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Monday, November 1, 2010

मुद्रास्फीति की महादशा

अर्थार्थ
ड़क पर से बैंकनोट बटोरे जा रहे हैं। (हंगरी 1946) .. लाख व करोड़ मूल्य वाले के नोट लेकर लोग जगह जगह भटक रहे हैं। (जर्मनी 1923) .. बाजार में कीमतें घंटो की रफ्तार से बढ़ रही हैं। (जिम्बावे 2007)। ... अमेरिका के लोगों के सपनों में यह दृश्य आजकल बार-बार आ रहे हैं। अंकल सैम का वतन, दरअसल, भविष्य के क्षितिज पर हाइपरइन्फे्लेशन का तूफान घुमड़ता देख रहा है। एक ऐसी विपत्ति जो पिछले सौ सालों में करीब तीन दर्जन से देशों में मुद्रा, वित्तीय प्रणाली और उपभोक्ता बाजार को बर्बाद कर चुकी है। आशंकायें मजबूत है क्यों कि ढहती अमेरिकी अर्थव्यवस्था को राष्ट्रपति बराकर ओबामा और बेन बर्नांकी (फेडरल रिजर्व के मुखिया) मुद्रा प्रसार की अधिकतम खुराक (क्यूई-क्वांटीटिव ईजिंग) देने पर आमादा हैं। फेड रिजर्व की डॉलर छपाई मशीन ओवर टाइम में चल रही है और डरा हुआ डॉलर लुढ़कता जा रहा है। बर्नाकी इस घातक दवा (क्यूई) के दूसरे और तीसरे डोज बना रहे है। जिनका नतीजा अमेरिका को महा-मुद्रास्फीति में ढकेल सकता है और अगर दुनिया में अमेरिका के नकलची समूह ने भी यही दवा अपना ली तो यह आपदा अंतरदेशीय हो सकती।

क्यूई उर्फ डॉलरों का छापाखाना
मांग, उत्पादन, निर्यात और रोजगार में बदहाल अमेरिका डिफ्लेशन (अपस्फीति) के साथ मंदी के मुहाने पर खड़ा है। ब्याज दरें शून्य पर हैं यानी कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए ब्याज दरें घटाने जैसी दवायें फेल हो चुके हैं। अब क्वांटीटिव ईजिंग की बारी है। अर्थात ज्यादा डॉलर छाप कर बाजार में मुद्रा की क्वांटिटी यानी मात्रा बढ़ाना। नोट वस्तुत: भले ही न छपें लेकिन व्यावहारिक मतलब यही है कि फेड रिजर्व के पास मौजूद बैंको के रिजर्व खातों में (मसलन भारत में सीआरआर) ज्यादा धन आ जाएगा। इसके बदले बैंक बांड व प्रतिभूतियां फेड रिजर्व को दे देंगे। क्यूई की दूसरी खुराक इस साल दिसंबर तक आएगी। तीसरी की बात भी