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Friday, June 12, 2020

कल्याणकारी राज्य की त्रासदी



रेल की पटरियों पर रोटियों के साथ पड़ा गरीब कल्याण, महामारी के शिकार लोगों की तादाद में रिकॉर्ड बढ़ोतरी, चरमराते अस्पताल, लड़ते राजनेता, अरबों की सब्सिडी के बावजूद भूखों को रोटी-पानी के लिए लंगरों का आसरा... यही है न तुम्हारा वेलफेयर स्टेट या कल्याणकारी राज्य! जिसे भारी टैक्स, विशाल नौकरशाही और वीआइपी दर्जों और असंख्य स्कीमों के साथ गढ़ा गया था!

जान और जहान पर इस अभूतपूर्व संकट में कितना काम आया यह? इससे तो बाजार और निजी लोगों ने ज्यादा मदद की हमारी! यह कहकर गुस्साए प्रोफेसर ने फोन पटक दिया.

यह झुंझलाहट किसी की भी हो सकती है जिसने बीते तीन माह में केंद्र से लेकर राज्य तक भारत के वेलयफेयर स्टेट को बार-बार ढहते देखा है. इस महामारी में सरकार से चार ही अपेक्षाएं थीं. लेकिन महामारी जितनी बढ़ी, सरकार बिखरती चली गई.  

स्वास्थ्य सुविधाएं कल्याणकारी राज्य का शुभंकर हैं. लेकिन चरम संक्रमण के मौके पर निजाम ने लोगों को उनके हाल पर छोड़ कर नई सुर्खियों के आयोजन में ध्यान लगा दिया. इस सवाल का जवाब कौन देगा कि भारत जहां निजी स्वास्थ्य ढांचा सरकार से ज्यादा बड़ा है, उसे किस वजह से पूरी व्यवस्था से बाहर रखा गया? कोरोना के विस्फोट के बाद मरीज उन्हीं निजी अस्पतालों के हवाले हो गए जिन्हें तीन माह तक काम ही नहीं करने दिया गया.
सनद रहे कि यही निजी क्षेत्र है जिसने एक इशारे पर दवा उत्पादन की क्षमता बढ़ा दी, वैक्सीन पर काम शुरू हो गया. वेंटिलेटर बनने लगे. पीपीई किट और मास्क की कमी खत्म हो गई. 

दूसरी तरफ, सरकार भांति-भांति की पाबंदियां लगाने-खोलने में लगी रही लेकिन कोरोना जांच की क्षमता नहीं बना पाई, जिसके जरिए ज्यादा से ज्यादा लोगों को संक्रमण से बचाया जा सकता था.

भोजनदेश में बड़े पैमाने पर भुखमरी नहीं आई तो इसकी वजह वे हजारों निजी अन्नक्षेत्र हैं जो हफ्तों से खाना बांट रहे हैं. 1.16 लाख करोड़ रु. की खाद्य सब्सिडी के बावजूद जीविका विहीन परिवारों को सरकार दो जून की रोटी या भटकते मजदूरों को एक बोतल पानी तक नहीं दे सकी. राशन कार्ड व्यवस्था में झोल और सुस्त नौकरशाही के कारण सरकार का खाद्य तंत्र संसाधनों की लूट के काम आया, भूखों के नहीं.

लॉकडाउन के बीच घर पहुंचाने की व्यवस्था यानी संपर्क की जिम्मेदारी सरकार पर थी. जिस सामाजिक दायित्व के नाम पर रेलवे की अक्षमता को पाला जाता है, सड़क पर भटकते लाखों मजदूर, उसे पहली बार 1 मई को नजर आए. रेल मंत्रालय के किराए को लेकर राज्यों के साथ बेशर्म बहस का समय था लेकिन उसके पास भारत के विशाल निजी परिवहन तंत्र के इस्तेमाल की कोई सूझ नहीं थी, अंतत: गैर सरकारी लोगों ने इन्हीं निजी बसों के जरिए हजारों लोगों को घर पहुंचाया. रेलवे की तुलना में निजी दूरसंचार कंपनियों ने इस लॉकडाउन में वर्क फ्रॉम होम के दबाव को बखूबी संभाला.

चौथी स्वाभाविक उम्मीद जीविका की थी लेकिन 30 लाख करोड़ रु. के बजट वाली सरकार को अब एहसास हुआ है कि करोड़ों असंगठित श्रमिकों के लिए उसके पास कुछ है नहीं. क्रिसिल के अनुसार, करीब 5.6 करोड़ किसान परिवार पीएम किसान के दायरे से बाहर हैं. कोविड के मारों (केवल 20.51 करोड़ महिला जनधन खातों में, कुल खाते 38 करोड़) को हर महीने केवल 500 रु. (तीन माह तक) की प्रतीकात्मक (तीन दिन की औसत मजदूरी से भी कम) मदद मिल सकी है. बेकारी का तूफान सरकार की चिंताओं का हिस्सा नहीं है.

ठीक कहते थे मिल्टन फ्रीडमैन, हम सरकारों की मंशा पर थाली-ताली पीट कर नाच उठते हैं, नतीजों से उन्हें नहीं परखते और हर दम ठगे जाते हैं. सड़कों पर भटकते मजदूर, अस्पतालों से लौटाए जाते मरीज भारत के कल्याणकारी राज्य का बदनुमा रिपोर्ट कार्ड हैं, जबकि उनकी मदद को बढ़ते निजी हाथ हमारी उम्मीद हैं.

स्कीमों और सब्सिडी के लूट तंत्र को खत्म कर सुविधाओं और सेवाओं का नया प्रारूप बनाना जरूरी है, जिसमें निजी क्षेत्र की पारदर्शी हिस्सेदारी हो. पिछले दो वर्षों में छह प्रमुख राज्यों (आंध्र, ओडिशा, तेलंगाना, हरियाणा, बंगाल, झारखंड) ने लाभार्थियों को नकद हस्तांतरण की स्कीमों को अपनाया है, जिन पर 400 करोड़ रु. से 9,000 करोड़ रु. तक खर्च हो रहे हैं.

यह सवाल अब हमें खुद से पूछना होगा कि इस महामारी के दौरान जिस वेलयफेर स्टेट से हमें सबसे ज्यादा उम्मीद थी वह पुलिस स्टेट (केंद्र और राज्यों के 4,890 आदेश जारी हुए) में क्यों बदल गया, जिसने इलाज या जीविका की बजाए नया लाइसेंस
और इंस्पेक्टर राज हमारे चेहरे पर छाप दिया.

लोकतंत्र में लोग भारी भरकम सरकारों को इसलिए ढोते हैं क्योंकि मुसीबत में राज्य या सत्ता उनके साथ खड़ी होगी नहीं तो थॉमस जेफसरसन ठीक ही कहते थे, हमारा ताजा इतिहास हमें सिर्फ इतना ही सूचित करता है कि कौन सी सरकार कितनी बुरी थी.
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Monday, April 11, 2016

एक लाख करोड़ का सवाल


सब्सिडी गरीबी की नहीं बल्कि अमीरी की राजनीति का शिकार है. सब्सिडी पर नए तथ्य सबूत हैं कि निम्न तो छोड़िए, मध्यम वर्ग भी अब सब्सिडी के बड़े हिस्से के दायरे में नहीं है. 

गर आप यह मानते हैं कि सब्सिडी की पूरी राजनीति केवल निम्न व मध्यम वर्ग के लिए है तो अगली पंक्तियां ध्यान से पढ़िए. भारत में हर साल एक लाख करोड़ रु. की सब्सिडी अमीरों की जेब में जाती है और वह भी केवल सात बड़ी सेवाओं पर. सभी तरह की सेवाओं पर आंकड़ा और बड़ा हो सकता है. भारत में छोटी बचतों पर कर रियायतों का फायदा उठाने वाले 62 फीसदी लोग चार लाख रुपए से ज्यादा की सालाना आय वाले हैं यानी छोटी आय वाले हरगिज नहीं.
सब्सिडी की बहस में अब सिर्फ गरीब-गुरबों और मझोले तबके को कोसने से काम नहीं चलने वाला. इस पेचीदगी की समझने के लिए रियायतों के उस दालान में उतरना होगा जहां अमीरी का राज है.  2015-16 की आर्थिक समीक्षा ने सब्सिडीखोरी के इस तपकते फोड़े को छूने की कोशिश की है. इससे अमीरों को जा रही सब्सिडी की एक छोटी-सी तस्वीर हमारे सामने आई, जिसमें साफ नजर आता है कि छोटी बचत स्कीमें, सोना, बिजली, केरोसिन, रेलवे किराया और विमान ईंधन जैसी सेवाएं जिन पर सरकार सब्सिडी देती है, उनका फायदा समाज के खाए-अघाए लोग उठाते हैं. यहां गरीबों से हमारा मतलब 30 फीसदी लोगों से है जो आबादी में खपत और आमदनी के हिसाब से सबसे नीचे हैं. शेष 70 फीसदी लोगों को बेहतर माना जा सकता है. 
दुनिया की किसी सभ्यता में सोना (गोल्ड ) गरीबी से कोई रिश्ता नहीं रखता. सोना ऐसी वस्तु हरगिज नहीं है जिसकी खरीद के लिए टैक्स में रियायत दी जाए बल्कि हकीकत में तो सोने पर ऊंचे व भरपूर टैक्स की दरकार होती है. लेकिन भारत में सोने पर टैक्स का ढांचा हमारी पूरी टैक्स समझ पर अट्टहास करता है. हम दुनिया के उन कुछ चुनिंदा देशों में होंगे जहां सोने पर दो फीसदी से कम टैक्स लगता है. केंद्र व राज्य दोनों मिलकर सोने पर महज 1 से 1.6 फीसदी टैक्स लगाते हैं जबकि इसके बदले खाने-पीने की सामान्य चीजों से लेकर पेट्रोल-डीजल पर लोग 12.5 फीसदी से 25 फीसदी तक टैक्स चुकाते हैं. सोने पर अगर टैक्स की आदर्श दर 25 फीसदी मान ली जाए तो करीब पूरा देश जरूरी चीजों पर भारी टैक्स चुकाकर और अमीरी तथा समृद्धि के इस प्रतीक पर करीब 23 फीसदी टैक्स सब्सिडी देता है जिसका 98 फीसदी फायदा समृद्ध तबकों को जाता है. समीक्षा मानती है कि सोने पर टैक्स सब्सिडी 4,000 करोड़ रु. से ज्यादा है.
समृद्ध तबके के फायदे के मामले में एलपीजी सिलेंडर सोने से कम नहीं है. एक सिलेंडर बाजार मूल्य की तुलना में 36 फीसदी सस्ता मिलता है. भारत में 91 फीसदी एलपीजी कनेक्शन मझोले व उच्च वर्ग के पास हैं इसलिए एलपीजी पर अमीरों की सब्सिडीखोरी 40,000 करोड़ रु. की है.
इसी तरह रेलवे में अगर सामान्य व ऊंची श्रेणी के दर्जों की यात्रा पर लागत व सब्सिडी का हिसाब किया जाए तो किराए में मिल रही रियायत का करीब 34 फीसदी फायदा अमीरों को जाता है जो 3,671 करोड़ रु. है. बिजली दरों पर दी जा रही सब्सिडी का करीब 32 फीसदी (दिल्ली व तमिलनाडु के सैंपल) फायदा ऊपरी तबकों को जाता है. बिजली दरों पर अमीरों को मिल रही सब्सिडी 37,170 करोड़ रु. तक हो सकती है.
ईंधनों पर सब्सिडी की उलटबांसी में सबसे दिलचस्प मामला है विमानन ईंधन (एविएशन टर्बाइन फ्यूल-एटीएफ) का. भारत में एटीएफ पर औसतन 20 फीसदी टैक्स है जबकि पेट्रोल और डीजल पर अधिकतम 55 और 61 फीसदी. लिखना जरूरी नहीं है कि एटीएफ का इस्तेमाल किस वर्ग के परिवहन के लिए होता है. एटीएफ पर करीब 762 करोड़ रु. सब्सिडी समृद्ध तबके को जाती है. सरकार के अपने सर्वेक्षण मानते हैं कि सस्ता और सब्सिडीवाला 50 फीसदी केरोसिन अमीर तबके को जाता है और साथ में करीब 5,500 करोड़ रु. की सब्सिडी ले जाता है.
आर्थिक समीक्षा की मानी जाए तो इस साल के बजट में प्रॉविडेंट फंड की निकासी पर टैक्स लगाने को लेकर सरकार सही थी लेकिन अगर कोई समझता है कि इस फैसले पर यू-टर्न मध्यम वर्ग की जरूरत को ध्यान में रखकर हुआ तो वह गफलत में है. दरअसल, 12,000 करोड़ रु. की यह सब्सिडी भी करदाताओं में ऊंचे आय वर्गों के फायदे में दर्ज होती है. भारत में छोटी बचतों पर टैक्स छूट विवादित रही है क्योंकि इसके फायदे उठाने वालों की पैमाइश नहीं हो पाती. लेकिन ताजा आंकड़े आयकर की धारा 80 सी (बचत पर छूट) से फायदों की पड़ताल पर नई रोशनी डालते हैं. भारत में 30 फीसदी टैक्स के दायरे में आने वाले लोगों की औसत आय 24.7 लाख रु. सालाना है. कुल करदाताओं में इनका हिस्सा 1.1 फीसदी है. करदाताओं की यह जमात कमाई के आधार पर देश की आबादी में केवल 0.5 फीसदी बैठती है. बीस फीसदी के टैक्स की सीमा में आने वाले कुल करदाता, आबादी के महज 1.6 फीसदी हैं. पीपीएफ सहित छोटी बचतों पर ज्यादातर टैक्स छूट का लाभ इन्हीं दो वर्गों को मिलता है और उसमें भी सबसे ज्यादा सुपर रिच को.
सब्सिडीखोरी की यह सूची अंतिम नहीं है. एक लाख करोड़ रु. की इस सूची में सिर्फ छह जिंस या सेवाएं शामिल हैं और लघु बचतों के एक छोटे वर्ग को गिना गया है जो सब्सिडी, कर रियायतों, और किस्म-किस्म की छूट की विशाल दुनिया का एक सैंपल मात्र है. इसमें राज्यों में दी जाने वाली अलग-अलग तरह की रियायतें शामिल नहीं हैं, जिनमें पेयजल, सड़क परिवहन, संपत्ति कर, हाउस टैक्स और विभिन्न स्थानीय कर हैं. इनमें तमाम कर लागत से कम दर पर इसलिए लगाए जाते हैं ताकि उनका लाभ गरीबों और मझोले तबके को मिल सके.
समझना मुश्किल नहीं है कि भारत में सब्सिडी को संतुलित और तर्कसंगत बनाने की बहसें राजनैतिक जड़ क्यों नहीं पकड़तीं? दरअसल, सब्सिडी गरीबी की नहीं बल्कि अमीरी की राजनीति का शिकार है. सब्सिडी पर नए तथ्य सबूत हैं कि निम्न तो छोड़िए, मध्यम वर्ग भी अब सब्सिडी के बड़े हिस्से के दायरे में नहीं है. इसकी मलाई तो सिर्फ शहरी उच्च व उच्च मध्यम वर्ग काट रहा है जबकि गरीब व मझोले बेसबब ही सब्सिडी की तोहमत और लानत ढो रहे हैं.


Tuesday, July 14, 2015

यह तो मौका है!


सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री ने ये आंकड़े देखे होते तो न केवल उनकी नीतियों और कार्यक्रमों का डीएनए बदल गया होता बल्कि बीजेपी का राजनैतिक संवाद भी सिरे से तब्दील हो जाना चाहिए था.
याने लोग कहते हैं कि बार-बार मौके मुश्किल से मिलते हैं लेकिन नरेंद्र मोदी इस कहावत को गलत साबित कर रहे हैं. भारत की सामाजिक-आर्थिक गणना मोदी के लिए ऐसा अवसर लेकर आई है, जो शायद उनको मिले जनादेश से भी ज्यादा बड़ा है. देश की अधिकांश आबादी में गरीब और सामाजिक सुरक्षा के प्रयोगों की विफलता के आकलन पहले से मौजूद थे. ताजा सर्वेक्षण ने इन आकलनों को आंकड़ों का ठोस आधार देते हुए मोदी सरकार को, पूरे आर्थिक-सामाजिक नीति नियोजन को बदलने का अनोखा मौका सौंप दिया है.

इस सर्वेक्षण ने नीति नियोजन ढांचे की सबसे बड़ी कमी पूरी कर दी है. भारत दशकों से अपने लोगों की कमाई के अधिकृत आंकड़े यानी एक इन्कम डाटा की बाट जोह रहा था, जो हर आर्थिक फैसले के लिए अनिवार्य है. यहां सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के पांच बड़े नतीजों को जानना जरूरी है जो नीतियों और सियासत को प्रभावित करेंगेः (1) भारत में दस में सात लोग गांव में रहते हैं, (2) 30 फीसदी लोग खेती पर निर्भर हैं और 51 फीसदी लोग सिर्फ मजदूर हैं, (3) गांवों में हर पांच में चार परिवारों में सर्वाधिक कमाने वाले सदस्य की अधिकतम आय 5,000 रु. प्रति माह है. यानी पांच सदस्यों के परिवार में प्रति व्यक्ति आय प्रति माह एक हजार रु. से भी कम है, (4) 56 फीसद ग्रामीण भूमिहीन हैं, (5) 36 फीसदी ग्रामीण निरक्षर हैं. केवल तीन फीसदी लोग ग्रेजुएट हैं. ये आंकड़े केवल ग्रामीण आबादी की आर्थिक स्थिति बताते हैं. इसी सर्वेक्षण का शहरी हिस्सा अभी जारी होना है. जो शायद यह बताएगा कि शहरों में बसे 11 करोड़ परिवारों में 35 लाख परिवारों के पास आय का कोई साधन नहीं है.
ग्रामीण और शहरी (अनाधिकारिक) आर्थिक सर्वेक्षण के तीन बड़े निष्कर्ष हैं. पहला, देश की 70 फीसदी आबादी ग्रामीण है. दूसरा, शहरों-गांवों को मिलाकर करीब 90 फीसदी आबादी ऐसी है जो केवल 200 से 250 रु. प्रति दिन पर गुजारा करती है, और तीसरा भारत में मध्य वर्ग केवल 11 करोड़ लोगों का है जिनके पास एक सुरक्षित नियमित आय है.
इस आंकड़े के बाद कोई भी यह मानेगा कि देश में नीतियों के गठन की बुनियाद बदलने का वक्त आ गया है जिसकी शुरुआत उन पैमानों को बदलने से होगी जो सभी आर्थिक-सामाजिक नीतियों का आधार हैं. देश में गरीबी की पैमाइश बदले बिना अब काम नहीं चलेगा क्योंकि इन आंकड़ों ने साबित किया है कि भारत में गरीबी पिछली सभी गणनाओं से ज्यादा है. खपत सर्वेक्षण, महंगाई की गणना, रोजगारों का हिसाब-किताब, सामाजिक सुरक्षा की जरूरत हैं. फॉर्मूले भी नए सिरे से तय होंगे. खपत को आधार बनाकर भारत में असमानता घटने का जो आकलन (गिन्नी कोइफिशिएंट) किया जाता रहा है, इस आंकड़े की रोशनी में वह भी बदल जाएगा.
इन पैमानों को बदलते ही सरकारी नीतियां एक निर्णायक प्रस्थान बिंदु पर खड़ी दिखाई देंगी. सामाजिक-आर्थिक सेंसस के आंकड़े साबित करते हैं कि भारत में मनरेगा जैसे कार्यक्रम राजनैतिक सफलता क्यों लाते हैं? सस्ते अनाज के सहारे रमन सिंह, नवीन पटनायक या सस्ते भोजन के सहारे जयललिता लोकप्रिय और सफल कैसे बने रहते हैं जबकि औद्योगिक निवेश और बुनियादी ढांचे की सफलता पर वोटर नहीं रीझते. अलबत्ता आंकड़े यह भी बताते हैं कि लोकलुभावन नीतियों का ढांचा सिर्फ लोगों को जिंदा रख सकता है, उनकी जिंदगी बेहतर नहीं कर सकता.
अर्थव्यवस्था पर आर्थिक सुधारों के प्रभाव के समानांतर इन आंकड़ों की गहरी पड़ताल की जाए तो शायद नीतियों के एक नए रास्ते की जरूरत महसूस होगी, जो विकास के पूरे आयोजन को बदलने, गवर्नेंस के बड़े सुधार, तकनीकों का इस्तेमाल, संतुलित रूप से खुले बाजार और नए किस्म की स्कीमों से गढ़ा जाएगा. गरीबी की राजनीति यकीनन बुरी है लेकिन जब 90 फीसदी लोगों के पास आय सुरक्षा ही न हो तो रोजगार या भोजन देने वाली स्कीमों के बिना काम नहीं चलता. ऐसे में सामाजिक सुरक्षा देने के नए तरीके खोजने होंगे और रोजगारों को मौसमी व अस्थायी स्तरों से निकालकर स्थायी की तरफ ले जाना होगा.
आप पिछले छह दशक की ग्रामीण बदहाली को लेकर कांग्रेस को कोसने में अपना वक्त बर्बाद कर सकते हैं लेकिन सच यह है कि इन आंकड़ों के सामने आने का यह सबसे सही वक्त है. कांग्रेस के राज में अगर ये आंकड़े आए होते तो लोकलुभावनवाद का चरम दिख जाता. केंद्र में अब ऐसी सरकार है जो अतीत का बोझ उठाने के लिए बाध्य नहीं है. इसके पास मौका है कि वह भारत में नीतियों का रसायन नए सिरे से तैयार करे.
सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण और पुराने तजुर्बे ताकीद करते हैं कि देश को नीतियों व स्कीमों के भारी मकडज़ाल की जरूरत नहीं है. अचूक तकनीक, मॉनिटरिंग, राज्यों के साथ समन्वय से लैस और तीन चार बड़े सामाजिक कार्यक्रम पर्याप्त हैं, जिन्हें खुले और संतुलित बाजार के समानांतर चलाकर महसूस होने वाला बदलाव लाया जा सकता है.
सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री ने ये आंकड़े देखे होते तो न केवल उनकी नीतियों और कार्यक्रमों का डीएनए बदल गया होता बल्कि बीजेपी का राजनैतिक संवाद भी सिरे से तब्दील हो जाना चाहिए था. सर्वेक्षण के अनुसार 200 रु. से 250 रु. रोज पर गुजरा करने वाली अधिकांश आबादी के लिए बैंक खाते, बीमा वाली जनधन योजना लगभग बेमानी है. मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया या इस तरह के अन्य कार्यक्रम अधिकतम दस फीसदी लोगों को प्रभावित कर सकते हैं. यही वजह है कि दिहाड़ी पर जीने वाले 90 फीसदी और उनमें भी अधिकांश अल्पशिक्षित और अशिक्षित भारत पर मोदी सरकार के मिशन और स्कीमों का असर नजर नहीं आया है.
मोदी की नीतियों का पानी उतरे, उससे पहले देश की सामाजिक-आर्थिक हकीकत उनके हाथ में है. इन आंकड़ों की रोशनी में वे नीतियों और गवर्नेंस की नई शुरुआत कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें लोगों ने नई शुरुआत के लिए ही चुना है, अतीत की लकीरों पर नए रंग-रोगन के लिए नहीं.

Monday, December 2, 2013

बड़ी सूझ का पुर्नजन्‍म


गरीबी बनाम सब्सिडी और बजट घाटे बनाम जनकल्‍याण की उलझन के बीच बेसिक इनकम की पांच सदी पुरानी आदर्शवादी कल्‍पना नए सिरे से चमक उठी है। 

ह जनमत संग्रह अगर कामयाब हुआ तो स्विटजरलैंड को काले धन की जन्‍नत या खूबसूरत कुदरत के लिए ही नही बल्कि एक ऐसी अनोखी शुरुआत के लिए भी जाना जाएगा जो गरीबी उन्‍मूलन की पुरातन बहसों का सबसे बड़ा आइडिया है। स्विटजरलैंड अपनी जनता में हर अमीर-गरीब, मेहनती-आलसी, बेकार-कामगार, बुजर्ग-जवान को सरकारी खजाने से हर माह बिना शर्त तनख्‍वाह देने पर रायशुमारी करने वाला है। अर्थ और समाजशास्त्र इसे यूनिवर्सल बेसिक इनकम यानी सरकारी खर्च पर जनता की न्‍यूनतम नियमित आय कहता है। बजट घाटों से परेशान एंग्‍लो सैक्‍सन सरकारों को लगता है कि किस्‍म किस्‍म की सब्सिडी की जगह हर वयस्‍क को बजट से नियमित न्‍यूनतम राशि देना एक तर्कसंगत विकल्‍प है जबकि समाजशास्त्रियों के लिए तो यह गरीबी मिटाने की विराट सूझ के पुनर्जन्‍म जैसा है। इसलिए जनकल्‍याण के अर्थशास्‍त्र की यह पांच सदी पुरानी आदर्शवादी कल्‍पना नए सिरे से चमक उठी है
बेसिक इनकम की अवधारणा कहती है कि सरकार को प्रत्येक वयस्‍क नागरिक को बिना शर्त प्रति माह जीविका भर का पैसा देना चाहिए, इसके बाद लोग अपनी कमाई बढ़ाने के लिए स्‍वतंत्र हैं। स्विटजरलैंड में हर वयस्‍क को प्रतिमाह 2500 फ्रैंक दिये