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Friday, August 2, 2019

क्या होगा, कौन से पल में!


आर्थिक नीतियों की अनिश्चितता सबसे बड़ी मुसीबत हैयह पूंजी और कारोबार की लागत बढ़ाती हैखराब व उलझन भरे कानूनरोज-रोज के बदलावमनचाही रियायतेंनियमों की असंगत व्याख्याएं और कानूनी विवाद...इसके बाद नया निवेश तो क्या आएगामौजूदा निवेश ही फंस जाता है.


गर आपको लगता है कि यह सरकार से नाराज किसी उद्यमी का दर्द है या किसी दिलजले अर्थशास्त्री की नसीहत है तो संभलिए...ऊपर लिखे शब्द ताजा आर्थिक समीक्षा (2018-19) में छपे हैं जो भारत को पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का ख्वाब दिखाती हैसमीक्षा भी उसी टकसाल का उत्पाद है जहां से इस साल का बजट निकला है.

आर्थिक समीक्षा फैसलों में अनिश्चितता के बुरे असर को तफसील से समझाती है तो फिर बजट ऐसा क्यों है जिसके बाद हर तरफ मंदी के झटके कुछ ज्यादा ही बढ़ गए हैं?
क्या यह कहा जाए कि सरकार के एक हाथ को दूसरे की खबर नहीं हैया इस पर संतोष किया जाए कि सरकार का एक हाथ कम से कम यह तो जानता है कि अजब-गजब फैसले और नीतियों की उठापटक से किस तरह की मुसीबतें आती हैं.

चंद उदाहरण पेश हैं:

ऑटोमोबाइल उद्योग जब अपने ताजा इतिहास की सबसे भयानक मंदी से उबरने के लिए मदद मांग रहा है तब सरकार ने पुर्जों के आयात पर भारी कस्टम ड‍्यूटी लगा दीपेट्रोल-डीजल पर सेस बढ़ गयापुरानी गाडि़यां बंद करने के नए नियम और प्रदूषण को लेकर नए मानक लागू हो गएगाडि़यों के रजिस्ट्रेशन की फीस बढ़ाने का प्रस्ताव है और उन इलेक्ट्रिक वाहनों को टैक्स में रियायत दी गई जो अभी बनना भी नहीं शुरू हुए यानी पुर्जे-बैटरी चीन से आयात होंगे.

नीतियों में उठापटक उद्योग पर कुछ इस तरह भारी पड़ी कि गाड़ियां गोदामों में जमा हैंडीलरशिप बंद हो रही हैंऑटोमोबाइल संगठित उद्योग क्षेत्र का करीब 40 फीसद हैजिससे वित्तीय सेवाएं (लोन), सहयोगी उद्योग (ऑटो कंपोनेंटऔर सर्विस जैसे रोजगार गहन उद्योग जुड़े हैंइस उद्योग में भारी बेकारी की शुरुआत हो चुकी है.

अब मकानों की तरफ चलते हैं

इस उद्योग को मंदी नोटबंदी से पहले ही घेर चुकी थीमांग में कमी और कर्ज के बोझ से फंसा यह उद्योगजैसे ही नोटबंदी के भूकंप से उबरा कि इसे रेरा (नए रियल एस्टेट कानूनसे निबटना पड़ारेरा एक बड़ा सुधार था लेकिन इससे कई कंपनियां बंद हुईंबैंकों का कर्ज और ग्राहकों की उम्मीदें डूबीं.

इस बीच भवन निर्माण के कच्चे माल और मकानों की बिक्री पर भारी जीएसटी लग गयाजिसे ठीक होने में दो साल लगेजीएसटी के सुधरते ही कर्ज की पाइपलाइन सूखने (एनबीएफसी संकटलगी और अब सरकार ने वह सुविधा भी वापस ले ली जिसके तहत बिल्डरमकान की डिलीवरी तक ग्राहकों के बदले कर्ज पर ब्याज चुकाते थेआम्रपाली पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश (सरकारी कंपनी अधूरे मकान बनाएगीपूरे उद्योग में नई उठापटक की शुरुआत करेगा.

निर्माणखेती के बाद रोजगार का सबसे बड़ा स्रोत हैउद्योग में चरम मंदी है. 30 शहरों में करीब 13 लाख मकान बने खड़े हैं और लाखों अधूरे हैंनीतियों की अनिश्चितता ने इस उद्योग को भी तोड़ दिया है.

नमूने और भी हैंएक साल पहले तक सरकार सोने की खरीद को हतोत्साहित (गोल्ड मॉनेटाइजेशन-नकदीकरणकर रही थी और इसमें काले धन के इस्तेमाल को रोक रही थीअब अचानक बजट में सोने पर आयात शुल्क बढ़ा दिया गयाजिससे अवैध कारोबार और तस्करी बढ़ेगीआभूषण निर्यात (रोजगार देने वाला एक प्रमुख उद्योगप्रतिस्पर्धा से बाहर हो रहा है.

आम लोगों की बचत जब 20 साल और बैंक जमा दर दस साल के न्यूनतम स्तर पर हैतब बचत स्कीमों पर ब्याज दर घटा दी गईबैंक डिपॅाजिट पर भी ब्याज दर घट गईकेवल एक शेयर बाजार था जो निवेशकों को रिटर्न दे रहा थाउस पर भी नियम व टैक्स थोप (बाइबैक पर टैक्सनए पब्लिक शेयर होल्डिंग नियमदिए गएबजट के बाद से बाजार लगातार गिर रहा है और निवेशकों को 149 अरब डॉलर का नुक्सान हो चुका है.

आकस्मिक व लक्ष्य विहीन नोटबंदी, 300 से अधिक बदलावों वाले (असफलबकौल सीएजीजीएसटी और तीन साल के भीतर एक दर्जन से ज्यादा संशोधनों से गुजरने वाले दिवालियापन (आइबीसीकानून 2016 को नहीं भूलना चाहिए और न ही टैक्सों के ताजे बोझ को जिसने मंदी से कराहती अर्थव्यवसथा को सकते में डाल दिया है.

अनिश्चितता का अपशकुनी गिद्ध (ब्लैक स्वानभारत की अर्थव्यवस्था के सिर पर बैठ गया हैसरकार की आर्थिक समीक्षा ठीक कहती है कि ‘‘अप्रत्याशित फैसलों और नीतिगत उठापटक का वक्त गयाअगर निवेश चाहिए तो नीति बनाते समय उसकी निरंतरता की गारंटी देनी होगी.’’


Saturday, December 31, 2016

कल क्या होगा?

नीति शून्यता (पॉलिसी पैरालिसिस) जवाब नीति रोमांच (पॉलिसी एडवेंचरिज्म)  हरगिज नहीं हो सकता

नोटबंदी के बाद राम सजीवन हर तीसरे दिन बैंक की लाइन में लग जाते हैं, कभी एफडी तुड़ाने तो कभी पैसा निकालने के लिए. फरवरी में बिटिया की शादी कैसे होगी? फ्रैंकफर्ट से भारत के बाजार में निवेश कर रहे एंड्रयू भी नोटबंदी के बाद से लगातार शेयर बाजार में बिकवाली कर रहे हैं.

सजीवन को सरकार पर पूरा भरोसा है और एंड्रयू को भारत से जुड़ी उम्मीदों पर. लेकिन दोनों अपनी पूरी समझ झोंक देने के बाद भी आने वाले वक्त को लेकर गहरे असमंजस में हैं.

सजीवन और एंड्रयू की साझी मुसीबत का शीर्षक है कल क्या होगा?

सजीवन आए दिन बदल रहे फैसलों से खौफजदा हैं. एंड्रयू को लगता है कि सरकार ने मंदी को न्योता दे दिया है, पता नहीं कल कौन-सा टैक्स थोप दे या नोटिस भेज दे इसलिए नुक्सान बचाते हुए चलना बेहतर.

सजीवन मन की बात कह नहीं पाते, बुदबुदा कर रह जाते हैं जबकि एंड्रयू तराशी हुई अंग्रेजी में रूपक गढ़ देते हैं, ''म ऐसी बस में सवार हैं जिसमें उम्मीदों के गीत बज रहे हैं. मौसम खराब नहीं है. बस का चालक भरोसेमंद है लेकिन वह इस कदर रास्ते बदल रहा है कि उसकी ड्राइविंग से कलेजा मुंह को आ जाता है. पता ही नहीं जाना कहां है?"

नोटबंदी से पस्त सजीवन कपाल पर हाथ मार कर चुप रह जाते हैं. लेकिन एंड्रयू, डिमॉनेटाइजेशन को भारत का ब्लैक स्वान इवेंट कह रहे हैं. सनद रहे कि नोटबंदी के बाद विदेशी निवेशकों ने नवंबर महीने में 19,982 करोड़ रु. के शेयर बेचे हैं. यह 2008 में लीमन ब्रदर्स बैंक तबाही के बाद भारतीय बाजार में सबसे बड़ी बिकवाली है.


ब्लैक स्वान इवेंट यानी पूरी तरह अप्रत्याशित घटना. 2008 में बैंकों के डूबने और ग्लोबल मंदी के बाद निकोलस नसीम तालेब ने वित्तीय बाजारों को इस सिद्धांत से परिचित कराया था. क्वांट ट्रेडर (गणितीय आकलनों के आधार पर ट्रेडिंग) तालेब को अब दुनिया वित्तीय दार्शनिक के तौर पर जानती है. ब्लैक स्वान इवेंट की तीन खासियतें हैः

एकऐसी घटना जिसकी हम कल्पना भी नहीं करते. इतिहास हमें इसका कोई सूत्र नहीं देता.
दोघटना का असर बहुत व्यापक और गहरा होता है.
तीनघटना के बाद ऐसी व्याख्याएं होती हैं जिनसे सिद्ध हो सके कि यह तो होना ही था

ब्लैक स्वान के सभी लक्षण नोटबंदी में दिख जाते हैं.

इसलिए अनिश्चितता 2016 की सबसे बड़ी न्यूजमेकर है.

और

नोटबंदी व ग्लोबल बदलावों के लिहाज से 2017, राजनैतिक-आर्थिक गवर्नेंस के लिए सबसे असमंजस भरा साल होने वाला है.

ब्लैक स्वान थ्योरी के मुताबिक, आधुनिक दुनिया में एक घटना, दूसरी घटना को तैयार करती है. जैसे लोग कोई फिल्म सिर्फ इसलिए देखते हैं क्योंकि अन्य लोगों ने इसे देखा है. इससे अप्रत्याशित घटनाओं की शृंखला बनती है. नोटबंदी के बाद उम्मीद थी कि भ्रष्टाचार खत्म होगा लेकिन यह नए सिरे से फट पड़ेगा, बेकारी-मंदी आ जाएगी यह नहीं सोचा था.

नोटबंदी न केवल खुद में अप्रत्याशित थी बल्कि यह कई अप्रत्याशित सवाल भी छोड़कर जा रही है, जिन्हें सुलझाने में इतिहास हमारी कोई मदद नहीं करता क्योंकि ब्लैक स्वान घटनाओं के आर्थिक नतीजे आंके जा सकते हैं, सामाजिक परिणाम नहीं.
  • नोटबंदी के बाद नई करेंसी की जमाखोरी का क्या होगाक्या नकदी रखने की सीमा तय होगीडिजिटल पेमेंट सिस्टम अभी पूरी तरह तैयार नहीं है. क्या नकदी का संकट बना रहेगाकाम धंधा कैसे चलेगा?
  • नई करेंसी का सर्कुलेशन शुरू हुए बिना नए नोटों की आपूर्ति का मीजान कैसे लगेगानकद निकासी पर पाबंदियां कब तक जारी रहेंगी ?
  • नकदी निकालने की छूट मिलने के बाद लोग बैंकों की तरफ दौड़ पडे तो ?
  • कैश मिलने के बाद लोग खपत करेंगे या बचतयदि बचत करेंगे तो सोना या जमीन-मकान खरीद पाएंगे या नहीं.
और सबसे बड़ा सवाल

इस सारी उठापटक के बाद क्या अगले साल नई नौकरियां मिलेंगी? कमाई के मौके बढेंग़े? या फिर 2016 जैसी ही स्थिति रहेगी?

भारत को ब्लैक स्वान घटनाओं का तजुर्बा नहीं है. अमेरिका में 2001 का डॉट कॉम संकट और जिम्बाब्वे की हाइपरइन्क्रलेशन (2008) इस सदी की कुछ ऐसी घटनाएं थीं. शेष विश्व की तुलना में भारतीय आर्थिक तंत्र में निरंतरता और संभाव्यता रही है. विदेशी मुद्रा संकट के अलावा ताजा इतिहास में भारत ने बड़े बैंकिंग, मुद्रा संकट या वित्तीय आपातकाल को नहीं देखा. 

आजादी के बाद आए आर्थिक संकटों की वजह प्राकृतिक आपदाएं (सूखा) या ग्लोबल चुनौतियां (तेल की कीमतें, पूर्वी एशिया मुद्रा संकट या लीमन संकट) रही हैं, जिनके नतीजे अंदाजना अपेक्षाकृत आसान था और जिन्हें भारत ने अपनी देसी खपत व भीतरी ताकत के चलते झेल लिया. नोटबंदी हर तरह से अप्रत्याशित थी इसलिए नतीजों को लेकर कोई मुतमइन नहीं है और असुरक्षा से घिरा हुआ है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सक्रिय राजनेता हैं. वह जल्द से जल्द से कुछ बड़ा कर गुजरना चाहते हैं. हमें मानना चाहिए कि वह सिर्फ चुनाव की राजनीति नहीं कर रहे हैं. पिछले एक साल में उन्होंने स्कीमों और प्रयोगों की झड़ी लगा दी है लेकिन इनके बीच ठोस मंजिलों को लेकर अनिश्चितता बढ़ती गई है. 

2014 में मोदी को चुनने वाले लोग नए तरह की गवर्नेंस चाहते थे जो रोजगार, बेहतर कमाई और नीतिगत निरंतरता की तरफ ले जाती हो. प्रयोग तो कई हुए हैं लेकिन पिछले ढाई साल में रोजगार और कमाई नहीं बढ़ी है. पिछली सरकार अगर नीति शून्यता (पॉलिसी पैरालिसिस) का चरम थी तो मोदी सरकार नीति रोमांच (पॉलिसी एडवेंचरिज्म) की महारथी है.

ब्लैक स्वान वाले तालेब कहते हैं विचार आते-जाते हैं, कहानियां ही टिकाऊ हैं लेकिन एक कहानी को हटाने के लिए दूसरी कहानी चाहिए. नोटबंदी की कहानी बला की रोमांचक है, लेकिन अब इससे बड़ी कोई कहानी ही इसकी जगह ले सकती है जिस पर उम्मीद को टिकाया जा सके. 

क्या 2017 में अनिश्चितता और असमंजस से हमारा पीछा छूट पाएगा?

Wednesday, July 20, 2016

ताकि नजर आए बदलाव

सरकार बदलने से जिंदगी में बदलाव महसूस कराने का लक्ष्य जटिल व महत्वाकांक्षी है

ह अनायास नहीं था कि मंत्रिपरिषद को फेंटने से ठीक पहले प्रधानमंत्री ने कुछ अखबारों को दिए अपने साक्षात्कार में बेबाकी के साथ कहा कि ''मेरे लिए सफलता का अर्थ यह है कि लोग बदलाव महसूस करें. यदि उपलब्धियों का दावा करना पड़े तो मैं इसे सफलता नहीं मानूंगा."
प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी से ठीक एक सप्ताह पहले सरकार के दो साल पूरे होने का अभियान खत्म हुआ था जो देश बदलने के अभूतपूर्व दावों से भरपूर था. इसमें आंकड़ोंदावोंसूचनाओं की बाढ़-सी आ गई थी लेकिन प्रधानमंत्री ने उन मंत्रियों को ही बदल दिया जो पूरे जोशो-खरोश से यह स्थापित करने में लगे थे कि जो बदलाव 60 साल में नहीं हुएवे दो साल में हो गए हैं.
दरअसल यह फेरबदल बताता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब दिल्ली के लिए नए नहीं रहे. दो साल में उन्होंने सरकार और अपनी टीम के बारे में बहुत कुछ जान-समझ लिया है. उनका एक अपना स्वतंत्र सूचना तंत्र भी है जो उन्हें दावों और हकीकत का फर्क बता रहा है. यह हकीकत पांच घंटे की उस समीक्षा बैठक में भी सामने आई थी जो प्रधानमंत्री ने मंत्रिपरिषद में फेरबदल से ठीक पहले बुलाई थी.
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के बदलाव ने भले ही सुर्खियां बटोरीं हों लेकिन ताजा फेरबदल का शिकार हुए प्रत्येक मंत्री के पिछले दो साल के कामकाज को करीब से देखिए तो पता चल जाएगावह क्यों बदला गयाग्रामीण विकास मंत्रालय में बदलाव प्रधानमंत्री स्वच्छता मिशन की असफलता से निकला. संसदीय समन्वय में कमी के चलते पूरी संसदीय टीम बदल गई. कॉल ड्रॉप रोकने में असफलता ने संचार मंत्री बदले बल्कि मंत्रालय भी दो-फाड़ हो गया. स्टील और खनन मंत्रालय भी इसी राह चला. कानून और खनन मंत्रालयों के मुखिया बदलने के पीछे भी पिछले दो साल का कामकाज ही है. जहां खराब प्रदर्शन के बावजूद मंत्री जमे रहे हैं तो वहां शायद राजनैतिक मजबूरियां गवर्नेंस के पैमानों पर भारी पड़ी हैं.
अलबत्ता मंत्रालयी विश्लेषणों से परे इस फेरबदल का व्यापक संदेश प्रधानमंत्री के इस साहसी स्वीकार से निकलता है कि बदलाव है तो महसूस होना चाहिए. आज दो साल बाद अगर प्रधानमंत्री उन उम्मीदों को कमजोर होता पा रहे हैं तो हमें यह भी मानना चाहिए कि वे मंत्रिमंडल फेरदबल तक सीमित नहीं रहना चाहेंगे बल्कि उन दूसरी कमजोर कडिय़ों को भी संभालने की कोशिश करेंगेजो बड़े बदलावों को जमीन पर उतरने से रोक रही हैं.
एक ताकतवर पीएमओ की छवि के विपरीत जाकर क्या प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों को अब अधिकारों से लैस करना चाहेंगेकेंद्र सरकार को चलाने का ढंग राज्यों से अलग है. केंद्रीय गवर्नेंस का इतिहास गवाह है कि प्रधानमंत्री मंत्रियों को अधिकारों से लैस करते हैं और मंत्री अपने अधिकारियों को. मंत्रियों को मिली आजादी और अधिकार नीतियां बनाने और नीतियों को लागू करने की प्रक्रिया तय करने के लिए जरूरी है.
पिछले दो साल में सरकार ने कई नई पहल की हैं लेकिन ज्यादातर फैसले स्कीमों की घोषणा तक सीमित थे. सरकार के महत्वाकांक्षी मिशन वह असर पैदा करने में सफल नहीं हुए जिसकी उम्मीद खुद प्रधानमंत्री को थी. मोबाइल कॉल ड्रॉप डिजिटल इंडिया की चुगली खाते हैंकिसानों की आत्महत्याएं ग्रामोदय को ग्रस लेती हैं या शहरों में बदस्तूर गंदगी स्वच्छता मिशन को दागी कर देती है या नए निवेश की बेरुखी मेक इन इंडिया की चमक छीन लेती है. इस तरह के सभी मिशन पूरक नीतियांप्रक्रियाएं और लक्ष्य मांगते हैंइसलिए नीतियों और व्यवस्थाओं में बदलाव जरूरी है.  
प्रधानमंत्री ने पिछले दो साल में जिस तेवर-तुर्शी के बदलावों का सपना रोपाराज्य सरकारें उसके मुताबिक सक्रिय नहीं नजर आईं. राज्य सरकारें जो मोदी की विकास रणनीति की ताकत हो सकती थींफिलहाल कुछ बड़ा कर गुजरती नहीं दिखीं हैं. कांग्रेस अपने दस साल के ताजा शासन में राज्यों से जिस समन्वय के लिए तरसती रही थीवह बीजेपी को संयोग से अपने आप मिल गया. दशकों बाद पहली बार ऐसा हुआ,  जब 12 राज्यों  में उस गठबंधन या पार्टी की सरकार हैं जो केंद्र में बहुमत के साथ सरकार चला रहा है.
देश का लगभग 40 फीसदी जीडीपी संभालने वाले नौ बड़े राज्यों में बीजेपी या उसके सहयोगी दल राज्य कर रहे हैं जो केंद्र सरकार की स्कीमों के क्रियान्वयन के लिए सबसे बेहतर मौका है. लेकिन पिछले दो साल में राज्यों ने प्रधानमंत्री की किसी भी प्रमुख स्कीम के क्रियान्वयन में कोई बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं की. मंडी कानून को खत्म करनेनिवेश और कारोबार को सहज करने या खदानों के ई-ऑक्शन जैसे कार्यक्रम बीजेपी शासित राज्यों में भी उस उत्साह के साथ आगे नहीं बढ़े जिसकी उम्मीद थी. 
शिक्षास्वास्थ्यग्रामीण विकासनगर विकास जैसी सामाजिक सेवाओं की प्रभावी जिम्मेदारी अब राज्यों के हाथ है. केंद्र सरकार इसके लिए संसाधनों के आवंटन कर रही है. पिछले दो साल में सबसे सीमित विकास इन सामाजिक सेवाओं में दिखा हैजो बीजेपी की राजनैतिक आकांक्षाओं के लिए नुक्सानदेह है. 
इस फेरबदल से आगे बढ़ते हुए अब प्रधानमंत्री को राज्यों के साथ समन्वय का सक्रिय व प्रभावी ढांचा विकसित करना होगा. नीति आयोग राज्यों से समन्वय और नीतियों की नई व्यवस्था में अभी तक कोई ठोस योगदान नहीं कर सका हैउसे सक्रिय करना जरूरी है. राज्य यदि बढ़-चढ़कर आगे नहीं आए तो केंद्रीय मंत्रालय कोई ठोस असर नहीं छोड़ सकेंगे. 

मंत्रिपरिषद में बदलाव से चुनाव नहीं जीते जाते. सरकार बदलने से जिंदगी में बदलाव महसूस कराने का लक्ष्य जटिल व महत्वाकांक्षी है. यह अच्छे दिन के संदेश व उम्मीदों से ही जुड़ता है जो नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान का आधार था. शुक्र है कि प्रधानमंत्री को बदलाव नजर न आने की हकीकत का एहसास है इसलिए हमें मानना चाहिए कि सरकार का पुनर्गठन अभी शुरू ही हुआ है. प्रधानमंत्री अपनी टीम के बाद स्कीमोंनीतियों और प्रक्रियाओं को भी बदलेंगे ताकि उपलब्धियां महसूस हो सकेउनका दावा न करना पड़े.

Tuesday, January 5, 2016

आकस्मिकता के विरुद्ध


अगर नए साल की शुरुआत संकल्पों से होती है तो सरकारों, अदालतों, एजेंसियों, राजनेताओं को आकस्मिकता के विरुद्ध और नीतियों में निरंतरता का संकल्प लेना चाहिए.

भारत में जान-माल यकीनन महफूज हैं लेकिन कारोबारी भविष्य सुरक्षित रहने की गारंटी नहीं है. पता नहीं कि सरकारें या अदालतें कल सुबह नीतियों के ऊंट को किस करवट तैरा देंगी इसलिए धंधे में नीतिगत जोखिमों का इंतजाम जरूरी रखिएगा, भले ही सेवा या उत्पाद कुछ महंगे हो जाएं. यह झुंझलाई हुई टिप्पणी एक बड़े निवेशक की थी जो हाल में भारत में नीतियों की अनिश्चितता को बिसूर रहा था. अगर नए साल की शुरुआत संकल्पों से होती है तो सरकारों, अदालतों, एजेंसियों, राजनेताओं को आकस्मिकता के विरुद्ध और नीतियों में निरंतरता का संकल्प लेना चाहिए. नीतियों की अनिश्चितता केवल उद्यमियों की मुसीबत नहीं है. युवाओं से लेकर अगले कदम उठाने तक को उत्सुक नौकरीपेशा और सामान्य उपभोक्ताओं से लेकर रिटायर्ड तक, किसी को नहीं मालूम है कि कौन-सी नीति कब रंग बदल देगी और उन्हें उसके असर से बचने का इंतजाम तलाशना होगा.
दिल्ली की सड़कों पर ऑड-इवेन का नियम तय करते समय क्या दिल्ली सरकार ने कंपनियों से पूछा था कि वे अपने कर्मचारियों की आवाजाही को कैसे समायोजित करेंगी? इससे उनके संचालन कारोबार और विदेशी ग्राहकों को होने वाली असुविधाओं का क्या होगा? बड़ी डीजल कारों को बंद करते हुए क्या सुप्रीम कोर्ट ने यह समझने की कोशिश की थी कि पिछले पांच साल में ऑटो कंपनियों ने डीजल तकनीक में कितना निवेश किया है. केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद बाजार में दीवाली मना रहे निवेशकों को इस बात का इलहाम ही नहीं था कि उन्हें टैक्स के नोटिस उस समय मिलेंगे जब वे नई व स्थायी टैक्स नीति की अपेक्षा कर रहे थे. ऐसे उदाहरणों की फेहरिस्त लंबी है जिन्होंने भारत को सरकारी खतरों से भरा ऐसा देश बना दिया है जहां नीतियों की करवटों का अंदाज मौसम के अनुमान से भी कठिन है.
लोकतंत्र बदलाव से भरपूर होते हैं लेकिन बड़े देशों में दूरदर्शी स्थिरता की दरकार भी होती है. भारत इस समय सरकारी नीतियों को लेकर सबसे जोखिम भरा देश हो चला है. यह असमंजस इसलिए ज्यादा खलता है क्योंकि जनता ने अपने जनादेश में कोई असमंजस नहीं छोड़ा था. पिछले दो वर्षों के लगभग सभी जनादेश दो-टूक तौर पर स्थायी सरकारों के पक्ष में रहे और जो परोक्ष रूप से सरकारों से स्थायी और दूरदर्शी नीतियों की अपेक्षा रखते थे. अलबत्ता स्वच्छ भारत जैसे नए टैक्स हों या सरकारों के यू-टर्न या फिर चलती नीतियों में अधकचरे परिवर्तन हों, पूरी गवर्नेंस एक खास किस्म के तदर्थवाद से भर गई है.
गवर्नेंस का यह तदर्थवाद चार स्तरों पर सक्रिय है और गहरे नुक्सान पैदा कर रहा है. पहला&आर्थिक नीतियों में संभाव्य निरंतरता सबसे स्पष्ट होनी चाहिए लेकिन आयकर, सेवाकर, औद्योगिक आयकर से जुड़ी नीतियों में परिवर्तन आए दिन होते हैं. जीएसटी को लेकर असमंजस स्थायी है. आयकर कानून में बदलाव की तैयार रिपोर्ट (शोम समिति) को रद्दी का टोकरा दिखाकर नई नीति की तैयारी शुरू हो गई है. कोयला, पेट्रोलियम, दूरसंचार, बैंकिंग जैसे कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां अगले सुधारों का पता नहीं है. इस तरह की अनिश्चितता निवेशकों को जोखिम लेने से रोकती है.
दूसरा क्षेत्र सामाजिक नीतियों व सेवाओं से जुड़ा है, जहां लोगों की जिंदगी प्रभावित हो रही है. मसलन, मोबाइल कॉल ड्राप को ही लें. मोबाइल नेटवर्क खराब होने पर कंपनियों पर जुर्माने का प्रावधान हुआ था लेकिन कंपनियां अदालत से स्टे ले आईं. अब सब कुछ ठहर गया है. सामाजिक क्षेत्रों में निर्माणाधीन नीतियों का अंत ही नहीं दिखता. आज अगर छात्र अपने भविष्य की योजना बनाना चाहें तो उन्हें यह पता नहीं है कि आने वाले पांच साल में शिक्षा का परिदृश्य क्या होगा या किस पढ़ाई से रोजगार मिलेगा.
नीतियों की अनिश्चितता के तीसरे हलके में वे अनोखे यू-टर्न हैं जो नई सरकारों ने लिए और फिर सफर को बीच में छोड़ में दिया. आधार कार्ड पर अदालती खिचखिच और कानून की कमी से लेकर ग्रामीण रोजगार जैसे क्षेत्रों में नीतियों का बड़ा शून्य इसलिए दिखता है, क्योंकि पिछली सरकार की नीतियां बंद हैं और नई बन नहीं पाईं. एक बड़ी अनिश्चितता योजना आयोग के जाने और नया विकल्प न बन पाने को लेकर आई है. जिसने मंत्रालयों व राज्यों के बीच खर्च के बंटवारे और नीतियों की मॉनिटरिंग को लेकर बड़ा खालीपन तैयार कर दिया है.
नीतिगत अनिश्चितता का चौथा पहलू अदालतें हैं, जो किसी समस्या के वर्तमान पर निर्णय सुनाती हैं लेकिन उसके गहरे असर भविष्य पर होते हैं. अगर सरकारें नीतियों के साथ तैयार हों तो शायद अदालतें कारों की बिक्री पर रोक, प्रदूषण कम करने, नदियां साफ करने, गरीबों को भोजन देने या पुलिस को सुधारने जैसे आदेश देकर कार्यपालिका की भूमिका में नहीं आएंगी बल्कि अधिकारों पर न्याय देंगी.
भारत में आर्थिक उदारीकरण और ग्लोबलाइजेशन का एक पूरा दौर बीतने के बाद गवर्नेंस की नसीहतों के साथ दीर्घकालीन नीतियों की जरूरत थी. लेकिन सरकार की सुस्त चाल, पिछली नीतियों पर यू-टर्न, छोटे-मोटे दबावों और राजनैतिक आग्रह एवं अदालतों की सक्रियता के कारण नीतिगत अनिर्णय उभर आया है. कांग्रेस की दस साल की सरकार एक खास किस्म की शिथिलता से भर गई थी लेकिन सुधारों की अगली पीढिय़ों का वादा करते हुए सत्ता में आई मोदी सरकार नीतियों का असमंजस और अस्थिरता और बढ़ा देगी, इसका अनुमान नहीं था.

चुनाव पश्चिम के लोकतंत्रों में भी होते हैं. वहां राजनैतिक दलों के वैर भी कमजोर नहीं होते लेकिन नीतियों का माहौल इतना अस्थिर नहीं होता. अगर नीतियां बदली भी जाती हैं तो उन पर प्रभावित पक्षों से लंबी चर्चा होती है, भारत की तरह अहम फैसले लागू नहीं किए जाते हैं. नीतिगत दूरदर्शिता, समस्याओं से सबसे बड़ा बचाव है. लेकिन जैसा कि मशहूर डैनिश दार्शनिक सोरेन कीर्केगार्द कहते थे कि मूर्ख बनने के दो तरीके हैं एक झूठ पर भरोसा किया जाए और दूसरा सच पर विश्वास न किया जाए. भारत की गवर्नेंस व नीतिगत पिलपिलेपन के कारण लोग इन दोनों तरीकों से मूर्ख बन रहे हैं. क्या नया साल हमें नीतिगत आकस्मिकता से निजात दिला पाएगा? संकल्प करने में क्या हर्ज है.