर 2004-05 के बाद शुरू हुआ था, जब अर्थव्यवस्था ने आठ-नौ फीसदी की रफ्तार दिखाई। उस समय महंगाई की दर चार फीसदी के आसपास थी। आय बढ़ी, बाजार बढ़ा, सस्ते कर्ज मिले तो उपभोक्ताओं ने बिंदास खर्च किया। आय व खर्च का स्वर्ण युग 2008-09 के अंत तक चला। इसी वक्त महंगाई और मंदी ने अपने नख दंत दिखाए, जिससे खपत कुछ धीमी पड़ गई, लेकिन शॉपिंग की नई संस्कृति तो तब तक जम चुकी थी। इसलिए जैसे ही छठवें वेतन आयोग का तोहफा मिला, सरकारी कर्मचारी झोला उठाकर बाजार में पहुंच गए। हालात सुधरते ही बढ़े वेतन के साथ निजी नौकरियों वाले भी शॉपिंग लिस्ट लेकर निकल पड़े। महंगाई ने खर्च के उत्साह को यकीनन तोड़ा है, लेकिन खर्च को नहीं। खर्च के इस मौसम में कुर्बान तो हुई है बचत। उपभोक्तावाद की ऋतु के आने के बाद से आम लोगों की बचत पिछले पांच साल से औसत 22-23 फीसदी (जीडीपी के अनुपात में) पर स्थिर है। वित्तीय बचत भी अर्से से 10-11 फीसदी पर घूम रही है।
इस गफलत में रहने की जरूरत नहीं कि महंगाई असर नहीं करती। महंगाई कम और कमजोर आय वालों का खर्च चाट गई तो मध्यम आय वर्ग की बचत उसके पेट में गई है। अलबत्ता खर्च का त्यौहार जारी है और इसलिए तमाम बाधाओं के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था ने मंदी की बाजी सबसे पहले पलट दी है। चीन की कामयाबी भारी निर्यात और निवेश से निकली है, मगर भारत खपत व उपभोग की गौरव गाथा लिख रहा है, नया निवेश भी इसी उपभोग का दामन पकड़ कर आ रहा है। ..सरकार तो उपभोक्ताओं को सलाम करने से रही, लेकिन कम से कम आप तो खुद को शाबासी दे ही लीजिए.. महंगाई से जूझते हुए आपने सचमुच करिश्मा किया है।
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Monday, June 28, 2010

तौबा, तेरा सुधार !!

अर्थार्थ
चास पार का पेट्रोल और चालीस पार का डीजल खरीदते हुए कैसा लग रहा है? सुधारों की पैकिंग में कांटो भरा तोहफा। पेट्रो उत्पादों के मामले में सरकारें हमेशा से ऐसा करती आई हैं। कीमतें बढ़ाते हुए हमें (सब्सिडी आंकड़ा दिखा कर) सब्सिडीखोर होने की शर्मिदगी से भर दिया जाता है। अंतरराष्ट्रीय कीमतों की रोशनी में तेल कंपनियों की बेचारगी देखकर हम मायूस हो जाते हैं। अंतत: सुधारों का तिलक लगा कर उपभोक्ता यूं बलिदान हो जाते हैं कि मानो कोई दूसरा जिम्मेदार ही न हो। यह सरकारों का आजमाया हुआ इमोशनल अत्याचार है। वैसे चाहें तो ताजा फैसले की रोशनी में इसे पेट्रो मूल्य प्रणाली में नया सुधार भी कह सकते हैं। मगर पेट्रो उत्पादों को दुगने तिगुने टैक्स से निचोड़ती राज्य सरकारों को कुछ मत कहिए। सब्सिडी का डीजल पी रहे जेनसेटों से घरों बाजारों को चमकने दीजिए, बिजली की कमी की शिकायत मत कीजिए। सार्वजनिक परिवहन की मांग मत करिए, क्या ऑटो कंपनियों की प्रगति से जलते हैं? यह सब सुधार के एजेंडे में नहीं आते हैं। ताजा सुधार तेल कंपनियों को सिर्फ पेट्रोल की कीमत तय करने की आजादी देता है। डीजल को लेकर रहस्य और केरोसिन व एलपीजी पर सब्सिडी कायम है। साथ ही सियासत के दखल का शाश्वत रास्ता भी खुला है, जिसके कारण पेट्रो मूल्य प्रणाली में सुधारों का इतिहास बुरी तरह दागदार रहा है।
मांग के बदले महंगाई
मांग तलाश रही अर्थव्यवस्था को सरकार ने महंगाई व ऊंची लागत थमा दी है। नीति निर्माता इस वित्त वर्ष की शुरुआत से ही महंगाई बनाम तेज विकास बनाम घाटे की तितरफा ऊहापोह में घिरे हैं। अब बारी बाजार व निवेशकों के भ्रमित होने की है। महंगे पेट्रो उत्पादों के बाद आने वाले महीनों में मांग बढ़ते रहने की कोई गारंटी नहीं है। अर्थव्यवस्था की हालिया चमक की मजबूती पर दांव लगाना अब जोखिम भरा है। आखिर मंदी से घायल व महंगाई से लदी अर्थव्यवस्था पेट्रो कीमतों की टंगड़ी फंसने के बाद कितना तेज चल पाएगी? बाजार को दिखने लगा है कि खेत से लेकर फैक्ट्री तक पहले से फैली महंगाई मांग को समूचा निगल जाएगी। कच्चे तेल की वायदा कीमतें आने वाले वक्त में पेट्रो उत्पाद और महंगे होने का वादा कर रही हैं। तभी तो रिजर्व बैंक ब्याज दरों में वृद्धि के कागज पत्तर संभालने लगा है। मुद्रास्फीति की आग पर उसे पानी डालना है। चीन के नए मौद्रिक दांव से अंतरराष्ट्रीय बाजार में जिंसों की कीमत बढ़ने वाली है। महंगा ईधन, महंगी पूंजी या कर्ज और महंगा कच्चा माल। महंगाई की मारी और मंदी से उबरती अर्थव्यवस्था को फिलहाल ऐसे सुधार की दरकार नहीं थी।
साफ सियासत, रहस्यमय फार्मूले

कल्पना कीजिए, बिहार (अक्टूबर 2010) या बंगाल (मई 2011) में चुनाव की अधिसूचना जारी हो चुकी है। तभी ईरान को अमेरिका अचानक परमाणु कार्यक्रम का नया पिन चुभो देता है या फिर इजरायल हाल के फ्लोटिला हमले जैसी कोई कारगुजारी कर बैठता है। दुनिया में तेल की कीमतें सातवें आसमान पर हैं, तब क्या होगा? सरकार तेल कंपनियों से कीमतें तय करने की आजादी तत्काल छीन लेगी। पेट्रो मूल्य प्रणाली के ताजा क्रांतिकारी सुधार में यह प्रावधान शामिल है। यही पेंच पेट्रो मूल्य ढांचे में सुधारों की साख को हमेशा से दागी करते हैं। 2002 में भी सरकार ने पेट्रो मूल्यों के नियंत्रण से तौबा की थी। बजट में ऐलान हुआ भी था लेकिन कीमतें सरकार की जकड़ से कभी आजाद नहीं हुई। बस केरोसिन व एलपीजी का घाटा तेल पूल खाते की जगह बजट में पहुंच गया। सुधारों के नए कार्यक्रम में भी सरकार के हस्तक्षेप की जगह और राजनीतिक ईधनों यानी डीजल, केरोसिन और एलपीजी की कीमतों में पुराना असमंजस बरकरार है। कीमतें कब कैसे कितनी बढ़ेंगी या सरकार कब किस मौके पर कैसे दखल देगी, इसके फार्मूले रहस्य के रवायती आवरण में हैं। ऐसी सूरत में सुधारों पर भरोसा जरा मुश्किल है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि सुधार की रोशनी राज्यों के टैक्स ढांचे तक नहीं पहुंचती जो पेट्रो उत्पादों की कीमत दोगुनी कर देते हैं। महंगी कारों में सस्ते ईधन के खेल, तेल कंपनियों की दक्षता, केरोसिन व डीजल की मिलावट के अर्थशास्त्र, संरक्षण की कोशिशों और वैकल्पिक ईधनों की जरूरत जैसे मुद्दों की तरफ भी सुधारों की नजर नहीं जाती। पेट्रो मूल्यों में सुधार का मतलब सियासत के हिसाब से कीमतों में कतर ब्योंत है बस। और इस पैमाने पर यह वक्त सबसे मुफीद था।
बाजार बदला, पैमाने नहीं
सरकार का सस्ता डीजल कहां खप रहा है? सबको पता है कि सस्ता केरोसिन देश में किस काम आता है? पिछले बीस साल में इस देश में ईधन की खपत का पूरा ढांचा बदल गया मगर सरकार के पैमाने नहीं बदले। बुनियादी ढांचे और बुनियादी सेवाओं में कई बुनियादी खामियों की कीमत पेट्रो उत्पाद चुकाते हैं। डीजल दुनिया के लिए ट्रांसपोर्ट फ्यूल है मगर भारत में यह एनर्जी फ्यूल भी है। आवासीय भवनों व शॉपिंग मॉल को रोशन करने वाले दैत्याकार किलोवाटी जनरेटर बिजली कमी से उपजे हैं। शहरों से लेकर गांवों तक अब जरूरत की तिहाई रोशनी डीजल से निकलती है। नए उद्योग सरकारी बिजली भरोसे नहीं बल्कि सस्ते डीजल की बिजली भरोसे आते हैं। पिछले चार साल में डीजल 30 से 40 रुपये प्रति लीटर हो गया लेकिन डीजल की मांग करीब नौ फीसदी सालाना की रिकार्ड दर से बढ़ रही है। देश के ज्यादातर शहर सार्वजनिक परिवहन के मामले में आदिम युग में हैं मगर ऑटो कंपनियां वक्त को पछाड़ रही हैं। कामकाजी आबादी से भरे शहर निजी वाहनों से अटे पड़े हैं और पेट्रोल की मांग 14 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है। बावजूद इसके पेट्रोल चार साल में 43 से 50 रुपये लीटर पर पहुंच गया। सस्ते डीजल और सस्ती बिजली दोनों की तोहमत खेती के नाम है लेकिन खेती में सिंचाई के फिर भी लाले हैं। दरअसल, बढ़ती अर्थव्यवस्था और कमाई ने बिजली, परिवहन सुविधाओं की कमी का इलाज सस्ते पेट्रो उत्पादों में खोज लिया है। इसलिए कीमत बढ़ने से मांग घटने का सिद्धांत यहां सिर के बल खड़ा है।
सरकार ठीक कहती है कि पेट्रो उत्पादों की महंगाई के मामले हम अभी सिंगापुर व थाईलैंड के करीब ही पहुंचे हैं। ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस तो बहुत आगे हैं। यह भी सच है कि अरब के कुओं, मैक्सिको की खाड़ी और नार्वे के समुद्र से निकला तेल कीमत के मामले में उपभोक्ताओं के बीच फर्क नहीं करता। लेकिन जरा ठहरिये.. सरकारें चाहें तो फर्क पैदा कर सकती हैं क्योंकि ईधन के मूल्य महंगाई, जनता की आय और अर्थव्यवस्था की स्थिति देखकर ही तय होते हैं। मगर यहां तो सियासत का फार्मूला सब पर भारी है। अब छोड़ भी दीजिये, महंगाई से राहत की उम्मीद का दामन। बेनियाज और बेफिक्र सरकार ने एक नया धारदार सुधार आप पर लाद दिया है। इसलिए .. जोर लगा के हईशा!

बेनियाजी हद से गुजरी, बंदा परवर कब तलक
हम कहेंगे हाले दिल और आप फरमायेंगे क्या
(गालिब )
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Monday, June 21, 2010

मांग के कंधे पर बैठी महंगाई

अर्थार्थ
कदम रुके थे, पैर में बंधा पत्थर तो जस का तस था। महंगाई गई कहां थी? अर्थव्यवस्था मंदी से निढाल होकर बैठ गई थी इसलिए महंगाई का बोझ बिसर गया था। कदम फिर बढ़े हैं तो महंगाई टांग खींचने लगी है। मुद्रास्फीति का प्रेत नई ताकत जुटा कर लौट आया है। मंदी के छोटे से ब्रेक के बीच महंगाई और जिद्दी, जटिल व व्यापक हो गई है। यह खेत व मंडियों से निकल कर फैक्ट्री व मॉल्स तक फैल गई है। मानसून का टोटका इस पर असर नहीं करता। gमौद्रिक जोड़ जुगत इसके सामने बेमानी है। महंगाई ने मांग में बढ़ोतरी से ताकत लेना सीख लिया है। तेज आर्थिक विकास अब इसे कंधे पर उठाए घूमता है। भारत में आर्थिक मंदी का अंधेरा छंट रहा है। उत्पादन के आंकड़े अच्छी खबरें ला रहे हैं लेकिन नामुराद महंगाई इस उजाले को दागदार बनाने के लिए फिर तैयार है।
लंबे हाथ और पैने दांत
महंगाई अब खेत खलिहान से निकलने वाले खाद्य उत्पादों की बपौती नहीं रही। बीते छह माह में यह उद्योगों तक फैल गई है यानी आर्थिक जबान में जनरलाइज्ड इन्फलेशन। महंगाई मौसमी मेहमान वाली भूमिका छोड़कर घर जमाई वाली भूमिका में आ गई है। उत्पादन का हर क्षेत्र इसके असर में है। कुछ ताजे आंकड़ों की रोशनी में महंगाई के इस नए चेहरे को पहचाना जा सकता है। पिछले साल दिसंबर तक भारत में महंगाई खाद्य उत्पादों की टोकरी तक सीमित थी। गैर खाद्य उत्पाद महज दो ढाई फीसदी की मुद्रास्फीति दिखा रहे थे लेकिन अब सूरत बदल गई है। गैर खाद्य और गैर ईधन (पेट्रोल डीजल) उत्पादों में भी मुद्रास्फीति 8 फीसदी से ऊपर निकल गई है। खाद्य उत्पादों में तो पहले से 11-12 फीसदी की मुद्रास्फीति है। खासतौर पर लोहा व स्टील, कपड़ा, रसायन व लकड़ी उत्पाद के वर्गो में कीमतों में अभूतपूर्व उछाल आया है। यह सभी क्षेत्र कई उद्योगों को कच्चा माल देते हैं इसलिए महंगाई का इन्फेक्शन फैलना तय है। यह महंगाई का नया व जिद्दी चरित्र है। बजट में कर रियायतें वापस हुई तो कीमतें बढ़ाने को तैयार बैठे उद्योगों को बहाना मिल गया। महंगाई का फैक्ट्रियों (मैन्यूफैक्चर्ड उत्पादों) में घर बनाना बेहद खतरनाक है। तभी तो रिजर्व बैंक भी मुद्रास्फीति के बढ़ने को लेकर मुतमइन है। बाजार मान रहा है कि थोक कीमतों वाली महंगाई दहाई के अंकों का चोला फिर पहन सकती है, फुटकर कीमतों की मुद्रास्फीति तो पहले से ही दहाई में हैं। मैन्यूफैक्चर्ड और खाद्य उत्पादों की कीमतें साथ-साथ बढ़ने का मतलब है कि महंगाई के हाथ लंबे और दांत पैने हो गए हैं।
इलाज नहीं खुराक
महंगाई अब मांग के पंखों पर सवारी कर रही है। याद करें कि दो साल पहले 2007-08 की तीसरी तिमाही में जब मुद्रास्फीति ने अपना आमद दर्ज की थी तब भी भारत में आर्थिक विकास दर तेज थी और महंगाई बढ़ने की वजह मांग का बढ़ना बताया गया था। बात घूम कर फिर वहीं आ पहुंची है। आर्थिक वृद्घि का तेज घूमता पहिया महंगाई को उछालने लगा है जबकि आपूर्ति के सहारे महंगाई घटाने की गणित फेल हो गई है। अंतरराष्ट्रीय कारकों के मत्थे तोहमत मढ़ना भी अब नाइंसाफी है। ताजी मंदी के बाद से पिछले कुछ माह में पूरे विश्व के बाजारों में जिंसों यानी कमोडिटीज की कीमतें गिरी हैं लेकिन भारत में कीमतें बढ़ रही हैं। माना कि पिछली खरीफ को सूखा निगल गया था लेकिन रबी तो अच्छी गई। रबी में गेहूं की पैदावार 2009 के रिकॉर्ड उत्पादन 80.68 मिलियन टन से ज्यादा करीब 81 मिलियन टन रही। सरकार ने कहा कि इससे खरीफ का घाटा पूरा हो गया है मगर महंगाई वैसे ही नोचती रही। अंतत: सरकार ने पैंतरा बदला और अब खरीफ पर उम्मीदें टिका दीं। मानसून का आसरा देखा जाने लगा है। दरअसल आर्थिक विकास के पलटी खाते ही मांग बढ़ी है जिसने पूरा गणित उलट दिया। आपूर्ति बढ़ने से महंगाई कुछ हिचकती इससे पहले उसे मांग ने नए सिरे से उकसा दिया है।
सारे तीर अंधेरे में

महंगाई को लेकर सरकार और रिजर्व बैंक के सारे तीर दरअसल अंधेरे में चलते रहे हैं इसलिए महंगाई का इलाज करने के जिम्मेदार भी अब अटकल और अंदाज के सहारे हैं। आंकड़ों में अगर कमी दिखी तो सरकार ने भी ताली बजाई और अगर आंकड़े ने कीमतें बढ़ती बताईं तो सरकार ने भी चिंता की मुद्रा बनाई। सरकार के ं महंगाई नियंत्रण कार्यक्रम में अगला टारगेट दिसंबर है और मानसून ताजा बहाना है। हालांकि अच्छी खरीफ महंगाई का इलाज शायद ही करे। दरअसल पिछले चार फसली मौसमों से जारी महंगाई ने कृषि उपज के बाजार में मूल्य वृद्घि की नींव खोद कर जमा दिया है। खरीफ का समर्थन मूल्य बढ़ाना सियासी मजबूरी थी इसलिए खरीफ में पैदावार के महंगे होने का माहौल पहले से तैयार है। इधर अर्थव्यवस्था में आमतौर पर मांग बढ़ने के साथ ही रबी की बेहतर फसल ने ग्रामीण क्षेत्र में भी उपभोग खर्च बढ़ा दिया है। तभी तो रबी की फसल आते ही उपभोक्ता उत्पादों व दोपहिया वाहनों का बाजार अचानक झूम उठा है। यानी कि अगर बादल कायदे से बरसे तो भी खरीफ की अच्छी फसल महंगाई को डरा नहीं सकेगी। इसके बाद बचती है रिजर्व बैंक की मौद्रिक कीमियागिरी। तो इस मोर्चे पर दिलचस्प उलझने हैं। मंदी से उबरती अर्थव्यवस्था को सस्ते कर्ज का प्रोत्साहन चाहिए और सरकारी उपक्रमों व निजी कंपनियों की ताजी इक्विटी खरीदने के लिए बाजार को भरपूर पैसा चाहिए। इधर यूरोप के बाजारों से जले निवेशक डॉलर यूरो लेकर भारत की तरफ दौड़ रहे हैं। उनके डॉलर आएंगे तो बदले में रुपया बाजार में जाएगा। इसलिए रिजर्व बैंक गवर्नर सुब्बाराव का इशारा समझिये। वह बाजार और उद्योग की नहीं सुनने वाले। उन्हें मालूम है कि बाजार में इस समय पैसा बढ़ाना महंगाई को लाल कपड़ा दिखाना है। अर्थात कर्ज महंगा होकर रहेगा और महंगा कर्ज उद्योगों की लागत बढ़ाकर महंगाई के नाखून और धारदार करेगा।
भारत की अर्थव्यवस्था ने मंदी की मारी दुनिया में सबसे पहले विकास की अंगड़ाई ली है। अर्थव्यवस्था में कई मोर्चो पर सुखद रोशनी फूट पड़ी है। आर्थिक उत्पादन के ताजे आंकड़े उत्साह भर रहे हैं तो सरकारी घाटे को कम करने के सभी दांव (थ्रीजी व ब्रॉडबैंड स्पेक्ट्रम की बिक्री और विनिवेश) भी बिल्कुल सही पड़े हैं। रबी के मौसम में खेतों से भी अच्छे समाचार आए हैं और मानसून आशा बंधा रहा है। लेकिन महंगाई इस पूरे उत्सव में विघ्न डालने को तैयार है। और जिस अर्थव्यवस्था में महंगाई मेहमान की जगह मेजबान यानी कि मौसमी की जगह स्थायी हो जाए वहां कोई भी उजाला टिकाऊ नहीं हो सकता। क्योंकि महंगाई का अंधेरा अंतत: हर रोशनी को निगल जाता है।

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Monday, January 11, 2010

चुनौतियों की चकरी

इस होम में हाथ तो जलने ही थे। अलबत्ता होम तो हो गया, और सुनते हैं कि मंदी का अनिष्ट भी कुछ हद तक टल गया है लेकिन अब बारी हाथों की जलन तो रहेगी। अगर देश की अर्थव्यवस्था से कुछ वास्ता रखते हैं तो बस एक पखवाड़े के भीतर सरकारी घाटे और ऊंची ब्याज दरों की अप्रिय खबरें आपकी महंगी सुबह कसैली करने लगेंगी। बजट की उलटी गिनती और घाटे की सीधी गिनती शुरु हो चुकी है। मंदी की इलाज में सरकार ने खुद को बुरी तरह बीमार कर लिया है। राजकोषीय घाटा पिछले सत्रह साल के सबसे ऊंचे और विस्मयकारी स्तर पर है। महंगाई जी भरकर मार रही है। बाजार में मुद्रा के छोड़ने वाला पाइप अब संकरा होने वाला है अर्थात ब्याज दरें ऊपर जाएंगी। हम आप तो भले ही कर्ज न लें लेकिन सरकार तो कर्ज बिना एक कदम नहीं चल पाएगी। यानी ऊंचा घाटा, ज्यादा कर्ज, महंगाई, सख्त मौद्रिक नीति और ऊंचा ब्याज.. राजकोषीय चुनौतियों की चकरी धुरे पर बैठ गई है। इस दुष्चक्र की मार हमेशा से मीठी और लंबी होती है। मुसीबत का यह पहिया पहले भी घूमता रहा है लेकिन तब से अब में सबसे बड़ा फर्क यह है कि मंदी से उबरने की कोशिशों कायदे से शुरु हो पातीं इससे पहल ही यह दुष्चक्र शुरु हो गया है और वह भी उस वक्त जब नया वित्त वर्ष, केंद्र सरकार सामने पुराने कर्जो की भारी देनदारी का तकाजा खोलने वाला है।
वित्तीय अनुशासन का शीर्षासन
इस साल फरवरी में आने वाला बजट पिछले कुछ दशकों के सबसे अभूतपूर्व राजकोषीय घाटे वाला बजट हो तो चौंकियेगा नहीं। सरकार के आधिकारिक आंकड़ों में राजकोषीय और राजस्व घाटा, जीडीपी के अनुपात मे क्रमश: सात और पांच फीसदी, सत्रह साल के सबसे के सबसे ऊंचे स्तरों पर है। दरअसल दुनिया जब तक मंदी से निबटने की रणनीति बनाती भारत सरकार सांता क्लॉज बन कर वित्तीय रियायतों बांटने निकल पड़ी। चुनाव सामने था और सरकार मंदी को प्रोत्साहन के सहारे तमाम ऐसे खर्चे सब्सिडी और वेतन आयोग की सिफारिशों पर खर्च, ढकने थे जिन पर आम दिनों में वित्तीय सवाल उठ सकते थे। प्रोत्साहन पैकेज से मंदी से कितनी दूर हुई इस पर चर्चा फिर कभी लेकिन खजाना विकलांग हो गया है। उत्पादन व मांग घटने के कारण राजस्व घटा और इधर जुलाई में सरकार ने अब तक का सबसे बड़ा कर्ज , 4,50,000 करोड़ रुपये, कार्यक्रम घोषित किया। ताकि दस लाख करोड़ के खर्च का बजटीय गुब्बारे में हवा भरी जा सके। अचरज नहीं कि मार्च के अंत तक कर्ज इससे भी ऊपर चला जाए क्यों कि लिब्रहान आदि पर बहसों के बीच बीते माह सरकार ने संसद से अपने बढ़े खर्च का बिल पास करा लिया। और राजस्व की हालत पतली है। अगला साल खर्च में कोई रियायत देने नहीं जा रहा क्यों कि सब्सिडी, नरेगा आदि के मुंह पहले से बड़े हो गए हैं। वित्त आयोग की सिफारिशों के बाद राज्यों को करों में पहले से ज्यादा हिस्सा देना होगा। पूरी तरह बेहाथ हो चुके घाटे को भरने के लिए अगले वित्त वर्ष में सरकार बाजार से कितना कर्ज उठायेगी, अंदाज मुश्किल है। अब डरिये कि घाटे को देख अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत की साख यानी रेटिंग न घट जाए।
मुंबई वाली मदद
आइये अब मुंबई वाले सूरमा को देखते हैं यानी रिजर्व बैंक जो कि चुनौतियों की इस चकरी को अपनी तरह से रफ्तार देने वाला है। प्रणव बाबू अब रिजर्व बैंक से यह उम्मीद तो नहीं कर सकते कि वह बाजार में घड़े में पानी भरता रहेगा ताकि सरकार को कर्ज मिल सके। रिजर्व बैंक को जो महंगाई दिख रही है वही प्रणव मुखर्जी की भी निगाहों के सामने है। भले ही यह महंगाई मौद्रिक नहीं बल्कि आर्थिक दुर्नीतियों का नतीजा हो लेकिन रिजर्व बैंक की किताब में महंगाई और मौद्रिक उदारता के बीच छत्तीस का फार्मूला है। इसलिए बजट से पहले ही मौद्रिक सख्ती शुरु हो जाएगी और साथ ही बढ़ने लगेंगी ब्याज दरें। महंगाई के बीच अगर ब्याज दरें भी बढ़ गई तो उद्योगों की पार्टी तो खत्म समझिये। एक तो महंगाई ने लोगों की क्रय शक्ति लूट ली ऊपर से अब कर्ज के सहारे ग्राहकी निकलने की उम्मीद भी खत्म क्यों कि महंगा कर्ज लेकर कौन खर्च करेगा? सरकार के लिए मुश्किलें दोहरी हैं। यह माहौल उत्पादन को हतोत्साहित करता है जिससे राजस्व में कमी आती है और दूसरी तरफ खर्च कम करने की कोई गुंजायश नहीं है।
तकाजे का वक्त
मुसीबतों के इस पहिये का सबसे चुनौती भरा मोड़ यह है कि सरकारी खजाने के लिए बेहद कठिन दशक इसी साल से शुरु हो रहा है। बीते सालों के सरकार ने जो जमकर कर्ज जुटाये थे उनकी भारी देनदारी 2010-11 से शुरु हो रही है। सरकारी ट्रेजरी बिलों के संदर्भ में रिजर्व बैंक का आंकड़ा बताता है कि इस साल सरकार को करीब 1,12,000 करोड़ रुपये का कर्ज चुकाना है। जो कि मौजूदा साल में महज 27000 करोड़ रुपये था। यह भारी तकाजे अगले एक दशक तक चलेगा और हर साल सरकार की देनदारी 70,000 करोड़ रुपये से ऊपर होगी। 2014-15 में तो इसके 1,75,000 करोड़ रुपये तक जाने का आकलन है। इधर ब्याज दर बढ़ने से ब्याज की देनदारी बढ़ेगी से अलग से। मौजूदा साल में खजाना 2,25,000 करोड रुपये का ब्याज दे रहा है यह रकम मौजूदा साल में सरकार को इनकम टैक्स से मिलने वाले राजस्व की दोगुनी और कुल कर राजस्व की लगभग आधी है। ब्याज देनदारी में बढ़ोत्तरी के पिछले आंकड़ों के आधार अगले साल यह तीन लाख करोड़ रुपये आसपास हो सकता । जाहिर इसे चुकाने के लिए सरकार को नया कर्ज चाहिए। इस पर चर्चा फिर कभी करेंगे कि क्या यह घरेलू ऋण संकट की शुरुआत है? लेकिन यह आंकड़ा जरुर जहन में रखना चाहिए कि जीडीपी के अनुपात में घरेलू कर्ज 60 फीसदी पर पहुंच गया है। दुनिया के कुछ मुल्कों के ताजे दीवालियेपन से डरे दुनिया के निवेशकों को डराने के लिए अब हमारे पास बहुत कुछ है।
बाड़ ने खेत को कितना बचाया तो यह बाद में पता चलेगा लेकिन मंदी रोकने की बाड़ राजकोष के खेत का बड़ा हिस्सा चट जरुर कर गई है। आर्थिक चुनौतियों का यह चरित्र है कि इसमें तात्कालिक उपाय अक्सर दूरगामी समस्या बन जाते हैं। जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल ने बीते सप्ताह कहा है कि वित्तीय संकट अभी टला नहीं है बल्कि नए सिरे से आ रहा है। यकीनन उनका इशारा अब उस संकट की तरफ है जो बैंकों की बैलेंस शीट और निवेशकों के खातों से निकल कर सरकारी खजानों के हिसाब किताब में बैठ गया है। भारत भी इसी नाव में सवार है और हम व आप भी इसी नौका के यात्री हैं। बजट का इंतजार बेशक करिये मगर बहुत उम्मीद के साथ नहीं क्यों चुनौतियों का पहिया थमते-थमते ही थमेगा।

Tuesday, January 5, 2010

बस इतना सा ख्वाेब है

नया साल बहत्तर घंटे बूढ़ा हो चुका है, यानी कि उम्मीदों का टोकरा उतारने में अब कोई हर्ज नहीं हैं। कामनायें और आशायें सर माथे. लेकिन हमारी बात तो अनिवार्यताओं, अपरिहार्यताओं और आकस्मिकताओं से जुड़ी है। यह चर्चा उन उपायों की है जिनके बिना नए साल में काम नहीं चलने वाला, क्यों कि कई क्षेत्रों में समस्यायें, संकट में बदल रही हैं। अगले साल की सुहानी उम्मीदों पर चर्चा फिर करेंगे पहले तो सुरक्षित, शांत और संकट मुक्त रहने के लिए इन उलझनों को सुलझाना जरुरी है। .. दरअसल यह 'दस के बरस' का संकटमोचन या आपत्ति निवारण एजेंडा है। कभी, ताकि सुरक्षा, शांति और संकटों से मुक्ति सुनिश्चित हो सके।

तो खायेंगे क्या ?

कभी आपने कल्पना भी की थी कि आपको सौ रुपये किलो की दाल खानी पड़ेगी। यानी कि उस खाद्य तेल से भी महंगी, जो गरीब की थाली में अब तक सबसे महंगा होता था। भूल जाइये गरीबी हटाने को दावों और हिसाबों को। यह महंगाई गरीबी कम करने के पिछले सभी फायदे चाट चुकी है। खाद्य उत्पादों की महंगाई गरीबी की सबसे बड़ी दोस्त है। दरअसल खेती का पूरा सॉफ्टवेर ही खराब हो गया है। इसका कोड नए सिरे से लिखने की जरुरत है और वह भी युद्धस्तर पर। अगर सरकार को कुछ रोककर भी खेती की सूरत बदलनी पड़े तो कोई हर्ज नहीं है। किसान के सहारे वोटों की खेती तो होती रहेगी लेकिन अगर खेतों में उपज न बढ़ी तो देश की आबादी खाद्य इमर्जेसी की तरफ बढ़ रही है। दस का बरस खाद्य संकट का बरस हो सकता है। एक अरब से ज्यादा लोगों को अगर सही कीमत पर रोटी न मिली तो सब बेकार हो जाएगा।

शहर फट जाएंगे

आपको मालूम है कि इस साल करीब आधा दर्जन नई छोटी कारें भारतीय बाजार में आने वाली हैं। मगर कोई बता सकता है कि वह चलेंगी कहां? शहर फूलकर फटने वाले हैं। पिछले दो दशकों के उदारीकरण ने शहरों को रेलवे प्लेटफार्म बना दिया है। सरकारें गांवों की तरफ देखने का नाटक करती रही और गांव के गांव आकर शहरों में धंस गए। सूरत सुधारने के लिए हर शहर में राष्ट्रमंडल खेल तो हो नहीं सकते लेकिन हर शहर को ढहने से बचने का रास्ता जरुर चाहिए। आबादी के प्रवास से लेकर, शहरी ढांचे की बदहाली व बीमार आबोहवा तक और कानून व्यवस्था की दिक्कतों से लेकर बिजली पानी की जरुरतों तक, शहरों का ताना बाना हर जगह खिंचकर फट रहा है। सिर्फ दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बंगलौर ही देश नहीं है। कानपुर, पटना, नासिक, इंदौर, लुधियाना भी देश में ही है। बरेली, जलगांव, भागलपुर, पानीपत भी उतने ही बेहाल हैं। दस का बरस शहरों के लिए नई और बड़ी दिक्कतों का है।

हवा में है खतरा

मतलब पर्यावरण से कतई नहीं है। बात विमानन क्षेत्र की है। अगर हवाई यात्रा करते हों इस साल बहुत संभल कर चलने की जरुरत है। देश का उड्डयन ढांचा चरमरा गया है। पिछले बरस लगभग हर माह कोई बड़ा हादसा हुआ है या होते-होते बचा है। हेलीकॉप्टर गिर रहे हैं, जहाज जमीन पर रनवे छोड़ कर गड्ढों में उतर रहे हैं, पायलट नशे में डूब कर सैकड़ो जिंदगियों के साथ एडवेंचर कर रहे हैं। जहाजों की तकनीकी खराबियां खौफ पैदा करने लगी हैं। विमानों को ऊपर वाला ही मेंटेन कर रहा है। दरअसल पूरा विमानन क्षेत्र एक गंभीर किस्म के खतरे में है और वह भी उस समय जब कि देश में विमान यात्रियों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है और नए हवाई मार्ग खुले हैं। विमानन सेवाओं को सुधारने के लिए पता नहीं किस अनहोनी का इंतजार है। दस के बरस में यहां संकट बढ़ सकता है।

इंसाफ का तकाजा

आर्थिक स्तंभ में न्यायिक सुधारों की चर्चा पर चौंकिये मत? दुनिया में कोई अर्थव्यवस्था चाहे कितनी समृद्ध क्यों न हो, कानून के राज के बिना नहीं चलती। जहां सरकार के मंत्री अदालतों की निष्क्रियता और दागी साख को अराजकता बढ़ने की वजह बता रहे हो वहां कौन निवेशक अदालतों पर भरोसा करेगा। मुश्किल नहीं है यह समझना जिन इलाकों व राज्यों में न्याय और कानून व्यवस्था ठीक है वहां निवेशक अपने आप चले आते हैं। न्यायिक तंत्र में सुधार इसलिए जरुरी है क्यों कि यह लोकतंत्र के अन्य हिस्सों को जल्दी सुधार सकता है। वक्त का तकाजा है कि इंसाफ करने वाला पूरा तंत्र सुधारा जाए और वह भी बहुत तेजी से। यह सिर्फ लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए अनिवार्य नहीं है बल्कि आर्थिक प्रगति के लिए भी अपरिहार्य है। .. नया साल अदालतों से बहुत से सवाल करने वाला है।

बस एक पहचान

आखिर इस देश के सभी लोगों को एक पहचान पत्र देने के लिए कितने कर्मचारी और कितना पैसा चाहिए? लाखों बाबुओं की फौज और लाखों करोड़ के बजट वाला यह देश अगर चाहे तो एक या दो साल में पूरी परियोजना लागू नहीं कर सकता? मामला पैसे या संसाधनों का नहीं है, करने की जिद का है। अगर आतंकी हमले न हुए होते तो शायद नागरिक पहचान पत्र को लेकर कोई गंभीर नहीं होता। लेकिन वह संजीदगी भी किस काम की, जो वक्त पर नतीजे न दे सके। सुरक्षा संबंधी चाक चौबंदगी के लिए ही नहीं बल्कि लोगों को एक आधुनिक और वैधानिक पहचान भी चाहिए ताकि वह सरकारी सेवाओं तक और सरकारी सेवायें उन तक पहुंच सकें। यह परियोजना सरकार की इच्छा शक्ति की सबसे बड़ी परीक्षा है। इसमें देरी का नतीजा सिर्फ नुकसान है। दिसंबर में पूछेंगे कि हमें आपको पहचान देने की यह मुहिम फाइलों से कितना बाहर निकली?

नए साल में इस खुरदरे और अटपटे एजेंडे के लिए माफ करियेगा। हम जानते हैं कि यह नूतन वर्ष की रवायती शुभकामनाओं के माफिक नहीं है लेकिन यह हम सबकी उलझनों के माफिक जरुर है जो नए साल की पहली सुबह से ही हमें घेर कर बैठ गई हैं। तो नए साल में सिर्फ इतनी सी ख्वाहिश है कि सुधार अगरचे धीमे हों लेकिन संकटों के इलाज में सरकारें जल्दी दिखायेंगी। यह उम्मीद भी हमने सिर्फ इसलिए की है क्यों कि उम्मीद पर ही तो दुनिया कायम है। इसके बाद इंतजार के अलावा और क्या हो akataa है। ..तुम आए हो, न शबे इंतजार गुजरी है , तलाश में है सहर, बार-बार गुजरी है। (फैज)

Monday, December 28, 2009

बोया पेड़ बबूल का..

पच्चीस रुपये किलो का आलू और चालीस रुपये किलो की चीनी खरीदते हुए किसे कोस रहे हैं आप? बेहतर होगा कि खुद को कोसिए! पहले तो इस बात पर कि आप उपभोक्ता हैं और दुनिया में सरकारें बहुसंख्य उपभोक्ताओं के बजाय मुट्ठी भर उत्पादकों की ज्यादा सुनती हैं और दूसरी बात यह कि आपने ही सरकार को वह 'बहुमद' दिया है, जिसमें मस्त नेताओं के लिए महंगाई अब मुद्दा ही नहीं (नान इश्यू) है। दरअसल हम वक्त पर कभी सही सवाल करते ही नहीं। ..आपने अपने नेता से आखिरी बार कब यह पूछा था कि देश में पिछले चालीस वर्षो में फसलों का रकबा क्यों नहीं बढ़ा, जबकि खाने वाले पेट दोगुने हो गए? या चीन पिछले एक दशक में खेती में नौ फीसदी की विकास दर के साथ कृषि उत्पादों का बड़ानिर्यातक कैसे बन गया और भारत शुद्ध आयातक में कैसे बदल गया? याद कीजिए कि कब और किस चुनाव में उठा था यह सवाल कि भारत में पिछले एक दशक में हर आदमी को कम अनाज (प्रति व्यक्ति अनाज उपलब्धता) क्यों मिलने लगा जबकि कमाई बढ़ गई है? या गरीब बांग्लादेश और रेगिस्तानी इजिप्ट (मिस्त्र) के खेत भारत से ज्यादा अनाज क्यों देते हैं? ..यकीन मानिए, आपको छेद रही महंगाई की बर्छियां इन्हीं सवालों से निकली हैं। मंदी आई और गई, शेयर बाजार गिरा और चढ़ा, सरकारें गई और आई मगर इन सबसे बेअसर, जिद्दी महंगाई पिछले दो ढाई साल में हमारे आर्थिक तंत्र में पैबस्त हो गई है। सरकार अब दयनीय विमूढ़ता में है, आयात नामुमकिन है और देश लगभग खाद्य आपातकाल की तरफ मुखातिबहै।
सरासर गलत दिलासे
हम आपको आटा दाल का भाव क्या बताएं? हम तो आपको उन दिलासों की असलियत बताना चाहते हैं जो महंगाई की जिम्मेदारी से बचने के लिए दिए जाते हैं। सरकार का चेहरा छिपाने वाली अंतरराष्ट्रीय पेट्रो कीमतें गिर चुकी हैं, मगर महंगाई चढ़ी हुई है। अब तो इस महंगाई से मुद्रा के प्रवाह का भी कोई रिश्ता नहंी रहा। यह अब तक की सबसे पेचीदा और कडि़यल महंगाई है, जिसे कई अहम क्षेत्रों की लंबी उपेक्षा ने गढ़ा है। भारत ने इससे पहले भी महंगाई के दौर देखे हैं। सत्तर, अस्सी, नब्बे के दशक औसतन सात से नौ फीसदी की महंगाई के थे। 1974-75 में महंगाई 25 फीसदी तक गई थी और 80-81 में 18.2 फीसदी व 91-92 में 13.2 फीसदी तक। लेकिन ताजी महंगाई उनसे फर्क है। 1974 की महंगाई सूखे में खरीफ की तबाही से उपजी थी, जबकि अस्सी की महंगाई को खेती की असफलता व तेल की कीमतों में तेजी ने गढ़ा था। मत भूलिए कि पिछले साल देश में दशक का सबसे अच्छा खाद्यान्न उत्पादन हुआ था, मगर तब भी खाने की कीमतें मार रही थीं और अब जब खरीफ कुछ नरम-गरम रही, तब भी महंगाई का कहर जारी है। भारत में महंगाई अब आम लोगों को मारने के लिए मौसम या दुनिया के बाजार की मोहताज नहीं है। सरकार के नीतिगत अपकर्मो ने उसे बला की ताकत दे दी है।
..आम कहां से खाय
भारतीय कृषि की करुण कथा बहुत लंबी है। हम इसे सुनाना भी नहीं चाहते। आप केवल खेती की चर्चा के जरिए ताजी महंगाई के कांटों की जड़ें देखिए। जिनकी तलाश के लिए कोई खुर्दबीन नहीं चाहिए। हिसाब बड़ा साफ है कि पिछले दो दशकों में देश की आबादी 20 से 24 फीसदी की (1991 में करीब 24 और 2000 में 22 फीसदी) प्रति दशक गति से बढ़ी, मगर अनाज उत्पादन बढ़ने की दर दो दशकों में 11 व 18 फीसदी रही है। भूल जाइए कि अधिकांश सांसद अपना पेशा किसान बताते हैं, भारत में (3124 किग्रा) एक हेक्टेअर जमीन में तो बांग्लादेश (3904 किग्रा) के बराबर भी धान नहीं पैदा होता। गेहूं की प्रति हेक्टेअर उपज में मरुस्थलीय इजिप्ट (6455 किग्रा) हमसे ढाई गुना आगे है। बीस साल में भूखे पेटों की आबादी दोगुना करने वाले देश में कुल बुवाई क्षेत्र तीन दशक से 140 से 141 मिलियन हेक्टेअर पर लटका है। हैरत में पड़ना जरूरी है कि भारत में अनाज की प्रति व्यक्ति वार्षिक उपलब्धता 1991 में 171 किग्रा से घटकर अब 150 किग्रा पर आ गई है। यह बात सिर्फ गेहूं चावल की है। दालें तो वर्षो से पतली हैं। 1.3 अरब पेटों को पाल रहे चीन में प्रति व्यक्ति 404 किग्रा अनाज उपलब्ध है। करीब डेढ़ दशक पहले तक विश्व खाद्य कार्यक्रम के तहत अनाज का दान लेने वाला चीन खेती की सूरत बदल कर दुनिया के अनाज बाजार बड़ा खिलाड़ी बन गया है और आज अनाज उत्पादन बढ़ाने की प्रयोगशाला है। इसके विपरीत भारत खाने की स्थायी किल्लत का केंद्र बनता जा रहा है। भारत ने पिछले दो दशकों में अपने खेतों में बदहाली उगाई और बाजार में मांग। आय, खपत व बाजार बढ़ा मगर पैदावार, खेत, अनुसंधान घट गया। रोटियों की जिद्दोजहद तो होनी ही है।
महंगाई का उदारीकरण
दो दशकों में देश के कुल आर्थिक उत्पादन में खेती का हिस्सा लगभग तीन गुना (52 फीसदी से 18 फीसदी) घट जाना आपको अचरज में नहीं डालता? उगाने वाले और खाने वाले हाथों के बीच संतुलन अब बिगड़ गया है। असंतुलन पहले भी था, मगर तब आय कम थी। उद्योग व सेवा क्षेत्रों के बूते बढ़ी आय ने लोगों को ताजी क्रय शक्ति दे दी है, जिसे वह किल्लत वाले खाद्य बाजार पर चलाकर मांग व आपूर्ति के संतुलन को कायदे से बिगाड़ रहे हैं। उत्पादन कम हो तो उदार बाजार मुश्किलों का सौदा करता है। खाद्य प्रसंस्करण, स्नैक्स और कृषि उपज आधारित मूल्य वर्धित उत्पादों का बाजार अनाज का विशाल व संगठित, नया ग्राहक है। सबको निवाला न दे पाने वाली खेती इन्हें भी आपूर्ति करती है। इन्हें खूब मुनाफा होता है। वक्त के साथ जमाखोरी के ढंग बदल रहे हैं। किल्लत की दुनिया में वायदा बाजार भी खूब चमकता है और मुश्किलें बढ़ाता है। यह महंगाई का उदारीकरण है। खेती में उत्पादक व उपभोक्ता के हितों के बीच संतुलन की बहस अंतरराष्ट्रीय है। भारत की खाद्य अर्थव्यवस्था में उत्पादक घटे हैं, जबकि उपभोक्ता बढ़ रहे हैं। आदर्श स्थिति में नीतियां उपभोक्ताओं के हित में होनी चाहिए क्योंकि उत्पादक भी किसी न किसी स्तर पर उपभोग करता है। लेकिन यहां तो साफ ही नहीं कि खेती की किस्मत लिखने वाली नीतियां किसानों के लिए हैं या उपभोक्ताओं के लिए। अगर पूरी राजनीति खेती के हक में है तो उत्पादकों को बाजार खाद्य सामग्री से भर देने चाहिए। फिर दाल, रोटी, सब्जी की आपूर्ति कम क्यों है? महंगाई क्यों निचोड़ रही है? और अगर खेती का उत्पादन नहीं बढ़ सकता तो फिर आयात खुलना चाहिए जैसा कि दुनिया के कई मुल्क करते हैं। भारत की खाद्य अर्थव्यवस्था में उपभोक्ता पिसता है और उत्पादक का राजनीतिक इस्तेमाल होता है। .. कोई तीसरा है जो मालामाल होता है? हमने कभी पूछा नही कि यह तीसरा आदमी कौन है?. बस शांति के साथ महंगाई सहने की आदत डाल ली है। तो आइए, खुद को शाबासी तो दीजिए..आने वाली पीढि़यां आपके त्यागकी कथाएं गाएंगी!
anshumantiwari@del.jagran.com