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Tuesday, June 9, 2015

नीयत, नतीजे और नियति


नरेंद्र मोदी से ताबड़तोड़ मिशन और स्कीमों के ऐलान की उम्मीद किसी ने नहीं की थी. लोग तो यह समझ रहे थे कि मोदी गवर्नेंस के पुनर्गठन की नई सूझ लेकर आए हैं जिसमें पहले वे इस डायनासोरी सरकारी तंत्र को ठीक करेंगे 

राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन, सड़कें बुहारती वीआईपी छवियों के पाखंड से आगे नहीं बढ़ सका. सौ से अधिक सांसद तो आदर्श ग्राम योजना में गांव तक नहीं चुन सके और चुने हुए गांवों में कुछ बदला भी नहीं. जन धन में 15.59 करोड़ खाते खुले, लोगों ने 16,918 करोड़ रु. जमा भी किए लेकिन केवल 160 लोगों को बीमा और 8,000 लोगों को ओवरड्राफ्ट (महज 2,500 रु.) मिला. वित्त मंत्री अरुण जेटली को कहना पड़ा कि औद्योगिक निवेश नहीं बढ़ रहा है जो मेक इन इंडिया पर परोक्ष टिप्पणी थी. यह फेहरिस्त सरकार की असफलताओं की नहीं बल्कि बड़े इरादों के शुरुआत में ही ठिठक जाने की है. मोदी सरकार के एक साल की अनेक शुरुआतें उसी दलदल में धंस गई हैं जिसमें फंसकर पिछले कई प्रयोग बरबाद हुए हैं. स्कीमों के डिजाइन में खामी, क्रियान्वयन तंत्र की कमजोरी, दूरगामी सोच की कमी और स्पष्ट लक्ष्यों का अभाव भारतीय गवर्नेंस की बुनियादी चुनौती है. मोदी को इसी गवर्नेंस में सुधार का जनादेश मिला था. उन्होंने इसमें सुधार का साहस दिखाए बगैर पुराने सिस्टम पर नए मिशन और स्कीमें थोप दीं. यही वजह है कि पहले ही साल में नतीजों की शून्यता, नीयत की भव्यता पर भारी पड़ गई है.
सरकार के एक साल के कामकाज का ब्योरा बनाते हुए केंद्र सरकार के मंत्रालय खासी मुश्किल से दो-चार थे. सरकारी मंत्रालयों को ऐसी उपलब्धियां मुश्किल से मिल पा रही थीं जिन्हें आंकड़ों के साथ स्थापित किया जा सके. कोयला खदानों और स्पेक्ट्रम आवंटन (जो सरकार के सामान्य कामकाज का हिस्सा है) को छोड़कर मंत्रालयों के पास बताने के लिए कुछ ठोस इसलिए नहीं था, क्योंकि तमाम इरादों और घोषणाओं के बावजूद सरकार एक ऐसी स्कीम या सुधार को तरस गई जिसकी उपलब्धि सहज ही महसूस कराई जा सके. मोदी सरकार के सभी अभियानों और स्कीमों की एक सरसरी पड़ताल किसी को भी यह एहसास करा देगी कि स्कीमें न केवल कामचलाऊ ढंग से गढ़ी गईं बल्कि बनाते समय यह भी नहीं देखा गया कि इस तरह के पिछले प्रयोग क्यों और कैसे विफल हुए हैं. सबसे बड़ा अचरज इस बात का है कि एक से अधिक कार्यक्रम ऐसे हैं जिनके साथ न तो क्रियान्यवन योजना है और न लक्ष्य. इसलिए प्रचार का पानी उतरते ही स्कीमें चर्चा से भी बाहर हो गईं. स्वच्छता मिशन का हाल देखने लायक है, जो सड़कों की तो छोड़िए, प्रचार से भी बाहर है. जन उत्साह से जुड़े एक कीमती अभियान को सरकार का तदर्थवाद और अदूरदर्शिता ले डूबी. एक साल में इस मिशन के लिए संसाधन जुटना तो दूर, रणनीति व लक्ष्य भी तय नहीं हो सके. पूरा साल बीत गया है और सरकार विभिन्न एजेंसियों खास तौर पर स्थानीय निकायों को भी मिशन से नहीं जोड़ सकी. नगर निगमों के राजस्व को चुस्त करने की रणनीति के अभाव में गंदगी अपनी जगह वापस मुस्तैद हो गई है जबकि झाड़ू लगाती हुई छवियां नेताओं के घरों में सजी हैं. अब सरकार में कई लोग यह मानने लगे हैं कि इस मिशन से बहुत उम्मीद करना बेकार है. सरकार की सर्वाधिक प्रचारित स्कीम जन धन दूरदर्शिता और सूझबूझ की कमी का शिकार हुई है. यह स्कीम उन लोगों के वित्तीय व्यवहार से तालमेल नहीं बिठा पाई जिनके लिए यह बनी है. 50 फीसदी खाते तो निष्क्रिय हैं, दुर्घटना बीमा और ओवरड्राफ्ट ने कोई उत्साह नहीं जगाया. जब खातों में पैसा नहीं है तो रुपे कार्ड का कोई काम भी नहीं है. स्कीम के नियमों के मुताबिक, पूरा मध्यवर्ग जन धन से बाहर है. दूसरी तरफ, नई बीमा स्कीमें बताती हैं कि पिछले प्रयोगों की असफलता से कुछ नहीं सीखा गया. इन स्कीमों को लागू करने वाला प्रशासनिक तंत्र, बजटीय सहायता और लक्ष्य तो नदारद हैं ही, स्कीमों के प्रावधानों में गहरी विसंगतियां हैं. इनसे मिलने वाले लाभ इतने सीमित हैं (मसलन बीस साल तक योगदान के बाद 60 साल की उम्र पर 1,000 से 5,000 रु. प्रति माह की पेंशन) कि लोगों में उत्साह जगना मुश्किल है. इनके डिजाइन इन्हें लोकप्रिय होने से रोकते हैं जबकि इनकी असंगतियां इन्हें बीमा कंपनियों के लिए बेहतर कारोबारी विकल्प नहीं बनातीं. अपने मौजूदा ढांचे में प्रधानमंत्री का जनसुरक्षा पैकेज लगभग उन्हीं विसंगतियों से लैस है, आम आदमी बीमा, जन श्री, वरिष्ठ पेंशन और स्वावलंबन जैसी करीब आधा दर्जन स्कीमें जिनका शिकार हुई हैं.
मेक इन इंडिया, आदर्श ग्राम, डिजिटल इंडिया जैसे बड़े अभियान भी साल भर के भीतर घिसटने लगे हैं तो इसकी वजह कमजोर मंशा नहीं बल्कि तदर्थ तैयारियां हैं. स्कीमें, मिशन और अभियान न केवल तैयारियों और गठन में कमजोर थे बल्कि इन्हें उसी प्रणाली से लागू कराया गया जिसकी असफलता असंदिग्ध है. अब बारह माह बीतने के बाद सरकार में यह एहसास घर करने लगा है कि न केवल पिछली सरकार की स्कीमों को अपनाया गया है बल्कि गवर्नेंस की खामियों को कॉपी-पेस्ट कर लिया गया है इसलिए सरकार के महत्वाकांक्षी अभियान असहज करने वाले नतीजों की तरफ बढ़ रहे हैं.
नरेंद्र मोदी से ताबड़तोड़ मिशन और स्कीमों के ऐलान की उम्मीद किसी ने नहीं की थी. लोग तो यह समझ रहे थे कि मोदी गवर्नेंस के पुनर्गठन की नई सूझ लेकर आए हैं जिसमें पहले वे इस डायनासोरी सरकारी तंत्र को ठीक करेंगे जिसमें अव्वल तो अच्छी पहल ही मुश्किल है और अगर हो भी जाए तो यह तंत्र उसे निगल जाता है. लेकिन मोदी सरकार ने तो हर महीने एक नई स्कीम और मिशन उछाल दिया जिसे संभालने और चलाने का ढांचा भी तैयार नहीं था. 'मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस' से लोगों ने यही समझा था कि मोदी चुस्त और नतीजे देने वाली सरकार की बात कर रहे हैं, लेकिन एक साल में उनकी ज्यादातर स्कीमों और मिशनों ने मैक्सिमम गवर्नमेंट यानी नई नौकरशाही खड़ी कर दी है और नतीजे उतने ही कमजोर हैं, जितने कांग्रेस के दौर में होते थे. स्कीमों या मिशनों की विफलता नई नहीं है. मुश्किल यह है कि मोदी सरकार के इरादे जिस भव्यता के साथ पेश हुए हैं, उनकी विफलताएं भी उतनी ही भव्य हो सकती हैं. नरेंद्र मोदी को अब किस्म-किस्म की स्कीम व मिशन की दीवानगी छोड़कर गवर्नेंस सुधारने और नतीजे दिखाने का मिशन शुरू करना होगा नहीं तो मोहभंग की भव्यता को संभालना, उनके लिए मुश्किल हो जाएगा.

Tuesday, April 7, 2015

मौके जो चूक गए

मोदी और केजरीवाल दोनों ही तल्ख हकीकत की एक जैसी जमीन पर खड़े हैं. अपेक्षाओं का ज्वार नीचे आया है. नेताओं को महामानव और मसीहा बनाने की कोशिशों पर विराम लगा है.

भारतीय जनता पार्टी में लोकसभा चुनाव से पहले जो घटा था वैसा ही आम आदमी पार्टी में दिल्ली चुनाव के बाद हुआ. फर्क सिर्फ यह था कि आडवाणी के आंसू, सुषमा स्वराज की कुंठा, वरिष्ठ नेताओं का हाशिया प्रवास मर्यादित और शालीन थे जबकि आम आदमी पार्टी में यह अनगढ़ और भदेस ढंग से हुआ, जो गली की छुटभैया सियासत जैसा था. फिर भी भाजपा और आप में यह एकरूपता इतनी फिक्र पैदा नहीं करती जितनी निराशा इस पर होती है कि भारत में नई गवर्नेंस और नई राजनीति की उम्मीदें इतनी जल्दी मुरझा रही हैं और दोनों के कारण एक जैसे हैं. नरेंद्र मोदी बीजेपी में प्रभुत्वपूर्ण राजनीति लेकर उभरे थे इसलिए वे सरकार में अपनी ही पार्टी के अनुभवों का पर्याप्त समावेश नहीं कर पाए जो गवर्नेंस में दूरगामी बदलावों के लिए एक तरह से जरूरी था, नतीजतन उनकी ताकतवर सरकार, वजनदार और प्रभावी नहीं हो सकी. दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल ने सत्ता में पहुंचते ही समावेशी राजनीति की पूंजी गंवा दी, जो उन्हें औरों से अलग करती थी.
आम आदमी पार्टी का विघटन, किसी पारंपरिक राजनीतिक दल में फूट से ज्यादा दूरगामी असर वाली घटना है. यह पार्टी उस ईंट गारे से बनती नहीं दिखी थी जिससे अन्य राजनैतिक दल बने हैं. परिवार, व्यक्ति, पहचान या विचार पर आस्थाएं भारत की पारंपरिक दलीय राजनीति की बुनियाद हैं, जो भले ही पार्टियों को दकियानूसी बनाए रखती हों लेकिन इनके सहारे एकजुटता बनी रहती है. केजरीवाल के पास ऐसी कोई पहचान नहीं है. उनकी 49 दिन की बेहद घटिया गवर्नेंस को इसलिए भुलाया गया क्योंकि आम आदमी पार्टी सहभागिता, पारदर्शिता और जमीन से जुड़ी एक नई राजनीति गढ़ रही थी, जिसे बहुत-से लोग आजमाना चाहते थे. 
'आप' का प्रहसन देखने के बाद यह कहना मुश्किल है कि इसके अगुआ नेताओं में महत्वाकांक्षाएं नहीं थीं या इस पार्टी में दूसरे दलों जैसी हाइकमान संस्कृति नहीं है. अलबत्ता जब आप आदर्श की चोटी पर चढ़कर चीख रहे हों तो आपको राजनीतिक असहमतियों को संभालने का आदर्शवादी तरीका भी ईजाद कर लेना चाहिए. केजरीवाल की पार्टी असहमति के एक छोटे झटके में ही चौराहे पर आ गई जबकि पारंपरिक दल इससे ज्यादा बड़े विवादों को कायदे से संभालते रहे हैं.
दिल्ली की जीत बताती है कि केजरीवाल ने गवर्नेंस की तैयारी भले ही की हो लेकिन एक आदर्श दलीय सियासत उनसे नहीं सधी जो बेहतर गवर्नेंस के लिए अनिवार्य है. दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर लोग केजरीवाल की सीमाएं जानते हैं, अलबत्ता नई राजनीति के आविष्कारक के तौर पर उनसे अपेक्षाओं की फेहरिस्त बहुत लंबी थी. केजरीवाल के पास पांच साल का वक्त है. वे दिल्ली को ठीक-ठाक गवर्नेंस दे सकते हैं लेकिन वे अच्छी राजनीति देने का मौका चूक गए हैं. राजनीतिक पैमाने पर आम आदमी पार्टी  अब सपा, बीजेडी, तृणमूल, डीएमके जैसी ही हो गई है जो एक राज्य तक सीमित हैं. इस नए प्रयोग के राष्ट्रीय विस्तार की संभावनाओं पर संदेह करना जायज है.
केजरीवाल के समर्थक, जैसे आज योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी के लिए गैर जरूरी और बोझ साबित कर रहे हैं, ठीक इसी तरह नरेंद्र मोदी के समर्थक उस वक्त पार्टी की पुरानी पीढ़ी को नाकारा बता रहे थे जब बीजेपी की राष्ट्रीय राजनीति में मोदी युग की शुरुआत हो रही थी. नौ माह में मोदी की लोकप्रियता में जबर्दस्त गिरावट (इंडिया टुडे विशेष जनमत सर्वेक्षण) देखते हुए यह महसूस करना मुश्किल नहीं है कि गवर्नेंस में मोदी की विफलताएं भी शायद उनके राजनीति के मॉडल से निकली हैं जो हाइकमान संस्कृति और पार्टी में असहमति रखने वालों को वानप्रस्थ देने के मामले में कांग्रेस से ज्यादा तल्ख और दो टूक साबित हुआ.
प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी के संकल्प और सदाशयता के बावजूद अगर एक साल के भीतर ही उनकी सरकार किसी आम सरकार जैसी ही दिखने लगी है तो इसकी दो वजहें हैं. एक-मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने गवर्नेंस के लिए कोई तैयारी नहीं की थी और दो-विशाल बहुमत के बावजूद एक प्रभावी सरकार आकार नहीं ले सकी. बीजेपी चुनाव से पहले अपनी सरकार का विजन डाक्यूमेंट तक नहीं बना सकी थी. घोषणा पत्र तो मतदान शुरू होने के बाद आया. चुनाव की ऊभ-चूभ में ये बातें आई गई हो गईं लेकिन सच यह है कि बीजेपी नई गवर्नेंस के दूरदर्शी मॉडल के बिना सत्ता में आ गई क्योंकि गवर्नेंस की तामीर गढऩे का काम ही नहीं हुआ और ऐसा करने वाले लोग हाशिए पर धकेल दिए गए थे. यही वजह है कि सरकार ने जब फैसले लिए तो वे चुनावी संकल्पों से अलग दिखे या पिछली सरकार को दोहराते नजर आए.
सत्ता में आने के करीब साल भर बाद भी मोदी अगर एक दमदार अनुभवी और प्रतिभाशाली सरकार नहीं गढ़ पा रहे हैं जो इस विशाल देश की गवर्नेंस का रसायन बदलने का भरोसा जगाती हो तो शायद इसकी वजह भी उनका राजनीतिक तौर तरीका है. मोदी केंद्र में गुजरात जैसी गवर्नेंस लाना चाहते थे पर दरअसल वे बीजेपी को चलाने का गुजराती मॉडल पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति में ले आए, जो सबको साथ लेकर चलने में यकीन ही नहीं करता या औसत टीम से खेलने को बहादुरी मानता है. एनडीए की पिछली सरकार का पहला साल ही नहीं बल्कि पूरा कार्यकाल दूरदर्शी फैसलों से भरपूर था. विपरीत माहौल और गठजोड़ की सरकार में अटल बिहारी वाजपेयी इतना कुछ इसलिए कर सके क्योंकि उनके पास गवर्नेंस का स्पष्ट रोड मैप था और उन्हें सबको सहेजने, सबका सर्वश्रेष्ठ सामने लाने की कला आती थी.
राजनीति और गवर्नेंस गहराई से गुंथे होते हैं. मोदी और केजरीवाल इस अंतरसंबंध को कायदे से साध नहीं सके. अब दोनों ही तल्ख हकीकत की एक जैसी जमीन पर खड़े हैं. अपेक्षाओं का ज्वार नीचे आया है. नेताओं को महामानव और मसीहा बनाने की कोशिशों पर विराम लगा है. मोदी और केजरीवाल के पास उद्घाटन के साथ ही कड़वी नसीहतों का अभूतपूर्व खजाना जुट गया है. सरकारों की शुरुआत बेहद कीमती होती है क्योंकि कर दिखाने के लिए ज्यादा समय नहीं होता. मोदी और केजरीवाल ने गवर्नेंस और सियासत की शानदार शुरुआत का मौका गंवा दिया है, फिर भी, जब जागे तब सवेरा.