Showing posts with label low inflation. Show all posts
Showing posts with label low inflation. Show all posts

Sunday, January 6, 2019

महंगाई की दूसरी धार


अभी खुदरा महंगाई सोलह महीने के सबसे निचले स्तर पर है और थोक महंगाई चार महीने के न्यूनतम स्तर पर लेकिन..

·       महंगाई में कमी और जीएसटी दरें कम होने के बावजूद खपत में कोई बढ़त नहीं है.

·   बिक्री में लगातार गिरावट के बावजूद कार कंपनियां कीमत बढ़ा रही हैं

·       जीएसटी में टैक्स कम होने के बावजूद सामान्यतः खपत खर्च में घरेलू सामान की खरीद का हिस्सा 50 फीसदी रह गया है, जो दस साल पहले 70 फीसदी होता था

·       जीएसटी के असर से उपभोक्ता उत्पादों या सेवाओं की कीमतें नहीं घटी 
हैं. कुछ कंपनियों ने लागत बढऩे की वजह से कीमतें बढ़ाई ही हैं

·       पर्सनल लोन की मांग जनवरी 2018 से लगातार घट रही है

·       उद्योगों को कर्ज की मांग में कोई बढ़त नहीं हुई क्योंकि नए निवेश नहीं हो रहे हैं  

·      महंगाई में कमी का आंकड़ा अगर सही है तो ब्याज दरें मुताबिक कम नहीं हुई हैं बल्कि बढ़ी ही हैं

इतनी कम महंगाई के बाद अगर लोग खर्च नहीं कर रहे तो क्या बचत बढ़ रही है?

लेकिन मार्च 2017 में बचत दर पांच साल के न्यूनतम स्तर पर थी. अब 
इक्विटी म्युचुअल फंड में निवेश घट रहा है.

महंगाई कम होना तो राजनैतिक नेमत है. इससे मध्य वर्ग प्रसन्न होता है. लेकिन तेल की कीमतों में ताजा बढ़त और रुपए की कमजोरी के बावजूद महंगाई नहीं बढ़ी है.

अर्थव्यवस्था जटिल हो चुकी है और सियासत दकियानूसी. महंगाई दुधारी तलवार है. अब लगातार घटते जाना अर्थव्यवस्था को गहराई से काट रहा है. महंगाई के न बढ़ने के मतलब मांग, निवेश, खपत में कमी, लागत के मुताबिक कीमत न मिलना होता है. महंगाई में यह गिरावट इसलिए और भी जटिल है क्योंकि दैनिक खपत वस्तुओं में स्थानीय महंगाई कायम है. यानी आटा, दाल, सब्जी, तेल की कीमत औसतन बढ़ी है जिसके स्थानीय कारण हैं.



पिछले चार साल में वित्त मंत्रालय यह समझ ही नहीं पाया कि उसकी चुनौती मांग और खपत में कमी है न कि महंगाई. किसी अर्थव्यवस्था में मांग को निर्धारित करने वाले चार प्रमुख कारक होते है.

एक —निजी उपभोग खर्च जिसका जीडीपी में हिस्सा 60 फीसदी होता था, वह घटकर अब 54 फीसदी के आसपास है. 2015 के बाद से शुरू हुई यह गिरावट अभी जारी है, यानी कम महंगाई और कथित तौर पर टैक्स कम होने के बावजूद लोग खर्च नहीं कर रहे हैं.

दो—अर्थव्यवस्था में पूंजी निवेश खपत की मांग से बढ़ता है. 2016-17 की पहली तिमाही से इसमें गिरावट शुरू हुई और 2017-18 की दूसरी तिमाही में यह जीडीपी के अनुपात में 29 फीसदी पर आ गया. रिजर्व बैंक मान रहा है कि मशीनरी का उत्पादन ठप है. उत्पादन क्षमताओं का इस्तेमाल घट रहा है. दिसंबर तिमाही में निवेश 14 साल के निचले स्तर पर है. ऑटोमोबाइल उद्योग इसका उदाहरण है.

तीन— निर्यात मांग को बढ़ाने वाला तीसरा कारक है. पिछले चार साल से निर्यात में व्यापक मंदी है. आयात बढ़ने के कारण जीडीपी में व्यापार घाटे का हिस्सा दोगुना हो गया है.

चार—100 रुपए जीडीपी में केवल 12 रुपए का खर्च सरकार करती है. इस खर्च में बढ़ोतरी हुई लेकिन 88 फीसदी हिस्से में तो मंदी है. खर्च बढ़ाकर सरकार ने घाटा बढ़ा लिया लेकिन मांग नही बढ़ी.

गिरती महंगाई एक तरफ किसानों को मार रही है, जिन्हें बाजार में समर्थन मूल्य के बराबर कीमत मिलना मुश्किल है. खुदरा कीमतें भले ही ऊंची हों लेकिन फल-सब्जियों की थोक कीमतों का सूचकांक पिछले तीन साल से जहां का तहां स्थिर है. दूसरी ओर, महंगाई में कमी जिसे मध्य वर्ग लिए वरदान माना जाता है वह आय-रोजगार के स्रोत सीमित कर रही है.

आय, खपत और महंगाई के बीच एक नाजुक संतुलन होता है. आपूर्ति का प्रबंधन आसान है लेकिन मांग बढ़ाने के लिए ठोस सुधार चाहिए. 2012-13 में जो होटल, ई कॉमर्स, दूरसंचार, ट्रांसपोर्ट जैसे उद्योग व सेवाएं मांग का अगुआई कर रहे थे, पिछले वर्षों में वे भी सुस्त पड़ गए. मोदी सरकार को अर्थव्यवस्था में मांग का प्रबंधन करना था ताकि लोग खपत करें और आय व रोजगार बढ़ें लेकिन नोटबंदी ने तो मांग की जान ही निकाल दी.

2009 में आठ नौ फीसदी की महंगाई के बाद भी यूपीए इसलिए जीत गया क्योंकि मांग व खपत बढ़ रही थी और सबसे कम महंगाई की छाया में हुए ताजा चुनावों में सत्तारूढ़ दल खेत रहा. तो क्या बेहद कम या नगण्य महंगाई 2019 में मोदी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती है, न कि महंगाई का बढ़ना? 

Monday, December 10, 2018

बेचैनी की जड़


समर्थन मूल्य में रिकॉर्ड बढ़ोतरी, किसानों की कर्ज माफी, खेती की ढेर सारी स्कीमें! फिर भी तीन महीने में दूसरी बार किसान दिल्ली में आ जुटे. ताजा चुनावों में गांवों में भारी मतदान पर कहीं पसीने तो कहीं मुस्कराहटें क्यों खिल उठी हैं. गुजरात के गांवों का गुस्सा चुनावी नजीर के तौर पर पेश होने लगा.

अगर किसानों का विरोध काठ की हांडी है तो बार-बार इतनी जल्दी आग पर क्यों चढ़ रही है?

गांवों में ऐसा कुछ हो रहा है जो सरकारों की पकड़ और समझ से बाहर है. राज्यों के निजाम भी नारेबाजी के बीच खेती को लेकर उपायों का सिरा खो बैठे हैं.

सरकारें समर्थन मूल्य के पार देख नहीं पा रही हैं. लागत से 50 फीसदी ज्यादा समर्थन मूल्य समाधान होता तो किसान रह-रहकर सड़कों पर नहीं होते. इस साल दुनिया के बाजार में अनाज की कीमतें भारत से कम हैं. रूस और अर्जेंटीना में रिकॉर्ड उत्पादन के साथ रबी मौसम में भारत में भी रिकॉर्ड उत्पादन हुआ.

पिछले सितंबर के बाद से सरकार ने गेहूं पर इंपोर्ट ड्यूटी 10 से बढ़ाकर 30 फीसदी, पाम ऑयल पर 25 से 40 फीसदी, सोयाबीन पर 25 से 35 फीसदी, चने पर 25 से 50 फीसदी और चीनी पर 40 से 50 फीसदी की है लेकिन इसके बावजूद इन सभी फसलों के दाम बाजार में काफी नीचे हैं. आयातित अनाज, समर्थन मूल्य से सस्ता है इसलिए किसान को बाजार में अनाज की वह कीमत कोई नहीं दे रहा, जो सरकार देती है. यकीनन भारी अनाज भंडार पर बैठी सरकार सारा अनाज खरीद भी नहीं सकती.

पिछले एक दशक में खेती तकनीकों में सुधार के बाद अनाज का पूरा ग्लोबल कारोबार बदल चुका है. समर्थन मूल्य की राजनीति खेती का बाजार बिगाड़ रही है. किसान भी अब यह जान रहा है कि अनाज उसे केवल सरकार को बेचना है इसलिए संकट कहीं दूसरी जगह है.

अनाज, गन्ना, दलहन और तिलहन के बाजार में सीमित विकल्प, आयात के असर, साल में एक बार कमाई और जोत का आकार छोटा होने के कारण भारतीय खेती का बुनियादी गणित बदल गया है. पिछले पांच-छह साल में किसान तेजी से फल-सब्जी और दूध की तरफ मुड़े हैं जो उन्हें दैनिक नकदी उपलब्ध कराते हैं.

दूध और फल-सब्जी का उत्पादन बढऩे की रक्रतार अनाज की तुलना में चार से आठ गुना ज्यादा है. छोटे मझोले किसानों की कमाई में इनका हिस्सा 20 से 30 फीसदी है. खेती का संकट अब फल-सब्जी और दूध के उत्पादन का है.

फल-सब्जी का थोक मूल्य सूचकांक पिछले तीन साल से जहां का तहां स्थिर है. ऐसा ही 2003-04 के चुनाव के पहले हुआ था. प्याज, आलू, दूध, अनार, लहसुन, फलों की भारी पैदावार और सही कीमतें न मिलने का संकट अब हर साल आता है. कृषि उत्पादों के लिए उपभोक्ताओं को भले ही ऊंची कीमत देनी पड़ रही हो लेकिन किसानों के लिए थोक की कीमतें नहीं बढ़ी हैं.

सरकार जहां समर्थन मूल्य दे रही है वहां बाजार किसान के माफिक नहीं है और जो वह उगा रहा है वहां सरकार का कोई दखल नहीं है. कच्ची फसलों के भंडारण की सुविधा नहीं है और राजनैतिक रसूख वाले व्यापारियों व सहकारी डेयरी (दूध) के कार्टेल किसान को भी लूट रहे हैं और उपभोक्ता को भी.

भारत में खेती की नीतियां किल्लत दूर करने पर केंद्रित हैं, जरूरत से अधिक पैदावार संभालने पर नहीं. कमी आयात से पूरी हो सकती है लेकिन ज्यादा उपज बेचने का कोई रास्ता नहीं है.

1933 में अमेरिका में मंदी के बाद राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने एग्री एडजस्टमेंट ऐक्ट के तहत कुछ फसलों के अतिरिक्त पैदावार घटाने के लिए प्रोत्साहन दिए थे जबकि कुछ नई फसलों की तरफ मोड़ा था. लेकिन भारतीय राजनीति के पास कुछ नया सोचने का वक्त ही नहीं है. उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र की नसीहतों के बाद अगर भाजपा ने, ताजा चुनावों में, किसान कर्ज माफी के वादे से किनारा किया तो कांग्रेस उसे ले उड़ी.

गांवों में मजदूरी बढऩे की दर तीन माह के सबसे निचले स्तर पर है. 2018-19 के बीच गांवों में इसमें 60 फीसदी की कमी की आशंका है. साथ ही लगभग सभी फसलें मंदी की चपेट में हैं. लेकिन भारतीय राजनीति खेती को जो दवा दे रही है उससे खेती का भला तो दूर, सियासत का भी भला नहीं हो रहा है.

इतिहास बताता है कि गांव गुस्सा हों तो सरकारें डगमगाती हैं. चार राज्यों के विधानसभा चुनाव वस्तुतः गांवों के चुनाव हैं. इनके नतीजों से हमें पता चलेगा कि राजनीति और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के रिश्तों में 2014 के बाद क्या बदलाव आया है.