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Tuesday, April 21, 2015

कांग्रेस का 'राहुल काल'


अज्ञातवास से लौटे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के लिए सही वक्त पर सही कदम का राजनैतिक मंत्र हमेशा से रॉकेट विज्ञान की तरह अबूझ रहा है.
ह अध्यादेश पूरी तरह बकवास है. इसे फाड़कर फेंक देना चाहिए!!" सितंबर 2013 को दिल्ली के प्रेस क्लब की प्रेस वार्ता में अचानक पहुंचे राहुल गांधी की यह मुद्रा नई ही नहीं, विस्मयकारी भी थी. संसद में चुप्पी, पार्टी फोरम पर सन्नाटा, और सक्रियता तथा निष्क्रियता के बीच हमेशा असमंजस बनाकर रखने वाले राहुल, अपनी सरकार के एक अध्यादेश को इस अंदाज में कचरे का डिब्बा दिखाएंगे, इसका अनुमान किसी को नहीं था. कांग्रेस की सूरत देखने लायक थी. यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि यह अध्यादेश सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल रोकने के मकसद से बना था. 10 जुलाई, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा-8 को अवैध करार देते हुए फैसला सुनाया था कि अगर किसी सांसद या विधायक को अदालत अभियुक्त घोषित कर देती है तो उसकी सदस्यता तत्काल खत्म हो जाएगी. पूरी सियासत बचाव में आगे आ गई. अदालती आदेश पर अमल रोकने के लिए तत्कालीन यूपीए सरकार ने एक अध्यादेश गढ़ा और सर्वदलीय बैठक के हवाले से दावा किया कि सभी दल इस पर सहमत हैं. राजनैतिक सहमतियां प्रत्यक्ष रूप से दिख भी रहीं थीं. अलबत्ता राहुल ने सरकार और पार्टी के नजरिये से अलग जाते हुए सिर्फ यही नहीं कहा कि कांग्रेस और बीजेपी इस पर राजनीति कर रही हैं बल्कि उनकी टिप्पणी थी कि "हमें यह बेवकूफी रोकनी होगी. भ्रष्टाचार से लड़ना है तो छोटे-छोटे समझौते नहीं चलेंगे." बताने की जरूरत नहीं कि राहुल गांधी के विरोध के बाद अध्यादेश कचरे के डिब्बे में चला गया.
इस प्रसंग का जिक्र यहां राहुल गांधी के राजनैतिक साहस या सूझ की याद दिलाने के लिए नहीं हो रहा है. मामला दरअसल इसका उलटा है. राहुल गांधी भारतीय राजनीति में अपने लिए एक नई श्रेणी गढ़ रहे हैं. भारत के लोगों ने साहसी और लंबी लड़ाई लड़ने वाले नेता देखे हैं. बिखरकर फिर खड़ी होने वाली कांग्रेस देखी है. दो सीटों से पूर्ण बहुमत तक पहुंचने वाली संघर्षशील बीजेपी देखी है. बार-बार बनने वाला तीसरा मोर्चा देखा है. सब कुछ गंवाने के बाद दिल्ली की सत्ता हासिल करने वाली आम आदमी पार्टी देखी है लेकिन राहुल गांधी अनोखे नेता हैं जिन्हें मौके चूकने में महारत हासिल है. राहुल रहस्यमय अज्ञातवास से लौटकर अगले सप्ताह जब कांग्रेस की सियासत में सक्रिय होंगे तो जोखिम उनके लिए नहीं बल्कि पार्टी के लिए है, क्योंकि उसके इस परिवारी नेता के लिए सही वक्त पर सही कदम का राजनैतिक मंत्र, हमेशा से रॉकेट विज्ञान की तरह अबूझ रहा है.
कांग्रेस अगर यह समझने की कोशिश करे कि 2013 में अध्यादेश को कचरे के डिब्बे के सुपुर्द कराने वाली घटना, राहुल की एक छोटी धारदार प्रस्तुति बनकर क्यों रह गई तो उसे शायद अपने इस राजकुमार से बचने में मदद मिलेगी. अपराधी नेताओं को बचाने वाला अध्यादेश उस वक्त की घटना है जब देश में भ्रष्टाचार को लेकर जन और न्यायिक सक्रियता अपने चरम पर थी. इसी दौरान अदालत ने राजनीति में अपराधियों के प्रवेश पर सख्ती की, जिसे रोकने के लिए सभी दल एकजुट हो गए. पारंपरिक सियासत की जमात से राहुल गांधी लीक तोड़कर आगे आए. सत्तारूढ़ दल के सबसे ताकतवर नेता का सरकार के विरोध में आना अप्रत्याशित था, लेकिन इससे भी ज्यादा विस्मयकारी यह था कि राहुल फिर नेपथ्य में गुम हो गए, जबकि यहां से उनकी सियासत का नया रास्ता खुल सकता था.
इस बात से इत्तेफाक करना पड़ेगा कि राहुल गांधी राजनैतिक समझ रखते हैं लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि सियासत और समय के नाजुक रिश्ते की उन्हें कतई समझ नहीं है. भ्रष्टाचार के खिलाफ जो जनांदोलन अंततः कांग्रेस की शर्मनाक हार और बीजेपी की अभूतपूर्व जीत की वजह बना, वह दरअसल राहुल गांधी के लिए अवसर बन सकता था. लोकपाल बनाने की जवाबदेही केंद्र सरकार की थी. सभी राजनैतिक दल लगभग हाशिये पर थे और एक जनांदोलन सरकार से सीधे बात कर रहा था. इस मौके पर अगर राहुल गांधी ने ठीक वैसे ही तुर्शी दिखाई होती जैसी 2013 के सितंबर में अपराधी नेताओं के बचाव में आ रहे अध्यादेश के खिलाफ थी तो देश की राजनैतिक तस्वीर यकीनन काफी अलग होती. यह अवसर चूकने में राहुल की विशेषज्ञता का ही उदाहरण है कि जिस नए भूमि अधिग्रहण कानून पर उन्होंने अपनी सरकार पर दबाव बनाया था, उसे लेकर जब मोदी सरकार को घेरने का मौका आया तो कांग्रेस राजकुमार किसी अनुष्ठान में लीन हो गए.
ब्रिटेन के महान प्रधानमंत्रियों में एक (1868 से 1894 तक चार बार प्रधानमंत्री) विलियम एवार्ट ग्लैडस्टोन को राजनीति में फिलॉसफी ऑफ राइट टाइमिंग का प्रणेता माना जाता है. प्रसिद्ध लिबरल नेता और अद्भुत वक्ता ग्लैडस्टोन, कंजर्वेटिव नेता बेंजामिन डिजरेली के प्रतिस्पर्धी थे. दुनिया भर के नेताओं ने उनसे यही सीखा है कि सही मौके पर सटीक सियासत सफल बनाती है. अटल बिहारी वाजपेयी, सोनिया गांधी, डेविड कैमरुन, बराक ओबामा से लेकर नरेंद्र मोदी तक सभी राजनैतिक सफलताओं में ग्लैडस्टोन का दर्शन देखा जा सकता है. अलबत्ता राहुल गांधी के राजनैतिक ककहरे की किताब से वह पाठ ही हटा दिया गया था, जो सही मौके पर सटीक सियासत सिखाता है.

पहली बार कांग्रेस महासचिव बनने के बाद राहुल ने दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में कहा था कि सफलता मौके पर निर्भर करती है, सफल वही हुए हैं जिन्हें मौके मिले हैं. अलबत्ता राहुल की राजनीति मौका मिलने के बाद भी असफल होने का तरीका सिखाती है. कांग्रेस को राहुल से डरना चाहिए क्योंकि उनका यह राजकुमार मौके चूकने का उस्ताद है और ''राहुल काल'' के दौरान कांग्रेस ने भी सुधरने, बदलने और आगे बढ़ने के तमाम मौके गंवाए हैं. फिर भी अज्ञातवास से लौटे राहुल को कांग्रेस सिर आंखों पर ही बिठाएगी क्योंकि यह पार्टी परिवारवाद के अभिशाप को अपना परम सौभाग्य मानती है. अलबत्ता पार्टी में किसी को राहुल गांधी से यह जरूर पूछना चाहिए कि म्यांमार में विपश्यना के दौरान क्या किसी ने उन्हें गौतम बुद्ध का यह सूत्र बताया था कि ''आपका यह सोचना ही सबसे बड़ी समस्या है कि आपके पास काफी समय है.'' कांग्रेस और राहुल के पास अब सचमुच बिल्कुल समय नहीं है.

Monday, March 9, 2015

साहस का हिसाब-किताब

 यह एक डरा हुआ बजट था जो कहीं भी कुछ नया व बड़ा करने से ठिठक गया है और ठहराव व ठगे जाने का एहसास छोड़ गया है.
साहसी होना ताकत व माहौल पर निर्भर नहीं होता इसके लिए नीयत और मंशा ज्यादा जरूरी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस राजनैतिक साहस के साथ कश्मीर में 'परिवारवादी' और अलगाववादी लोगों (सज्जाद लोन) के साथ सरकार बना ली, वही हिम्मत बजट में नजर क्यों नहीं आई? कश्मीर में बीजेपी के राजनैतिक दर्शन से इतर जाने का फैसला जिस इच्छा शक्ति से निकला था, क्रांतिकारी सुधारों भरे बजट के लिए ठीक ऐसे ही संकल्प की दरकार थी. मोदी सरकार के नौ माह बीतने और बेहद महत्वपूर्ण बजटों (रेल व आम बजट) के औसत होने के बाद अब यह सवाल उठना लाजमी है कि सरकार गवर्नेंस में कोई बड़ा परिवर्तन करने की नीयत रखती भी है या बिग आइडिया की पुकार और बदलाव के कौल केवल चुनावी जबानी जमा खर्च थे? उपभोक्ताओं, किसानों, रोजगार तलाशते युवाओं से लेकर कंपनियां और विदेशी रेटिंग एजेंसियां (फिच, स्टैंडर्ड ऐंड पुअर) भी इस बजट के असर को लेकर मुतमईन नहीं हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि यह एक डरा हुआ बजट था जो कहीं भी कुछ नया व बड़ा करने से ठिठक गया है और ठहराव व ठगे जाने का एहसास छोड़ गया है.
रेलवे व आम बजट में क्या मिला, यह सबको पता है. मगर यह जानना बेहतर होगा कि ऐेसा क्या हो सकता था जो इन्हें 1991 के बाद के सबसे परिवर्तनकारी बजटों में बदल देता. बीजेपी ने जिस ठसक के साथ झारखंड में दल बदल के जरिए सरकार बना ली, लगभग उसी तरह के राजनैतिक साहस के आधार पर सुरेश प्रभु यह ऐलान कर सकते थे कि रेलवे अब सिर्फ  रेल चलाएगी. रेल नीर की बोतलें भरना, पहिए-स्लीपर बनाना, इंजन-डिब्बे गढ़ना रेलवे का काम नहीं है. इन कारखानों में सरकार का हिस्सा बेचकर मिले संसाधनों को रेल नेटवर्क  में लगाया जा सकता था. यह रेलवे का मेक इन इंडिया हो सकता था. रेलवे को इस तरह के बिग आइडिया की ही जरूरत थी जो एकमुश्त बदलाव की राह खोलता. अब अगर एक साल बाद भी रेलवे जस की तस रहे तो चौंकिएगा नहीं, क्योंकि रेल नेटवर्क  के लिए पांच साल में 8.5 लाख करोड़ रु. कहां से आएंगे, यह खुद 'प्रभु' भी नहीं बता सकते.
जिस जिद के साथ भूमि अधिग्रहण कानून पर राजनैतिक करवट बदली गई, ठीक वैसा ही साहस खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश खोलने के फैसले पर क्यों नहीं दिखाया जा सकता? सरकार के भीतर यह सबको मालूम है कि 2018 तक करीब 950 अरब डॉलर पर पहुंचने वाला देश का खुदरा बाजार रोजगार का सबसे बड़ा जरिया हो सकता है. इस 'ट्रेड इन इंडिया' में खेती समेत तमाम क्षेत्रों के लिए संभावनाएं छिपी हैं जो कैश ट्रांसफर के साथ बढ़ने वाले उपभोक्ता खर्च के माफिक है. खुदरा में विदेशी निवेश को लेकर बीजेपी को सिर्फ  अपने स्वदेशी कुनबे को मनाना था, जो भूमि अधिग्रहण की कंटीली राह से ज्यादा आसान होता. सरकार को कारोबार से बाहर निकलने और गवर्नेंस करने की सलाह देने वाले प्रधानमंत्री अगर एअर इंडिया, भारत संचार निगम, बीमा निगम जैसी कंपनियों के विनिवेश का ऐलान नहीं कर पाए तो यह सिर्फ  कमजोर इच्छा शक्तिका नमूना है.
बजट के आंकड़े मोदी सरकार से की गई उम्मीदों की चुगली खाते हैं. मुफ्तखोरी पर बाहें फटकारने के विपरीत बजट में गैर पेट्रो सब्सिडी का बिल जस का तस है. सरकार उन्हीं पुरानी समाजिक सुरक्षा स्कीमों पर लौट आई, जिनकी विफलता प्रामाणिक है. खर्च तो शिक्षा व स्वास्थ्य पर कम हुआ है जो आम जनता के लिए मोदी की 'मन की बातों' का ठीक उलटा है. राज्यों को संसाधनों के हस्तांतरण के नए मॉडल से सहमत होने के लिए साधुवाद, अलबत्ता वित्त आयोग की सिफारिशें इस बदलाव का जरिया बनी हैं जिन्हें कोई भी सरकार स्वीकार करती.   
रियायतों के बावजूद कंपनियां और विदेशी एजेंसियां अगर बजट पर मुतमईन नहीं हो पा रही हैं तो वजह यही है कि मोदी-अरुण जेटली आर्थिक सुधारों के अगले चरण का वादा करते हुए आए थे, न कि एक कामचलाऊ और कतरब्योंत वाले बजट का. मोदी-जेटली को यह याद रखना होगा कि टुकड़ों-टुकड़ों में बदलावों पर शक-शुबहे होते हैं लेकिन बड़े व एकमुश्त सुधार सरकार को साहसी साबित करते हैं. यूपीए सरकार के डायरेक्ट कैश ट्रांसफर या आधार स्कीमों को स्वीकारना उदारता का प्रमाण है लेकिन इनसेआगे न बढ़ पाना इस बात का प्रमाण भी है कि नई सरकार यथास्थिति को बेहतर करने से ज्यादा का साहस नहीं जुटा सकी. यही वजह है कि बजट की सामाजिक स्कीमों के अमल पर ठीक वैसे ही शक हैं जैसे कि यूपीए के साथ थे और बजट के आंकड़ों में ठीक वैसा ही लोचा है जैसा कि हमेशा से होता आया है.
चिंता यह नहीं है कि बजट औसत है बल्कि निराशा इस बात की है कि मोदी सरकार जिस नई और बड़ी सूझ का भरोसा देकर सत्ता में आई थी वह नौ माह में कहीं नहीं दिखी. पिछले साल दिसंबर में हमने इस स्तंभ में लिखा था कि सरकारों को हमेशा उलटी तरफ से देखना बेहतर होता है, क्योंकि पांच साल का समय बहुत ज्यादा नहीं होता. मोदी सरकार के पास अब केवल दो बजट बचे हैं. दो कीमती बजट यूं ही गुजर गए. जुलाई के बजट में सरकार का एजेंडा आना चाहिए था और इस बजट में ऐक्शन प्लान. 2016 के बजट में सुधारों का असर आंक कर संतुलन की कोशिश होती और 2017 में नए कदम उठाए जाने चाहिए थे क्योंकि 2018 का बजट चुनावी होगा और 2019 का बजट नई सरकार पेश करेगी. लोगों ने मोदी सरकार से तारे तोड़ने की अपेक्षा नहीं जोड़ी थी. उम्मीद सिर्फ  यही थी कि कारोबार और जिंदगी की सूरत बदलनी चाहिए. अब चाह कर भी बहुत कुछ करने का वक्त नहीं है क्योंकि अगले दो बजट तो बस गलतियां सुधारते ही बीत जाएंगे

Monday, January 19, 2015

भूमिहीन मेक इन इंडिया

जमीन की सहज सप्लाई में वरीयता किसे मिलनी चाहिएनिरंतर रोजगार देने वाले मैन्युफैक्चरर को या फिर दिहाड़ी रोजगार देने वाले ‘‘बॉब द बिल्डर’’ को?
दि आप मामूली यूएसबी ड्राइव बनाने की फैक्ट्री लगाना चाहते हैं, जो चीन से इस कदर आयात होती हैं कि सरकार के मेक इन इंडिया का ब्योरा भी पत्रकारों को चीन में बनी पेन ड्राइव में दिया गया था, तो जमीन हासिल करने के लिए आपको कांग्रेसी राज के उसी कानून से जूझना होगा, जो वित्त मंत्री अरुण जेटली के मुताबिक इक्कीसवीं सदी की जरूरतों के माफिक नहीं है. अलबत्ता अगर आप सरकार के साथ मिलकर एक्सप्रेस-वे, इंडस्ट्रियल पार्क अथवा लग्जरी होटल-हॉस्पिटल बनाना चाहते हैं तो नए अध्यादेश के मुताबिक, आपको किसानों की सहमति या परियोजना के जीविका पर असर को आंकने की शर्तों से माफी मिल जाएगी. यह उस बहस की बानगी है जो वाइब्रेंट गुजरात और बंगाल के भव्य आयोजनों के हाशिए से उठी है और निवेश के काल्पनिक आंकड़ों में दबने को तैयार नहीं है. इसे मैन्युफैक्चरिंग बनाम इन्फ्रास्ट्रक्चर की बहस समझने की गलती मत कीजिए, क्योंकि भारत को दोनों ही चाहिए. सवाल यह है कि जमीन की सहज सप्लाई में वरीयता किसे मिलनी चाहिए, निरंतर रोजगार देने वाले मैन्युफैक्चरर को या फिर दिहाड़ी रोजगार देने वाले ‘‘बॉब द बिल्डर’’ को? मेक इन इंडिया के तहत तकनीक, इनोवेशन लाने वाली मैन्युफैक्चरिंग को या टोल रोड बनाते हुए, कॉलोनियां काट देने वाले डेवलपर को?
जमीनें जटिल संसाधन हैं. एक के लिए यह विशुद्ध जीविका है तो दूसरे के लिए परियोजना का कच्चा माल है जबकि किसी तीसरे के लिए जमीनें मुनाफे का बुनियादी फॉर्मूला बन जाती हैं. जमीन अधिग्रहण के नए कानून और उसमें ताबड़तोड़ बदलावों ने इन तीनों हितों का संतुलन बिगाड़ दिया है. पुराने कानून (1894) के तहत मनमाने अधिग्रहण होते थे जिनमें किसानों को पर्याप्त मुआवजा भी नहीं मिलता था. पिछली सरकार ने विपह्न की सहमति से नए कानून में 21वीं सदी का मुआवजा तो सुनिश्चित कर दिया लेकिन नया कानून किसानों की सियासत पर केंद्रित था इसलिए विकास के लिए जमीन की सप्लाई थम गई. बीजेपी ने अध्यादेशी बदलावों से कानून को जिस तरह उदार किया है उससे फायदे चुनिंदा निवेशकों की ओर मुखातिब हो रहे हैं, जिससे जटिलताओं की जमीन और कडिय़ल हो जाएगी. 
खेती के अलावा, जमीन के उत्पादक इस्तेमाल के दो मॉडल हैं. एक बुनियादी ढांचा परियोजनाएं है जहां जमीन ही कारोबार व मुनाफे का बुनियादी आधार है. दूसरा ग्राहक मैन्युफैक्चरिंग है जहां निवेशकों के लिए भूमि, परियोजना की लागत का हिस्सा है, क्योंकि फैक्ट्री का मुनाफा तकनीक और प्रतिस्पर्धा पर निर्भर है. सड़क, बिजली, आवास, एयरपोर्ट की बुनियादी भूमिका और जरूरत पर कोई विवाद नहीं हो सकता लेकिन स्वीकार करना होगा कि सरकारी नीतियां इन्फ्रास्ट्रक्चर ग्रंथि की शिकार भी हैं. आर्थिक विकास की अधिकांश बहसें बुनियादी ढांचे की कमी से शुरू होती हैं. रियायतों, कर्ज सुविधाओं और परियोजनाओं में सरकार की सीधी भागीदारी (पीपीपी-सरकारी गारंटी जैसा है) का दुलार भी महज एक दर्जन उद्योग या सेवाओं को मिलता है. सरकार की वरीयता बैंकों की भी वरीयता है इसलिए, इन्फ्रास्ट्रक्चर और पीपीपी परियोजनाओं में भारी कर्ज फंसा है.
संशोधित भूमि अधिग्रहण कानून से जमीन की सप्लाई में आसानी होगी लेकिन सिर्फ इन्फ्रास्ट्रक्चर उद्योगों के लिए. इन उद्योगों में चार गुना कीमत देकर खरीदी गई जमीन से भी मुनाफा कमाना संभव है क्योंकि मकान, एयरपोर्ट और एक्सप्रेस-वे इत्यादि बनाने में जमीन के कारोबारी इस्तेमाल की अनंत संभावनाएं हैं. अलबत्ता मैन्युफैक्चरिंग उद्योग के लिए सस्ती जमीन तो दूर, उन्हें वह सभी शर्तें माननी होंगी, जिनसे इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपर को मुक्ति मिल गई है. इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए सुविधाएं और रियायतें पहले से हैं, मैन्युफैक्चरिंग को लेकर उत्साह, मोदी के मेक इन इंडिया अभियान के बाद बढ़ा है. मैन्युफैक्चरिंग स्थायी और प्रशिक्षित रोजगार लाती है जबकि कंस्ट्रक्शन उद्योग दैनिक और अकुशल श्रमिक खपाता है. निवेशक यह समझ रहे थे कि सरकार स्थायी नौकरियों को लेकर गंभीर है इसलिए मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा मिलेगा. ध्यान रखना जरूरी है कि मैन्युफैक्चरिंग के दायरे में सैकड़ों उद्योग आते हैं जबकि जिन उद्योगों के लिए कानून उदार हुआ है, वहां मुट्ठी भर बड़ी कंपनियां ही हैं. इसलिए बदलावों का फायदा चुनिंदा उद्योगों और कंपनियों के हक में जाने के आरोप बढ़ते जाएंगे.

बीजेपी की मुश्किल यह है कि पिछले भूमि अधिग्रहण कानून में कई बदलाव सुमित्रा महाजन, वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष, के नेतृत्व वाली संसदीय समिति की सिफारिश से हुए थे. सर्वदलीय बैठकों से लेकर संसद तक बीजेपी ने बेहद सक्रियता के साथ जिस नए भूमि अधिग्रहण कानून की पैरवी की, नए संशोधन उसके विपरीत हैं. कांग्रेस सरकार ने नए कानून पर सर्वदलीय सहमति बनाई थी, बीजेपी ने तो इन संवेदनशील बदलावों से पहले सियासी तापमान परखने की जरूरत भी नहीं समझी. दरअसल, मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण कानून को तर्कसंगत बनाने का मौका चूक गई है. मैन्युफैक्चरिंग सहित अन्य उद्योगों को इसमें शामिल कर कानून को व्यावहारिक बनाया जा सकता था ताकि रोजगारपरक निवेश को प्रोत्साहन मिलता. वैसे भी इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए जमीन का  व्यापक और एकमुश्त अधिग्रहण चाहिए जिनमें समय लगता है. मैन्युफैक्चरिंग के लिए जमीन की आपूर्ति बढ़ाकर रोजगार सृजन के सहारे विरोध के मौके कम किए जा सकते थे. कांग्रेस ने नया कानून बनाते हुए और बीजेपी ने इसे बदलते हुए इस तथ्य की अनदेखी की है कि जमीन का अधिकतम उत्पादक इस्तेमाल बेहद जरूरी है. कांग्रेस का भूमि अधिग्रहण कानून, विकास की जरूरतों के माफिक नहीं था लेकिन बीजेपी के बदलावों के बाद यह न तो मेक इन इंडिया के माफिक रहा है और न किसानों के. भूमि अधिग्रहण कानून 21वीं सदी का तो है मगर न किसान इसके साथ हैं और न बहुसंख्यक उद्योग. अब आने वाले महीनों में जमीनें विकास और रोजगार नहीं, सिर्फ राजनीति की फसल पैदा करेंगी.