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Friday, December 25, 2020

हंगामा है यूं बरपा

 


अब से दो साल पहले दिसंबर 2018 में जब गूगल प्रमुख सुंदर पिचाई एकाधिकार के मामले में अमेरिकी कानून निर्माताओं के कठघरे में थे उस दौरान जारी हुए फोटो और वीडियो ने लोगों को चौंका दिया. कांग्रेस की सुनवाई के दौरान पिचाई के पीछे तीसरी पंक्ति में काली टोपी वाले मुच्छड़ रिच अंकल पेनीबैग्स नजर आ रहे थे जो मशहूर मोनोपली गेम के प्रतीक पुरुष हैं. उनकी मौजूदगी किसी फोटोशापीय कला का नमूना नहीं था. अमेरिका के एक वकील ग्रीडी मोनोपली मैन की वेशभूषा में, इस मामले की प्रत्येक सुनवाई में बाकायदा ठीक उस जगह मौजूद रहे थे जहां से वह तस्वीरों का हिस्सा बन सकें और लोगों को बाजार का विद्रूप और एकाधि‍कारवादी चेहरा नजर आता रहे. 

संयोग ही है कि बीते सप्ताह जब विश्व की सबसे बड़ी तकनीकी मोनोपली यानी गूगल और फेसबुक पर अमेरिका में ऐंटीट्रस्ट (प्रतिस्पर्धा खत्म करने) कानून की कार्रवाई शुरू हुई तब उसी दौरान भारत में भी बहुत से लोग सुधारों के फैसलों के पीछे किसी कॉर्पोरेट मुच्छड़ मैन का अक्स देख रहे थे. 

उदारीकरण और मुक्त बाजार ने भारत में सबसे कम समय में सर्वाधि‍क आबादी की गरीबी दूर की है, इसलिए इस पर उठते शक-शुबहे गहरी पड़ताल की मांग करते हैं. 

निजीकरण, निजी भागीदारी, मुक्त बाजार पर शक बेवजह नहीं है. बाजार पर भरोसा दो ही वजह से बनता है. एक, रोजगार यानी कमाई या आय बढ़ने से और दूसरा, उत्पादन का सही मूल्य मिलने से. इन्हीं दोनों वजह से पूंजीवाद को सबसे अधिक सफलता मिली है, इस व््यवस्था में बाजार सबको अवसर देता है और सरकार संकटों के समाधान करती है. बाजार इसके बदले कीमत वसूलता है और सरकार टैक्स. 

बाजारों के सबसे बुरे दिनों का नाम ही मंदी है. नौकरियां खत्म होती हैं. कर्ज डूबने लगते हैं और सरकार से राहत मांगी जाने लगती है. और तब बाजार लोगों का तात्कालिक शत्रु बन जाता है. भारत में भी बाजार इस समय खलनायक है लेकिन दंभ और आत्ममुग्धता में सरकार उसे संकटमोचक बनाकर पेश कर रही है. लोग बुरी तह चिढ़ रहे हैं.

भारत में कंपनियों के रिकॉर्ड मुनाफों के बीच रिकॉर्ड बेरोजगारी है. इसी बीच सरकार ने कंपनियों को नौकरियां लेने की ताकत से (श्रम सुधार) से लैस कर दिया. 

किसानों को आय में बढ़ोतरी के लिए सीधी मदद चाहिए न कि उन्हें उस बाजार के हवाले कर दिया जाए तो खुद मंदी का मारा है.

निजीकरण में कोई खोट नहीं लेकिन चौतरफा बेकारी के बीच जीविका को लेकर डर लाजिमी है. खासतौर पर जब लोग देख रहे हैं कि कुछ निजी कंपनियां बाजारों  पर कब्जा कर रही हैं.

महामंदी और महामारी एक साथ सबसे बड़ी मुसीबत है. महामारी सरकारों की साख पर भारी पड़ती है क्योंकि दुनिया की कोई सरकार महामारियों से निबट नहीं सकती. महामंदी बाजार की साख तोड़ देती है इसलिए दुनिया की तमाम सरकारें कंपनियों को रोजगार बचाने के लिए बजट से पैसे दे रही हैं ताकि बाजार और लोगों के बीच विश्वास को बना रहे. 

मशहूर अर्थविद् जॉन मेनार्ड केंज ने 1930 की महामंदी के दौरान अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट को लिखा थाःआपकी चुनौती दोहरी है. मंदी से भी उबारना है और सुधार भी होने हैं जो अर्से से लंबित हैं. मंदी से मुक्ति के लिए तेज और तत्काल नतीजे चाहिए. सुधारों में जल्दबाजी मंदी से उबरने की प्रक्रिया को धीमा कर सकती, जिससे सरकार की नीयत पर शक बढ़ेगा और लोगों का भरोसा टूटेगा.’

सरकार के सलाहकारों पता चले कि प्रत्येक सुधार 1991 वाला नहीं होता. बीते ढाई दशक में लोगों में आर्थिक सुधारों के फायदों और नुक्सानों की समझ बनी है. मंदी की चोट खाए लोग आय और जीवन स्तर में ठोस बेहतरी समझ कर सुधार स्वीकार कर पाएंगे. इसके लिए सुधारों का क्रम ठीक करना होगा.

भारत में बाजार और लोगों के रिश्ते बीते दो-तीन साल से काफी बदले हैं. जनवरी 2020 में एडलमैन के मशहूर ग्लोबल ट्रस्ट बैरोमीटर सर्वे ने बताया था कि भारत, दुनिया के उन 28 प्रमुख बाजारों में पहले नंबर पर था जहां सबसे बड़ी संख्या में (74 फीसद) लोग बाजार और पूंजीवाद से निराश हैं. यानी कि कोरोना की विपत्तिसे पहले ही बाजार से लोगों का भरोसा उठने लगा था जिसकी बड़ी वजह आय में कमी और बेकारी थी.

सनद रहे कि अच्छे सुधार बाजार को ताकत देते हैं जबकि खराब सुधार बाजार की पूरी ताकत कुछ हाथों में थमा देते हैं. यह सुनिश्चित करना होगा कि सुधारों के पीछे वाल स्ट्रीट मूवी का प्रसिद्ध गॉर्डन गीको नजर न आए जो कहता था कि लालच के लिए कोई दूसरा बेहतर शब्द नहीं है इसलिए लालच अच्छा है.

भारत के आर्थिक सुधार संवेदनशील मोड़ पर हैं. 2020 बाजार के प्रति गुस्से के साथ बिदा हो रहा है. मुक्त बाजार को खलनायक बनने से रोकना होगा. गुस्साए लोग सरकार तो बदल सकते हैं, बाजार नहीं. मुक्त बाजार पर विश्वास टूटा तो सब बिखर जाएगा क्योंकि कोई सरकार कितनी भी बड़ी हो, वह बाजार से मिल रहे अवसरों का विकल्प नहीं हो सकती.

 

Saturday, June 15, 2019

बचाएंगे तो बचेंगे!



गर पड़ोसी की नौकरी पर खतरा है तो यह आर्थिक सुस्ती  है लेकिन अगर आपके रोजगार पर खतरा है तो फिर यह गहरा संकट है.’’ अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रुमैन की पुरानी व्यंग्योक्ति आज भी आर्थिक मंदियों के संस्करणों का फर्क सिखाती है.

इस उक्ति का पहला हिस्सा मौसमी सुस्ती की तरफ इशारा करता है जो दुनिया में आर्थिक उठापटकमहंगे ईंधनमहंगाई जैसे तात्कालिक कारणों से आती है और जिससे उबरने का पर्याप्त तजुर्बा हैट्रुमैन की बात का दूसरा हिस्सा ढांचागत आर्थिक मुसीबतों की परिभाषा हैजिनका हमारे पास कोई ताजा (पिछले 25 साल मेंअनुभव नहीं है

सरकार ने चुनाव में जाने तक इस सच को स्वीकार कर लिया था कि अर्थव्यवस्था ढलान पर है लेकिन भव्य जीत के बाद जब सरकार वापस लौटी तब चार बड़े बदलाव उसका इंतजार कर रहे थे जो भारत की आर्थिक ढलान को असामान्य रूप से जिद्दी बनाते हैं:

·       भारत में कंपनियों का निवेश 1960 के बाद से लगातार बढ़ रहा था. 2008 में शिखर (जीडीपी का 38 फीसदछूने के बाद यह अब 11 साल के सबसे निचले (29 फीसदस्तर पर हैसालाना वृद्धि दर 18 फीसद (2004-08) से घटकर केवल 5.5 फीसद रह गई है.

·       निवेश के सूखे के बीच घरेलू खपतअर्थव्यवस्था का सहारा थीअब वह भी टूट गई है और मकानकार से लेकर घरेलू खपत के सामान तक चौतरफा मांग की मुर्दनी छाई है.

·       सरकार ने यह मान लिया है कि भारत में बेकारी 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर पर है.

·       रेटिंग एजेंसियों ने बैंकों व वित्तीय कंपनियों की साख में बड़ी कटौती कीअब कर्ज में चूकने का दौर शुरू हो गयापहले वित्तीय कंपनियां चूकीं और अब एक कपड़ा कंपनी भी.

भारत की विराट आर्थिक मशीन का आखिर कौन सा पुर्जा है जो निवेशकर्ज और खपत को तोड़ कर मुश्किलें बढ़ा रहा है?

भारतीय अर्थव्यवस्था बचतों के अप्रत्याशित सूखे का सामना कर रही हैसमग्र बचत जो 2008 में जीडीपी के 37 फीसद पर थीअब 15 साल के न्यूनतम स्तर पर (जीडीपी का 30 फीसदरह गई है और आम लोगों की घरेलू बचत पिछले 20 साल के (2010 में 25 फीसदन्यूनतम स्तर (जीडीपी का 17.6 फीसदपर हैघरेलू बचतों का यह स्तर 1990 के बराबर है जब आर्थिक सुधार शुरू नहीं हुए थेमकान-जमीन में बचत गिरी है और वित्तीय बचतें तो 30 साल के न्यूनतम स्तर पर हैं.

बचत के बिना निवेश नामुमकिन हैभारत में निवेश की दर बचत दर से हमेशा ज्यादा रही हैघरेलू बचतें ही निवेश का संसाधन हैंयही बैंक कर्ज में बदल कर उद्योगों तक जाती हैंसरकार के खर्च में इस्तेमाल होती हैंघर-कार की मांग बढ़ाने में मदद करती हैंबचत गिरते ही निवेश 11 साल के गर्त में चला गया है

दरअसलपिछले दशक में भारतीय परिवारों की औसत आय में दोगुनी बढ़त दर्ज की गई थीइस दौरान खपत बढ़ी और टैक्स भी लेकिन लोग इतना कमा रहे थे कि बचतें बढ़ती रहींआय में गिरावट 2006 के बाद शुरू हो गई थी लेकिन कमाई बढ़ने की दर खपत से ज्यादा थीइसलिए मांग बनी रही.

2015 से 2018 के बीच आय में तेज गिरावट दर्ज हुईप्रति व्यक्ति आयग्रामीण मजदूरी में रिकॉर्ड कमी और बेकारी में रिकॉर्ड बढ़त का दौर यही हैपहले बचतें टूटीं क्योंकि लोग आय का बड़ा हिस्सा खपत में इस्तेमाल करने लगेफिर मकानोंऑटोमोबाइल की मांग गिरी और अंततदैनिक खपत (साबुन-मंजनपर भी असर नजर आने लगा.

बैंक भी कमजोर बचतों के गवाह हैं. 2010 से बैंकों की जमा की वृद्धि दर भी गिर रही है. 2009-16 के बीच 17 से 12 फीसद सालाना बढ़ोतरी के बाद अब इस मार्च में बैंक जमा की बढ़ोतरी 10 फीसद से नीचे आ गईनतीजतन रिजर्व बैंक की तरफ से ब्याज दरों में तीन कटौतियों के बाद भी बैंकों ने कर्ज सस्ता नहीं कियाकर्ज पर ब्याज दर कम करने के लिए जमा पर भी ब्याज कम करना होगा जिसके बाद डिपॉजिट में और गिरावट झेलनी पड़ेगी.

शेयर बाजारों में बढ़ता निवेश (म्युचुअल फंडअर्धसत्य हैवित्तीय बचतेंखासतौर पर शेयर (सेकंडरीबाजार के जरिए बचत न तो कंपनियों को मिलती हैंजिससे वे नया निवेश कर सकेंन सरकार को इस बचत का सीधा लाभ (टैक्स के अलावाहोता हैछोटी स्कीमोंबैंकों और मकान-जमीन में बचत ही निवेश का जरिया है.

बचतों का दरिया सूखने के कारण भारत की आर्थिक सुस्ती कई दुष्चक्रों का समूह बन गई हैमोदी सरकार के छठे बजट को कसने का अब केवल एक पैमाना होगा कि इससे लोगों की आय और बचत बढ़ती है या नहींक्योंकि यही मंदी से उबरने का जंतर-मंतर है.

प्रसिद्ध अर्थविद‍ जॉन मेनार्ड केंज (पुस्तकद एंड ऑफ लैसे-फेयरकहते थेयह जरूरी है कि सरकारें ऐसा कुछ भी न करें जो कि आम लोग पहले से कर रहे हैंउन्हें तो कुछ ऐसा करना होगा जो अभी तक न हुआ होचुनावी जीत चाहे जितनी भव्य हो लेकिन उद्योगउपभोक्ता और किसान थक कर निढाल हो रहे हैंअर्थव्यवस्था के लिए यह ‘एंड ऑफ लैसे-फेयर’ ही हैयानी सरकार के लिए परिस्थितियों को उनके हाल पर छोड़ने का वक्त खत्म हो चला है.